शारदीय नवरात्र में दशहरा और रामलीलाओं का अद्भुत संयोग है। रामलीला के बिना दशहरा उत्सव को न तो समझा जा सकता है और नहीं इसको अनुभव किया जा सकता है। भारत ही नहीं बल्कि दुनिया में कई ऐसे देश हैं जहां रामलीलाओं का आयोजन प्रतिवर्ष होता है। भारत तो भगवान् श्रीराम की अपनी भूमि है इसलिए उनके जीवन लीला का गान बहुत ही स्वाभाविक है। भारत का शायद की कोई नगर हो जहां रामलीला न होती हो। सभी का अपना इतिहास है और उसी के अनुरूप महत्त्व भी। दशहरा और रामलीला के बारे में बहुत कुछ लिखा जा चुका है और हर साल लिखा जाता है। इससे पहले की रामलीला की चर्चा की जाय , पहले दशहरा को समझने की कोशिश करते हैं।
दशहरा उत्सव
दशहरा उत्सव की उत्पत्ति के विषय में कई मान्यताएं और अवस्थापनाएँ निर्धारित हैं। भारत सहित विश्व के कतिपय भागों में नये अन्नों की हवि देने, द्वार पर धान की हरी एवं अनपकी बालियों को टाँगने तथा गेहूँ आदि को कानों, मस्तक या पगड़ी पर रखने के कृत्य होते हैं। अत: कुछ लोगों का मत है कि यह कृषि का उत्सव है। कुछ लोगों के मत से यह रणयात्रा का द्योतक है, क्योंकि दशहरा के समय वर्षा समाप्त हो जाती है, नदियों की बाढ़ थम जाती है, धान आदि कोष्ठागार में रखे जाने वाले हो जाते हैं। सम्भवत: यह उत्सव इसी दूसरे मत से सम्बंधित है। भारत के अतिरिक्त अन्य देशों में भी राजाओं के युद्ध प्रयाण के लिए यही ऋतु निश्चित थी। शमी पूजा भी प्राचीन है। वैदिक यज्ञों के लिए शमी वृक्ष में उगे अश्वत्थ (पीपल) की दो टहनियों (अरणियों) से अग्नि उत्पन्न की जाती थी। अग्नि शक्ति एवं साहस की द्योतक है, शमी की लकड़ी के कुंदे अग्नि उत्पत्ति में सहायक होते हैं। जहाँ अग्नि एवं शमी की पवित्रता एवं उपयोगिता की ओर मंत्रसिक्त संकेत हैं। इस उत्सव का सम्बंध नवरात्र से भी है क्योंकि इसमें महिषासुर के विरोध में देवी के साहसपूर्ण कृत्यों का भी उल्लेख होता है और नवरात्र के उपरांत ही यह उत्सव होता है। दशहरा या दसेरा शब्द ‘दश’ (दस) एवं ‘अहन्’ से ही बना है। भारत वर्ष के अलावा दुनिया के अन्य कई देशों में दशहरा उत्सव किसी न किसी रूप में मनाये जाने का चलन है। कई देशों में रामलीलाओं का मंचन प्रमुख आकर्षण होता है। कम्बोडिया , मारीशश , त्रिनिदाद , थाईलैंड , मलेशिया ब्रिटैन और अमेरिका में भी दशहरा उल्लास के साथ मनाया जाता है। अब तो दुनिया के लगभग उन सभी देशों में जहाँ भारतीय मूल के लोग पहुंचे हैं , दसहरा मनाया जाने लगा है।
सनातन शास्त्रों में दशहरा
शास्त्र कहते हैं कि आश्विन शुक्ल दशमी को विजयदशमी का त्योहार होता है। इसका विशद वर्णन हेमाद्रि , सिंधुनिर्णय, पुरुषार्थचिंतामणि, व्रतराज, कालतत्त्वविवेचन, धर्मसिंधु आदि में किया गया है। कालनिर्णय के मत से शुक्ल पक्ष की जो तिथि सूर्योदय के समय उपस्थित रहती है, उसे कृत्यों के सम्पादन के लिए उचित समझना चाहिए और यही बात कृष्ण पक्ष की उन तिथियों के विषय में भी पायी जाती है जो सूर्यास्त के समय उपस्थित रहती हैं। हेमाद्रि ने विद्धा दशमी के विषय में दो नियम प्रतिपादित किये हैं-
वह तिथि, जिसमें श्रवण नक्षत्र पाया जाए, स्वीकार्य है। वह दशमी, जो नवमी से युक्त हो।यदि दशमी नवमी तथा एकादशी से संयुक्त हो तो नवमी स्वीकार्य है, यदि इस पर श्रवण नक्षत्र ना हो।
स्कंद पुराण में आया है- ‘जब दशमी नवमी से संयुक्त हो तो अपराजिता देवी की पूजा दशमी को उत्तर पूर्व दिशा में अपराह्न में होनी चाहिए। उस दिन कल्याण एवं विजय के लिए अपराजिता पूजा होनी चाहिए।
यह द्रष्टव्य है कि विजयादशमी का उचित काल है, अपराह्न, प्रदोष केवल गौण काल है। यदि दशमी दो दिन तक चली गयी हो तो प्रथम (नवमी से युक्त) अवीकृत होनी चाहिए। यदि दशमी प्रदोष काल में (किंतु अपराह्न में नहीं) दो दिन तक विस्तृत हो तो एकादशी से संयुक्त दशमी स्वीक्रत होती है। जन्माष्टमी में जिस प्रकार रोहिणी मान्य नहीं है, उसी प्रकार यहाँ श्रवण निर्णीत नहीं है। यदि दोनों दिन अपराह्न में दशमी ना अवस्थित हो तो नवमी से संयुक्त दशमी मान ली जाती है, किंतु ऐसी दशा में जब दूसरे दिन श्रवण नक्षत्र हो तो एकादशी से संयुक्त दशमी मान्य होती है। ये निर्णय, निर्णय सिंधु के हैं। अन्य विवरण और मतभेद भी शास्त्रों में मिलते हैं।
विजयादशमी वर्ष की तीन अत्यंत शुभ तिथियों में से एक है, अन्य दो हैं – चैत्रमाह की शुक्ल पक्ष की दशमी और कार्तिक माह की शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा। इसीलिए भारतवर्ष में बच्चे इस दिन अक्षरारम्भ करते हैं, इसी दिन लोग नया कार्य आरम्भ करते हैं, भले ही चंद्र आदि ज्योतिष के अनुसार ठीक से व्यवस्थित ना हों, इसी दिन श्रवण नक्षत्र में राजा शत्रु पर आक्रमण करते हैं, और विजय और शांति के लिए इसे शुभ मानते हैं।
प्रमुख अनुष्ठान एवं कार्य पूजा
इस शुभ दिन के प्रमुख कृत्य हैं- अपराजिता पूजन, शमी पूजन, सीमोल्लंघन (अपने राज्य या ग्राम की सीमा को लाँघना), घर को पुन: लौट आना एवं घर की नारियों द्वारा अपने समक्ष दीप घुमवाना, नये वस्त्रों एवं आभूषणों को धारण करना, राजाओं के द्वारा घोड़ों, हाथियों एवं सैनिकों का नीराजन तथा परिक्रमणा करना। दशहरा या विजयादशमी सभी जातियों के लोगों के लिए महत्त्वपूर्ण दिन है, किंतु राजाओं, सामंतों एवं क्षत्रियों के लिए यह विशेष रूप से शुभ दिन है। धर्मसिंधु में अपराजिता की पूजन की विधि संक्षेप में इस प्रकार है- “अपराह्न में गाँव के उत्तर पूर्व जाना चाहिए, एक स्वच्छ स्थल पर गोबर से लीप देना चाहिए, चंदन से आठ कोणों का एक चित्र खींच देना चाहिए, संकल्प करना चहिए – “मम सकुटुम्बस्य क्षेमसिद्ध्यर्थमपराजितापूजनं करिष्ये; राजा के लिए – ” मम सकुटुम्बस्य यात्रायां विजयसिद्ध्यर्थमपराजितापूजनं करिष्ये”।
इसके उपरांत उस चित्र (आकृति) के बीच में अपराजिता का आवाहन करना चाहिए और इसी प्रकार उसके दाहिने एवं बायें जया एवं विजया का आवाहन करना चहिए और ‘साथ ही क्रियाशक्ति को नमस्कार’ एवं ‘उमा को नमस्कार’ कहना चाहिए। इसके उपरांत “अपराजितायै नम:, जयायै नम:, विजयायै नम:, मंत्रों के साथ अपराजिता, जया, विजया की पूजा 16 उपचारों के साथ करनी चाहिए और यह प्रार्थना करनी चाहिए, ‘हे देवी, यथाशक्ति जो पूजा मैंने अपनी रक्षा के लिए की है, उसे स्वीकर कर आप अपने स्थान को जा सकती हैं। राजा के लिए इसमें कुछ अंतर है। राजा को विजय के लिए ऐसी प्रार्थना करनी चाहिए – ‘वह अपाराजिता जिसने कंठहार पहन रखा है, जिसने चमकदार सोने की मेखला (करधनी) पहन रखी है, जो अच्छा करने की इच्छा रखती है, मुझे विजय दे,’ इसके उपरांत उसे उपर्युक्त प्रार्थना करके विसर्जन करना चाहिए। तब सबको गाँव के बाहर उत्तर पूर्व में उगे शमी वृक्ष की ओर जाना चाहिए और उसकी पूजा करनी चाहिए। शमी की पूजा के पूर्व या या उपरांत लोगों को सीमोल्लंघन करना चाहिए। कुछ लोगों के मत से विजयादशमी के अवसर पर राम और सीता की पूजा करनी चाहिए, क्योंकि उसी दिन राम ने लंका पर विजय प्राप्त की थी। राजा के द्वारा की जाने वाली पूजा का विस्तार से वर्णन हेमाद्रि,तिथितत्त्व में वर्णित है। निर्णय सिंधु एवं धर्मसिंधु में शमी पूजन के कुछ विस्तार मिलते हैं। यदि शमी वृक्ष ना हो तो अश्मंतक वृक्ष की पूजा की जानी चाहिए।
पौराणिक मान्यताएँ
पौराणिक आख्यानों में कही कही यह आता है कि इस अवसर पर कहीं कहीं भैंसे या बकरे की बलि दी जाती है। भारत में स्वतंत्रता प्राप्ति के पूर्व देशी राज्यों में, यथा बड़ोदा, मैसूर आदि रियासतों में विजयादशमी के अवसर पर दरबार लगते थे और हौदों से युक्त हाथी दौड़ते तथा उछ्लकूद करते हुए घोड़ों की सवारियाँ राजधानी की सड़कों पर निकलती थीं और जुलूस निकाला जाता था। प्राचीन एवं मध्य काल में घोड़ों, हाथियों, सैनिकों एवं स्वयं का नीराजन उत्सव राजा लोग करते थे। कालिदास ने वर्णन किया है कि जब शरद ऋतु का आगमन होता था तो रघु ‘वाजिनीराजना’ नामक शांति कृत्य करते थे। वराह ने वृहत्संहिता में अश्वों, हाथियों एवं मानवों के शुद्धियुक्त कृत्य का वर्णन विस्तार से किया है। निर्णयसिंधु ने सेना के नीराजन के समय मंत्रों का उल्लेख यूँ किया है- ‘हे सब पर शासन करने वाली देवी, मेरी वह सेना, जो चार भागों (हस्ती, रथ, अश्व एवं पदाति) में विभाजित है, शत्रुविहीन हो जाए और आपके अनुग्रह से मुझे सभी स्थानों पर विजय प्राप्त हो।
तिथितत्त्व में ऐसी व्यवस्था है कि राजा को अपनी सेना को शक्ति प्रदान करने के लिए नीराजन करके जल या गोशाला के समीप खंजन को देखना चाहिए और उसे निम्न मन्त्र से सम्बोधित करना चाहिए, “खंजन पक्षी, तुम इस पृथ्वी पर आये हो, तुम्हारा गला काला एवं शुभ है, तुम सभी इच्छाओं को देने वाले हो, तुम्हें नमस्कार है। तिथितत्त्व ने खंजन के देखे जाने आदि के बारे में प्रकाश डाला है। वृहत्संहिता ने खंजन के दिखाई पड़्ने तथा किस दिशा में कब उसका दर्शन हुआ आदि के विषय में घटित होने वाली घटनाओं का उल्लेख किया है। मनुस्मृति एवं याज्ञवल्क्य स्मृति ने खंजन को उन पक्षियों में परिगणित किया है जिन्हें नहीं खाना चाहिए।
विजयादशमी के दस सूत्र
दस इन्द्रियों पर विजय का पर्व है।
असत्य पर सत्य की विजय का पर्व है।
बहिर्मुखता पर अंतर्मुखता की विजय का पर्व है।
अन्याय पर न्याय की विजय का पर्व है।
दुराचार पर सदाचार की विजय का पर्व है।
तमोगुण पर दैवीगुण की विजय का पर्व है।
दुष्कर्मों पर सत्कर्मों की विजय का पर्व है।
भोग पर योग की विजय का पर्व है।
असुरत्व पर देवत्व की विजय का पर्व है।
जीवत्व पर शिवत्व की विजय का पर्व है।
वनस्पति पूजन
विजयदशमी पर दो विशेष प्रकार की वनस्पतियों के पूजन का महत्त्व है-
एक है शमी वृक्ष, जिसका पूजन रावण दहन के बाद करके इसकी पत्तियों को स्वर्ण पत्तियों के रूप में एक-दूसरे को ससम्मान प्रदान किया जाता है। इस परंपरा में विजय उल्लास पर्व की कामना के साथ समृद्धि की कामना करते हैं।
दूसरा है अपराजिता (विष्णु-क्रांता)। यह पौधा अपने नाम के अनुरूप ही है। यह विष्णु को प्रिय है और प्रत्येक परिस्थिति में सहायक बनकर विजय प्रदान करने वाला है। नीले रंग के पुष्प का यह पौधा भारत में सुलभता से उपलब्ध है। घरों में समृद्धि के लिए तुलसी की भाँति इसकी नियमित सेवा की जाती है
रामलीला
दशहरा उत्सव में रामलीला अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। रामलीला में राम, सीता और लक्ष्मण की जीवन का वृत्तांत का वर्णन किया जाता है। रामलीला नाटक का मंचन देश के विभिन्न क्षेत्रों में होता है। यह देश में अलग अलग तरीक़े से मनाया जाता है। बंगाल और मध्य भारत के अलावा दशहरा पर्व देश के अन्य राज्यों में क्षेत्रीय विषमता के बावजूद एक समान उत्साह और शौक़ से मनाया जाता है। उत्तरी भारत में रामलीला के उत्सव दस दिनों तक चलते रहते हैं और आश्विन माह की दशमी को समाप्त होते हैं, जिस दिन रावण एवं उसके साथियों की आकृति पुतले के रूप में जलायी जाती है। इसके अतिरिक्त इस अवसर पर और भी कई प्रकार के कृत्य होते हैं, यथा हथियारों की पूजा, दशहरा या विजयादशमी से सम्बंधित वृत्तियों के औज़ारों या यंत्रों की पूजा। दशहरा पर्व को मनाने के लिए जगह जगह बड़े मेलों का आयोजन किया जाता है। यहाँ लोग अपने परिवार, दोस्तों के साथ आते हैं और खुले आसमान के नीचे मेले का पूरा आनंद लेते हैं। मेले में तरह तरह की वस्तुएँ, चूड़ियों से लेकर खिलौने और कपड़े बेचे जाते हैं। इसके साथ ही मेले में व्यंजनों की भी भरमार रहती है। यहां उत्तरप्रदेश की कुछ प्रमुख रामलीलाओं के बारे में चर्चा करना उचित होगा।
रामनगर (काशी ) की रामलीला
नवरात्रि के दौरान देश की सबसे प्राचीन नगरी कहे जाने वाले वाराणसी में अलग ही तरह का अनुभव मिलता है। वाराणसी की रामलीला देश भर में काफी प्रसिद्ध है और इसे देखने के लिए दूर-दूर से लोग पहुंचते हैं। आम रामलीलाओं से अलग यह रामलीला पूरे एक महीने तक चलती है और इसमें रामायण के बारे में काफी विस्तार से उल्लेख होता है।साल 1783 में रामनगर में रामलीला की शुरुआत काशी नरेश उदित नारायण सिंह ने की थी। यह रामलीला आज भी उसी अंदाज़ में होती है और यही इसे और जगह होने वाली रामलीला से अलग करता है. इसका मंचन रामचरितमानस के आधार पर अवधी भाषा में होता है। रामनगर की रामलीला पेट्रोमेक्स और मशाल की रोशनी में अपनी आवाज़ के दम पर होती है|
बीच-बीच में ख़ास घटनाओं के वक़्त आतिशबाज़ी ज़रूर देखने को मिलती है। अनंत चतुर्दशी के दिन रामलीला का आरंभ होता है और इसका समापन एक माह बाद पू्र्णमासी के दिन खत्म होता है। नवरात्रि के दौरान धार्मिक अनुष्ठान के संपूर्ण विधान सहेजने वाली विश्व प्रसिद्ध रामनगर की रामलीला को खास बनारसी अंदाज में दुनिया भर के मेहमान देखते हैं। नदी किनारे होने वाली इस रामलीला को किसी स्टेज पर नहीं बल्की दूर दूर तक फैले घाट और शहर में आयोजित किया जाता है। 235 साल से चली आ रही इस रामलीला में हर एक दृश्य के लिए अलग स्थान को चुना जाता है। जैसे अगर रामलीला में अयोध्या दिखाना है तो उसकी जगह अलग होगी, लंका दिखाना है तो उसका स्थान अलग होगा। इसी प्रकार स्वयंवर और युद्धक्षेत्र के सीन भी अलग जगहों पर किये जाते हैं। इस रामलीला की भव्यता इसको बेहद खास बनाती है। 45 दिन तक चलने वाली रामनगर रामलीला को यूनेस्को द्वारा अनोखी वैश्विक सांस्कृतिक धरोहर के रूप में पहचान मिली है।
लखनऊ की रामलीला
उत्तर प्रदेश की राजधानी का नाम भगवान राम के भाई लक्ष्मण के नाम पर पहले लक्ष्मणपुरी और फिर लखनऊ रखा गया है।माना जाता है की भगवान् राम के भाई से मंसूब लखनऊ में 16 शताब्दी के दौरान गोस्वामी तुलसीदास ने रामलीला की शुरुआत की। इतिहास इस बात है गवाह है की नवाबी काल में नवाब आसिफुद्दौला खुद यहाँ रामलीला देखने आते थे, उन्हें रामलीला इतनी पसंद आयी की उन्होंने ऐशबाग में रामलीला के लिए साढ़े छः एकड़ ज़मीन दे दी और एक मिसाल कायम करते हुए इतनी ही ज़मीन ईदगाह के लिए भी दे दी। नवाबी दौर के बाद अंग्रेज़ो ने इस आयोजन को रोकने की कोशिश की तो फिरंगियो को मुह तोड़ जवाब देने के लिए हिन्दू और मुस्लिम समुदाय ने मिलकर रामलीला करते हुए गंगा जमुनी तहज़ीब की नयी मिसाल कायम की।
लालाकिशनदास परिवार में मिला ऐशबाग की रामलीला को संरक्षण
यहां लालाकिशनदास परिवार से शुरू हुई इस रामलीला समिति को उनके बाद कन्हैयालाल प्रागदास ने संभाला। प्रागदास के बाद पुत्र चमनलाल और गुलाबचंद ने ने मिल कर रामलीला को आगे बढ़ाया। साथ ही उन्हें पंडित केदारनाथ और उनके परिवार से भी पूरा सहयोग मिलता रहा। जिसके चलते पंडित केदारनाथ के पुत्र और लखनऊ के मेयर डॉ दिनेश शर्मा रामलीला समिति के मुख्य संरक्षक हो गए। रामलीला को नए आयाम देने के लिए डॉ दिनेश शर्मा के सहपाठी और मित्र पण्डित आदित्य द्विवेदी भी उनके साथ इस आयोजन में अपने मंत्री पद का दायित्व निभाते आ रहे है।
मैदान से लेकर मंच तक का सफर
16वी शताब्दी में शुरू हुई यह रामलीला पहले मैदान में खेली जाती थी। जिसको देखने के लिए लोग तो आते थे, लेकिन मैदान सपाट होने से पत्रो के भाव और उनके संवाद में युवाओ का रुझान कम नज़र आ रहा था।युवाओ को रामकथा समझाने ,उन्हें परम्परा से जोड़ने और लीला को नया रूप देने के लिए मैदान के बजाय अब मंच पर रामलीला होने लगी । अब रामलीला समिति की मेहनत रंग लाती नज़र आ रही थी क्योंकि मंच पर होने वाले संवाद और कलाकारो के हावभाव दर्शको को उनके किरदार से जोड़कर उन्हें बाँधने लगे।
आराध्य का अंश लाने के लिए की जाती है पात्रो की पूजा
भगवान राम और उनसे जुड़े हर एक पहलू मंच पर उतारने में जुटे रामलीला के कलाकार कलयुग में भी अपने अपने पात्रो से ज़िंदा रखे हुए है। रामलीला में सिर्फ लखनऊ ही नही देश के कोने कोने से लोग हिस्सा लेने आते है। लखनऊ की इस अनूठी रामलीला में कुल 270 कलाकार हर साल भाग लेते है। जिनमे देश के दुसरे राज्यो के भी कलाकार भी शामिल होते है । इन कलाकारो में आराध्य का अंश लाने के लिए रामलीला के पहले दिन इन कलाकारो की आरती की जाती है और रामलीला के आखिरी दिन तक उन कलाकारो को पूज्य माना जाता है, जिसके चलते दशहरे के दिन मुख्य अतिथि मंच पर इन कलाकारों की आरती करते है साथ ही ख़ास बात यह है कि भगवान् राम का किरदार निभाने वाला कलाकार ही रावण का वध करता है। पारंपरिक रामलीला का ये नया आधुनिक स्वरुप और देश की नामचीन हस्तियों का ऐशबाग की रामलीला का साक्षी होना श्री राम लीला समिति के लिए गर्व की बात है। टीवी और कार्टून की रामायण के दौर में रामलीला को आकर्षक बनाने की पूरी कवायद है। रामलीला को ग्लोबल बनाने के लिए श्री रामलीला समिति ने फेसबुक पेज बना कर लोगो को खुद से जोड़ा है। रामलीला के शुरू होने के बाद मेहमान ,दर्शको और भक्तो की तारीफ इस नए प्रयोग की सही समीक्षा करके प्रयोग की सफलता का परिणाम अपने आप में बयान करने के लिए काफी है।
गोरखपुर की रामलीला
गोरखपुर मंडल की रामलीला साम्प्रदायिक सदभाव का संदेश देती है। कहीं सीता की भूमिका युवा शाकिर निभाते नजर आते हैं तो कहीं जाहिद अली सरीखे लोग करोड़ों कीमत की जमीन रामलीला के मंचन के लिए दान देने से नहीं हिचकते हैं।
गोरखपुर में 156 वर्ष पुरानी वर्डघाट रामलीला समिति अपनी भव्यता के लिए पूर्वांचल में प्रसिद्ध है। रामलीला में अयोध्या, मथुरा, हरिद्वार व बिहार के कलाकार अपने जीवंत अभिनय से लोगों को अभिभूत करते हैं। वर्डघाट समिति की रामलीला के किरदारों और 100 वर्ष पुरानी दुर्गा पूजा समिति के मिलन के बाद ही गोरखपुर की दशहरा पूरी होती है। वर्डघाट की रामलीला स्वर्गीय कृष्ण किशोर प्रसाद के प्रयास से वर्ष 1862 में स्थानीय कलाकारों के प्रयास से शुरू हुई थी। संरक्षक सुशील गोयल बताते हैं कि तब बमुश्किल 100 रुपये में रामलीला मंचन हो जाता था। अब बजट 2 लाख के पार पहुंच गया है।
वर्ष 1940 से बंसतपुर चैराहे पर राघव-शक्ति मिलन का कार्यक्रम होता है। जहां वर्डघाट में रावण दहन के बाद भगवान राम, सीता, लक्ष्मण के साथ शहर की सबसे पुरानी दुर्गावाड़ी पूजा समिति की दुर्गा प्रतिमा की आरती उतारते हैं। करीब दो दशक पहले तक विद्या मिश्र और उनके दो भाई राम, लक्ष्मण और सीता का चरित्र निभाते थे। गोरखपुर की दूसरी सबसे पुरानी रामलीला आर्यनगर की है। 101 वर्ष पुरानी रामलीला 1914 में गिरधर दास व पुरुषोत्तम दास रईस के प्रयासों से शुरू हुई थी। रामलीला के लिए जमीन गिरधर दास और पुरूषोत्तम दास के साथ ही जाहिद अली सब्जपोश ने भी दी थी। लंबे समय तक रावण का चरित्र निभाने वाले पूर्णमासी बताते हैं कि शुरूआत में स्थानीय कलाकारों द्वारा शुरू हुई। रामलीला के मंच को जगतबेला के नंद प्रसाद दुबे ने विहंगम स्वरूप दिया। कमेटी के अध्यक्ष रेवती रमण दास बताते हैं कि 50 साल पहले 500 रुपये में रामलीला हो जाती थी, अब यह खर्च 8 लाख से अधिक पहुंच चुका है। तीसरी सबसे पुरानी रामलीला विष्णुमंदिर की है। वहीं राजेन्द्र नगर और धर्मशाला बाजार की रामलीला भी पूरी भव्यता से होती है।