26. मोरारजी देसाई , भारतरत्न- 1991
( जन्म -29 फ़रवरी 1896 – मृत्यु- 10 अप्रैल 1995)
“गीता तो सारे जीवन का ऐसा राजमार्ग है, जिसकी अन्तिम मंज़िल तक न तो यात्री के लिए छाया और फलदार वृक्षों की कमी है और न कहीं चोर, लुटेरों का भय। गीता से अधिक जागरूक प्रहरी मनुष्य जीवन के लिए शायद ही कोई हो। गीता की मर्यादा में मनुष्य निश्चय ही सुख की नींद सो सकता है।”
इस मान्यता के प्रणेता मोरारजी देसाई का जन्म 29 फ़रवरी, 1896 को गुजरात में बलसाड़ ज़िले के भदेली ग्राम में अपने ननिहाल में हुआ था। उनकी माता का नाम विजयाबेन देसाई था। पिता रणछोड़जी देसाई भावनगर रियासत के एक मिडिल स्कूल में प्रधान अध्यापक थे।
मोरारजी ननिहाल में ही रहे और उन्हें भदेली की पाठशाला में दाखिल करा दिया गया। पन्द्रह वर्ष की आयु में ही ननिहाल वालों ने मोरारजी के रिश्ते की बात पक्की कर दी। उस दिन सभी लोग उनके पुश्तैनी मकान मदनफलिया में ठहरे हुए थे। हंसी-खुशी का वातावरण था। तभी अचानक एक दुर्घटना हो गई। उनके पिता जी कुएं में गिर गए। पिता की दिन ही मोरारजी का विवाह गजराबेन देसाई के साथ हो गया। उस समय उनकी मृत्यु के तीसरे पत्नी की उम्र ग्यारह वर्ष थी।
पिता के देहावसान के बाद घर का सारा भार और मुसीबतों का भारी पहाड़ मोरारजी के नाजुक कन्धों पर आ पड़ा। घर में सबसे बड़े वही थे।
उनसे छोटे तीन भाई और दो बहनें, पत्नी, मां और दादी परिवार के सदस्य थे। नौ व्यक्तियों के परिवार के भरण-पोषण की ज़िम्मेदारी उन्हीं पर थी। पिता केवल चार बीघा ज़मीन छोड़ गए थे। इस ज़मीन से दस रुपए प्रति वर्ष की आमदनी होती थी। दस रुपए प्रति मास की छात्रवृत्ति उन्हें भावनगर राज्य से मिला करती थी। कुछ सहायता ननिहाल से मिल जाती थी। इसी से घर का खर्च किसी तरह चल जाता था। कुछ समय के बाद उनकी मां की अपने मायके में कहा-सुनी हो गई। वह स्वाभिमानी महिला थीं। अतः बच्चों को साथ लेकर अपनी ससुराल बलसाड़ चली आईं और स्थायी रूप से वहीं रहने लगीं|
उच्च शिक्षा पाने के लिए मोरारजी देसाई 1913 में बम्बई पहुंचे। वहीं उन्होंने विल्सन कॉलेज में दाखिला ले लिया, क्योंकि यह कॉलेज सस्ता और अच्छा था। उन दिनों छात्र एल्फिंस्टन कॉलेज को ज़्यादा महत्त्व देते थे, परन्तु मोरारजी की आर्थिक स्थिति बेहतर नहीं थी और इतना ख़र्च सहन नहीं कर सकते थे । इसीलिए लगभग साढ़े चार साल तक गोकलदास तेजपाल फ्री बोर्डिंग हाउस में रहे और विल्सन कॉलेज से प्रथम श्रेणी में विज्ञान के स्नातक बनकर निकले |
1915 में सर सत्येन्द्र-प्रसन्न सिन्हा की अध्यक्षता में बम्बई में कांग्रेस अधिवेशन हुआ। मोरारजी पहली बार इस अधिवेशन में वालंटियर के रूप में शामिल हुए। वह इंटर पास कर चुके थे। यह पहला अवसर था, जब उन्होंने महात्मा गांधी का प्रभावशाली भाषण सुना। इसके अतिरिक्त सुरेन्द्रनाथ बनर्जी और फ़ीरोज़शाह मेहता के भी जोशीले भाषण सुनने का मौक़ा मिला।
उन दिनों वह कॉलेज की डिबेटिंग सोसाइटी के सचिव थे। उन्होंने सरोजिनी नायडू को कॉलेज में आमन्त्रित किया। उनके भाषण से न केवल सभी छात्र, बल्कि मोरारजी भी बहुत प्रभावित हुए। इसी क्रम में एक दिन लोकमान्य तिलक को भी कॉलेज के प्रांगण में भाषण के लिए आमन्त्रित किया गया। इस अवसर पर सभा-स्थल खचाखच भरा हुआ था। तिलक का जोशीला भाषण हो रहा था। उनके भाषण से लोग इतने प्रभावित हुए कि गांधी जी के आन्दोलन में अपना भरपूर सहयोग देने के लिए उतावले हो गए।
मोरारजी की कामना एम.एस-सी. करके प्रोफ़ेसर बनने की थी, क्योंकि उनकी आर्थिक स्थिति संकट में थी। उससे छुटकारा पाने के लिए धन कमाना ज़रूरी था। यही कारण था कि तमाम आन्दोलनों के चलते हुए भी, वह उनमें शामिल नहीं हुए। अपना भविष्य बनाने की धुन में विद्याध्ययन में जुटे रहे।
1917 में विश्वविद्यालयों में यूनिवर्सिटी ट्रेनिंग कोर्स चालू किए गए। मोरारजी ने इस कोर्स में दाखिला ले लिया। इसके बाद उन्हें कमीशंड ऑफीसर का पद मिल गया। उनके कैप्टन सिसोन उनसे बेहद प्रसन्न थे। उन्हीं के कहने पर मोरारजी ने फ़रवरी, 1918 में प्रोविंसियल सिविल सर्विस के लिए आवेदन कर दिया। इंटरव्यू हुआ। कुछ दिन बाद मोरारजी को तार मिला कि पी.सी. एस. के लिए उनका चयन हो गया है।
मई, 1918 में मोरारजी की नियुक्ति अहमदाबाद में डिप्टी कलक्टर के रूप में हो गई। दो साल बाद उन्हें प्रान्तीय ऑफ़ीसर के पद पर नियुक्त किया गया और उनका स्थानान्तरण थाना जिले में कर दिया गया। इसके बाद उन्हें भड़ौंच भेजा गया। उनके अधीन तीन ताल्लुके थे। इस स्थान पर वह 1924 तक प्रशासन अधिकारी के नाते कार्य करते रहे।
डिप्टी कलक्टर के तौर पर उनके पास दो तरह की ज़िम्मेदारियां थीं। एक वित्तीय विभाग की और दूसरी सब डिवीज़नल मजिस्ट्रेट की। इस पद पर रहते हुए उन्होंने लगभग एक हज़ार फ़ौजदारी केसों पर निर्णय देकर अपनी योग्यता का परिचय दिया। उन केसों पर सैकड़ों अपीलें हुईं, परन्तु हाईकोर्ट द्वारा केवल तीन अपीलें ही स्वीकार की गईं। अपनी सूझबूझ, केसों के गहन अध्ययन और निष्पक्ष निर्णयों के कारण वह इस क्षेत्र में बहुत मशहूर हो गए। 21 मई, 1930 को उन्होंने अपने पद से त्याग-पत्र दे दिया और कांग्रेस की सदस्यता ग्रहण कर ली। उन्होंने गांधी जी का अनुयायी बनने का दृढ़ निश्चय कर लिया। अतः उनके सत्याग्रह आन्दोलन में जमकर भाग लिया।
सूरत में उन्होंने दयालजी भाई तथा कल्याणजी भाई मेहता के साथ मिलकर बहुत कार्य किए। सूरत से वह बलसाड़ सत्याग्रह कैम्प पहुंचे। वहां से धरसना में सत्याग्रह करना था। इसलिए उस सत्याग्रह में सम्मिलित हो गए। इन्हीं दिनों उनके छोटे पुत्र चीनू का निधन हो गया। बलसाड़ जाकर उन्होंने अपनी पत्नी को धीरज बंधाया, लेकिन उनके क़दम वहां रुकने वाले नहीं थे। सत्याग्रह के संघर्ष में वह आगे बढ़ते गए। नतीजा यह निकला कि अंग्रेज़ सरकार ने गिरफ़्तार करके उन्हें साबरमती जेल भेज दिया।
फ़रवरी, 1931 में साबरमती जेल से छूटने के बाद मोरारजी ने खेड़ा, सूरत और पंचमहल ज़िलों का दौरा कर सभी सत्याग्रहियों को संगठित किया। उसी दौरान दिल्ली से गांधी जी ने पत्र लिखकर उनसे यह जानना चाहा कि वह सरकारी नौकरी में जाना चाहते हैं या नहीं। मोरारजी पत्र पाते ही दिल्ली पुनः चले आए। यहां उन्होंने बापू से स्पष्ट कह दिया, “मेरी नौकरी पर जाने की कोई इच्छा नहीं है। मुझे नौकरी नहीं स्वराज्य चाहिए।”
1931 में गांधी जी अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के प्रस्ताव के अनुसार लन्दन में गोलमेज कान्फ्रेंस में भाग लेने गए। उन्होंने बड़ी दृढ़ता से देश की पैरवी की। उनकी दलीलों से सहमत होने के बावजूद प्रस्ताव नामंजूर कर दिया गया। गांधी जी खाली हाथ लौट गए। बम्बई आने के दो-तीन दिन बाद ही उन्हें बन्दी बना लिया गया। विभिन्न स्थानों से लगभग सभी बड़े नेताओं को बन्दी बनाया गया था। मोरारजी को भी बन्दी बनाकर साबरमती जेल भेज दिया गया। छः सप्ताह बाद उन्हें छोड़ा गया। तभी बारह घंटे के भीतर उन्हें अहमदाबाद छोड़ने का नोटिस मिला। मोरारजी ने इस नोटिस का विरोध किया। उन्हें पुनः बन्दी बनाकर दो वर्ष का कठोर कारावास दे दिया गया । 1932 में उन्हें साबरमती से नासिक जेल भेजा गया। जेल से रिहा होने के बाद वह गांधी जी से मिलने वर्धा पहुंचे।
मई, 1937 में गांधी जी अस्वस्थ हो गए, तो उपचार के लिए उन्हें बलसाड़ के निकट तिथाल ले जाया गया। वहां मोरारजी की देखभाल में उनकी सेवा-टहल की गई।
विभाजन की रूपरेखा के अनुसार पाकिस्तान का निर्माण हुआ। इसके साथ ही जगह-जगह दंगे भड़क उठे। हिन्दू और मुसलमानों के बीच बैर और गुस्से के जुनून की आंधी चल पड़ी। उन दिनों मोरारजी बम्बई सरकार के गृहमन्त्री थे। निडर तो थे ही। उन्होंने दृढ़ता के साथ काम किया और कड़ाई से दंगों को दबाया। इस कार्य में उन्हें जो सफलता मिली, उससे दूसरे प्रान्तों में भी उनके नाम की चर्चा होने लगी ।
1952 में चुनाव लड़कर वह विधानसभा के सदस्य चुने गए। इस बार मुख्यमन्त्री बने। 1954 में पं. जवाहरलाल नेहरू ने मोरारजी देसाई को केन्द्रीय मन्त्रिमंडल में शामिल होने के लिए आमन्त्रित किया। पहले तो उन्होंने असमर्थता प्रकट की, परन्तु नेहरू जी ने ज़ोर दिया, तो वह मुख्यमन्त्री का पद छोड़कर केन्द्रीय मन्त्रिमंडल में आ गए। उन्हें वाणिज्य तथा उद्योग मन्त्रालय सौंपे गए, फिर वित्त मन्त्री बना दिया गया|
1967 के आम चुनाव के बाद जब इन्दिरा गांधी प्रधानमन्त्री बनीं, तब मोरारजी देसाई उपप्रधानमन्त्री बने और साथ ही वित्त मन्त्री भी बनाया गया। जब वह वित्त मन्त्री थे, तब इन्दिरा गांधी ने उनसे वित्त मन्त्रालय वापिस मांग लिया। मोरारजी ने उसी दिन उपप्रधानमन्त्री पद से भी त्यागपत्र दे दिया। इसके बाद तेज़ घटनाचक्र चला और कांग्रेस में अनेक परिवर्तन हुए।
मोरारजी देसाई ने अपने सिद्धान्तों से कभी समझौता नहीं किया। वह निश्चय के इतने पक्के थे कि कोई बात उन्हें बुरी लगती, तो उसे जड़ से हटाने के लिए जुट जाते थे। नेहरू जी के मन्त्रिमंडल में वित्त मन्त्री रहते हुए उन्होंने स्वर्ण नियन्त्रण कानून सख़्ती से लागू किया। इसी प्रकार नशाबन्दी कानून लागू कराने में उन्होंने पूरी सख़्ती से अमल करने की ताकीद कर दी थी।
आपातकाल के बाद 1977 का साल शुरू हुआ। 18 जनवरी को इन्दिरा गांधी ने, पांचवीं लोकसभा भंग करवा दी और छठी लोकसभा के लिए चुनाव कराने का ऐलान कर दिया गया। कांग्रेस से टक्कर लेने के लिए विपक्ष ने मिलकर 23 जनवरी को जनता पार्टी की स्थापना की घोषणा कर दी। उस समय सम्पूर्ण विपक्ष कांग्रेस के ख़िलाफ़ लड़ने को तैयार था।
मार्च के इस चुनाव में कांग्रेस की करारी हार हुई। जनता पार्टी को पूर्ण बहुमत मिला। कांग्रेस की पराजय पर ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ ने कहा था कि,” ग़रीबी के बोझ से दबी जनता ने तानाशाही द्वारा चारों तरफ़ बजने वाली रणभेरी को ठुकरा दिया है।” बयासी वर्षीय मोरारजी देसाई ने 24 मार्च को, पद और गोपनीयता की शपथ ली और इस प्रकार वह भारत के पहले गैर कांग्रेसी प्रधानमन्त्री बने। यह विडम्बना ही कही जा सकती है कि जनता सरकार अठारह महीने में ही समाप्त हो गई और मोरारजी देसाई ने प्रधानमन्त्री पद से 15 जून, 1979 को त्यागपत्र दे दिया।
अपने समकालीन राजनीतिज्ञों में मोरारजी देसाई, कुशल प्रशासक तथा पैनी दृष्टि वाले नेता माने जाते थे। उनकी सोच में महात्मा गांधी तथा सरदार पटेल की विचारधारा का अद्भुत समन्वय था। गांधी जी के विचारों को कार्यरूप में परिणत करने में उनका बड़ा योगदान रहा है वह समय के साथ चलने वाले ऐसे नेता थे, जिन्हें युवा पीढ़ी और समवयस्क सभी अपने नज़दीक पाते थे।
1991 को भारत सरकार ने उन्हें, देश के सर्वोच्च अलंकरण भारतरत्न से सम्मानित करके इस माला में एक रत्न और जोड़ दिया।
10 अप्रैल, 1995 को मोरारजी देसाई का देहावसान हो गया। वह आज हमारे बीच नहीं हैं, किन्तु इतिहासपुरुष बन गए हैं, और उनका नाम सदा अमर रहेगा।