33. अरुणा आसफ़ अली -भारत-रत्न 1997

33. अरुणा आसफ़ अली -भारत-रत्न 1997

( जन्म-16 जुलाई, 1909 को कालका, मृत्यु-29 जुलाई 1996 नई दिल्ही)

अरुणा असफ अली शिक्षिका, राजनीतिक कार्यकर्ता और प्रकाशक थीं, जिन्होंने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन में जिन महिलाओं ने हिस्सा लिया, अरुणा आसफ़अली का नाम उनमें सर्वप्रथम लिया जाता है। अपने सशक्त भूमिगत आन्दोलन के कारण उन्हें ‘1942 की क्रान्ति की नायिका’ भी कहा गया। इसके पूर्व 1930 के असहयोग आन्दोलन और 1941 के व्यक्तिगत सत्याग्रह में भी वह जेल गई थीं, पर राष्ट्रीय नेताओं की प्रथम पंक्ति में उनका नाम भारत छोड़ो आन्दोलन के दौरान ही चमका।

अरुणा जी का जन्म 1909 में एक सम्मानित बंगाली परिवार में हुआ। शिक्षा नैनीताल के एक कॉन्वेंट स्कूल में प्राप्त की और अध्यापन कार्य कलकत्ता की गोखले स्मारक पाठशाला में शुरू किया। उन्हीं दिनों 1928 में अध्यापन छोड़ दिल्ली के प्रसिद्ध देशभक्त वकील आसफ़अली से विवाह करके अरुणा गांगुली से वह अरुणा आसफ़अली बन गईं। आसफ़अली आयु में उनसे 23 वर्ष बड़े थे। उनके मुसलमान होने के कारण अरुणा जी को अपने समाज के ज़बर्दस्त विरोध का सामना करना पड़ा।

संयोग से हिन्दू-मुस्लिम विवाह उन दिनों राष्ट्रीय एकता की भावना से बंधकर बड़ी तादाद में किए जा रहे थे। इसलिए कांग्रेसी क्षेत्रों में इस क़दम का स्वागत ही किया गया। राजनीति में भाग लेते हुए उन्हें पति के साथ ही जैसे एक राजनीतिक पथ-प्रदर्शक भी मिल गया|

1930 के सत्याग्रह के समय ही अरुणा जी आज़ादी की लड़ाई की एक जुझारू नेता के रूप में सामने आ गई थीं। जुलूसों का नेतृत्व करने, सभाओं में भाषण देने जैसी गतिविधियां देखकर दिल्ली के चीफ कमिश्नर ने उन्हें चेतावनी दी कि वह अपने-आप को आन्दोलनों से दूर रखें, पर अरुणा जी ने इनकार कर दिया और उन्होंने एक वर्ष के लिए जेल जाना पसन्द किया। कुछ महीनों बाद गांधी-इरविन समझौते के समय अन्य नेता रिहा कर दिए गए, लेकिन ख़तरनाक व्यक्ति बताकर अरुणा जी को नहीं छोड़ा। गांधी जी के हस्तक्षेप, जेल के अन्य साथियों की रिहाई के बिना अपनी रिहाई से इनकार तथा जनमत के भारी दबाव को देखकर आखिर सरकार को उन्हें रिहा करना ही पड़ा|

1932 में सत्याग्रह करके अरुणा जी फिर जेल चली गईं। इस बार उन्हें छः महीने की सज़ा मिली। दिल्ली की जेल में कैदियों के साथ दुर्व्यवहार के विरोध में उन्होंने भूख हड़ताल भी की। इस पर अधिकारियों ने उनकी मांगें तो मान लीं, पर वहां से हटाकर अम्बाला जेल के एकान्त में रख दिया। रिहाई के बाद इस बार उन्होंने अपना एक वर्ष अपने स्वास्थ्य सुधार और अध्ययन-मनन में लगा दिया। 1941 में हालांकि व्यक्तिगत सत्याग्रह करके वह फिर जेल गई थीं, पर अब उन्होंने निर्णय कर लिया था कि आगे कोई आन्दोलन हुआ, तो वह जेल नहीं जाएंगी, भूमिगत रहकर काम करेंगी।

अरुणा जी की विचारधारा समाजवादी थी, पर उनका झुकाव साम्यवाद की ओर अधिक था। पति के राजनीति में भाग लेने के कारण उनका अनेक नेताओं से सम्पर्क हुआ। कांग्रेस में सोशलिस्ट नेता जयप्रकाश नारायण, अच्युत पटवर्धन और राममनोहर लोहिया से उनके विचार अधिक मेल खाते थे।

8 अगस्त, 1942 के ‘भारत छोड़ो’ प्रस्ताव के समय वह अपने पति के साथ बम्बई में हुई कांग्रेस कार्यकारिणी की मीटिंग में उपस्थित थीं। 8 अगस्त की रात सभी बड़े नेताओं को गिरफ़्तार कर लिया गया। 9 अगस्त को सरकारी इमारतों पर तिरंगा फहराने के आन्दोलन की शुरूआत करने वाली सभा की अध्यक्षता अरुणा आसफ़अली ने ही की थी।

नेताओं की थोक गिरफ़्तारी से देश में तूफ़ान सा आ गया। इस अवसर पर लाठी चार्ज, आंसू गैस छोड़ने, गोली चलाने की घटनाएं हुईं और धर-पकड़ शुरू हो गई। योजना के अनुसार अरुणा जी तुरन्त भूमिगत हो गईं। उन्होंने कहा, “सभी लोग जेल चले जाएंगे, तो आन्दोलन कौन चलाएगा?” इस तरह वह अपनी गिरफ़्तारी से बचते हुए आन्दोलन का लगातार नेतृत्व करती रहीं 1 इस तरह गुप्त रूप से ब्रिटिश विरोधी कार्यवाहियों में जुटी रहीं तथा देश के प्रमुख नगरों का दौरा किया।

26 सितम्बर, 1942 को उनकी दिल्ली की सारी सम्पत्ति ज़ब्त कर ली गई। सम्पत्ति लौटाने के लिए आत्मसमर्पण की शर्त लगा दी। इस पर भी अरुणा जी सामने नहीं आईं, तो उनका मकान, सामान, कार सब नीलाम कर दिए गए, परन्तु अरुणा जी झुकीं नहीं। वह लगातार गुप्त तरीक़ों से काम करते हुए आन्दोलन को आगे बढ़ाती रहीं।

भूमिगत रहते हुए उन्होंने राममनोहर लोहिया के साथ मिलकर ‘इंकलाब’ भी चलाया। इस पत्र के माध्यम से वह जनचेतना जगाती रहीं। उनका कहना था, “इस समय हिंसा-अहिंसा की बहस में न पड़कर हमें लड़ाई जारी रखनी चाहिए। मैं चाहती हूं कि देश का हर नागरिक अपने ढंग से क्रान्ति का सिपाही बने।” उनकी अपीलों ने लोगों को इतना प्रभावित किया कि बहुत से सरकारी कर्मचारी अपनी नौकरियां छोड़ कर आन्दोलन में कूद पड़े और हज़ारों छात्र-छात्राएं कॉलेजों से बाहर निकल कर आन्दोलन की गति तेज़ करने में जुट गए।

लुकते-छिपते, लगातार तकलीफें सहते अरुणा जी का स्वास्थ्य बहुत गिर गया था। उनका सुराग देने वाले के लिए पांच हज़ार रुपए का इनाम भी घोषित किया गया था। गांधी जी ने उन्हें सलाह दी, “अपने-आप को इस तरह मारने के बजाय साहस से आत्मसमर्पण कर दो और पांच हज़ार रुपए इनाम स्वयं जीतकर हरिजन फंड में दान कर दो।” फिर भी गिरे स्वास्थ्य और गांधी जी की सलाह के बावजूद उन्होंने अन्त तक आत्मसमर्पण नहीं किया। 1944 में सभी नेता रिहा हो गए, तब भी वह सामने नहीं आईं।

1946 की 26 फ़रवरी को जब उनके विरुद्ध गिरफ़्तारी का वारंट वापस ले लिया गया, तभी वह प्रकट हुईं। दैनिक ‘ट्रिब्यून’ ने इस साहसिक व सफल भूमिगत मोर्चाबन्दी के लिए उन्हें 1942 की ‘रानी झांसी’ कहकर सम्बोधित किया।

आज़ादी के बाद 1947 में वह दिल्ली प्रदेश कांग्रेस कमेटी की अध्यक्ष बनीं, परन्तु वैचारिक मतभेद के कारण 1948 में सोशलिस्ट पार्टी में शामिल हो गईं। यहां भी उन्होंने वामपन्थी सोशलिस्ट पार्टी का गठन किया। यह पार्टी 1955 में कम्यूनिस्ट पार्टी में मिल गई । वह कम्यूनिस्ट पार्टी की केन्द्रीय समिति की सदस्य और मज़दूर कांग्रेस की उपाध्यक्ष बनीं।

उनके पति का 1953 में स्विट्ज़रलैंड में निधन हो गया था, जहां वह राजदूत थे। दुख की इस घड़ी में भी अरुणा जी ने अपना धीरज नहीं खोया। 1958 में उन्होंने कम्यूनिस्ट पार्टी भी छोड़ दी और नेहरू जी की मृत्यु के बाद 1964 में फिर कांग्रेस में आ गई। 1958 में वह दिल्ली नगर निगम की प्रथम महिला मेयर बनीं। दूसरी बार भी मेयर बनीं, पर 1959 में उन्होंने स्वयं त्यागपत्र दे दिया।

वामपन्थी विचारधारा की समर्थक अरुणा आसफ़अली इसके बाद अनेक राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय राजनीतिक, सामाजिक और महिला संस्थाओं में अग्रणी रूप से सक्रिय रहीं। ‘लिंक’ और ‘पैट्रियट’ जैसे पत्रों की संस्थापिका- व्यवस्थापिका के नाते पत्रकारिता में भी उन्होंने नाम कमाया। उन्हें अनेक राष्ट्रीय, अन्तर्राष्ट्रीय पुरस्कार और सम्मान भी मिले, पर उनके लिए वास्तविक सम्मान तो जनता के दिलों में था। 29 जुलाई, 1996 को यह जुझारू महिला इस संसार से विदा हो गई।

उनकी मृत्यु के बाद 1997 में 24 जुलाई को उन्हें भारत के सर्वोच्च सम्मान भारतरत्न से सम्मानित किया गया।

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