संत कवियत्री मीराबाई

संत कवियत्री मीराबाई

वेदों में कहा गया है शुचिनाम श्रीमंताम गृहे योग भ्रष्ट जीव ही जाता है। गीता के कर्म के सिद्धांत के अनुसार कर्म फल के अनुरूप ही जन्म मिलता है। लेकिन इनमें अपवाद रूप ऐसे हमारे ऋषि मुनि भी है, क्योंकि वो तो समाज की जागृति की जरूरत के मुताबिक इस धरा पर भगवान का काम करने के लिए आए हुए होते हैं। लेकिन हमारे संत पुरुष जिनको भगवान ने कुछ विशेष उपहारों के साथ अपना मेंटल हेल्थ बनाए दूसरो को भी इसी राह की प्रेरणा देते रहने के लिए भेजा हुआ होता है। ये लोग खुद काँटों भरी राह चलकर, दूसरों के लिए एक सुंदर आसान ऐसा राजमार्ग बनाते चलते जाते हैं, ताकि दूसरों को वह डगर पर चलना आसान हो। आज हम मानते हैं लोग जितना ज्यादा पढ़े लिखे होंगे उतना ही उनका जीवन भी उत्कृष्ट होगा। लेकिन हम यह भूल जाते है की हमारे समाज के ज्यादातर संत महापुरुष कही पढने भी नहीं जा पाए थे, किंतु उनके रचित छंद, दोहे, अभंग, भजन चौपाई आदि के विषय लेकर आज के विश्वविद्यालयों मे पीएचडी की जाती है। फिर उसमें अच्छे अंक के साथ कोई ऊँचे आहदे पर आता है, तब वही बंदा कहता है, वेर इज गॉड? यह बात कहते वह यह भूल जाता है कि, जिस गॉड ने उसे यह बुद्धि दी है, जिसकी बदौलत वो  यह बोल पाता है। शायद ऐसे ही बात समझाने की कोशिश राजस्थान जोधपुर के मेड़ता (कुडकी) आज के राजस्थान के पाली जिले में, इ.स. 1498 में जन्मी मीराबाई थी। जिनका नाम कृष्ण भक्ति के साथ जुड़ा हुआ है। जिनके भजन आज भी लोगों को जीवन जीने की प्रेरणा देते है। उनके ज्यादातर भजन मारवाड़ी में या व्रज भाषा में मिलते हैं।

उदयपुर के स्थापक राव राठोड के वंशज और सिसोदिया राज परिवार में दूदाजी के चौथे पुत्र रतन सिंह के घर में उनका जन्म हुआ था। मंडसौर गांव बसने वाले राव जोधाजी के पुत्र राव दुदाजी थे। उनकी मेडतिया जहांगीर के राठोड राव रतन सिंह की पुत्री मीराबाई थी। कहा जाता है कि एक बार मीराबाई अपनी दादी के साथ कृष्ण मंदिर आई थी, वहा एक नव विवाहित जोड़ा दर्शन के लिए आया था। उन्हें देख मीराबाई ने बाल सहज भाव से अपनी दादी को पूछा यह कौन है? तब दादी ने कहा वो दूल्हा दुल्हन है। आप जब बड़ी होगी तो आपका भी दूल्हा आएगा। लेकिन उसने अपने दुल्हे से मिलने की जिद पकड़ी, तब दादी ने उन्हें कान्हा की मूर्ति दिखाई और कहा यह तेरा दूल्हा है। तत पश्चात उनके घर एक साधू आए थे उन्होंने मीरा को एक कृष्ण की मूर्ति भेट दी। वह मूर्ति उसे (मीरा) बहुत भा गई। और उन्होंने अपनी दादी के कहने के मुताबिक उसी कृष्ण की मूर्ति को अपना पति मान लिया। उनकी पूरी दुनिया उसी कन्हा के इर्द गिर्द घुमने लगी आगे चलकर उन्होंने आजीवन कृष्ण को अपना सखा प्रेमी और पति बनाने का निर्णय किया। बचपन के उनके इसी अभिगम को उन्हें ताउम्र निभाया, उसके चलते उनके जीवन में बहुत से झंझावात भी निर्माण हुए, किंतु हर हालात में उन्होंने कृष्ण भक्ति कदापि नहीं त्यागी इतना हीं नहीं उन्होंने दूसरो को भी इसी राह पर चलने की प्रेरणा दी।

उदयपुर चित्तौड़ के राणा सांगा के पुत्र महाराणा कुमार भोज के साथ उनका बचपन में ही विवाह हो गया था। बचपन से ही कृष्ण भक्ति में लीन और कृष्ण को ही अपना पति मानने वाली मीरा को, उन्हीं के आग्रह पर और महाराणी मीरा भजन के लिए गांव के मदिरो में न जाए, इस वजह से महल में ही राणा भोज ने, उनके लिए कृष्ण मंदिर बनवा दिया। लेकिन मंदिर बनते ही उसमें दूर दूर से साधू संतों का आना जाना शुरू हो गया। यह बात उनके देवर राणाजी को पसंद नहीं थी, उनके साथ उधजी ने भी मीरा को बहुत समझाया किंतु वह तो धीरे-धीरे कृष्ण भक्ति में लीन होकर वैराग्य की ओर बढ़ने लगी थी।

इसी बीच 1529 में दिल्ली पति के साथ हुई लड़ाई में, महाराणा भोज का मृत्यु हो गया और बीस साल की उमर में ही मीरा विधवा हो गई। समाज की दृष्टी से। लेकिन उन्होंने उस वक्त के प्रथा के अनुसार सती होने से इंकार कर दिया और सुहाग की निशानीयां भी नहीं उतारी, क्योंकि उनके पति तो गिरधर गोपाल थे फिर वह विधवा कैसे हो सकती थी! किंतु समाज के लोग उनको ढोंगी और पाखंडी मानने लगे और संस्यासी समाज धुत्कारने लगे थे। जिन बातों को बढ़ावा जब खुद उनके देवर राणाजी ही दे रहे हो, वहां गुहार लगाए भी तो किसको। कहते है राणाजी ने उन्हें दूध में जहर पिलाने की कोशिश की लेकिन, जहर भी कान्हा ने अमृत बना दिया। एक बार कान्हा को पहनाने के फूल की माला में साप डाल दिया था, लेकिन वह भी माला बन गया। ऐसे अगणित कथाएं उनके बारे में प्रचलित है। हमारे वेद कहते है की, आप अगर भगवान पर पूर्ण भरोसा करते हों और उसकी हाथों में ही अपनी जीवन नैया सौंप देते हैं, तभी सब बातों की जिम्मेदारी उसकी होती है। वह परीक्षा भी बहुत लेता है, लेकिन उसमें से निकालने का रास्ता भी वही दिखाता है। जब अपने जीवन के अठारह उन्नीस साल अपने मइके रहकर आई, लड़की शादी के बाद अपने ससुराल आती है, तब वह यह नहीं सोचती कल से उसका खर्चा पानी खाने पीने का क्या होगा उसको अपने पति पर पूरा भरोसा है। वैसा एक भक्त को अपने भगवान पर होता है। उसे पता है हर हाल में वह उसके साथ ही है, फिर डरने की क्या जरूरत है!

घर और समाज के लोगों की अनंत वेदनाओं से तंग आकर आखिर मीराबाई ने मेवाड़ त्याग, अपने कान्हा की कर्म भूमि वृंदावन की राह पकड़ ली, और अपनी कर्म भूमि इसी को बना ली। कहते है यहां उन्हें उनके गुरु संत रविदास की भेंट हुई। जिनकी बातों का बहुत गहरा असर उनके भजन और कविताओं पर देखने को मिलता है। उनका उल्लेख भी बहुत जगह करती हुई दिखाई देती है मीरा जी। इस काल में उनके समकालीन थे गोस्वामीजी, उनसे आध्यात्मिक चर्चा की इच्छा मीरा ने जताई लेकिन वो ब्रह्मचारी थे। इसलिए उन्होंने दूसरी स्त्री से बात करने को मना कर दिया। किंतु मीरा की दृष्टि से तो कान्हा ही विश्व के श्रेष्ठ पुरुषों थे, उनकी तुलना में दूसरा कोई नहीं था, उनकी नजरों में। उनके गुरु रविदास उन्हें कृष्ण प्रेम में पागल गोपी का पुनर्जन्म मानते थे। मीरा ने अपने स्व रचित भजन और गीत खुद सुनाते, गाते तीर्थयात्र करते अपनी जिन्दगी का आखरी पड़ाव भगवान कृष्ण के राज्य द्वारिकाधीश की नगरी द्वारिका में पूरा किया। कहते है द्वारिका मूर्ति के आगे भजन गाते, उन्हें सुनाते उनकी मूर्ति में सन 1557 में द्वारिका में उनकी आत्मा उन्हीं मे लीन हो गई। मीराबाई को वैष्णव भक्ति संप्रदाय की उपासक माना जाता है। वो एक उत्कृष्ट कवियत्री भी थी। ऐसी महान थी, कृष्ण प्रेम की दीवानी संत मीराबाई।

 

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