37. अमर्त्य सेन -भारतरत्न 1999 (जन्म 3 नवंबर 1933 शांतिनिकेतन, बंगाल)

37. अमर्त्य सेन -भारतरत्न 1999

(जन्म 3 नवंबर 1933 शांतिनिकेतन, बंगाल)

“मैं प्रतिवर्ष भारत आकर भारतीय जनता की निर्धनता का उल्लेख करते हुए इस बात पर बल देता हूं कि जब तक समाज में राजनीतिक और आर्थिक असमानताएं विद्यमान रहेंगी और सामाजिक विषमताएं दूर नहीं होंगी, तब तक भारत की उन्नत देशों में गणना होना असम्भव है। “प्रो. अमर्त्य सेन

प्रो. अमर्त्य सेन का जन्म 3 नवम्बर, 1933 को शान्तिनिकेतन में माता अमिता और पिता आशुतोष के घर हुआ था। बचपन में सब उन्हें बबलू या अमरतो के नाम से पुकारते थे। वह कुछ बड़े हुए और शान्तिनिकेतन में ही अपनी शिक्षा लेने लगे। वहां पढ़ते समय एक दिन विश्वकवि रवीन्द्रनाथ टैगोर ने अपने इस विद्यार्थी का नाम अमर्त्य रखा था, इसका अर्थ है, जिसकी कीर्ति सदैव अमर रहेगी।

सचमुच बालक अमरतो ने गुरुदेव द्वारा दिए इस नाम को बड़े होने पर सार्थक कर दिखाया। गुरुदेव के पदचिह्नों पर चलकर उसने मानव कल्याणकारी अर्थशास्त्र की नवीन अवधारणा के सृजक के रूप में 1998 में नोबेल पुरस्कार प्राप्त किया। प्रो. सेन ने पहली बार अर्थशास्त्र का यह पक्ष दुनिया के सामने रखा। यह उनके दृढ़ संकल्प और बुद्धि कौशल का श्रेष्ठ उदाहरण था।

प्रो. अमर्त्य सेन ने अपनी प्रारम्भिक शिक्षा शान्तिनिकेतन से लेने के बाद कलकत्ता विश्वविद्यालय से 1953 में स्नातक की उपाधि पाई और उच्च शिक्षा के लिए इंग्लैंड का रुख किया। उन्होंने कैम्ब्रिज के ट्रिनिटी कॉलेज से एम. ए. और पीएच.डी. किया। डॉक्टरेट की उपाधि के बाद प्रो. सेन वापस अपने देश लौट आए और जाधवपुर विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र विभाग के अध्यक्ष और प्रोफ़ेसर का पदभार संभाल लिया। उस समय उनकी आयु केवल 23-24 वर्ष की थी।

इसी बीच 1957 से 1963 तक कैम्ब्रिज के ट्रिनिटी कॉलेज के फ़ेलो बने रहे। 1959 में प्रो. सेन ने महान अर्थशास्त्री जॉन रॉबिन्सन के मार्गदर्शन में ‘विकास नियोजना में तकनीकों का चयन’ जैसे विषय पर डॉक्टरेट हासिल कर ली थी। दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनोमिक्स, लन्दन स्कूल ऑफ इकोनोमिक्स, हार्वर्ड यूनिवर्सिटी और ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों से जुड़कर उन्होंने अध्यापन के साथ-साथ गहन अध्ययन भी जारी रखा।

उनके शोधपत्रों ने उन्हें अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति दिलवा दी थी। विश्व के सर्वाधिक प्रतिष्ठित विभिन्न संस्थानों में अध्यापन कार्य कर चुके प्रोफ़ेसर सेन, इंग्लैंड के सबसे प्रतिष्ठित एकेडमिक पद मास्टर ऑफ़ ट्रिनिटी कॉलेज में अध्यापन कर रहे हैं। भारत में दिल्ली स्कूल ऑफ़ इकोनोमिक्स के मानद प्रोफ़ेसर के रूप में छात्रों का मार्गदर्शन करना भी उनका महत्त्वपूर्ण कार्य माना जाता है।

प्रो. अमर्त्य सेन का दृष्टिकोण संवेदनशील मानवतावादी है। उन्होंने मनुष्य की ग़रीबी और ग़ैरबराबरी के सामाजिक और राजनीतिक दृष्टिकोण से जाना कि यह मनुष्य को जैसा-का-तैसा जीवन बिताने पर मजबूर कर अपाहिज और भाग्यवादी बना देता है। प्रो. सेन के अनुसार जब मनुष्य यह समझ बैठता है कि उसके भाग्य में तो सिर्फ़ ग़रीबी ही लिखी है, तब वह उस परिस्थिति को बदलने के लिए अपनी इच्छाशक्ति ही खो बैठता है|

प्रो. सेन ने मनुष्य की ऐसी सोच के पीछे अशिक्षा को कारण बताया है। अशिक्षित व्यक्ति लम्बे समय तक ग़रीबी को भोगने के बाद हीनभावना से ग्रस्त हो जाता है। इससे वह सामाजिक और आर्थिक गैरबराबरी के प्रति संघर्ष करने की शक्ति खो देता है। यह सब उन्होंने ग़रीबों की विभिन्न अवस्थाओं पर अपनी एक पुस्तक में विस्तार से लिखा है। भारत में स्त्री-जीवन की दयनीय स्थिति पर भी अपनी पुस्तकों में विचार दिए हैं।

“कोई भी देश प्रारम्भिक शिक्षा को जब तक प्रत्येक नागरिक तक नहीं पहुंचाता, तब तक उन्नति के पथ पर आगे नहीं बढ़ सकता। यह सभी जानते हैं कि विकसित देशों की तरह ही भारत ने भी उच्च शिक्षा के क्षेत्र में बहुत उन्नति की है, किन्तु अभी भी भारत में प्रारम्भिक शिक्षा की स्थिति बहुत ज़्यादा अच्छी नहीं है। प्रारम्भिक शिक्षा की उपेक्षा के कारण गांवों के बच्चे शिक्षा से वंचित रह गए।”

ये उद्गार प्रो. सेन ने अपनी एक पुस्तक में दिए हैं। उन्होंने भारतीय बच्चों के जीवन को सुधारने के लिए नोबेल पुरस्कार में मिली लगभग समूची राशि का उपयोग शिक्षा के क्षेत्र में करने के लिए एक ट्रस्ट की स्थापना की। मानवता के लिए इतना बड़ा दान करने वाले अमर्त्य बाबू का भारत और भारत के लोगों से लगाव देखकर बड़ा सन्तोष होता है। इसी तरह आम जीवन को भी उन्होंने अपने से जुदा नहीं किया। भारत आकर अपने घर शान्तिनिकेतन जाते हैं, तो यार-दोस्तों के साथ घूमना नहीं भूलते। उन्होंने अपने चिन्तन और सोच के दायरे को भी भारत के बारे में केन्द्रित किया।

वह विशुद्ध रूप से भारतीय हैं, क्योंकि उन्होंने भारत की नागरिकता कभी नहीं छोड़ी और इतने वर्षों से विदेश में रहने के बावजूद दूरे देश की नागरिकता प्राप्त नहीं की। इंग्लैंड के विश्वविद्यालयों में वह वर्षों से अध्यापन कार्य कर रहे हैं, लेकिन इंग्लैंड को कार्यक्षेत्र बनाने का अर्थ यह नहीं हो गया कि वह भारत से दूर हो गए। वह हर साल दो से तीन बार तक यहां आते हैं और इसी दौरान सभा-सेमिनार से लेकर लोगों को दिशा-निर्देश भी देते हैं, ताकि जो ज्ञान उन्होंने पाया है, उससे कोई दूसरा वंचित न रह जाए। वह सिर्फ़ अकादमिक व्यक्तित्व नहीं रहना चाहते, बल्कि मानव के कल्याण के लिए सतत प्रयत्नशील रहना चाहते हैं|

प्रो. अमर्त्य सेन का व्यक्तित्व बड़ा चुम्बकीय और बहुआयामी है। यूं तो वह प्रसिद्ध अर्थशास्त्री हैं, जिनकी गिनती विश्व के चोटी के लोगों में होती है, परन्तु साथ ही उनकी रुचि दर्शनशास्त्र में भी गहरी है। दर्शनशास्त्र में उनकी पकड़ के कारण वह अपने भाषणों और लेखन में चाणक्य और गीता के सन्देशों का उल्लेख करते हैं। वह अर्थशास्त्र के साथ दर्शनशास्त्र को भी पढ़ाने में आनन्द का अनुभव करते हैं।

यह उनका पारिवारिक जीवन कई घुमावदार रास्तों से होता हुआ गुज़रा है। 1960 में उनका विवाह बंगला की प्रसिद्ध लेखिका नवनीता देव के साथ हुआ, लेकिन यह वैवाहिक सम्बन्ध 1974 तक ही चल पाया। इस बीच वह दो सन्तानों के पिता बने। नवनीता देव से अलग होने के बाद उन्होंने दूसरा विवाह किया। उनकी दूसरी पत्नी दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनोमिक्स की इवा नामक छात्रा थी। इवा विदेशी मूल की थी। दुर्भाग्य से इवा की 1985 में मृत्यु हो गई। उसकी मृत्यु के बाद प्रो. सेन इंग्लैंड चले गए और 1991 में एम्मा रोश्स चाइल्ड नामक महिला से विवाह कर लिया। एम्मा अभी ट्रिनिटी कॉलेज में शिक्षिका के रूप में कार्य कर रही है।

प्रो. सेन ने लगभग 23-24 पुस्तकें और 215 के करीब शोध-पत्र लिखे हैं। इनमें से प्रमुख पुस्तकें हैं – ‘थ्योरी ऑफ़ सोशल च्वाइस’, ‘डेफीनेशन ऑफ़ वेल्फेयर एंड पावर्टी’ और ‘स्टडीज़ ऑफ़ फ़ेमन’। उन्हें इन्हीं पुस्तकों पर 1998 में नोबेल पुरस्कार मिला। वह मानव कल्याणकारी अर्थशास्त्र की नवीन अवधारणा के सृजक के रूप में नोबेल पुरस्कार पाने वाले प्रथम व्यक्ति हैं|

अमर्त्य सेन तब मात्र दस वर्ष के थे, जब बंगाल में अकाल पड़ा था। उस अकाल की याद वह कभी नहीं भूले। यह अनुभव उनके लेखन के समय फलीभूत हुआ। उन्होंने अकाल और ग़रीबी को लेकर, जो पुस्तकें लिखी उसकी दुनिया-भर में चर्चा हुई, परन्तु नोबेल पुरस्कार उन्होंने दूसरी दो पुस्तकों के कारण मिला। इन दोनों पुस्तकों में ख़ासतौर से ग़रीबी, ग़ैरबराबरी और अभाव की, भारत में मौजूदगी पर विस्तार से चर्चा की गई है। उनका कहना है कि, अकाल अनाज की कमी के कारण नहीं, बल्कि वितरण की व्यवस्था में त्रुटि और लोगों में ख़रीद की शक्ति के अभाव के कारण पड़ता है।

इन्हीं प्रो. अमर्त्य सेन को 1999 में भारत सरकारने, देश का सर्वोच्च अलंकरण ‘भारतरत्न’ देकर सम्मानित किया। दुनिया के सबसे बड़े अर्थशास्त्री और नोबेल पुरस्कार विजेता ‘अमरतो बाबू’ आज भी बेहद सरल स्वभाव के, व्यक्ति हैं और उनमें मानवीय संवेदना कूट-कूटकर भरी है।

 

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