36. जयप्रकाश नारायण-भारतरत्न 1998
( जन्म-11 अक्तूबर 1902, मृत्यु- 8 अक्तूबर 1979 पटना)
लोकनायक के नाम से लोकप्रिय, जयप्रकाश नारायण एक भारतीय स्वतंत्रता कार्यकर्ता सिद्धांतवादी समाजवादी और राजनीतिक नेता थे।
जयप्रकाश नारायण का जन्म 11 अक्तूबर, 1902 को सिताब दियरा में हुआ था। यह उत्तर-प्रदेश और बिहार की सीमा के पास एक गांव है, जहां इनके दादा व पिता हरसूदयाल रहते थे। इनकी मां का नाम फूलरानी देवी था, जो छपरा जिले के एक ज़मींदार की बेटी थी। पिता पढ़े-लिखे थे और नहर विभाग में काम करते थे। दादा देवकीनन्दन लाल दरोगा के काम पर तैनात थे।
पढ़े-लिखे खानदान के थे, इसलिए जयप्रकाश बाबू को भी पढ़ाई में आगे बढ़ना था। गांव की पाठशाला के बाद पटना के कॉलेजिएट स्कूल गए। यहां से प्रथम श्रेणी में मैट्रिक पास किया और पटना कॉलेज में पढ़ने लगे। इस दौरान आज़ादी के लिए ज़बरदस्त आन्दोलन चल रहे थे। जेपी ने 1974 में भारत के उस दौर में जाति-भेद मिटाने को लेकर आंदोलन किया था और तब जेपी के साथ लगभग 10 हजार लोगों ने अपना जनेऊ तोड़ यह संकल्प लिया था कि वे जाति प्रथा को नहीं मानेंगे। जयप्रकाश नारायण ने भारत में न्यायपूर्ण सामाजिक व्यवस्था की स्थापना के लिए संघर्ष किया। उनके मौलिक विचार आज भी अपने देश की ज्वलंत सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, शैक्षणिक और सांस्कृतिक समस्याओं के समाधान के लिए प्रासंगिक हैं।
एक भाषण में मौलाना आज़ाद ने अंग्रेज़ी शिक्षा को ज़हर के समान बताया, फिर क्या था| अगले दिन ही उन्होंने कॉलेज को त्याग दिया, फिर तो बिहार विद्यापीठ में ही पढ़े, जो एक राष्ट्रीय विद्यालय था। यहां से प्रथम श्रेणी में आई.एस.सी. किया। तभी उनके विवाह की बात चल पड़ी और आखिर अक्तूबर, 1920 को वह प्रभावती देवी के साथ विवाह के बंधन में बंध गए। जयप्रकाश बाबू अब आगे की शिक्षा के लिए अमरीका जाना चाहते थे और आखिर वह कैलीफोर्निया विश्वविद्यालय में दाखिला लेने के लिए बर्कले पहुंचे ही गए। खर्चों में तंगी के कारण पढ़ाई के लिए छोटे-छोटे काम भी किए और इस तरह एम. ए. तक शिक्षा प्राप्त कर ली। वह पी-एच.डी. भी करना चाहते परन्तु मां की बीमारी के कारण वापिस भारत लौट आए।
जे.पी. सिताब दियरा पहुंचे। जे.पी. नाम उन्हें अमरीका में एक प्रोफ़ेसर ने दिया था। इसके बाद ही वह आज़ादी की लड़ाई में उतरे और आगे बढ़ते गए। शुरू में काफ़ी समय तक विनोबा भावे के साथ रहकर सर्वोदय की विचारधारा से जुड़े रहे। अमरीका से लौटते हुए कम्युनिस्ट विचारधारा से लैस थे, पर यहां राष्ट्रीय आन्दोलनों ने उन्हें कांग्रेस की तरफ़ मोड़ दिया। आगे चलकर वह कांग्रेस के मज़दूर विभाग के इंचार्ज बन गए, फिर इलाहाबाद आकर पं. नेहरू के साथ ही रहने लगे। राजनीति कार्यकलापों के कारण उन्हें जेल-यात्राएं भी करनी पड़ीं।
दूसरा विश्वयुद्ध प्रारंभ हुआ, तो ब्रिटेन ने बिना भारत की मर्ज़ी जाने उसे युद्ध में शामिल कर लिया। इसका डटकर विरोध किया गया। जयप्रकाश बाबू के तेवर इस मामले को लेकर सबसे ज़्यादा तीखे थे। विरोध में उन्होंने एक परिपत्र भी जारी कर दिया था। इसके लिए उन्हें सज़ा मिली और नौ माह के लिए जेल भेज दिया गया। जेल से छूटने के बार उनके क्रान्तिकारी विचारों ने एक और अंगड़ाई ली और उन्होंने सशस्त्र संघर्ष के रास्ते पर चल पड़ने का फैसला किया। इसके लिए देश की जनता के नाम फिर एक परिपत्र जारी किया।
जिन दिनों वह हज़ारीबाग जेल में थे, उन्होंने ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ में सक्रिय रूप से भाग लेने का मन बना लिया और एक दिन जे. पी. जेल से फ़रार हो गए। इस आन्दोलन के कारण बड़े-बड़े नेताओं को गिरफ़्तार किया गया। वह स्वयं अंग्रेज़ों के विरुद्ध अंतिम संघर्ष का नेतृत्व करने लगे । लाहौर के नज़दीक एक बार फिर उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया। 31 महीने की लम्बी सज़ा के बाद उन्हें जेल से छोड़ा गया, यह 11 अप्रैल, 1946 की बात थी।
आज़ादी के बाद 1952 में उन्होंने आत्मशुद्धि के लिए उपवास किया। इसके बाद ग्राम सुधार में लग गए। 1971 में विनोबा भावे से मिलने पवनार आश्रम गए और वहां बीमार पड़ गए। आगे चलकर पटना के गांधी मैदान में छात्रों की एक अभूतपूर्व सभा में उन्हें लोकनायक की उपाधि से विभूषित किया गया। सम्पूर्ण क्रान्ति का नारा उन्होंने 5 जून, 1973 को दिया था।
राजनीति के पैरोकारों के दिलों में कांग्रेसी सत्ता के ख़िलाफ़ असन्तोष भड़कने लगा था। ग़रीबों की उपेक्षा हो रही थी। गांधी के अनुयायियों का जीवन-दर्शन तथा रहन-सहन बदल रहा था। अतः तपे हुए नेताओं ने जयप्रकाश बाबू से अनुरोध किया कि वह आगे बढ़कर राष्ट्र का नेतृत्व करें।
जयप्रकाश बाबू को इस बात का अच्छी तरह पता था कि लोकतन्त्र में विपक्ष को पड़ने वाले वोट उन वोटों से कहीं अधिक होते हैं, जो कांग्रेस पार्टी को डाले जाते हैं। आखिर वह इस रास्ते पर चल पड़े और जनसभाएं आयोजित करना शुरू कर दीं। उन्होंने पार्टियों से अनुरोध किया कि जनता पार्टी बनाएं और उसमें अपना-अपना झंडा, सिद्धान्त तथा कार्यक्रम सब शामिल कर दें। उनका कहना था कि सब एक ही मंच पर होंगे, तो निश्चय ही उनकी विजय होगी ।
जयप्रकाश बाबू के क्रान्तिकारी विचार चमत्कारी सिद्ध हुए और उनका आन्दोलन ज़ोर पकड़ने लगा । सभाओं में अपार भीड़ जुटने लगी। इस आन्दोलन को सम्पूर्ण क्रान्ति के ज्वार के रूप में देखा गया । इन्दिरा गांधी समेत पूरी कांग्रेस चिन्तित हो उठी और इससे निबटने के लिए आपत्काल की घोषणा कर दी। इसके पश्चात मीसा जैसे कष्टकारी क़ानून के अन्तर्गत शीर्ष नेताओं को या तो गिरफ़्तार कर लिया गया अथवा उन्हें भूमिगत होना पड़ा। जयप्रकाश को भी गिरफ़्तार कर लिया गया। जेल में उनका स्वास्थ्य गिरने लगा और दोनों गुर्दे ख़राब हो गए। जेल से छूटने के बाद वह जितने दिन जिए, उन्हें डायलेसिस के सहारे ही जीना पड़ा।
आपत्काल को भी एक दिन जाना ही था, सो उसे उठा लिया और चुनाव घोषित कर दिए गए। इसमें कांग्रेस की बुरी तरह पराजय हुई। जयप्रकाश बाबू की भविष्यवाणी सत्य साबित हुई और केन्द्र में जनता पार्टी की सरकार बनी|
जयप्रकाश बाबू पूरे मन से यही चाहते थे कि इस देश के ग़रीबों, साधनहीनों और बेसहारा लोगों को रोज़ी-रोटी मिले। उस शोषण से उन्हें मुक्ति मिले, जिसे वे हमेशा से झेलते आ रहे हैं। उनके इन विचारों की वजह से जनता उनकी आवाज़ उसी प्रकार सुनने लगी थी, जैसे वह कभी पं. नेहरू की आवाज़ सुनती थी। जनता पार्टी से भी यही उम्मीद की जाती थी कि यह नई पार्टी जनता का भला अवश्य करेगी।अनेक विचारधाराओं के मेल से पकी खिचड़ी ज़्यादा दिनों तक रुचिकर नहीं लग सकती थी ।
इन्दिरा गांधी की रणनीति ने नई पार्टी को छिन्न-भिन्न कर दिया। जयप्रकाश बाबू हालांकि जनता सरकार और जनता पार्टी की दुर्दशा देखने के लिए जीवित नहीं रहे।जयप्रकाश बाबू का व्यक्तित्व अजेय था। सचमुच वह लोकनायक ही थे। उस समय की विषम परिस्थितियों से जनता को राहत देने के लिए उन्होंने एक तपे नेता की तरह भरपूर प्रयास किया, जो वास्तव में उनके जैसा निःस्वार्थ जननेता ही कर सकता था|
उनके सामने नेहरू जी के ज़माने में और उसके बाद भी कई प्रकार के प्रलोभन आए, लेकिन उन्होंने उनकी ओर ध्यान तक नहीं दिया था । त्याग की वह साकार मूर्ति थे। राजनीति में अकेले पड़ जाने के बावजूद कभी अपने । सिद्धान्तों से समझौता नहीं किया।
लोकनायक खिताब से विख्यात जयप्रकाश नारायण इस देश के उन महापुरुषों में से थे, जिन्होंने देश-सेवा करने का कोई पद या पुरस्कार नहीं लिया। यही वजह है कि जनता ने भरपूर सम्मान देकर उन्हें लोकनायक कहना सही समझा। वह सचमुच ऐसे लोकनायक थे, जिनका नाम लेकर लोग सत्य के मार्ग पर चलेंगे और भावी पीढ़ियां गौरव का अनुभव करेंगी।
1998 में सरकार ने बाबू जयप्रकाश नारायण द्वारा की गई, राष्ट्र सेवाओं के प्रति सम्मान व्यक्त करते हुए उन्हें 23 दिसम्बर, 1998 को मरणोपरान्त भारतरत्न की उपाधि प्रदान करके एक राष्ट्रीय दायित्व का निर्वाह किया|