भारत की दिव्य और भव्य भूमि की महिमा ही ऐसी है कि, जिसकी खुशबू की दिवानी पूरी दुनिया है। क्योंकि, इस धरा पर ऐसे-ऐसे रत्न पैदा हुए हैं कि, जिसकी चमक के आगे शायद भगवान के मुकुट के हीरे की चमक भी फिकी पड़ जाए। कहते हैं हर जीव मात्र भगवान का अंश है, किंतु हरेक जीव में उस अंश का तेज अलग-अलग रहता है। कही, जीरो का बल्ब की रौशनी देखने मिलती है, तो कही 440 का वोल्ट नजर आता है। जैसी जिसकी कर्म यात्र वैसी उसकी रौशनी नजर आती है। ऐसी ही एक रौशनी में जो जगमगा उठा था इसा किरदार यानि,“Father of Indian philosophy” के नाम से जाने वाले भारत के वैदिक काल के एक दार्शनिक और शुक्ल यजुर्वेदीय वाजसैनिय शाखा के आर्ष द्रष्टा योगेश्वर याज्ञवल्क्य। कहते हैं भगवान भी धरा पर आने के लिए ऐसा ही कोई शरीर ढूंढते है जिनके द्वारा वो अपना काम सिद्ध कर सके।
जो जागतिक जरूरत के लिए आए थे ना कि अपने कर्मों का हिसाब चुकता करने के लिए। जब कोई सेठ के काम के लिए सेठ का मुनीम जी जाता है तब सेठ उसके आने जाने का इन्ताज ठहरने का इंतजाम सब कुछ अपने पर उठाता है। क्योंकि वो सेठ के काम के लिए जा रहा है, नाकि अपने निजी स्वार्थ के लिए। वैसे ही भगवान के काम और जरूरत के लिए जिन्होंने जन्म लिया हो वो तो कोई दैवी या युगपुरुष ही होगा। ऐसा रत्न जिनके यहां जन्मा वो कुल या माता-पिता भी कोई साधारण व्यक्तित्व वाले तो नहीं होंगे।
इसा पूर्व सातवीं शताब्दी में एक ऐसा ही दिव्य और तेजस्वी रत्न था। जिनके शब्दों का वजन उस वक्त के बड़े-बड़े राज दरबारों में राजा के यहां भी था। इतना ही नहीं जिनको धन और वैभव की भी कमी नहीं थी। जिनके जीवन में ज्ञान, धन, वैभव ऐश्वर्य सब कुछ भगवान ने चार हाथों से दिया था। वो प्रभावी रत्न यानि देवशत ब्रह्मरात। जो खुद एक हीरे की खान में से एक बहुमूल्य केरेट वाला एक ऐसा कोहिनूर हीरा था। जिसको पत्नी के रुप में सुनंदा नामक उसके अनुकूल पत्नी थी। दोनों साथ मिलकर समाज के उपयोगी हो ऐसे कम किया करते थे। बहुत जन्मों के पुण्य कर्म से ऐसी पत्नी मिलती है।
लेकिन भगवान एक साथ सब कुछ नहीं दे देता। वैसे ही उनके जीवन में एक ही कमी थी कोई संतान नहीं थी। सुनंदा को हमेशा लगता था जो काम हम कर रहे है उसे आगे बढ़ाने के लिए एक पुत्र रत्न चाहिए। देवशत ब्रह्मरात तो दिन रात अपने काम में मस्त रहते थे, किंतु पत्नी का दुःख उनसे भी छिपा नहीं था। और वैसे भी ‘अष्ट पुत्र सौभाग्यवती भव’ वाला वह काल था। और देवशत ब्रह्मरात ने एक महायज्ञ करने का निर्णय लिया। और उसके परिणाम स्वरूप आकाशवाणी हुए और इश शक्ति ने उनके घर पर जन्म लिया। लोकोत्तर चैतन्य ने फाल्गुण सूद पंचमी के दिन उनके यहाँ बालक बनकर आए। जो सनातन धर्म के प्रथम विधाता, वैदिक् जीवन का तेज मानो जीवंत शाश्वत आकार लेके इस धरा पर प्रगट हुआ। भारत के इतिहास में ऐसा तेजस्वी और प्रभावी चरित्र हुआ है कि नहीं यह शंका है। सुनंदा का जीवन धन्य बन गया ऐसा पुत्र रत्न पाकर। उस काल में संतान पैतृक नाम से जानी जाती थी। इसलिए वो भी ब्रह्म राती याज्ञवल्क्य कहलाते थे। ब्रह्मरात अन्नदान भी बहुत करते थे इसलिए लोग उन्हें वाजसैन भी कहते थे, इसलिए याज्ञवल्क्य, वाजसैन याज्ञवल्क्य भी कहलाते थे। यज्ञोपवित के बाद उन्हें उस काल के वैदिक तत्वज्ञान के उदगाता वैशंपायन के गुरुकुल में विद्याभ्यास के लिए गए।
वो काल भारत के ऋषि मुनियों का काल था। तब गुरु की जीवहा पेंसिल और शिष्य का दिमाग कागज हुआ करता था। वो जो भी बोलते उसपे लिखा जाता था। उस काल में विद्या का कोई मोल नहीं होता था। गरीब-श्रीमत का भेद नहीं था पढाई में। जिसका जितना कर्तुत्व उतना हो आगे बढ़ जाता था। उसी काल में चार वेदों की चार युनिवर्सिटी बनी थी। जो वेद व्यास के चारो शिष्यों ने बनाई थी और उसे चला रहे थे। उनमें से एक शिष्य वैशंपायन जो यजुर्वेद के प्रणेता थे वो पढ़ा रहे थे। आज की इस करी काल की पढ़ाई में गहराई समझने की क्षमता ही नहीं है। जहां पैसे देकर ज्ञान सिखाया जाता है वहां ज्ञान भी पैसे जितना ही गहन होता है। दस हजार श्लोक का यजुर्वेद याज्ञवल्क्य ने 6/7 वर्ष में पूर्ण कर दिया। नजरों के सामने मानों दस हजार श्लोक नाचने लगे थे। तब उन्होंने दूसरा वेद पढ़ने के लिए गुरु से आज्ञा मांगी, गुरु भी मना नहीं कर सकते थे। उन्होंने सारी शिक्षा पूर्ण कर ली थी। फिर उन्होंने शाकल्य ऋषि के पास ऋग्वेद पढ़ने के लिए गए। लेकिन शाकल्य ऋषि राज आश्रित थे। उस दरम्यान एक ऐसी घटना बनी की उन्होंने गुरूजी से आज्ञा लेकर उनका आश्रम छोड़ दिया। युवा याज्ञवल्क्य बहुत तेजस्वी बुद्धि के और स्वमानी थे। वे वैदिक विचारों का अपमान नहीं सह सकते थे। वहां से निकलकर उन्होंने योग विद्या के आचार्य हिरन्यनाभ के आश्रम में योगाभ्यास का अध्ययन किया।
यह वो काल था जब लोग स्वयं शासित और स्वयं दंडित थे। आत्म निरीक्षण से ही अपने कर्मों के हिसाब से अपने आप दंड कर उसे पूर्ण करते थे। एक बार वैशंपायन की बहन डिलीवरी के लिए घर आई थी। और उन्हें उठने में देर हो गई, और नहाने के लिए नदी पर गए तब गलती से अंधेरे में उन्होंने कपडे की जगह 2 महीने के छोटे बच्चे को कंधे पे डाल लिया और वो बच्चा मर गया और उन्हें बाल और ब्रह्म हत्या ऐसे दोहरा पाप लगा। प्रायश्चित के लिए उन्हें आश्रम छोड़ जंगल में चले जाना था। उस वक्त उनके आश्रम में 10 हजार शिष्य पढ़ रहे थे, उनका भविष्य क्या? ये बात जब याज्ञवल्क्य को पता चली तो उन्होंने भावना वश अपने गुरूजी को कहा आप चिंता मत करो आपका प्रायश्चित मै करूँगा।
लेकिन गुरु का अहं बीच में आया, मेरा शिष्य होकर मेरा प्रायश्चित करेगा? मेरा ज्ञान पाकर मुझे ही प्रायश्चित करायेगा? तुझे अपने ज्ञान की मस्ती चढ़ी है! इस बात से याज्ञवल्क्य भी आहत हुए और उन्होंने कहा, आपके पास से ज्ञान पाया, इसीलिए आप यह कह रहे है ना! मैं आपके पास से ली हुई विद्या मै आपको वापस करता हूं, क्योंकि आप मेरी भावनाओं को नहीं समझ पाए, इस लिए मैं लाचार हूं। और उन्होंने यजुर्वेद की विद्या को ओक दिया। जो याज्ञवल्क्य वापस ले नहीं सकते थे, इसलिए वैशंपायन को वो विद्या वापस लेनी पड़ी। वो ओकी हुई थी इसलिए सारे शिष्यों को रुप में तैतरीय पक्षियों के रुप में पी ली लाई गई। जो तैतरीय शाखाओं के रुप में जानी गई। इस तरह वह काला यजुर्वेद यानि कृष्ण-यजुर्वेद के नाम से जाना गया। यह सारी बातें शतपथ ब्राह्मण ग्रंथ में है।
कोई भी उपाधि इतनी महेनत से पाई हो और उसे इस तरह, वापस कर देना कोई आसान बात नहीं थी। याज्ञवल्क्य भी बहुत निराश और दुःखी हुए। मानसिक निराशा भी बहुत आई। घोर निराशा में चले भी गए, समझ में नहीं आ रहा था कि आगे क्या और कैसे करें? कैसे वापस विद्या वापस पायेगे। फिर उन्होंने निराशा से बाहर निकलकर उन्होंने जंगल में जाकर, सूर्य उपासना शुरु करकर, उनकी आराधना शुरू कर दी। उनकी उपासना से प्रसन्न होकर खुद भगवान सूर्य ने उन्हें सारी विद्या वापस दी। जो खुद तेजस्वी और ओजस्वी है ऐसे सूर्य जिनके गुरु हो और सरस्वती ने जिनको विद्या दी हो वो शिष्य कैसा होगा! उसका विवरण आगे देखते है।
वैसे कहा जाता है हर मनुष्य इश्वर का अंश है। किंतु भगवान स्वयं जिनमें आकर बसे हैं ऐसे याज्ञवल्क्य जीवन था। जिनको सूर्य देव ने खुद ज्ञान दिया हो और उस ज्ञान को शब्दों में पिरोने के लिए माँ सरस्वती ने खुद आकर आशीर्वाद दिया हो, उस शिष्य का क्या कहना। ऐसे तेजस्वी शिष्य ने अपनी पढ़ाई खत्म करकर, वापस घर आ गए। तब माँ सुनंदा का सीना गर्व से चौड़ा हो गया। उनको मिलने वालो का ताता लग गया। याज्ञवल्क्य ने अपनी विद्या और मेहनत से शुक्ल-यजुर्वेदीय वाजसेनीय संहिता निर्माण की। उन्होंने इसकी शाखा बनाकर एक साल में ही उसकी यूनिवर्सिटी बना डाली। यजुर्वेदीय कुल में जन्में, उन्होंने सूर्य उपासना करके शुक्ल यजुर्वेद की संहिता बनाई, सामवेद का अभ्यास किया, वेदत्रयी के साथ योग शास्त्र, अध्यात्म शास्त्र, मंत्र शास्त्र, साक्षात्कार शास्त्र इन सभी का परिपूर्ण अभ्यास किया। उस जमाने में उनके सह पाठी गर्व करते थे की हम याज्ञवल्क्य के साथ पढ़ाई करते थे।
जैसे आज के समय में भी कोई अभिनेता या बड़े इंसान के बेटे या बेटी के साथ पढ़ाई करने वाले महसूस करते है। वे अपनी युवा अवस्था में ही समाज के बड़े सुधारक माने जाने लगे थे। वो ऐसा काल था जब गृहस्थाश्रम शुरू किए बिना यज्ञ्नीय कार्य नहीं कर सकते थे। समाज में एक वैदिक यज्ञ कार्य करने के लिए अनुकूल पत्नी मिलना बहुत भाग्य की बात मानी जाती है। और ऐसी ही कन्या उनके लिए उनके माता-पिता ने ढूंढ निकाली, नाम था कात्यायनी। उनके गुणों से मेल खाती, पति भक्ति परायण ऐसी कात्यायनी और याज्ञवल्क्य का गृहस्थाश्रम शुरू हुआ।
याज्ञवल्क्य, श्वेतकेतु, शोमशुष्म यह तीन मित्र अग्नि होत्र पर चर्चा कर रहे थे। तीनों युव यज्ञ्नीय आहुति ओके बारे में अपने-अपने विचार रख रहे थे, तब वहां से ज्ञान वृद्ध, तपो वृद्ध ऐसे महाज्ञानी मिथिला नरेश जनक वहां से निकले उन्होंने उनकी यहाँ याज्ञवल्क्य के ज्ञान से अभिभूत होकर उन्होंने उन्हें मिथिला आने का निमंत्रण दिया था। राजा जनक के पिता को एक बड़ा यज्ञ करने का मन हुआ, उसके लिए उन्होंने देश-देशांतर से ऋषियों को और राजाओं को उन्होंने बुलाया था। इस यज्ञ के अध्वर्यु याज्ञवल्क्य के गुरु वैशंपायन जी थे। और इस यज्ञ में याज्ञवल्क्य को निमंत्रण भेजा गया। यह बात आज से 6/7 हजार साल पुराणी है। उस वक्त यज्ञ पूरा होते ही उसका एक प्रायश्चित यज्ञ किया जाता और उसमें वो यज्ञ जिस हेतु से किया गया उसके परिणाम दिखने शुरू हो जाते।
लेकिन ऐसा हुआ नहीं सब चिंता में पड़ गए। क्या कमी रह गई यज्ञ में की वो पूर्ण नहीं हो रहा है। बहुत सी किताबें देखी गई, बहुत सारी चर्चाएँ भी हुई, क्योंकि वहा तो बड़े-बड़े ज्ञानी महात्मा, जैसे जैमिनी, पेल, सुमन्तु जैसे विद्वान् आए हुए थे। सब कर्तव्य निष्ठ और अपने अपने वेद और ज्ञान के भंडार थे। किंतु किसी को उसका हल नहीं मिला रहा था। उस वक्त जनक राजा की नजर याज्ञवल्क्य पर गई और वे उठके उनके पास आये साथ में वैशंपायन भी आए और दोनों ने यज्ञ की पूर्णाहुति कराने को कहा। याज्ञवल्क्य ने बिना कोई चर्चा किए गुरु जी के पांव पकड लिए और उठ कर उन्होंने यज्ञ पूर्ण कराया। तब दक्षिण की बात आई और उस पर एक सैद्धांतिक सवाल खड़ा हुआ, यज्ञ चाहे वैशंपायन ने शुरू करवाया लेकिन पूर्ण तो याज्ञवल्क्य के कारण हुआ था। तब विवादों में दैविक ऋषि ने कहा दक्षिणा के दो हिस्से कर दीजिए, और युवा याज्ञवल्क्य की बुद्धिमत्ता की पहचान दुनिया को हो गई।
जनक राजा के एक मित्र थे अमात्य वो भी जनक की तरह याज्ञवल्क्य के चहक बन गए थे। वह काल में हस्तिनापुर की गद्दी पे राजा जन्मेंजय थे और वो भी याज्ञवल्क्य की बुद्धि प्रतिभा से काफी प्रभावित थे। राजा जन्मेंजय का उस वक्त के राजाओ में काफी वर्चस्व था। उनकी अत टालने का साहस कोई राजा नहीं कर सकता था। एक बार जनक राजा ने सभी बड़े ज्ञानी पंडितों को अपने दरबार में बुलाया ज्ञान की चर्चा के किए। आज के युग में जैसे हर बारह साल में कुंभ मेला होता है वैसे। उसका मूल रूप अलग था और आज तो केवल उसकी मानों परछाई सी रह गई है। इसलिए उसकी कल्पना करना भी बेकार है। उस सभा में याज्ञवल्क्य के सभी गुरु वैशंपायन, सुमन्तु, गार्गी जैसी विद्वान विदुषी भी आई थी।
लेकिन सभी को शास्त्रर्थ में याज्ञवल्क्य ने हराया। उसके लिए उन्हें काफी महेनत भी करनी पड़ी क्योकि गार्गी को हराना कोई मामूली बात नहीं थी। अंत में उसने भी मान लिया उनकी बुद्धि का लोहा। उस वक्त सभा में एक और विदुषी मैत्रेयी जो गार्गी की भांजी थी वो यह सब देख रही थी तब उसने तय किया शादी करुँगी तो याज्ञवल्क्य से वर्ना मौसी की तरह आजीवन कुंवारी रहूंगी। बाद में उसने कात्यायनी को अपनी सहेली बना लिया। और बाद में वह कात्यायनी के अनुग्रह पर याज्ञ्नवल्क्य की पत्नी भी बन गई। अन्त में उसने आत्म ज्ञान लिया और कात्यायनी ने उनके बाद उनका सारा काम संभाला। उन्होंने अपने जीवन काल में शतपथ ब्राह्मण ग्रंथ, बृहदारण्य कोपनिषद जैसे अनेक ग्रंथो की निर्मिती की है। ऐसे युगपुरुष भारतीय तत्व ज्ञान के पितामह को शतशः प्रणाम।