श्रीमद्भगवद् गीता में कई बार कामनाओं के विषय में बातें की गई हैं। वस्तुतः यह विषय ही ऐसा है कि इसके विषय में जितनी बात करें उतनी कम है। कामना अर्थात विभिन्न प्रकार की इच्छाएं, मानव जीवन की एक नैसर्गिक प्रक्रिया है। कोई भी साधारण व्यक्ति कामनाओं इच्छाओं से सर्वथा दूर नहीं हो सकता है, जो सर्वविदित है। लेकिन भारतीय संस्कृति के मतानुसार अनियंत्रित कामना को एक दोष कहा गया है, जिसे हर मनुष्य को त्याग करना चाहिए। वैसे तो स्थितप्रज्ञ शब्द हम सभी के लिए कठिन है लेकिन गीता के अनुसार निरंतर प्रयास करने से मनुष्य इस स्थिति में जरूर पहुँच सकता है। भगवद गीता के दूसरे अध्याय के 55वें श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि-
‘‘प्रजहाति यदा कामान् सर्वान् पार्थ मनोगतान।
आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते।।’’
श्लोकार्थ यह है कि जब मनुष्य मन में प्रविष्ट सभी कामनाओं, सारे इच्छा भेदों को भली प्रकार त्याग देता है और अपने आप में ही संतुष्ट रहता है, उस समय वह स्थितप्रज्ञ कहलाता है। तब वह अपने अन्तर आत्म स्वरूप में ही किसी बाह्य लाभ की अपेक्षा न रखकर अपने आप संतुष्ट रहने वाला अर्थात् परमार्थ दर्शन रूप अमृत रस लाभ से तृप्त अन्य सब अनात्म पदार्थों से अलग बुद्धि वाला तृष्णा रहित पुरुष स्थितप्रज्ञ यानी ज्ञानी कहलाता है।
प्रजहाति यदा कामान् सर्वान् पार्थ मनोगतान्- इसका तात्पर्य यह है कि कामना न तो स्वयं में है और न ही मन में है। कामना तो आने जाने वाली चीज है और स्वयं निरन्तर रहने वाला है। अतः स्वयं में कामना कैसे हो सकती है। मन एक कारण है और उसमें भी कामना निरन्तर नहीं रहती जबकि उसमें आती रहती है। मनोगतान् अर्थात् मन में भी कामना कैसे हो सकती है। परन्तु, शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि से इसका तादात्म्य होने के कारण मनुष्य मन में आने वाली कामनाओं को अपने स्वयं में मान लेता है। स्वयं के स्वरूप का कभी त्याग नहीं होता और जिससे अपना कुछ भी सम्बन्ध नहीं है उसका भी त्याग नहीं होता। त्याग उसी का होता है जो अपना नहीं है पर उसको अपना मान लिया गया है। ऐसे ही कामना अपने में नहीं है पर उसको अपने में मान लिया गया है। इस मानने की क्रिया का ही त्याग करने को कहा गया है।
यहाँ कामान् शब्द में बहुवचन होने से सर्वान् पद उसी के अन्तर्गत आ जाता है फिर भी सर्वान् पद देने का तात्पर्य है कि कोई भी कामना न रहे और किसी भी कामना का कोई भी अंश बाकी न रहे। आत्मन्येवात्मना तुष्टः मतलब जिस समय मनुष्य सम्पूर्ण कामनाओं का त्याग कर देता है और अपने आप से अपने आप में ही संतुष्ट रहता है अर्थात् अपने आप में सहज स्वाभाविक संतोष का अनुभव करता है। यह सन्तोष स्वतः ही हमेशा के लिए रहता है। इसके लिये कोई अभ्यास या विचार नहीं करना पड़ता।
स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते अर्थात जब स्वयं अनन्त कामनाओं को अपने में मानता रहा था उस समय भी वास्तव में कामनाएँ अपने में नहीं थीं और स्वयं स्थितप्रज्ञ ही था। परन्तु उस समय अपने में कामनाओं को मानने के कारण बुद्धि स्थिर न होने से वह स्थितप्रज्ञ नहीं कहा जाता था अर्थात उसको अपनी स्थितप्रज्ञता का अनुभव नहीं होता था। अब उसने अपने में से सम्पूर्ण कामनाओं का त्याग कर दिया अर्थात उनकी मान्यता को हटा दिया तब उसे अपनी स्थितप्रज्ञता का अनुभव हो जाता है।
इसकी व्याख्या इस प्रकार किया जा सकता है कि स्थिर बुद्धि वाला व्यक्ति वह है जो मन से सभी इच्छाओं को पूरी तरह से त्याग देता है। आगे दूसरे अध्याय के 56 वें श्लोक में श्री कृष्ण कहते हैं-
‘‘दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः।
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते।।’’
तात्पर्य यह कि, आध्यात्मिक आदि तीनों प्रकार के दुखों के प्राप्त होने पर भी जिसका मन दुःखों में विचलित नहीं होता है। जो सुख की लालसा नहीं रखता, और जो आसक्ति, भय और क्रोध से मुक्त है, वह स्थिर बुद्धि वाला व्यक्ति अनुद्विग्न मना कहलाता है। इसी प्रकार सुखों की की प्राप्ति के साथ-साथ जिसकी लालसा नहीं बढ़ती है वह विगतस्पृह कहलाता है।
स्व का अर्थ है- आत्मा। और आत्मा ईश्वरत्व की ही पूर्ण अवस्था है। जब आपकी अपनी अनंत स्थिति तक पहुंच होती है। तो बाकी सब कुछ महत्वहीन हो जाता है। सभी परिमित या अपरिमित वस्तुओं की कीमत तुरन्त नगण्य हो जाती है। यदि हम अपने स्तर पर हमारे जीवन के संदर्भ में इसका अर्थ समझें तो इसके अंतर्गत इच्छाओं के क्रमिक विकास की बात की जा रही है- अर्थात व्यस्तता की एक अवस्था से दूसरी अवस्था में बढ़ना ही जीवन का आधार कहा गया है।
हम सभी किसी न किसी रूप में विकास की प्रक्रिया से गुजर रहे हैं। आज हम सभी बड़े हो गए हैं, लेकिन किसी समय बच्चे थे और बचपन में खिलौनों के प्रति आसक्त थे। क्या आज भी हमारी वही इच्छा है? बेशक नहीं। यहां तक कि अगर आज हमें बढ़िया से बढ़िया खिलौने दिए जाएं तब भी हम उन्हें अपनाना नहीं चाहेंगे। आज हम पूरे विश्वास के साथ कहते सकते हैं कि खिलौनों का हम क्या करेंगे क्योंकि हम इसकी इच्छाओं से पूरी तरह से मुक्त हैं।
बचपन की ये ख्वाहिश कैसे चली गई? क्या हम में से किसी ने कभी भी कहा, ‘‘मैं इन खिलौनों को त्यागने जा रहा हूँ?’’ नहीं! वास्तव में खिलौने हमारे जीवन से बाहर हो गए हैं। हमने जो कुछ किया वह कुछ उच्चतर, कुछ अधिक संतोषजनक, अधिक आकर्षक मिलने पर उसकी सराहना करने के लिए अपने आप हुआ। किसी ने खिलौनों की वासना से छुटकारा पाने का कोई प्रयास नहीं किया। हम केवल एक ऊंची इच्छा की ओर बढ़े हैं।
एक बच्चे को खिलौनों की इच्छा होती है। जब तक वह बचपन की अवस्था में है, तब तक हम उसे खिलौनों से दूर रहने या उनकी इच्छाओं को छोड़ने के लिए कभी राजी नहीं कर सकते। एक दिन जब बच्चा बड़ा हो जाता है और कंप्यूटर गेम में रोमांच का अनुभव करता है तो वह कंप्यूटर से जुड़ जाता है। फिर सभी खिलौनों का क्या होता है? वह बहुत कृपा पूर्वक उन्हें अपने छोटे भाई को दे देता है, जो उसके त्याग की भावना से अभिभूत है!
जबकि वास्तविकता तो यह है कि उसने कुछ भी त्याग नहीं किया है। उसने केवल कुछ ऐसा खोजा है जो उसे खिनिष्काम कर्म और समभाव हर व्यक्ति अपने जीवन में सुख और समृद्धि चाहता है। लेकिन हमारी मुश्किल यह है कि जीवन में आती हुई हर परिस्थिति के भीतर हम विचलित हो जाते हैं। सही में तो परिस्थिति को हमारा कहना मानना है, लेकिन होता यह है कि हम ही परिस्थिति के गुलाम बन जाते हैं। विचलित हो जाते हैं और अंत में दुखी होते हैं। भगवद गीता हमारा वैश्विक ग्रन्थ है यह कोई किताब नहीं कि उसको अलमारी में रखा जाए। हम गीता का उपयोग या तो कोर्ट में सौगंध खाने के लिए करते हैं, या तो किसी के मरने पर उसके पीछे बोलने के लिए। लेकिन यह तरीका गलत है। भगवद गीता, भगवान का मनुष्य जीवन के लिए दिया हुआ एक अमृत है, जिसे हर मनुष्य को अपने जीवन में प्रस्थापित करना है। गीता का हर शब्द, हर श्लोक, मनुष्य जीवन जीने का पथ प्रदर्शक है। गीता हमें यह निश्चित करवाती है कि, परिस्थितियों में विचलित हुए बिना समभाव से किये गए कार्य में सफलता निश्चित है। भगवद गीता के दूसरे अध्याय के 38वें श्लोक में भगवान ने कहा है कि-
सुखदुःखे समैं कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ!
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि!!
मतलब की, सुख और दुःख, हानि और लाभ, जीत और हार को एक समान मानकर अपने कर्तव्य के लिए संघर्ष करो, इस प्रकार अपनी जिम्मेदारी को पूरा करने पर मनुष्य कभी पाप का भागी नहीं बनता।
इस श्लोक में कर्मयोग के बारे में बताया गया है। इसके माध्यम से भगवान श्री कृष्ण, पहली बार आत्मा के उत्थान के उपायों और साधना का स्पष्ट रूप से वर्णन करते हैं। भगवान श्री कृष्ण, अर्जुन को एक स्तर पर ज्ञान प्रदान करने के बाद कर्म की व्यापकता समझाते हैं, क्योंकि अर्जुन ने कहा था कि वे अपने शत्रुओं को जो कि उनके परिवारजन ही हैं, उनसे कैसे युद्ध कर सकते हैं? यहाँ पर श्रीकृष्ण के समझाने पर वे युद्ध के लिए तैयार हुए फिर भी उन्होंने कहा कि वे अपने शत्रुओं को मारकर वह पाप का भागी बनेंगे। इस पर श्री कृष्ण, अर्जुन को कर्मों के फल की आसक्ति के बिना अपना कर्तव्य करने की सलाह देते हैं और कहते हैं काम करने के लिए अपनी जिम्मेदारी पूरा करने पर मनुष्य पाप का भागी नहीं बनता।
कहने का अर्थ है कि, यदि मनुष्य अच्छे कर्म करता है तो वह स्वर्गलोक जाता है और बुरे कर्म करने पर नीचे के लोक में, और यदि मिश्रित कर्म करता है, तो मनुष्य पृथ्वी ग्रह पर वापस आ जाते हैं। इस प्रकार हम कुछ भी करें, कर्म फल पीछा नहीं छोड़ता। लेकिन स्वार्थ, लाभ और हानि के बिना किया गया कर्म कोई प्रतिक्रिया नहीं पैदा करता है। अगर कोई समझता है कि भगवान तो मंदिर में है, और मैं जो कुछ बाहर करूँगा वो कोई भी नहीं देखता तो यह बात गलत है। भगवान हमारे भीतर ही हैं और हमारे जीवन में हर कर्म का हिसाब बराबर से करते हैं।
उदाहरण के लिए, हत्या एक पाप है, और दुनिया के हर देश का कानून इसे दंडनीय अपराध घोषित करता है। लेकिन अगर कोई पुलिसकर्मी अपने कर्तव्य के निर्वहन में डाकुओं के गिरोह के नेता को मार देता है, तो इसके लिए उसे दंडित नहीं किया जाता है। यदि कोई सैनिक युद्ध में किसी शत्रु सैनिक को मार डालता है, तो उसे इसकी सजा नहीं मिलती। वास्तव में, उन्हें बहादुरी के लिए पदक से भी नवाजा जा सकता है। सजा नहीं दिए जाने का कारण यह है कि, पुलिसकर्मियों या सैनिकों द्वारा किया गया यह कार्य, किसी दुर्भावना या व्यक्तिगत मकसद से प्रेरित नहीं होते हैं। देश सेवा के रूप में उनके अपने कर्तव्य निभाये जाते हैं। भगवान का कानून भी कुछ ऐसा ही है। यदि कोई मनुष्य सभी स्वार्थ उद्देश्यों को त्याग देता है और केवल सर्वाेच्च यानि भगवान के प्रति कर्तव्य के लिए कार्य करता है, तो ऐसे कार्य से कोई कर्म प्रतिक्रिया नहीं होती है। तो श्री कृष्ण, अर्जुन को यही सलाह देते हैं कि वह परिणाम के बारे में ना सोचे और केवल अपने कर्तव्य पर ध्यान केंद्रित करे। और इसलिए उन्होंने गीता के दूसरे अध्याय के 47 श्लोक में कर्मण्येवाधिकारस्ते- का नाद किया और बोला कि मनुष्य को कर्म करते रहना चाहिए और उसके फल की चिंता कभी भी नहीं करनी चाहिए।
जब वह जीत-हार, सुख-दुःख को समान रूप से स्वीकार कर समभाव से युद्ध करता है, तो शत्रुओं को मारकर भी वह पाप का भागी नहीं बनता। प्रकृति में भी इसके कई उदाहरण मौजूद हैं जैसे कमल का पत्ता पानी में ही रहता है लेकिन पानी का उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता वह बिल्कुल अछूता और सुरक्षित रहता है। इसी प्रकार कोई व्यक्ति अपने सभी कार्यों को भगवान को समर्पित करते हैं और कार्यों के परिणाम के प्रति आसक्ति को त्याग देता है, वैसे मनुष्य पाप से अछूते रहते हैं। इस श्लोक में कर्मयोग के बारे में बताया गया है। इसके माध्यम से ही भगवान श्री कृष्ण पहली बार आत्मा के उत्थान के उपायों और साधना का स्पष्ट रूप से वर्णन करते हैं। शरीर, मन और बुद्धि, इन तीन सहयोगी तत्त्वों के माध्यम से ही, जीवन में विभिन्न प्रकार के अनुभव प्राप्त होते हैं।