संत एकनाथ महाराज

समाज में जब जब भ्रांत और पंगु भक्ति अपने पैर पसारने लगती है, तब-तब उस काल में धर्म और भक्ति को बचाने के लिए लिए भगवान किसी न किसी रुप में अवतरित होते हैं। जब तक काम उनके संत या ऋषि मुनियों से हो जाता है, तब तब उन्हीं के माध्यम से अपना काम सही करा लेते है। उस वक्त वो जीव भगवान पर उपकार हेतु इस धरा पर आता है। ऐसा ही एक व्यक्तित्व ऐसे ही एक संत महापुरुष महाराष्ट्र की धरती पर जन्मे जिनका नाम था संत एकनाथ। जिनके घर पर भगवान खुद शिखंडयो बनकर काम करने आये थे। जिनका आंगन साफ करने माँ गोदावरी (महाराष्ट्र नासिक के पास की नदी) खुद स्त्री वेश में आती थी। ऐसे महान संत पुरुष थे संत एकनाथ। सच में जन सामान्य के एकमेव नाथ थे वो।

समयांतर काल पर जब-जब दुराचितो का प्रभाव बढ़ता है तब-तब तत्कालीन समाज में रहते सात्विक लोग प्रभु को धर्म की रक्षा के लिए आह्वान करते है और उसके परिपाक से ऐसे संत महापुरुष जन्म लेते है। कोई भी चीज पाना जितना आसान नहीं होता भगवान को इस धरा पर उतारना। उसके लिए भी इक्ष्वाकु कुल की तरह चार पांच पीढ़ी तपश्चर्या करनी पड़ती है। तब जाकर राम का जन्म होता है। इसी तरह एकनाथ के लिए उनके परदादा भानुदास की प्रबल इच्छा थी की उनकी आने वाली पीढ़ी में भगवान जन्म ले। उसी तरह वे कार्य भी करते थे। भानुदास की इच्छा के अनुसार उनके पुत्र चक्रपानी ने भी आगे वाही कम बढ़ाया। वही कार्य उनके बेटे सूर्यपानी और उनकी पत्नी रुक्मिणी बाई ने आगे बढाया। तब उनके यहां एकनाथ का जन्म हुआ। पर नियति को शायद कुछ और मंजूर था। एकनाथ दस साल के हुए और उनके माता पिता का देहावसान हो गया। छोटी आयु में ही माँ के सुख से विमुख हो गए। और उनकी परवरिश की जिम्मेदारी दादा चक्रपानी और दादी सरस्वती पर आ गई।

लेकिन चक्रपानी को अपने दादा की बातें याद थी इसी कारण उन्होंने अपने पोते एकनाथ को शिक्षा देने में कोई कसर नहीं छोड़ी। यह सारी बातें आज से लगभग 600 साल पहले यानि इ.स. 1500 की है। दादा दादी की देखभाल में समय के साथ 6 साल के एक नाथ हो गए। तब उन्हें यज्ञोपवित देकर पैठन गांव में एक ही पंडित थे, जिनके पास उनको पढ़ने भेजा गया। लेकिन उनकी बुद्धिमता और उनके पढ़ने की तीव्रता देखकर चौदह साल तक तो उन्होंने सारा ज्ञान प्राप्त कर लिया। फिर वो पंडित जी चक्रपानी के पास आकर बोले अब मेरे पास एकनाथ को पढ़ाने के लिए अब कुछ नहीं बचा है। तब एकनाथ गांव के बाहर एक पुराना शिव मंदिर था वहां हर रोज जाया करते और घंटो मंदिर में बैठ शिवलिंग से बाते करते। उनकी इतनी उम्र भी नहीं थी की वो दूसरो को पढ़ा सकें। एक दिन शिवलिंग से बाते करते-करते वो शिवलिंग पर सर रखकर सो गए। तब शिवजी ने उन्हें सपने में आकर कहा आगे तुझे ज्ञान चाहिए तो देवगिरी पर्वत पर जनादर्न स्वामी है तू उनके पास जा वहीं तुझे आगे का रास्ता और ज्ञान देंगे। घर आकर दादा दादी से यह बात नहीं कर सकते थे वे आज्ञा नहीं देते वह जाने की। इसलिए रात को ही चुपचाप उनके सो जाने के बाद उनके पाव छूकर वो देवगिरी के लिए निकल गए।

हमारे मन में एक भ्रांत कल्पना है कि भगवान का भक्त या संत यानि गरीब, दुखी फटे हाल ही होता है। किंतु यह सत्य नहीं है। जनादर्न स्वामी विद्वान् होने के साथ शस्त्र विद्या में भी पारगंत थे। वे ऋग्वेदी ब्राह्मण होने के साथ ज्ञानी और शुर होने के साथ वे दुर्ग देवगिरी के स्वामी थे। उनके यहा कई श्रीमंत लोक हिसाब किताब लिखने के लिए आते थे। देवगिरी परगने के न्यायाधीश, श्रीमंत और मुगल बादशाह के वे सेनापति भी थे। उनकी इच्छा के बिना वहां पत्ता भी नहीं हिल सकता था। वैसे प्रतिभावान थे स्वामी जनादर्न जिनको साक्षात् भगवान दतात्रेय मिलने आते थे। उनके पास जब एकनाथ पहुंचे तो उनकी मासूमियत और उनकी निष्ठा देख के उनका शिष्यत्व कबूल कर उनको तरासना शुरू किया। धीरे-धीरे उनमें वो सारे गुण संक्रांत होने शुरू हो गए। ज्ञान के साथ शस्त्र तालीम भी उन्होंने हासिल की। उनके गुरु ने उन्हें सिखाया था की पैसे की तरह जीवन में कर्मों की भी कोई चुक नहीं होनी चाहिए। तभी जीवन पारदर्शक और उच्च बनेगा। जनार्दन स्वामी ने उन्हें एक बार भगवान दतात्रेय से भी मिलवाया था। उन्होंने गुरु द्वारा ली गई हर परीक्षा सफलतापूर्ण की। और तब गुरु ने उन्हें भगवान से मिलाया। फिर वो अपने गुरु के साथ सभी जगह तीर्थयात्र में निकले जिनमें गुरु के आदेश पर वह महाभारत, रामायण भागवद आदि का पाठ करते और लोगों को उसका मर्मिक्तत्व समझाते। ऐसे बारह वर्ष बीत गए। एक दिन वे लोग वापस पैठण में गोदावरी के तट पर आए।

जहां उनको वापस अपने दादा चक्रपानी और दादी सरस्वती मिले उनके पैर छु लिए। तब दादा ने उनके हाथो में उनके गुरु का भेजा हुआ पत्र थमाया और वह पैठन में यहीं रुक गए। यही उन्होंने दादा दादी के साथ रह कर  ज्ञान की गंगा बहाई। धीरे-धीरे उनकी कीर्ति आस-पास के गांव में फैलने लगी, दूर दूर तक उनकी सुगंध जाने लगी। वो देवगिरी तक पहुंच गई। तब उनसे मिलने उनके गुरु जनार्दन स्वामी और मुगल बादशाह आने के लिए निकले, तब पैठण में एकादशी का पर्व मनाने की तैयारियां चल रही थी। जब वे लोग गांव में आए तो जनार्दन स्वामी ने देखा उनके यहां जो लोग काम कर रहे थे उनके खुद भगवान भी आए हुए थे। यह पावन दृश्य देख स्वामी भी धन्य हो गए, पर्व का समारोह पूरा होने पर उनके दादा ने एकनाथ की शादी के बारे में कहा। तब वहा विजापुर के एक धनाढड्ढ व्यवसाय के लिए वहां आए थे उन्होंने कहा मैं अपनी कन्या गिरिजा का हाथ एकनाथ के हाथों देने को राजी हूं। तभी मुगल बादशाह ने एकनाथ के नाम 5 राज्य कर दिए। और ऐसे चल पड़ी एकनाथ और गिरिजा बाई का सांसारिक जीवन। यह सब देख उस उत्सव में आया हुआ एक उद्धव नामक युवान एकनाथ का शिष्य बन गया। यहीं गिरिजा बाई और उद्धव के पहियों पर एकनाथ की गाड़ी चल पड़ी। आस पास के गांव के लोग वहां आते और वहा से सुकून पाकर अपने आप को धन्य बनाकर वहां से वापस लौटते। कब कितने बजे कितने लोग वहां खाना खायेंगे यह पता ही नहीं चलता था। इसी कारण कोई भी काम करने को टिकता ही नहीं था। तब भगवान आए भक्त की मदद करने हेतु उनका नौकर बन कर उनके घर में रहे और सब काम करने लगे। धन्य है वो संत जिनके यहा भगवान खुद काम करने आये थे।

एकनाथ ने समाज में लोगों का जीवन उत्कृष्ट बने इसके लिए वारकरी लोग तैयार किए जो गांव गांव जाकर लोगों का जीवन जीने का तरीका सिखाने लगे भगवान को थैंक्यु बोलना सिखाने लगे थे। आज भी महाराष्ट्र में वारकरी संप्रदाय है जो यही काम करता है। उनकी यही परम्परा उनके बेटे हरी पंडित ने आगे बढ़ाई। आज भी यह परम्परा चालू है।

 

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