30. सत्यजित राय, भारतरत्न 1992

 

30. सत्यजित राय, भारतरत्न- 1992

(2 मई 1921 कोलकता – 23 अप्रैल 1992 कोलकता )

जीवन के यथार्थ को ख़ूबसूरती के साथ प्रस्तुत करने और भारतीय फ़िल्मों को विश्व स्तर की ऊंचाइयां प्रदान करने वाले, साथ ही सहित्य और कला के क्षेत्र में बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी सत्यजित राय अपने निकट के सम्बन्धियों और दोस्तों में माणिकदा के नाम से मशहूर थे। उनका जन्म 2 मई, 1921 को कलकत्ता के कला-सम्पन्न परिवार में हुआ था। उनके पिता सुकुमार राय मशहूर व्यंग्य लेखक, चित्रकार और अच्छे कवि थे। मां सुपर्णा राय अपने ज़माने की प्रसिद्ध गायिका थीं। उनके दादा भी बच्चों के लेखक थे। इस प्रकार कहा जा सकता है कि सत्यजित राय को साहित्य, संगीत और कला विरासत में मिले थे।

जब उनके पिता का देहान्त हुआ, तब उनकी उम्र बहुत कम थी । अतः उन्हें अपना बचपन मामा के यहां भवनीपुर में बिताना पड़ा।

उन्होंने बालीगंज के सरकारी स्कूल से हाईस्कूल तक शिक्षा प्राप्त की। 1940 में प्रेसीडेंसी कॉलेज से स्नातक की उपाधि प्राप्त कर ली थी। उसके बाद शान्तिनिकेतन चले गए। वहां गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर की छत्र-छाया में आर्ट स्कूल में अध्ययन करने लगे।

विश्वभारती में उन्होंने तीन वर्ष तक चित्रकला का अध्ययन किया। यहां पर नन्दलाल बोस जैसे प्रख्यात चित्रकार से भारतीय कला के सूक्ष्म पक्षों की शिक्षा ग्रहण की। जिसे रवीन्द्रनाथ ठाकुर का संरक्षण मिला हो और फिर जिसने नन्दलाल बोस और विनोद बिहारी बोस जैसे चितेरों का रंग-स्पर्श पाया हो, भला वह अनजाना कैसे रह सकता था। उसे तो ऊपर उठकर आकाश छूना ही था। उन्होंने कलकत्ता की एक ब्रितानी विज्ञापन एजेंसी में कमर्शियल आर्टिस्ट के रूप में काम करना शुरू कर दिया। वह जल्द ही वहां कला निदेशक बन गए, लेकिन उनकी रुचि तो फ़िल्मों में थी । इसलिए 1947 में अपने कुछ सहयोगियों एवं मित्रों के साथ मिलकर ‘कलकत्ता फ़िल्म सोसाइटी’ की स्थापनाकी।

1949 में उनकी मुलाक़ात मशहूर फ़िल्म निर्देशक जीन रेनवा से हो गई । रेनवा उन दिनों अपनी ‘द रीवर’ नामक फ़िल्म की शूटिंग के सिलसिले में कलकत्ता आए हुए थे। राय ने उनके साथ रहकर फ़िल्म निर्माण की तमाम तकनीकी बारीकियां सीखीं।

सत्यजित राय 1950 में लन्दन गए। वहां साढ़े चार मास के प्रवास काल में उन्होंने लगभग सौ फ़िल्में देखीं। इन फ़िल्मों से वह इतने प्रभावित हुए कि इंग्लैंड से लौटते वक़्त अपनी समुद्र-यात्रा के दौरान ही उन्होंने ‘पाथेर पांचाली’ की पटकथा लिख डाली। इस कहानी पर 1955 में बनी उनकी फ़िल्म ने उन्हें संसार-भर में एक महान कलाकार के रूप में स्थापित कर दिया। इस फ़िल्म के निर्माण के लिए माणिकदा के पास पर्याप्त धन की व्यवस्था न होने के कारण उन्हें अपनी पत्नी के गहने तक गिरवी रखने पड़े। ‘पाथेर पांचाली’ ने तहलका मचा दिया और फ़िल्म उद्योग में यह मील का पत्थर बन गई। जापानी सिनेमा को अन्तर्राष्ट्रीय प्रतिष्ठा दिलाने वाली कावाकिता ने ‘पाथेर पांचाली’ के बारे में 1955 में अपनी सम्मति देते हुए कहा था, “विश्व सिनेमा में यह फ़िल्म सबसे महान है।”

उनका कथन उस समय सार्थक सिद्ध हुआ जब ‘पाथेर पांचाली’ को कान्स फ़िल्म समारोह में प्रथम अन्तर्राष्ट्रीय पुरस्कार दिया गया और इसे मानवीय दस्तावेज बताया गया और इसी एडिनबर्ग फ़िल्म फ़ेस्टिवल में भी पुरस्कृत किया गया। 1957 में इसे सानफ्रांसिस्को फ़िल्म समारोह में सर्वश्रेष्ठ निर्देशन का पुरस्कार प्राप्त हुआ। इस फ़िल्म को बारह अन्तर्राष्ट्रीय पुरस्कार भी प्रदान किए गए। इतने पुरस्कार प्राप्त करने के बाद यह सिद्ध हो जाता है कि माणिकदा ने अपने उस कथन को सत्य सिद्ध करके दिखा दिया, जो उन्होंने 1948 में अपने किसी दोस्त से कहा था, “किसी दिन मैं एक महान फ़िल्म बनाऊंगा।” उनकी दूसरी फ़िल्म थी ‘अपराजिता’, जिसे 1957 के वेनिस फ़िल्म फ़ेस्टिवल में ‘ग्राण्ड प्रिक्स’ पुरस्कार प्रदान किया गया।

उनकी पहली हिन्दी फ़िल्म थी ‘शतरंज के खिलाड़ी’। यह फ़िल्म मुंशी प्रेमचन्द की कहानी पर आधारित है। इसे भी राष्ट्रीय पुरस्कार मिला। तीन दशकों तक फ़िल्म मेकर के रूप में उनकी उपलब्धियां बेहद प्रशंसनीय रहीं।

वह उच्च कोटि के फ़िल्म और कला निर्देशक थे। उनमें कथा लेखक की प्रतिभा भी भरपूर थी। साथ ही कुछ फ़िल्मों में उन्होंने संगीतकार की भूमिका का भी सफल निर्वाह किया था । कथा-साहित्य और बाल-साहित्य के लेखक के रूप में भी माणिकदा का नाम और कार्य किसी से छिपा नहीं है। उनकी ‘फ़ेलूदा’, ‘सोनार किला’, ‘प्रोफ़ेसर शंकू’ और ‘जब मैं छोटा था’ आदि साहित्य की उल्लेखनीय कृतियों में गिनी जाती हैं|

उनकी सेवाओं का सम्मान करते हुए भारत सरकार ने 1959 में ‘पद्मश्री’, 1965 में ‘पद्मभूषण’ और 1976 में ‘पद्मविभूषण’ अलंकरणों से विभूषित किया। राय के योगदान की विदेशों में भी खुले दिल से प्रशंसा की गई। 1978 में ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय ने ‘डॉक्टरेट’ की मानद उपाधि से नवाज़ा। इस विश्वविद्यालय के प्रशंसा-पत्र में लिखा था, “सत्यजित राय ने भारत की महानता को दर्शकों के सामने उजागर किया है।”

माणिकदा की जिन फ़िल्मों को पुरस्कार मिले हैं, उनमें ‘पाथेर पांचाली’ (1955), ‘अपराजिता’ (1956), ‘पारस पाथर’ (1957), ‘जल-साघर’ (1958), ‘अपूर संसार’ (1959), ‘देवी’ (1960), ‘तिन कन्या’ (1961), ‘कंचनजंघा’ (1962), ‘अभिज्ञान’ (1962), ‘महानगर’ (1963), ‘चारुलता’ (1964), ‘कापुरुष महापुरुष’ (1965), ‘नायक’ (1966), ‘चिड़ियाखाना’ (1969), ‘सोनार क़िला’ (1973), ‘शतरंज के खिलाड़ी’ (1977), ‘जय बाबा फेलूनाथ’ (1978), ‘हीरक राजार देशे’ (1980), ‘आगन्तुक’ (1991) आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। रवीन्द्रनाथ टैगोर पर भी 1961 में एक श्रेष्ठ वृत्तचित्र बनाया। उन्होंने लगभग 36 फ़िल्मों का निर्माण किया।

अन्तर्राष्ट्रीय सिनेमा में राय के ज़बर्दस्त योगदान को फ्रांस के राष्ट्रपति फ्रांस्वा मितरां ने भी स्वीकार किया था। वह अपने देश का सर्वोच्च नागरिक अलंकरण ‘लीज़न डी आनर’ प्रदान करने के लिए 1989 में विशेष रूप से कलकत्ता आए थे। दिसम्बर, 1991 में राय को फ़िल्मी दुनिया के सबसे बड़े पुरस्कार ‘विशेष ऑस्कर’ से सम्मानित किया । यह पुरस्कार प्राप्त करने वाले राय भारत की पहली फ़िल्मी हस्ती थे। 1967 में पत्रकारिता और साहित्य के लिए उन्हें ‘मैगसैसे एवार्ड’ मिला। 1971 में ऑर्डर ऑफ यूगोस्लाव फ्लेग’ से विभूषित किए गए। माणिकदा तीन बार भारतीय फ़िल्म महोत्सव के जूरी सदस्य बने। साथ ही मास्को, बर्लिन और कान्स में हुए अन्तर्राष्ट्रीय फ़िल्म समारोहों में भी उन्हें जूरी का सदस्य बनाया गया।

राय को 1983 में दिल का दौरा पड़ा। तब से वह डॉक्टरों की सलाह पर ज़्यादातर घर पर ही रहने लगे। ऐसे में भी फ़िल्म निर्माण से जुड़े रहे। फ़र्क इतना था कि कोशिश रहती कि बाहर जाकर कम-से-कम शूटिंग करनी पड़े। 27 जनवरी, 1992 को उन्हें सामान्य जांच के लिए कलकत्ता के प्राइवेट नर्सिंग होम में भर्ती किया गया। उन्हें सांस लेने में तकलीफ़ महसूस होती थी। स्वास्थ्य धीरे-धीरे बिगड़ता चला गया।

20 मार्च, 1992 को भारत सरकार ने देश के सर्वोच्च अलंकरण भारतरत्न प्रदान करने की घोषणा कर दी। यह अलंकरण उन्हें भारत के प्रधानमन्त्री पी.वी. नरसिंहराव ने स्वयं कलकत्ता जाकर भेंट किया। 5 जून, 1992 को सूचना एवं प्रसारण उपमन्त्री डॉ. गिरिजा व्यास ने उनकी पत्नी विजया राय को ‘स्वर्ण कमल’ पुरस्कार से सम्मानित किया। यह पुरस्कार उनकी फ़िल्म ‘आगन्तुक’ के लिए उन्तालीसवें राष्ट्रीय समारोह में प्रदान करने की घोषणा की गई थी। आखिर इस महान व्यक्तित्व को 23 अप्रैल, 1992 को मृत्यु ने हमसे सदा के लिए छीन लिया।

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