डॉ. मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया (भारतरत्न- 1955)

डॉ. मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया (भारतरत्न- 1955)

(जन्म-15 सितंबर 1860, मृत्यु— 14 अप्रैल 1962)

मेहनत करो, काम करो! बिना मेहनत किए हमें रोटी खाने का क्या हक़ है? मेहनत करने, काम करने में ही देश का कल्याण है, सबकी भलाई है। हमारा देश पिछड़ा हुआ है, क्योंकि हम आलसी हैं। अमेरिका और जापान देखते-ही-देखते कितना आगे बढ़ गए हैं। इसका कारण यही है कि वहां के लोग हमसे अधिक परिश्रमी हैं।” आधुनिक भारत के विश्वकर्मा डॉ. विश्वेश्वरैया का यह मूलमन्त्र था । जनता के बीच काम करने की भावना को जाग्रत करने के लिए इस मूलमन्त्र का प्रयोग करने वाले विश्वेश्वरैया का जन्म कर्नाटक के कोलार ज़िले के चिकवल्लपुर नगर के निकट मुद्देनल्ली गांव में हुआ था। तारीख़ थी, 15 सितम्बर 1861 | उनके पिता का नाम श्रीनिवास शास्त्री था। वह एक अच्छे ज्योतिषी एवं वैद्य थे, जो धर्म में विशेष आस्था रखते थे ।

विश्वेश्वरैया अपने पिता की दूसरी पत्नी के दूसरे पुत्र थे। वे चार भाई और दो बहनें थीं। उनके बड़े भाई वेंकटेश शास्त्री ने अपने परिवार की परम्परागत शिक्षा प्राप्त की और गांव में ही पिता का काम संभाल लिया। उनके सबसे छोटे भाई रामचन्द्रराव ने उच्च शिक्षा जारी रखी और बाद में मैसूर उच्च न्यायालय के जज बने।

विश्वेश्वरैया की आरम्भिक शिक्षा चिकवल्लपुर के स्कूल में हुई। उनकी आयु पन्द्रह वर्ष थी। तभी पिता का साया उनके सिर से उठ गया। वह अपनी मां के साथ मामा के यहां बंगलौर चले गए। उनके मामा रमैया मैसूर राज्य में कार्यरत थे। बंगलौर से हाईस्कूल की शिक्षा प्राप्त करके उन्होंने वहीं के सेंट्रल कॉलेज में पढ़ाई शुरू कर दी। विश्वेश्वरैया बड़े मेहनती और समय के पाबन्द थे। वह अपना गुज़ारा करने के लिए छात्रों की ट्यूशन किया करते थे।

सेंट्रल कॉलेज के प्रधानाचार्य मिस्टर वाट्स को विश्वेश्वरैया की प्रतिभा का भान हो गया था। वह समझ गए थे कि विश्वेश्वरैया को थोड़ा-सा सहयोग मिलने पर वह बहुत कुछ कर पाएंगे। इसलिए वह विश्वेश्वरैया की हर तरह की सहायता किया करते थे । विश्वेश्वरैया पढ़ते थे और साथ ही ट्यूशन द्वारा परिवार का ख़र्चा भी चलाते थे। मैसूर मेडिकल कॉलेज के प्रसिद्ध शल्य-चिकित्सक डॉ. सी. एम. मनजय्या विश्वेश्वरैया से ही पढ़े थे।

सन् 1880 में उन्होंने अच्छे अंकों में बी.एस-सी. की परीक्षा पास की और मिस्टर वाट्स की सिफ़ारिश से पूना के साइंस कॉलेज में इंजीनियरिंग की शिक्षा आरम्भ कर दी। उन्हें मैसूर राज्य से छात्रवृत्ति मिलती थी। उन्होंने तीन साल का कोर्स केवल ढाई साल में ही पूरा कर लिया। इस परीक्षा में प्रथम श्रेणी के साथ विशेष योग्यता होने के कारण उन्हें जेम्स बर्कले पुरस्कार भी मिला।

प्रथम श्रेणी में इंजीनियरी पास करने पर वह 1884 में बम्बई के लोक निर्माण विभाग में असिस्टेंट इंजीनियर के पद पर नियुक्त हो गए। उस समय उनकी उम्र तेईस वर्ष थी। उनकी पहली नियुक्ति नासिक में हुई। इस पद पर बड़ी मेहनत और कुशलता से काम किया। वह अपनी तेज़ बुद्धि, लगन और प्रतिभा के बल पर चीफ़ इंजीनियर के पद तक जा पहुंचे थे। उस वक़्त इस पद पर अधिकतर अंग्रेज़ों को ही रखा जाता था। उनकी योग्यता को जल्दी ही अंग्रेज़ भी सराहने लगे। इस बीच विश्वेश्वरैया शहरों में पानी के इन्तज़ाम और गन्दे पानी की निकासी के लिए नाली निर्माण की योजना को लेकर प्रसिद्ध हो गए। बम्बई सरकार की नौकरी के समय उन्होंने कई नगरों को स्वर्ग बना दिया।

सिन्ध प्रदेश के सक्खर नामक शहर में पानी के इन्तज़ाम के लिए उन्हें बुलाया गया। सिन्ध उन दिनों बम्बई प्रान्त का ही एक हिस्सा था। यहां रेगिस्तान के कारण पानी की बहुत कमी थी। विश्वेश्वरैया ने उस रेगिस्तान की चुनौती को स्वीकार किया और लगभग एक साल में ही ‘सक्खर बराज’ और ‘वाटर वर्क्स’ बनाकर वहां के मरुस्थल को स्वर्ग बना दिया। उनके इस कार्य की प्रशंसा उस समय के राज्यपाल ने भी खुले दिल से की थी। उन्होंने कहा था, “हमारे देश की योजनाएं आज जिन इंजीनियरों के हाथों फलीभूत हो रही हैं, विश्वेश्वरैया उनमें से एक महान शिल्पी हैं।”

सड़कों और सार्वजनिक भवनों को बनाने और उनके रख-रखाव में डॉ. विश्वेश्वरैया का बहुत बड़ा हाथ रहा है। बेलगांव, धारवाड़ और बीजापुर आदि की जलप्रदाय योजनाएं आज भी भारत के इस विश्वकर्मा के कला-कौशल की ज़िन्दा कहानियां हैं। इसी प्रकार खड़कवासला का स्वचालित स्लाइस गेट भी उनकी इंजीनियरिंग की सूझबूझ का बेमिसाल नमूना है। उनके द्वारा तैयार की गई सिंचाई की खंड-प्रणाली की प्रशंसा भारतीय सिंचाई आयोग के अध्यक्ष सर कॉलिन सी. स्टाक मोनक्रिफ़ भी किए बिना नहीं रह सके। यह प्रणाली बम्बई राज्य में अत्यन्त सफल हुई।

चौबीस वर्ष की सरकारी नौकरी से बन्धन मुक्त होने के लिए उन्होंने 1908 में अवकाश ग्रहण कर लिया। इसके बाद अध्ययन-यात्रा के लिए विदेश चले गए। वह इटली में थे, तब लन्दन से इंडिया ऑफ़िस के सचिव का पत्र मिला । उसके साथ एक केबल भी था, जिसमें लिखा था, ‘हैदराबाद और उसकी ड्रेनेज व्यवस्था को दोबारा तैयार करने के लिए महामहिम निज़ाम उत्सुक हैं।’ इस शीघ्रता का यही अर्थ था कि वह बहुत जल्दी निज़ाम की सेवा में उपस्थित हो जाएं, परन्तु वह अपनी यात्रा का सिलसिला नहीं तोड़ पाए। वह यूरोप घूमे, अमेरिका भी गए और इतने समय तक निज़ाम ने उनकी प्रतीक्षा की।

दरअसल हैदराबाद की छोटी-सी नदी मूसी ने वहां के लोगों को परेशान किया हुआ था। बरसात में मूसी नदी में इतनी बाढ़ आ जाती थी कि हैदराबाद शहर में पानी भर जाता था। विश्वेश्वरैया ने छः-सात महीने में ही मूसी नदी को काबू करने के लिए योजना बना ली और हैदराबाद शहर के लिए पानी तथा नालियों की व्यवस्था कर दी। आज यही नगर आन्ध्र प्रदेश की राजधानी है।

हैदराबाद को पूरी तरह से सुरक्षित करके और उसकी ड्रेनेज प्रणाली में सुधार करने के बाद विश्वेश्वरैया ने हैदराबाद छोड़ दिया और वापस मैसूर चले आए। वहां उन दिनों सर बी.पी. माधवराव मैसूर राज्य के दीवान थे। वह विश्वेश्वरैया की प्रतीक्षा में थे कि कब हैदराबाद से युक्त हाँ | सर माधवराव उन्हें चीफ इंजीनियर का पद सौंपना चाहते थे, किन्तु विश्वेश्वरैया इसके लिए राज़ी नहीं हुए। वह नौकरी नहीं करना चाहते थे। इसका कारण था कि वह तकनीकी शिक्षा को प्रोत्साहित करना चाहते थे, जो नौकरी करते हुए नहीं हो पाता।

विश्वेश्वरैया ने अपने उद्योगपति मित्रों विट्ठल भाई ठाकरसी और टाटा, के सहयोग से एक तकनीकी संस्थान की स्थापना की। उधर मैसूर के चीफ इंजीनियर एम. मैकहुटचिन के रिटायर होने पर मैसूर को एक कुशल इंजीनियर की आवश्यकता थी। विश्वेश्वरैया पर मैसूर के चीफ इंजीनियर के पद का भार और साथ ही मैसूर राज्य रेलवे के सचिव का पद सौंप दिया गया, जिसे मना नहीं कर सके। तब वह केवल अड़तालीस वर्ष के चुस्त युवक थे।

मैसूर के महाराजा कृष्णराज ने सन् 1912 में उन्हें अपनी रियासत का दीवान बना दिया। मैसूर राज्य का दीवान होना उनके जीवन में था। उन्होंने स्वप्न में भी नहीं सोचा था कि जहां वह छोटे से बड़े हुए, ट्यूशन सुखद संयोग कर-करके पढ़े, वहीं पर एक दिन सर्वोच्च पद संभालेंगे। हालांकि रियासती शान-शौकत और रईसी ठाट-बाट के उसके में एक मामूली इंजीनियर द्वारा राज्य का सर्वोच्च पद प्राप्त कर लेना लोगों को बहुत अखरा। वैसे विश्वेश्वरैया तो ख़ुद ही इस ऊंची पदवी के लिए तैयार नहीं थे। आखिर नौ वर्ष के कार्यकाल मैं उन्होंने मैसूर की काया ही पलट दी। भारत के इतिहास में पहली बार मैसूर में जनता के प्रतिनिधियों की सभा गठित की गई और प्रजातन्त्र का बीज बोया गया। जनता को इस योग्य बना दिया कि वह राज्य के प्रशासन में भाग ले सके।

उन्होंने राज्य की राजनीतिक स्थिति को सम्मान और मज़बूती दिलाई। 1881 में महाराजा को मैसूर की बागडोर सौंपी गई थी, तभी से वही शर्तें चली आ रही थीं और सभी कार्यकलापों में अंग्रेज़ों की सहमति आवश्यक समझी जाती थी । विश्वेश्वरैया राज्य के अंग्रेज़ रेजीडेंट के सहयोग से वायसराय लॉर्ड हार्डिंग से मिले और विचार-विमर्श किया। इस तरह राज्य से दोबारा सन्धि की गई, जिसके अन्तर्गत महाराज को राज्य के अन्दरूनी मामलों में स्वतन्त्रता मिल गई और प्रशासन के अधिक अधिकार भी मिले। विश्वेश्वरैया ने राज्य में दक्षता जांच-प्रणाली भी शुरू की शिक्षा के क्षेत्र में उन्होंने बेहद कारगर उपाय किए। स्त्रियों, विशेष रूप से दलित वर्ग की स्त्रियों की शिक्षा की ओर विशेष ध्यान दिया। पहले मैसूर के लगभग सभी कॉलेज मद्रास विश्वविद्यालय से सम्बद्ध थे। बंगलौर के सेंट्रल कॉलेज तथा मैसूर के महाराजा कॉलेज में एम.ए. की शिक्षा का प्रबन्ध नहीं था। बी.ए. के बाद विद्यार्थियों को मद्रास, पूना या बम्बई जाना पड़ता था । इससे उन्हें असुविधा होती थी। अपने अनुभवों की रोशनी में उन्होंने इस ओर क़दम बढ़ाया और 1 जुलाई, 1916 को मैसूर विश्वविद्यालय खुलवा दिया।

अपने मित्र विट्ठल ठाकरसी के सहयोग से बैंक ऑफ़ मैसूर की स्थापना की। इससे व्यापार के लिए धन प्राप्त होने लगा और राज्य में औद्योगिक क्रान्ति हो गई। रेशम उद्योग विकसित करने के लिए उन्होंने विशेषज्ञों को अध्ययन के लिए जापान और इटली भेजा। भेड़-पालन को प्रोत्साहन देने के पीछे उनका एक ही मक़सद था, अधिक ऊन का उत्पादन। कृष्णधाम राजेन्द्र टेक्सटाइल मिल और सन्दलवुड ऑयल फैक्टरी की शुरूआत उन्हीं के हाथों हुई थी।

भद्रावती में लोहा व इस्पात का कारखाना खुलवाया। इन सबके साथ बाबाबूदम की पर्वत-श्रेणियों में स्थित केन्नमगुडी से कच्ची धातु तथा लोहा निकालने का भी कार्यक्रम बनाया। उद्योग के सम्बन्ध में सरकार की ओर से संस्थानों अथवा उद्योगपतियों को सहायता भी दिलवाई गई, जिससे वे अपना लिए मैसूर राज्य में आकर्षित हो सकें।

राज्य-भर में रेलवे लाइनें बिछवाईं, क्योंकि उन्होंने महसूस किया था कि किसी भी देश के लिए रेल जीवन-रेखा होती है। मैसूर में अच्छे बन्दरगाह की कमी महसूस की जा रही थी। अपना कोई बन्दरगाह नहीं होने के कारण लोगों को पूर्व में मद्रास और पश्चिम में बम्बई से ढुलाई करानी पड़ती थी। तब विश्वेश्वरैया ने मंगलौर के बजाए भटकल को बन्दरगाह बनवाने का बीड़ा उठाया।

1918 में वह मैसूर के दीवान पद से मुक्त हो गए। उसके बाद उन्होंने अपना समय दो कामों में देना आरम्भ किया। एक तो केन्नमगुडी बांध को पूरा करवाया, जिससे मांड्या क्षेत्र में सिंचाई सुलभ हो सकी। यह बांध अपने स्तर से अड़तीस मीटर अधिक ऊपर उठाया गया। दूसरे कृष्णराज सागर वाटर वर्क्स भी पूरा करवाया।

मैसूर से बारह मील दूर कृष्णराज सागर बांध कावेरी नदी को बांधकर बनाया गया था। भले ही आज यह बांध भाखड़ा बांध की तुलना में छोटा है, परन्तु उन दिनों वह सबसे बड़ा था। इस क्षेत्र में विश्वेश्वरैया ही ऐसे पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने आधुनिक भगीरथ का काम कर दिखाया। इस बांध के विषय में महात्मा गांधी ने कहा था, “विश्वेश्वरैया का नाम अमर करने के लिए कृष्णसागर बांध ही काफ़ी है।”

सेवामुक्त होने के बाद भी वह राज्य को अपनी अमूल्य सलाहों से लाभान्वित करते रहे। हुलोकेरी सुरंग, जिसमें ऊंचे स्तर की प्रणाली से पानी निकलता था, इन्हीं की देखरेख में बनवाई गई थी। इसी प्रणाली से बनी इरविन नहर थी, जो बाद में विश्वेश्वरैया नहर के नाम से प्रसिद्ध हुई ।

1929 में उन्होंने ‘दक्षिण भारतीय राज्य जनता परिषद’ की अध्यक्षता की। इसके अधिवेशन में मैसूर, हैदराबाद, त्रावनकोर, कोचीन आदि के प्रतिनिधियों ने भाग लिया। वह नहीं चाहते थे कि भारतीय गुलाम बने रहें। इसलिए उन्होंने अपने अधिकारों की मांग की थी। बंगलौर में स्थित विज्ञान के भारतीय संस्थान में वह प्रारम्भ से ही रुचि लेते रहे। इसके लिए मैसूर राज्य से ज़मीन और वार्षिक अनुदान भी दिलवाया।

उनकी सेवाओं से प्रसन्न होकर सन् 1930 में उन्हें बम्बई विश्वविद्यालय ने डॉक्टर, कलकत्ता विश्वविद्यालय ने डॉक्टर ऑफ लॉ और अन्य कई विश्वविद्यालयों ने अपनी-अपनी मानद उपाधियों से विभूषित किया। अंग्रेज़ सरकार ने भी उन्हें ‘सर’ का ख़िताब देकर सम्मान बढ़ाया।

जोग के झरने से विद्युत शक्ति मिलने से मैसूर राज्य में उद्योग के नए सूर्य का उदय हुआ। एक अमेरिकी विशेषज्ञ मिस्टर चैरिन भारत आए और विश्वेश्वरैया की कार्य-प्रणाली से अत्यन्त प्रभावित हुए। इसका उल्लेख उन्होंने महाराजा से किया। अप्रैल, 1939 में विश्वेश्वरैया गांधी जी के आमन्त्रण पर उड़ीसा गए और वहां की बाढ़ के कारणों पर विस्तार से एक रिपोर्ट तैयार की। इसी रिपोर्ट के आधार पर महानदी पर हीराकुड बांध बनाया गया था।

उनकी ‘रिकंस्ट्रक्टिंग इंडिया’ नामक पुस्तक उल्लेखनीय है। यह पुस्तक आज भी इंजीनियरिंग और प्लानिंग पर पुस्तकों में अमूल्य धरोहर मानी जाती है। ‘कांग्रेस प्लान’, जिसकी जवाहरलाल नेहरू समिति द्वारा परिकल्पना की गई थी, में भी विश्वेश्वरैया ने बड़ी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।

1935 में भी वह विदेश गए थे, जिससे भारत में उस समय की श्रेष्ठ तकनीक के आधार पर मोटरकार बनाने का कारखाना स्थापित किया जा सके। इसके लिए इंग्लैंड के कई संस्थानों को देखा और लॉर्ड ऑस्टिन से भी मिले। उनसे मिलकर बम्बई में कारखाना शुरू करने के खर्चे का पता चला। विश्वेश्वरैया का यह सपना पूरा न हो सका। न तो बम्बई में, न ही मैसूर में वह मोटरकार का कारखाना स्थापित कर सके। बाद में बालचन्द हीराचन्द के तकनीकी सलाहकार आडवाणी के सहयोग से बम्बई में फोर्ड मोटरकार बनाई गई।

1946 में उन्होंने अखिल भारतीय निर्माता संघ, बम्बई के शिष्टमंडल का नेतृत्व किया, जो इंजीनियरिंग, रसायन, कपड़ा और हवाईजहाज़ बनाने के कारखानों को देखने विदेश यात्रा पर गया था। 1947 में मद्रास व हैदराबाद के बीच तुंगभद्रा बांध पर चले आ रहे विवाद को सुलझाने के लिए भी विश्वेश्वरैया को ही बुलाया गया था।

अपने जीवन की सफलता की कुंजी के बारे में उनका कहना था, “मैं सब काम समय पर करता हूं, समय पर नियमित सैर और कसरत करता हूं। गुस्से से कोसों दूर रहता हूं। बुढ़ापा जब भी मुझसे मिलने आता है, मैं उससे साफ़-साफ़ कह देता हूं, मैं अभी घर में नहीं हूं, फिर कभी आना। एक बात उनके सम्बन्ध में बेहद प्रसिद्ध है कि वह अपनी पोशाक के सम्बन्ध में पूरी तरह सजगता बरतते थे। कोई भी उनसे मिलने जाता, तो पगड़ी से जूते तक पूरी तरह सजकर ही बाहर आते और अपने अतिथि का स्वागत करते थे।

आधुनिक युग का यह विश्वकर्मा और कोलार घाटी का महान रत्न, सन् 1955 में भारत सरकार की सर्वोच्च उपाधि से विभूषित होकर भारतरत्न बन गया और 14 अप्रैल 1962 को, प्रातः सवा छः बजे सौ वर्ष सात महीने का यह आधुनिक विश्वकर्मा भारतवासियों को बिलखता छोड़ गया।

 

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