हमारे धर्म और अध्यात्म ने कहा गया है कि, एक माँ सौ शिक्षकों के बराबर होती है I आज के ज़माने में हमें यही लगता है कि, अगर हमारा बच्चा अच्छा नहीं पढ़ा या अच्छे संस्कारों वाला नहीं हुआ तो उसके स्कूल-कॉलेज या शिक्षक की गलती है| हम कभी अगर बैठकर शांति से सोचे तो हमें पता चलता है कि, बच्चा स्कूल में तो चार-पांच साल के बाद जाता है | जन्म के बाद उसके जीवन के पहले चार साल उसके लिए अति महत्व के होते हैं और उस समय उनकी प्रारंभिक शिक्षा घर से ही शुरू होती है | कहते हैं कि जब पौधा छोटा होता है तब उसे जिस तरफ भी मोड़ना चाहे, मोड़ सकते हैं, लेकिन जब वह बड़ा हो जायेगा तो उसे मोड़ना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन हो जाता है | वैसे ही जब बच्चा छोटा है तब घर में ही माँ-बाप के द्वारा उसके भीतर संस्कारों का सिंचन करना होता है | जीवन की जो अति महत्व की बातें हैं , झूठ नहीं बोलना,बड़ों का आदर करना, किसी से झड़गा नहीं करना, गाली-गलौज नहीं करना, किसी का बुरा नहीं करना ……. यही वो बाते हैं जो हमें पता ही नहीं चलते कि हमारे बच्चे को नैतिकता, प्रमाणिकता और अभिगम की बाते सिखलानी है, जो उनके आगे के सारे जीवन के लिए अति महत्वपूर्ण होती है| इसलिए तो कहीं पर कहा गया है कि,
“अच्छे संस्कार कोई मॉल में से नहीं बल्कि परिवार के माहौल से मिलते हैं I”
आज के समय में अक्सर देखा जाता है कि, जब बच्चा घर में रोता है तब उनके हाथ में मोबाइल पकड़ा दिया जाता है या उनको टीवी के सामने कार्टून चालू करके बिठा दिया जाता है | बच्चा कोई बात की जिद करता है तो, उसी समय पर उनकी मांगे पूरी की जाती है | बच्चों को प्यार करना बुरी बात नहीं है लेकिन बचपन से ही उनको “ना” सुनने की अगर आदत डालेंगे तो बड़ा होकर उनको जब कोई भी बात पर ना सुनना पड़ जाए तो बुरा नहीं लगता | दो-तीन साल के बच्चें को ध्रुव-प्रहलाद-नचिकेता की बातें सुनाने के बजाय, अगर उसको कुते बिल्ली का कार्टून दिखाते हैं तो बच्चे में संस्कार भी तो वही आयेंगे न ! अगर आप दुनिया के कोई भी बड़े आदमी की दिनचर्या देखेंगे तो महसूस करेंगे कि उन सब में एक बात जरुर होती कि वह टीवी सीरियल नहीं देखते होंगे, अगर देखते तो भी दिन में 20-30 मिनिट फ्रेश होने के लिए ही देखते हैं |
आज ऐसा समय आ गया है कि माँ-बाप को सचिन और धोनी के स्कोर याद होंगे लेकिन उसके बच्चे को लास्ट परीक्षा में कितने अंक आये हैं वो याद नहीं होगा | कई सारे माँ-बाप को मैंने एक पुलिस इन्स्पेक्टर की तरह विक में एक बार अपने बच्चे के साथ पेश आते देखा है | क्या कर रहे हो ?… पढाई बराबर चालू है ?…. कोई तकलीफ तो नहीं ?…. पैसे कितने चाहिए ?…. बस यही सवाल है, जो बच्चे के मन को कमजोर बनाते हैं I यह सब नहीं करते अगर बच्चे को प्यार से पास में बिठाकर, सर पर हाथ घुमाते हुए पूछ लिया जाए कि, आज-कल कैसी पढ़ाई चल रही है ?…. तो उसके मन में माँ-बाप का डर नहीं रहेगा और स्कूल-कॉलेज की सारी बाते वो बता देगा, जो उनके लिए और माँ-बाप के लिए भी जाननी बेहद जरुरी होती है | हमारे वेदों ने भी कहा है कि, “लक्षण वाला शिक्षण हमेशा रक्षण करता है और बिना लक्षण का शिक्षण बच्चों का भक्षण करता है”| इसलिए तो हमारे ऋषिमुनियों ने कहा है कि,
“अच्छे संस्कार जैसी कोई वसीयत नहीं और ईमानदारी जैसी कोई विरासत नहीं |”
दूसरी एक महत्त्व की बात है, बच्चों की असफलता | आज-कल कोई भी माँ-बाप, अपने बच्चे की असफलता नहीं देख सकते | अगर देखा जाए तो वो ठीक ही है, लेकिन उनको यह पता होना अत्यंत जरुरी है कि, असफलता ही सफलता का मुख्य द्वार है | जीवन में गिरना बुरी बात नहीं है लेकिन गिरकर फिर से नहीं उठाना बुरी बात है | बॉलीवुड के प्रख्यात एक्टर अनुपम खेर जब उनकी परीक्षा में दो विषय में फेल हुए, तब उबके पिता ने उनको होटल में पार्टी दी और कहा कि कोई बात नहीं, आज हम तेरी निष्फलता को सेलिब्रेट करते हैं और फिर कभी सफलता को सेलिब्रेट करेंगे | यह बच्चा अनुपम खेर, आज हिंदी फिल्मों का एक सुपर स्टार बन गया | अल्बर्ट आइन्स्टाइन को अपने स्कूल से मंद्बुध्धि बोलकर खारिज कर दिया था, जो आगे जाकर विश्व का सबसे बुद्धिमान व्यक्ति कहलाया | वैसे तो पश्चिमी संस्कृति हमारे धर्म और आध्यात्मिकता के विरुद्ध की है पर वहां की एक बात जो बहुत अच्छी है और वो है, बच्चा 15 साल का हो जाए तो फिर उनको अपना खर्च खुद ही उठाना है, अपनी जिन्दगी कैसे जियेगा वो खुद को निश्चित करना है |
दो साल पहले मै एक स्कुल के पास से गुजर रहा था तो वहां पर हायर सेकंडरी की परीक्षा चल रही थी, परीक्षा के समय में कुछ देर थी और बच्चे बाहर बैठकर पढ़ रहे थे| मैंने देखा कि बच्चा पढ़ता था और उनके माँ या बाप उनको मुह में खाना खिलाते थे | 17-18 साल के बच्चे का हम अगर इतना ख्याल करेंगे तो वो अपने पैरों पर खड़े होना कब सीखेगा ?…. ज्यादातर बच्चे को उनके माँ-बाप ने ही पराधीन कर दिया है | इतना लाड़-प्यार करने के बजाय अगर उनको बचपन में ही भारतीय संस्कार का अमृत पिला दिया होता तो यह दिन देखने को ही नहीं मिलते |
यह बात तो निश्चित है कि बच्चे की सफलतामें माँ-बाप का ही महत्व होता है | दिल्ली की एक यूनिवर्सिटी के पदवी दान समरोह में एक बार एशियन हार्ट हॉस्पिटल के चीफ डॉक्टर रमाकांत पांडे ने कहा कि “जब मै छोटा था, ओडिशा के एक छोटे से गांव में रहता था, घर की परिस्थिति गरीब थी, गांव में कोई स्कूल नहीं था I लेकिन मेरी मां की इच्छा बचपन से ही थी कि मैं एक बड़ा डॉक्टर बनूं | उन्होंने मुझे नजदीक के गांव की स्कूल में बिठाया | मुझे हर रोज गोदी के उठाकर मेरी माँ स्कूल छोड़ने आती थी, जो तीन किलोमीटर दूर था | मुझे स्कुल में छोड़कर वो उसी गांव में चार-पांच घंटा मजदूरी का काम कर लेती थी और शाम को जब स्कूल छूटे तो मुझे उठाकर वापिस घर आती थी |
गांव के पंचायत ऑफिस में सिर्फ अख़बार आते थे, वहां जाकर वो अक्सर लोगों को पूछती रहती थी कि, क्या आज के अखबार में कोई बड़े डॉक्टर का समाचार है ?… अगर होता तो उसे काटकर ले लेती और अपनी एक फटी साड़ी में यह सब कटिंग रखकर एक फ़ाइल बनाती थी | वो खुद पढ़ी-लिखी नहीं थी फिर भी हर रोज स्कूल से वापिस आने के बाद घर जाकर मुझे पूछती रहती कि, आज स्कूल में क्या पढ़ाया ?… आज तुमने कितने अच्छे जवाब दिए ?…. मेरा पढ़ने का हौसला , उनको देखकर ही बढ़ जाता था और आखिर में मैंने स्कूल की पढ़ाई अच्छे से अच्छे अंक लेकर पूरी की और मेडिकल में दाखिला पाने के लिए स्कॉलरशिप भी मिल गई | और उनकी इस मेहनत के कारण ही आज मैं देश का इतना बड़ा डॉक्टर बन पाया हूं |” डॉ. रमाकांत पांडे इतने बड़े हार्ट स्पेशियलिस्ट है कि उनके किये ऑपरेशन में से 99.9 % सफलता का रेशिओ है | उनकी इस सत्य जीवन घटना से प्रेरणा मिलती है कि अगर एक गरीब माँ भी अगर चाहे तो अपने बच्चे को कहां से कहां तक पहुंचा सकती है |
हमारे धर्म में कहा गया है कि, “सुखार्थी कुतो न विद्या”, मतलब की अति सुख में रहने वाले बालक को विद्या कभी नहीं आती |
आज ज्यादातर माँ-बाप यह सोचते हैं कि , अपने बच्चे को तीन -चार ट्यूशन लगवाएंगे, जितना चाहे उतना पैसा खर्च करेंगे, लेकिन बच्चा तो डॉक्टर या इंजीनियर ही बनना चाहिए | ऐसे करने से बच्चा आगे बढ़ नहीं पाता I स्कूल और कॉलेज हमारे बच्चे को एम.बी.ए. या इंजिनियर बना सकते हैं लेकिन ध्रुव-प्रहलाद-नचिकेता तो माँ-बाप ही बना सकते हैं | बच्चे की प्रगति के लिए माँ-बाप को अपने सुख-सुविधा का त्याग करना पड़ेगा और दो साल की उम्र से ही संस्कार का सिंचन करना पड़ेगा| बच्चे को अगर बोलना है कि, टीवी मत देखो, मोबाइल से मत खेलो, फास्टफूड मत खाओं ….. तो पहले माँ-बाप को यह सब बाते करनी पड़ेगी | बच्चा सुनकर नहीं बल्कि देखकर ही सीखता है |
अगर हम बच्चे को बोलते रहे कि अपने माँ-बाप का आदर करना है और हम अपने माँ-बाप को वृद्धाश्रम में छोड़ कर आए हैं तो हमारा बच्चा भी हमारे साथ वहीं करेगा, जो वो देख रहा है | अगर हमारे देश का इतिहास भी देख ले तो, शिवाजी महाराज और बाजीराव पेशवा जैसे महान पुत्रों की परवरिश उनकी माँ ने की थी, रानी लक्ष्मीबाई की परवरिश उनके पिता ने की थी|
सामान्यत: यह हम सब का ख्याल है कि, सफलता पाने के लिए अभ्यास, अनुभव और कुशलता चाहिए और यह बात सही भी है, लेकिन हम आज की बात सोचते हैं और हमारी संस्कृति हमारे 20-25 साल के बाद की बात सोचती है | भारतीय संस्कृति यह कहती है कि, इस अभ्यास, अनुभव और कुशलता के आगे भी कुछ है, जो हमें 20 साल बाद आगे लेकर जाएगा और वो है, शिष्ट, प्रमाणिकता, नैतिकता, सिध्धांत, चारित्र्य और सत्य |अगर यह बाते हमने अपने जीवन में साकारित कर दी, तो हमें आगे बढ़ने से या सफलता प्राप्त करने में कोई नहीं रोक सकता | यह सब बातें स्कूल-कॉलेज में सिखाई नहीं जाती, इसे घर के भीतर माँ-बाप को सिखाना पड़ता है | लेकिन आज के ज़माने के बच्चे भी धर्म, अध्यात्म और भगवान जैसी बातों से विपरीत चलते हैं, उनका कहना है कि जो चीज दिखाई नहीं देती उसे हम क्यों माने ?…. तब उसको हमें बोलना पड़ेगा कि, इलेक्ट्रिक के वायर में तुम्हे करंट दिखाई देता है क्या ?…. नहीं तो फिर वायर को जीवंत ही हाथ में लेकर दिखाए |
ऐसा हो सकता है क्या ?…. नहीं !… कई बातें ऐसी होती है जो हमें दिखाई नहीं देती फिर भी हमें माननी होती है | हम 21वी सदी में जीते हैं इसका मतलब यह तो बिलकुल नहीं है कि हम अपनी संस्कृति और मर्यादा को भूल जाए, हम अपने संस्कारो और मूल्यों को भूल जाए | बेशक हम अपने मोबाइल-लैपटॉप का उपयोग कर सकते हैं, गूगल का प्रयोग कर सकते हैं लेकिन हमारे संस्कृति और संस्कार के बिना बिलकुल नहीं | कहा गया है कि, “व्यवहार, आचरण तथा कर्म मिलकर संस्कार बनते हैं, जो मुख्य रूप से परिवार से प्राप्त होते हैं | इसलिए तो इंसान के संस्कार ही उसके परिवार का दर्पण कहलाया जाता है |”
हम क्या बोलते हैं, कैसे बोलते हैं, हमारा व्यवहार दूसरों के साथ कैसा है, यह सब बाते बताते हैं कि हमारे मूलभूत संस्कार कैसे है, हमारी परवरिश कैसी है | इसलिए तो कहा जाता है कि,
“शब्द और नजर का इस्तेमाल बड़ी हिफाजत के साथ कीजिए जनाब
क्योकि वो हमारे संस्कार और परवरिश का सबसे बड़ा प्रमाणपत्र है |”
हम सब चाहते हैं कि हमारी संतान ध्रुव और प्रह्लाद जैसी बने या शिवाजी और लक्ष्मीबाई जैसा बने, लेकिन सिर्फ चाहने से ऐसा हो नहीं सकता | हमारे बेटे को शिवाजी जैसा बनाने के लिए हमें पहले जिजाबाई बनना पड़ेगा, हमारी बेटी को रानी लक्ष्मीबाई बनाने के पहले हमें मोरोपंत जी बनना पड़ेगा | बच्चों की परवरिश में माँ-बाप ही मुख्य पात्र है, जो उनका भविष्य उज्वल बना सकते हैं | यह सब बाते हमारी चाहत और हमारा पैसा नहीं कर सकते | खुद को जलाए बिना कभी सुगंध नहीं आती, यह बात हमें धूपबत्ती सिखाती है | इसलिए अगर हम चाहते हैं कि हमारे संतान आगे बढ़े , जीवन में सफलता पाए तो हम, माँ-बाप को उसके पीछे हमारी जिन्दगी न्योच्छावर करनी पड़ेगी और भारतीय संस्कृति के साथ से उनके भीतर संस्कारों का सिंचन करना पड़ेगा |