19. विनोबा भावे, भारतरत्न- 1983

19. विनोबा भावे, भारतरत्न- 1983

(जन्म-11 सितम्बर 1895, मृत्यु – 15 नवम्बर 1982)

सन्त विनोबा भावे एक दिन आन्ध्र प्रदेश के नलगुंडा जिले में एक गांव पोचमपल्ली पहुंचे। वहां नक्सलवादियों की गतिविधियों से प्रभावित हरिजनों की दशा के सर्वेक्षण के लिए रुके थे। तभी एक दिन कुछ निर्धन हरिजन उनके पास पहुंचे। वे अस्सी एकड़ भूमि अपनी जीविका के लिए चाहते थे। विनोबा जी ने उसी शाम प्रार्थना सभा में अस्सी एकड़ भूमि की बात रखी। एक अमीर किसान उठा और बोला, “मेरे पास पांच सौ एकड़ ज़मीन है। मैं उसमें से सौ एकड़ ज़मीन भेंट करने के लिए तैयार हूं।”

उस किसान के इस प्रस्ताव को विनोबा जी ने स्वीकार कर लिया। उसी दिन उनके बहुचर्चित ‘बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय’ भूदान आन्दोलन की नींव रखी गई। विनोबा जी तेलंगाना में इक्यावन दिन रहे और इस अवधि में उन्हें 12,201 एकड़ भूमि भेंट की गई, जिसे उन्होंने भूमिहीनों को वितरित कर दिया, जिससे उनका जीवनयापन हो सके।

सन्त विनोबा भावे का जन्म 1895 में महाराष्ट्र के कोलाबा जिले में गागोदा नामक गांव के एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके पिता नरहरि राव बड़ौदा में कपड़ा तकनीशियन थे। उन्होंने ही ख़ाकी कपड़े की तकनीक आरम्भ की थी, जिसे बाद में ब्रिटिश सरकार ने अपने सिपाहियों की वर्दी के लिए चुना । विनोबा जी की माता रुक्मिणी देवी धार्मिक विचारों वाली महिला थीं। अपने मधुर कंठ से वह हमेशा मराठी सन्तों की वाणियां गुनगुनाती रहती थीं। इन्हीं वाणियों का बालक विनोबा के भावी जीवन निर्माण में काफ़ी प्रभाव रहा। मां विनोबा को विन्या (विनय) के नाम से पुकारा करती थीं। इसी विनय के चलते उन्होंने सन्तों जैसा स्वभाव पाया।

उनकी आरम्भिक शिक्षा गांव में ही हुई, फिर अपने पिता के पास बड़ौदा जाना पड़ा। वहां 1913 में उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा पास करके इंटरमीडिएट में दाखिला ले लिया । विनोबा की स्मरण-शक्ति बड़ी तेज़ थी। जो भी पढ़ते, अच्छी तरह याद कर लेते। वह बड़ौदा के प्रसिद्ध पुस्तकालय में रोज़ जाया करते थे। वहां धर्म, साहित्य और इतिहास आदि की पुस्तकें पढ़ना उनकी दिनचर्या में शामिल था।

कॉलेज की पढ़ाई से उन्हें सन्तुष्टि नहीं मिली। उनके मन का पंछी सब छोड़कर कहीं और ही उड़ जाने के लिए तड़प रहा था। इसलिए एक दिन उन्होंने अपने सारे प्रमाण-पत्रों को मोड़ा और अपनी मां के सामने जलते चूल्हे में डाल दिया और वह एकदम अलग और अकेले रास्ते पर चल पड़े। वह काशी पहुंचकर संस्कृत के अध्ययन में जुट गए। उन्हीं दिनों मदनमोहन मालवीय ने बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय शुरू किया था। उसके उद्घाटन भाषण के लिए सत्याग्रही महात्मा गांधी को आमन्त्रित किया गया था। अपने भाषण में गांधी जी ने देश के राजा, रजवाड़ों और नवाबों से आहवान किया कि वे अपने हीरे-जवाहरात त्याग कर आम जनता के साथ आ मिलें।

दूसरे दिन विनोबा जी ने दैनिक समाचार पत्र में गांधी जी का यह भाषण पढ़ा। उनका मन गांधी जी से मिलने के लिए व्याकुल हो उठा। उन्हें लगा कि जो प्राप्त करना था, वह अब दूर नहीं है। विनोबा जी पहली रेलगाड़ी पकड़कर गांधी जी से उनके नए आश्रम में जा मिले। उनकी आत्मा मिलकर तृप्त हो गई। गांधी जी ने उनकी समस्याओं का समाधान किया। विनोबा जी चले थे शान्ति की खोज में और अब शान्ति उनके मन में बस चुकी थी। उन्होंने महसूस किया कि गांधी जी में शान्ति के अथाह सागर के साथ-साथ क्रान्ति का ज्वालामुखी भी धधक रहा है। देश की आज़ादी की कामना विनोबा जी के मन में भी एक चिनगारी बनकर सुलग रही थी। गांधी जी की संगत में यह और भी तेज़ हो गई। 6 अप्रैल, 1921 का दिन था। विनोबा जी ने साबरमती आश्रम से वर्धा आश्रम का संचालन संभाल लिया। तब से उन्होंने एक मौन साधक की भांति गांधी जी द्वारा चलाए गए अनेक कार्यक्रमों में सक्रियता से भाग लिया। खादी ग्रामोद्योग, बुनियादी शिक्षा तथा सफाई अभियान जैसे रचनात्मक कार्यक्रमों पर विनोबा जी की सेवा की अमिट छाप पड़ी।

वर्धा आश्रम में पूरे ग्यारह वर्ष, आठ महीने और उन्नीस दिन रहकर 25 दिसम्बर, 1932 को विनोबा जी वर्धा से दो मील दूर हरिजनों के गांव नलवाड़ी चले गए। नलवाड़ी में वह अपने ही काते सूत के पारिश्रमिक पर ही जीवन निर्वाह करते थे। पारिश्रमिक बहुत ही कम बन पाता था, फिर भी वह उसी में गुज़ारा करते थे। परिणाम यह हुआ कि जुलाई, 1938 में वह बीमार पड़ गए। उन्होंने वर्धा से पांच मील दूर पवनार नदी के तट पर स्थित पवनार गांव के एक टीले को ही स्वास्थ्य के लिए पहाड़ी स्थान बना लिया। वहां वह केवल तीन महीने रहे, किन्तु जिस कुटिया में रहे, वही आज पवनार आश्रम के नाम से प्रसिद्ध है।

नागपुर झंडा सत्याग्रह में विनोबा जी ने बड़े उत्साह और लगन से भाग लिया। 17 जून, 1923 को वह गिरफ़्तार हुए, तब उन्होंने बारह माह का कारावास भोगा। यह उनकी पहली जेल-यात्रा थी। अक्टूबर, 1940 में भी वह जेल गए, तब द्वितीय विश्वयुद्ध में भारत को ज़बर्दस्ती घसीटने पर विरोधस्वरूप गांधी जी ने सत्याग्रह करने का निश्चय किया। गांधी जी ने तब उन्हें प्रथम सत्याग्रही चुना। उन्होंने सत्याग्रह किया और जेल गए। 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन में भी वह गिरफ़्तार हुए। तीन वर्ष की जेल-यात्रा के बाद जब अपने पवनार आश्रम लौटे, तो ग्राम सेवा में जुट गए। उन्होंने अपने को राजनीति से अलग कर लिया। वह वहां से चार मील दूर सुरगांव जाकर सफाई का कार्य करते थे।

देश-विभाजन के समय गांधी जी की भांति विनोबा जी ने भी शरणार्थियों के पुनर्वास के लिए अथक परिश्रम किया। साथ ही देश में फैली साम्प्रदायिकता की आग को बुझाने और शान्ति स्थापित करने में भी उनका बहुत बड़ा योगदान रहा। हरिजनों की बुरी हालत सुधारने के लिए कई राज्यों का भ्रमण किया।

उन्होंने कंचन-मुक्ति अभियान भी चलाया। लोगों से कंचन अर्थात सोने से मुक्त हो जाने की अपील की, क्योंकि समाज की बहुत बड़ी बुराई और अभिशाप का असली कारण सोना ही है। उन्होंने कहा कि जिसके पास अधिक सोना हो, वह अधिक सोना दे दे, जिसे उन निर्धनों में बांटा जा सके, जिन्हें आवश्यकता है। समाज को समानता के स्तर पर लाने का यह अनोखा अभियान भूदान आन्दोलन का जनक बना। इस आन्दोलन में उन्हें भारी सफलता मिली।

गांधी जी ने कहा था, “जब तक देश में एक आंख भी आंसुओं से गीली है, तब तक सच्ची स्वतन्त्रता नहीं आएगी।” विनोबा जी यही भाव लेकर देश-भर की पद-यात्रा पर भूदान आन्दोलन के लिए निकल पड़े। विनोबा जी सत्ताईस महीने बिहार में ठहरे, जहां उन्हें जयप्रकाश नारायण का भरपूर सहयोग प्राप्त हुआ। जे.पी. ने तो विनोबा जी के भूदान यज्ञ में अपने को पूरी तरह समर्पित कर दिया। इस अहिंसक क्रान्ति में लगभग तीन लाख छोटे-बड़े भूमि मालिकों से 22,23,47,535 एकड़ भूमि प्राप्त हुई। उन्होंने सारा देश अपने पैरों से नाप लिया। लाखों लोग उनके बताए रास्ते पर चल पड़े। भूमि मालिकों ने उनकी झोली में जितनी भूमि डाली, उतनी ही उन्होंने भूमिहीनों में बांट दी। चालीस हज़ार मील की पद-यात्रा के दौरान उन्होंने लगभग 250 लाख भारतवासियों से भेंट की। गांव-गांव में विनोबा जी के भूदान यज्ञ की घटनाएं लोक-कथाओं की तरह चर्चा में रहने लगीं। इस पद-यात्रा के बीच कई बार धर्मान्ध तथा पाखंडियों के गुस्से का शिकार बनना पड़ा।

बिहार पद-यात्रा के दौरान उन्हें वैद्यनाथ धाम के पवित्र स्थल में आमन्त्रित किया गया। उन्होंने बुलाने वालों से साफ़ कहा कि उनके साथ उनके हरिजन भाई-बहनों की मंडली भी होगी। उन्हें विश्वास दिलाया गया कि जितने हरिजन उनके साथ होंगे उन्हें भी प्रवेश की इजाज़त दी जाएगी, परन्तु जैसे ही वह अपनी मंडली के साथ पहुंचे, मन्दिर के पंडे अपने लठैतों के साथ उन पर टूट पड़े। विनोबा जी और उनके निहत्थे स्वयंसेवकों पर लाठियां बरसने लगीं। विनोबा जी के कान पर भी एक भरपूर चोट पड़ी और वह सदा के लिए श्रवण-शक्ति गंवा बैठे।

विनोबा जी ने पद-यात्रा के दौरान देश के विभिन्न भागों में आश्रमों की स्थापना की। ये बोध गया में समन्वय आश्रम, पठानकोट में प्रस्थान आश्रम, इन्दौर में विसर्जन आश्रम, बंगलौर में विश्वनीड़म आश्रम और असम के लखीमपुर ज़िले में मैत्री आश्रम के नाम से जाने जाते हैं|

महात्मा गांधी के आध्यात्मिक उत्तराधिकारी के रूप में विनोबा जी ने उनकी परम्परा को देश में न केवल जीवित रखा, बल्कि उसे आगे भी बढ़ाया। अहिंसा और शान्ति के इस परम उपासक और प्रचारक ने बापू के पदचिह्नों पर चलकर ‘शान्ति सेना’ को जीवित रखा। इसी बीच उन्होंने चम्बल घाटी में डाकुओं की गम्भीर समस्या को हाथ में लिया और बिल्कुल गैरसरकारी तौर पर उसे सुलझाने का बीड़ा उठाया। विनोबा जी इस विकट समस्या की जड़ों तक गए। बरसों से चली आ रही उन परिस्थितियों के सामाजिक और मनोवैज्ञानिक पक्ष को समझने की कोशिश की, जिस कारण कोई व्यक्ति डाकू बन जाता है विनोबा जी ने समाज के बाग़ी मुजरिमों के सिरों पर सहानुभूति का हाथ रखा। सम्मान के भूखे बाग़ी प्यार की इस डोरी में खिंचे चले आए।

22 मई, 1960 को भिंड में ‘शस्त्र से विदाई’ का वह अनूठा समारोह आयोजित किया गया। समर्पण उस हिंसक प्रवृत्ति का था, जिसने डाकुओं को न घर का छोड़ा था, न घाट का|  चम्बल घाटी के आसपास के बाईस डाकू सरदारों ने आत्मसमर्पण करके अपनी दस्यु-वृत्ति का परित्याग कर दिया था। डाकुओं के इस अनोखे समर्पण पर सारा संसार चकित था।

गांधी जी के न रहने पर देश को उनके स्थान पर एक समाज सुधारक और आध्यात्मिक नेता की आवश्यकता पड़ी। विनोबा जी ने उस कमी को पूरा किया। उनके पास आध्यात्मिक और सामाजिक गुत्थियां सुलझाने के लिए समय-समय पर देश के नेता पहुंचते थे।

धीरे-धीरे उन्होंने अनुभव किया कि अब देश को उनकी आवश्यकता नहीं है और उन्होंने निश्चय कर लिया कि वह अपने हाड़-मांस के पिंजड़े की तीलियां तोड़कर अनन्त में जा मिलेंगे और उन्होंने खाना-पीना छोड़ दिया। प्रधानमन्त्री और राष्ट्रपति से लेकर स्वयंसेवकों के अनुरोध को भी उन्होंने अनसुना कर दिया।

14 नवम्बर, 1982 की रात उनकी दशा बहुत गम्भीर थी। पानी तक लेना उन्होंने छोड़ दिया था। उस रात उनकी एक फ्रांसीसी शिष्या ऋता, बड़ी कठिनाई से पेरिस से पहुंची। पांच दिन पहले इन्दिरा गांधी रूस के राष्ट्रपति ब्रेजनेव की अन्त्येष्टि के कार्यक्रम के बीच में से ही लौट आई थीं। स्वदेश आने पर वह सीधी पवनार आश्रम पहुंचीं। उन्होंने भी विनोबा जी से कुछ पीने का आग्रह किया, किन्तु विनोबा जी नहीं माने। ऋता को विश्वास था कि विनोबा जी उनके कहने से कम-से-कम पानी तो अवश्य ले लेंगे। 15 नवम्बर को प्रातः ऋता ने एक पर्चे पर लिखा कि ‘बाबा मेरे कहने से आपको कम-से-कम पानी तो पीना ही पड़ेगा।’ बाबा ने उसे पढ़ा। ऋता को पहचाना और संकेत से कहा, “पानी तू ही पी ले।” मृत्यु को गले लगाने से दो घंटे पहले भी उनमें इतनी सजगता थी | 15 नवम्बर, 1982 को जब सारा देश अपने आंगन में दीप मालिकाएं सजाने में व्यस्त था, तब विनोबा जी के जीवन-दीप का उजाला भवसागर में विलीन हो गया।

भारत सरकार चाहती थी कि उनकी मृत्यु पर राष्ट्रीय शोक मनाया जाए, किन्तु विनोबा जी ने स्वयं को विशेष व्यक्ति माना ही नहीं था। इसीलिए न तो आश्रमवासी और न उनके छोटे भाई आदि उस राष्ट्रीय शोक के लिए राज़ी हुए और न ही भारतरत्न स्वीकारने की इच्छा जताई। यह भारतरत्न उनके स्वर्गवास के दो माह ग्यारह दिन बाद राष्ट्र ने 26 जनवरी, 1983 को अपने गणतन्त्र दिवस पर उन्हें मरणोपरान्त दिया गया था।

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