34. एम. एस. सुब्बुलक्ष्मी -भारतरत्न 1998

34. एम. एस. सुब्बुलक्ष्मी -भारतरत्न 1998

(जन्म-16 सितंबर, 1916: मृत्यु-11 दिसंबर 2004)

“वे संगीत द्वारा पश्चिमी श्रोताओं से जो सम्पर्क स्थापित करती हैं, उसके लिए आवश्यक नहीं कि पश्चिमी श्रोता उनके शब्दों को समझें, परन्तु उनके कंठ से निकले हुए मधुर स्वर पश्चिमी श्रोताओं के लिए उनसे सम्पर्क स्थापित करने का सबसे महत्त्वपूर्ण साधन हैं।”-न्यूयॉर्क टाइम्स

एमएस सुब्बुलक्ष्मी का नाम संगीत की दुनिया में बहुत ही अदब के साथ लिया जाता है। अपनी प्रतिभा से उन्होंने कर्नाटक संगीत में अमिट छाप छोड़ी। अपने जीवन में जितने सम्मान मदुरै षणमुखावादिवु सुब्बुलक्ष्मी को मिले, उतने कुछों को ही मिले होंगे। ऐसे भी कोई-कोई ही होते हैं, जिन पर पुरस्कारों की झड़ी लग जाती है और अन्तर्राष्ट्रीय लोकप्रियता की रोशनी लगातार दमकती रहती है। ऐसी थीं सुब्बुलक्ष्मी जिनके परिवारजन, मित्र और प्रशंसक उन्हें एम.एस. कहा करते थे।

विश्वप्रसिद्ध संगीत साम्राज्ञी एम.एस. सुब्बुलक्ष्मी का जन्म तमिलनाडु के मदुरै शहर में 16 सितम्बर, 1916 को एक संगीतमय परिवार में हुआ था। उनकी मां प्रसिद्ध वीणावादक थीं। उनकी स्कूली शिक्षा बीच में ही रुक गई थी, फिर भी अनेक संगीतकारों द्वारा संस्कृत श्लोकों के माध्यम से उनकी तालीम का क्रम जारी रहा। एम.एस. का संगीत में कैरियर बनाने की ख़ातिर परिवार 1936 में मद्रास आ गया था। इससे पहले वह सत्रह वर्ष की कम आयु में ही चेन्नई संगीत अकादमी की एक होनहार गायिका के रूप में सदस्य बन गई थीं।

आरम्भ से ही उनके मन में एक बात बैठ गई थी कि उनके संगीत को सुनकर श्रोताओं के मुरझाए चेहरों पर आनन्द की झलक दिखलाई दे। इसके लिए वह ख़ूब प्रयत्न करतीं। वह इस बात का भी पूरा ध्यान रखती थीं कि आधुनिकता की होड़ में लोग संगीत की भारतीय परम्परा को भूल न जाएं।

इस विलक्षण संगीत प्रतिभा ने पहली बार तेरह साल की उम्र में स्टेज पर गाना शुरू कर दिया। उन्हें घर में स्नेह से कुंजम्मा कहा जाता था। वह अन्त तक संगीत की गहनता को सीखती रहीं। उन्होंने दस विभिन्न भाषाओं में गायन का जादू जगाया और भजनों के साथ-साथ शास्त्रीय गायन की धारा को भी बराबरी से बहाया। सुब्बुलक्ष्मी के बाद शायद आज कोई और ऐसा गायक नहीं, जिसने पूरी तरह शुद्ध राग में गाई जाने वाली रचनाओं में महारत हासिल की हो। वह अपनी इस सफलता के पीछे प्रभु की कृपा, कांचीमठ के परमाचार्य और पति त्यागराजन सदाशिवम की प्रेरणा और आशीर्वाद को मानती थीं।

पति टी. सदाशिवम स्वतन्त्रता सेनानी और तमिल पत्रिका के मार्केटिंग मैनेजर थे। उनसे एम.एस. की मुलाक़ात मद्रास में हुई और 1940 में दोनों ने विवाह कर लिया। विवाह के बाद भी उनके जीवन में कठिनाइयों का सिलसिला जारी रहा। सदाशिवम की नौकरी जाती रही, क्योंकि वह केवल एम. एस. के पति ही नहीं, जुझारू देशप्रेमी और पत्रकार भी थे। आर्थिक तंगी से गुज़रती एम.एस. फिर भी सामाजिक कार्यों के लिए धन जुटा ही देती थीं। उनके दौर के महान संगीत गुरु उन्हें सुस्वरलक्ष्मी और शुभलक्ष्मी कहते थे।

सुब्बुलक्ष्मी के संगीत में एक विशेषता दिखाई देती थी, जो उन्हें अन्य प्रसिद्ध संगीतकारों से अलग बनाती है। वह यह कि संगीत की शुरूआत वह तानपूरे से करती थीं और तन्मय होकर गाना आरम्भ करतीं, तो इतनी भाव-विभोर हो जातीं कि तानपूरा उनके हाथों से छूट जाता। गीत उनके मुंह से गंगा की पवित्र धारा की तरह बहते चले जाते  श्रोता उन स्वरलहरियों में डूब जाते और अनुभव करते कि प्रभु उनके कष्टों को दूर कर सारी कामनाओं को पूरा करेंगे। सुब्बुलक्ष्मी की एक बड़ी उपलब्धि यह थी कि शास्त्रीय अनुशासन का उल्लंघन किए बिना लम्बी अवधि तक श्रोताओं को मोहित किया। हिन्दी का उनका शुद्ध उच्चारण ऐसा था कि एक-एक शब्द कली खिला दे। उनकी लोकप्रियता का एक कारण यह भी है कि उन्होंने भक्ति-भाव में डूबकर मीरा के अनेक भजन भी गाए और ‘मीरा’ नामक तमिल फ़िल्म में काम भी किया। इस फ़िल्म की हिन्दी रूपान्तर आने पर वह सारे देश में प्रसिद्ध हो गईं। इसके बाद उन्होंने ‘सेवासदन’, ‘सावित्री’, ‘शकुन्तला’ आदि फ़िल्मों में भी काम किया|

हमारे देश में कर्नाटक संगीत एक महान परम्परा है, जिसे सुब्बुलक्ष्मी ने देश में ही नहीं, विदेशों में भी शान से पहुंचाया और अपने श्रोताओं का एक विशाल समूह एकत्र कर लिया। पश्चिम के ढेरों देशों के सुनने वाले भाषा को नहीं समझने पर भी संगीत की ऊंचाइयों में डूबकर सुध-बुध खो देते। उन्होंने इंग्लैंड में 1963 में और संयुक्त राष्ट्र में 1966 में गायन प्रस्तुत किए। अमरीका के बाद रूस और ब्रिटेन के भार महोत्सवों में उन्होंने गायन के उच्च शिखर खड़े किए। दुनिया-भर के लोगों को उनकी गायकी समझने में ज़रा-सी भी दिक़्क़त नहीं होती थी । भक्ति संगीत में भी उनकी कमाल की रुहानी गहराई है।

‘सुप्रभातम’ में प्रतिदिन प्रसारित होने वाले उनके स्वर भारत के घर-घर में सुनाई देते हैं। सुब्बुलक्ष्मी अपनी संगीत साधना को प्रभु का प्रसाद मानती थीं। उनके जीवन में अनेक क्षण ऐसे आए, जब उनके भक्ति संगीत को सुनने के लिए विश्व के अनेक शासक, प्रधानमन्त्री, उच्च अधिकारी तथा व्यापारी लालायित रहते। साबरमती आश्रम में गांधी जी ने भी एक सन्ध्याकालीन प्रार्थना में सुब्बुलक्ष्मी से भजन सुनाने की प्रार्थना की थी। इसके बाद जब-जब वह गांधी जी के प्रिय भजन ‘वैष्णवजन तो तेने कहिए, जे पीर पराई जाने रे’ गातीं तो श्रोताओं पर जादू सा छा जाता।

वह ऐसी पहली महिला संगीतज्ञ थीं, जिन्हें संगीत अकादमी चेन्नई ने 1968 में संगीत कलानिधि के सम्मान से नवाज़ा। अनेक विश्वविद्यालयों ने डॉक्टरेट की मानद डिग्रियों से सम्मानित किया। उन्हें 1954 में पद्मभूषण और 1975 में पद्मविभूषण से अलंकृत किया गया। 1974 में रेमन मैग्सेसे और 1988 में कालिदास सम्मान भी उन्हें प्राप्त हुए। 1990 में राष्ट्रीय एकता के लिए इंदिरा गांधी अवार्ड भी दिया गया। सबसे अधिक चौंकाने वाला सम्मान तो उन्हें ‘ईसाई वाणी’ का मिला। पश्चिम का कर्नाटक संगीत से परिचय करवाने का श्रेय भी सुब्बुलक्ष्मी को ही जाता है। वर्ष 1963 में ईडनबर्ग महोत्सव के दौरान उनकी प्रस्तुति से ही पश्चिम के लोगों का वास्ता कर्नाटक संगीत से क़ायम हुआ था।

उनके गायन की प्रशंसा करते हुए पंडित जवाहरलाल नेहरू ने कहा था, “मैं तो केवल प्रधानमन्त्री हूं, परन्तु सुब्बुलक्ष्मी संगीत की साम्राज्ञी हैं।” नाक में हीरे की लौंग पहनने वाली उनकी छवि अद्भुत थी। स्वभाव से सरल एम. एस. पत्रकारों द्वारा प्रशंसा किए जाने पर असहज हो उठती थीं। वह चाहती थीं कि उनकी प्रशंसा न की जाए। विश्वविख्यात होने के बाद भी सुब्बुलक्ष्मी के व्यक्तित्व की विशेषता थी कि उन्हें अहंकार छू भी नहीं पाया था। संगीत के प्रति दीर्घ और महान सेवा को देखते हुए सुब्बुलक्ष्मी को भारत सरकार ने 14 जनवरी, 1998 में सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारतरत्न से विभूषित किया।

पति की मृत्यु के बाद एम. एस. ने सार्वजनिक रूप से गायन बन्द कर दिया था। 12 दिसम्बर, 2004 को अट्ठासी वर्ष की आयु में इस महान गायिका ने हमेशा के लिए गाना बंद करके इस संसार से ही नाता तोड़ लिया।

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