18. मदर टेरेसा, भारत रत्न-1980

18. मदर टेरेसा,  भारत रत्न-1980

(जन्म-२६ अगस्त १९१०, मृत्यु – ५ सितम्बर १९९७)

जिन्हें रोमन कैथोलिक चर्च द्वारा, कलकत्ता की संत टेरेसा के नाम से नवाज़ा गया|

मौन का फल है प्रार्थना,

प्रार्थना का फल है विश्वास,

विश्वास का फल है प्रेम,

प्रेम का फल है सेवा,

सेवा का फल है शान्ति।

यह प्रार्थना कहने वाली मदर टेरेसा का जन्म 26 अगस्त, 1910 को यूगोस्लाविया के स्कोपिये शहर में हुआ था। मदर का असली नाम एग्नेस था, एग्नेस गोंजा। बड़े भाई द्वारा दिया गया गोंजा नाम का मतलब कली है। फूल की कली।

स्कोपिये छोटा शहर था। उसकी आबादी उस वक़्त क़रीब पच्चीस हज़ार थी। उनके पिता निकोलस बोजाक्सयु भवन-निर्माता थे। इस काम में उन्हें ख़ूब नाम और पैसा दोनों ही मिले। उनकी माता का नाम था, ड्रानाफ़िल बार्नाई । एग्नेस को मिलाकर वे तीन भाई-बहन थे। दो बहनें और एक भाई। अपने भाई-बहनों में एग्नेस सबसे छोटी थीं। उनकी दीदी का नाम ऐगे था और बड़े भाई का नाम लाज़ार।

ड्रानाफिल बड़ी दयालु और ईश्वर-भक्त महिला थीं, साथ ही बड़ी धर्मात्मा भी । ईसाई कैथोलिक धर्म के कायदे-कानून के बाहर वह कुछ भी नहीं करती थी। वहीं कई भाषाओं के जानकार उनके पिता ग़रीबों को कभी ख़ाली हाथ नहीं लौटाते थे। उनकी मां अपने बच्चों को लेकर प्रतिदिन सुबह गिरिजाघर जाती थीं। उनसे जितना सम्भव होता, वह ग़रीबों को खाना, कपड़ा और पैसा बांटतीं। उस समय एग्नेस उनके साथ होतीं। रात को वह एक साथ बैठकर माला जपतीं।

1917 में जब एग्नेस सात साल की थी, अचानक उनके पिता की मृत्यु हो गई। उनके व्यापारिक भागीदार ने इस बात का फायदा उठाकर सारे रुपए-पैसे हड़प लिए। इससे पूरे परिवार को बेहद तंगी से गुज़रना पड़ा। घर चलाने का बोझ अब एग्नेस की दीदी एगे पर आ पड़ा। अन्ततः उनकी मां ने अपने को मज़बूत किया और वह कढ़ाई किए हुए कपड़े बेचने लगीं।

1924 तक एग्नेस चौदह वर्ष की किशोरी हो गईं। वह और ऐगे पढ़ने में होशियार थीं। एग्नेस अच्छा लिख लेती थीं। बड़े भाई ने सोचा, वह बड़ी होकर लेखिका बनेगी, किन्तु तब तक एग्नेस के मन में संन्यासिन बनने का विचार उत्पन्न हो चुका था। अपनी इच्छा उन्होंने मां को बताई, लेकिन मां ने मना कर दिया।

पहले विश्वयुद्ध ने ग़रीबों को और ग़रीब बना दिया। युद्ध के कारण चीज़ों के दाम बढ़ गए। खाने-पीने की चीज़ों की कमी हो गई। विदेशी शासकों का अत्याचार बढ़ता गया । एग्नेस के परिवार पर भी इसका बुरा प्रभाव पड़ा।

स्कूल में एग्नेस को यीशू के दूतों के बारे में जानकारी हुई। उन दिनों यूगोस्लाविया के यीशू दूत बंगाल में भी सेवा-कार्य करते थे। वे ग़रीबों की देखभाल किया करते थे। कलकत्ता और दार्जिलिंग में उनके केन्द्र थे। एग्नेस को उनके बारे में और ज़्यादा जानकारी स्कोपिये के फ़ादर जैमब्रेनकोविक से मिली। उनके मन में तभी से कलकत्ता का चित्र बस गया और वहां के ग़रीबों के प्रति उनके मन में सहानुभूति भर गई। वह तभी इस बात को समझ गईं कि भगवान की सेवा करने का एक तरीका ग़रीबों की सेवा करना है।

जब एग्नेस अठारह वर्ष की हुईं, तब दूसरी बार मां को अपने दिल की इच्छा बताई। मां ने इस बार हामी भर दी। वह समझ गई कि बेटी को घर में रोके रखना उचित नहीं होगा। उसने भगवान की सेवा के लिए जिस रास्ते को चुन लिया है, उसी रास्ते पर चलने देना ही सही है।

एग्नेस ने बंगाल के लॉरेटो संघ के पास एक दरख्वास्त भेजी। उसके जवाब में उन्हें कहा गया कि बंगाल में काम करने के लिए उन्हें आयरलैंड में जाकर अंग्रेज़ी सीखनी पड़ेगी, तभी वह बंगाल आ सकती है। अपने जन्मदिन पर एग्नेस अपनी मां और दीदी के साथ यूगोस्लाविया के जाग्रेव रेलवे स्टेशन पर पहुंचीं। एग्नेस ने उसी स्टेशन से अपनी मां और दीदी से विदा ली। वह उनकी अन्तिम भेंट थी। वह डबलिन से जहाज़ में सवार होकर भारत रवाना हुईं कलकत्ता पहुंचने में उन्हें सात सप्ताह लगे। वह 6 जनवरी, 1929 को वहां पहुंचीं। जहाज़ में उनका परिचय तीन फ्रांसिस्कन सिस्टरों से हुआ था। जहाज़ में ही उन सभी ने मिलकर बड़ा दिन मनाया था।

भारत में रहने वाले अंग्रेज़ों के बच्चे दार्जिलिंग में पढ़ने जाया करते थे। अंग्रेज़ और देश के अमीरों के बच्चे वहां के लॉरेटो कॉन्वेंट में पढ़ते थे मिशनरियों द्वारा संचालित वह स्कूल बड़े लोगों के लिए ही था। एग्नेस का शिक्षक जीवन इसी लॉरेटो कॉन्वेंट से शुरू हुआ। उसी के साथ उनकी अपनी पढ़ाई भी चलती रही। वह मन लगाकर अंग्रेज़ी और बांग्ला भाषा सीखने लगीं। वहां के अस्पताल में रोगियों की सेवा भी करतीं।

देखते-देखते दो वर्ष बीत गए। एग्नेस की शुरूआती तैयारी पूरी हुई। वह अब लॉरेटो संघ की सिस्टर के रूप में नए जीवन में दाख़िल होने जा रही थीं। 24 मार्च, 1931 को उन्होंने सिस्टर के रूप में शपथ ली। नया नाम ग्रहण करते हुए एग्नेस को लिसिऊ कॉन्वेंट की एक फ्रांसीसी संन्यासिन की याद आई, जो चौबीस वर्ष की उम्र में टी.बी. से मरी थी। उनका नाम था, टेरेसा। एग्नेस को उनसे काफ़ी प्रेरणा मिली थी। इसलिए उन्होंने अपना नाम उन्हीं के नाम पर रख लिया। सिस्टर टेरेसा ने पूरे मन से बंगाली बनकर बंगाल में रहते हुए बंगाली बच्चों-बूढ़ों की सेवा के ज़रिए ईश्वर-सेवा करने का निश्चय किया था।

ऐसे दुखियारों की सेवा, जो अपने पैरों पर खड़े नहीं हो सकते थे, जिनके पास रोटी, कपड़ा, मकान नहीं था, जिन्हें भूख और मौत को गले लगाना पड़ता था । सिस्टर टेरेसा का हर काम धर्म के दायरे में होता था। उन्हें जो ज़िम्मेदारी दी जाती, वह उसे पूरा करतीं।

1931 से 1948 तक वह कलकत्ता के सेंट मेरी में पढ़ाती रहीं। 1937 में सिस्टर टेरेसा मदर टेरेसा बन गईं। उन्होंने संन्यासिन का जीवन था और अपने मन में भगवान की महिमा महसूस की थी।

10 सितम्बर, 1946 की बात है, वह रेलगाड़ी में दार्जिलिंग जा रही थीं, तब उन्होंने देखा कि असहाय स्त्रियों, पुरुषों और बच्चों के पास पहनने के लिए कपड़े, खाने के लिए भोजन, सोने के लिए बिस्तर और रहने के लिए मकान तक नहीं है। उनका मन कराह उठा। एक प्रेरणा जागी और उनके जीवन ने एक नया मोड़ ले लिया। उसी दिन से सेंट मैरी के वैभवशाली वातावरण से निकलकर फुटपाथों पर पड़े असहायों, गरीबों की सेवा करने के लिए उन्होंने पोप से आज्ञा मांगी।

एक दिन रोम के वैटिकन सिटी की राय भी आ पहुंची। यह बात 12 जुलाई, 1948 की है, लेकिन वह चिट्ठी जुलाई के अन्त में मिली। इसके अनुसार मदर लॉरेटो संघ की नन रहते हुए कॉन्वेंट के बाहर काम कर सकती थीं। शर्त सिर्फ़ यही थी कि एक साल बाद मदर को कॉन्वेंट के बाहर रहना पड़ेगा। साल ख़त्म होने पर आर्क बिशप मदर का कामकाज देखकर फ़ैसला करेंगे कि उन्हें फिर से कॉन्वेंट में वापस बुलाया जा सकता है या नहीं।

17 अगस्त, 1948 को मदर को विदा लेना था। इसके पहले ही 8 अगस्त, 1948 को अनुमति मिलने के बाद से ही मदर टेरेसा ने भारतीय महिलाओं का पहनावा अपना लिया। यूरोपीय महिलाओं का स्कर्ट छोड़कर वह सस्ती नीले किनारे की सफ़ेद साड़ी पहनने लगीं। साड़ी अपनाने से पहले उन्होंने चर्च के पादरियों का आशीर्वाद लिया। 1948 में ही मदर ने भारत की नागरिकता अपना ली /बस्ती में ग़रीबों की सेवा करने के लिए थोड़ी-बहुत डॉक्टरी जानना ज़रूरी था। इसलिए कॉन्वेंट के फ़ादर वैन ने पटना के मेडिकल मिशन की सिस्टरों को पत्र लिखकर मदर की ट्रेनिंग का इन्तज़ाम कर दिया और डॉक्टरी ज्ञान प्राप्त करने के लिए मदर टेरेसा पटना पहुंचीं। चीर-फाड़ के काम से लेकर पची लिखने और बीमारों की देखभाल से लेकर सुई लगाने तक का काम उन्होंने चार महीने में ही सीख लिया।

1948 के दिसम्बर महीने के दूसरे सप्ताह मदर कलकत्ता लौटीं। वह लोअर सर्कुलर रोड के लिटिल सिस्टर्स ऑफ़ द पुअर द्वारा चलाए जाने वाले केन्द्र पर पहुंचीं। उस केन्द्र का नाम था, सेंट जोज़फ़’स होम। इस मकान में क़रीब दो सौ लाचार बूढ़े रहा करते थे। मदर टेरेसा रोज़ कुछ घंटे उनकी सेवा करतीं। इस तरह वह लिटिल सिस्टर्स के काम में हाथ बंटाने लगीं और अपना काम शुरू करने के लिए तैयारी में जुट गईं। उन्हें सही दिन का इन्तज़ार था।

आखिर 20 दिसम्बर, 1948 को उन्होंने अपना काम शुरू कर दिया। मदर टेरेसा के पास पूंजी के नाम पर आर्कबिशप द्वारा दिए गए सिर्फ पांच रुपए थे। अब उनकी मंज़िल मोतीझील बस्ती थी। वहां का माहौल बेहद गन्दा था और रहने वाले गरीब और अनपढ़ थे । रोग और अभाव से त्रस्त लोगों में मामूली बातों को लेकर आपस में झगड़ा और मारपीट होती रहती थी ।

21 दिसम्बर को मदर का असली काम शुरू हुआ। उन्होंने सुबह बस्ती पहुंचकर देखा कि वहां छह-सात बच्चे पहुंच गए थे। तालाब के पास ही पेड़ के नीचे थोड़ी-सी खुली जगह थी। वहां ज़मीन में सींक से निशान बनाकर उन्होंने बच्चों के बैठने की जगह तय की। इसके बाद कक्षा शुरू हुई। इस तरह स्कूल की शुरुआत से नए काम की नींव पड़ी। मदर के पास साधन के नाम पर केवल लकड़ी का सन्दूक और पैकिंग केस था। इसी को मदर ने लिखने-पढ़ने की डेस्क बनाया। ब्लैक-बोर्ड के अभाव में मदर ज़मीन पर ही एक पतली डंडी से अक्षर लिखने लगीं। जहां चाह होती है, वहां राह मिल ही जाती है। दूसरे दिन एक व्यक्ति कुर्सी और मेज़ दान में दे गया।

एंटाली के लॉरेटो में प्रधानाचार्य मदर प्रोवेंशियल से भेंट हुई, तो उन्होंने मदर टेरेसा से लॉरेटो में वापस लौट आने के लिए कहा। यह बात सच्चे दिल से कही थी, लेकिन मदर टेरेसा को बात पसन्द नहीं आई। इसके बाद उन्होंने वहां जाना ही बन्द कर दिया। उन्हें डर था कि कहीं उनका मन कमज़ोर न पड़ जाए। जिस रास्ते को उन्होंने चुन लिया था, अब उससे डिगने वाली वह नहीं थीं।

पार्क स्ट्रीट के पादरी मदर टेरेसा के काम से खुश होकर रुपए-पैसे से उनकी सहायता करने लगे। उन्होंने पहली बार सौ रुपए दिए। रुपए मिलने पर चौबीस घंटे के अन्दर ही मदर ने मोतीझील बस्ती में पांच रुपए महीने में दो कमरे किराए पर ले लिए। यह 27 दिसम्बर की बात थी। उन कमरों में कक्षाएं चलाने से पहले उनकी मरम्मत की ज़रूरत थी। 28 दिसम्बर को उनके स्कूल के छात्र-छात्राओं की संख्या इक्कीस थी।

मदर उन्हें पढ़ाने के अलावा, उन्हें साफ़-सुथरा रहना भी सिखाती थीं । हर विद्यार्थी को नहलाया जाता था। सेंट मेरी की एक सिस्टर भी मदर की सहायता के लिए आ गईं। 4 जनवरी तक उनके साथ तीन और सिस्टर जुड़ गईं। उस वक़्त तक बच्चों की संख्या बढ़कर 56 हो गई थी। 15 जनवरी को नए मकान में स्कूल शुरू हुआ। स्कूल का नाम दिया गया ‘निर्मल हृदय’ । फ़ादर निकेइस अपनी शुभकामना देने के लिए वहां पधारे।

मोतीझील बस्ती में बीमारियां लगी ही रहती थीं। बीमारों की सेवा के लिए मदर मौजूद रहतीं। क्षय और कुष्ठ रोगियों की सेवा करने में भी वह हिचकती नहीं थीं। रोगियों के इलाज के लिए वहां स्कूल में दवाखाना खोला गया। इलाके के गरीबों में अस्पताल खुल जाने से खुशी की लहर दौड़ गई।

मोतीझील बस्ती के बाद मदर टेरेसा ने तिलजला बस्ती में भी एक स्कूल खोलने की बात सोची। वहां के बच्चे मोतीझील के बच्चों से ज्यादा तकलीफ़ में थे। मदर ने तिलजला में भी स्कूल का नाम ‘निर्मल हृदय’ दिया। आर्कबिशप की सलाह पर वह एक कॉपी में अपने रोज़ के कामकाज का विवरण लिखती रहती थीं। कॉपी को देखकर समझ में आता है कि शून्य से शुरू करके कितनी आसानी से करोड़ों के बीच पहुंचा जा सकता है। मदर टेरेसा अपनी इच्छा से भारत की नागरिक बनी थीं। उन्होंने भारत को अपने देश के रूप में चुन लिया था और इस देश के असहाय ग़रीब लोगों की सेवा करके भगवान की सेवा करने का व्रत लिया था।

1950 में मदर को पोप ने स्वीकार कर लिया। ‘मिशनरी ऑफ चैरिटी’ का दीपक जगमगा उठा। शुरू में मदर दीन-दुखियों, असहायों और बेघर लोगों की सड़क पर ही सेवा किया करती थीं। उन्हें कहीं ले जाने, रख पाने के लिए उनके पास जगह ही कहां थी। एक दिन बरसात में सड़क पर दम तोड़ते एक आदमी को देखकर मदर बेचैन हो उठीं। उसी क्षण उन्होंने निश्चय कर लिया कि दीन-दुखियों के लिए अवश्य ही आश्रम बनाना होगा। दो महीने में स्थान भी मिल गया। कालीघाट के काली मन्दिर के पीछे एक पुरानी धर्मशाला कलकत्ता की नगर-सभा ने उनके हाथों में सौंप दी। बाहर एक साइनबोर्ड लगा दिया, जिस पर अंग्रेज़ी और बंगला में ‘निराश्रितों के लिए आश्रय स्थल’ लिखा था।

साइनबोर्ड को देखते ही संकीर्ण विचारधारा के लोगों ने विरोध में आन्दोलन शुरू कर दिया। बात धरना और मारपीट तक पहुंच गई। मदर आईं और उन्होंने बड़े स्थिर चित्त से प्रार्थना की, “आप मुझे मारना चाहें, मारें, पर जो मृत्यु-पथ के यात्री हैं, उन्हें कुछ घड़ी शान्ति से जी लेने दें।” सब लोग शान्त होकर लौट गए। कुछ दिनों बाद काली मन्दिर के एक पुजारी को टी.बी. ने दबोच लिया। मदर ने अपनी सन्तान की तरह उसकी देखभाल की और उसे मौत के पंजों से बचा लिया। उस पुजारी ने मदर का अहसान मानते हुए अपने उद्गार व्यक्त किए, “मैं तीस वर्षों से मां काली की पूजा-अर्चना करता आ रहा हूं। आज मैं तुममें ही मां काली के साक्षात दर्शन करके धन्य हो गया।” फिर क्या था, सभी पुजारी मदर के भक्त हो गए। मदर टेरेसा उनके लिए साक्षात काली मां की प्रतीक बन गईं।

मदर टेरेसा की सहायता से भारत में पचास कुष्ठ अस्पताल बन चुके हैं। दुनिया के अन्य देशों में भी उन्होंने कुष्ठ रोगियों के इलाज के केन्द्र बनाए । एशिया, अफ्रीका, साउथ अमेरिका और मध्यपूर्व के लगभग तीस देशों में बनाए कुष्ठाश्रम आज भी चल रहे हैं। भारत में क़रीब चालीस लाख कुष्ठ रोगी हैं। पूरी दुनिया में इनकी संख्या करीब एक करोड़ बीस लाख होगी। मदर टेरेसा की इच्छा थी कि पूरी दुनिया से इस रोग का नामोनिशान मिटा दें।

साथ ही टी.बी. क्लीनिक, कई चिकित्सालय, कमर्शियल स्कूल और तकनीकी विद्यालय हैं, जहां बेरोज़गारों को रोजी के क़ाबिल बनाया जाता है। स्विट्ज़रलैंड, आस्ट्रिया, वेनेजुएला, फ्रांस, अमेरिका, कनाडा, इटली, आस्ट्रेलिया, हॉलैंड, डेनमार्क, इंग्लैंड, न्यूज़ीलैंड आदि देशों में ‘मिशनरीज़ ऑफ़ चैरेटीज़’ के अनेक दीप जलाकर मदर की यशोगाथा गा रहे हैं। केवल भारत में ही नहीं, मदर टेरेसा को सम्मान और पुरस्कार देकर सारी दुनिया ने नवाज़ा। 1962 में भारत ने उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया। उसी साल फिलीपींस का मैगसेसे पुरस्कार भी मिला।

1965 में छठे पोप पाल ने, भारत में अमेरिकियों से भेंट में मिली जिस गाड़ी पर सवारी की थी, उसे भारत से जाते समय मदर को उपहार में दे दिया। 6 जनवरी, 1971 को छठे पोप पाल के हाथों उन्हें पोप जॉन तेईसवां शान्ति पुरस्कार मिला। उसी साल वाशिंगटन से ‘जॉन ऑफ केनेडी अन्तर्राष्ट्रीय पुरस्कार’, न्यूयॉर्क से ‘गुड सेमेरिटन पुरस्कार’ और कैथोलिक यूनिवर्सिटी ऑफ़ अमेरिका से ‘डॉक्टर ऑफ़ ह्यूमन लेटर्स’ उपाधि दी गई। 1972 में उन्हें ‘जवाहरलाल नेहरू अवार्ड फ़ॉर इंटरनेशनल अंडरस्टैंडिंग’ मिला। 1973 में मदर को लन्दन से ‘फाउंडेशन प्राइज़ फ़ॉर प्रोग्रेस इन रिलीजन’ दिया गया। 1979 में उन्हें शान्ति के लिए नोबेल पुरस्कार मिला। 1980 में भारत के सबसे बड़े सम्मान भारतरत्न से विभूषित किया गया। 1983 में इंग्लैंड की महारानी एलिज़ाबेथ द्वितीय से उन्हें ‘ऑर्डर ऑफ़ मेरिट’ सम्मान मिला। मदर टेरेसा ने सभी पुरस्कार ग़रीबों की ओर से लिये।

इन पुरस्कारों का धन भी ग़रीबों में ही ख़र्च किया। 1985 में उन्होंने राष्ट्रसंघ की आम सभा में भाषण दिया।

शुक्रवार, 5 सितम्बर, 1997 को कलकत्ता के ‘मिशनरीज ऑफ चैरिटी’ के सदर दफ़्तर ‘मदर हाउस’ में विश्व जननी मदर टेरेसा ने अन्तिम सांस ली। मदर का शव 7 सितम्बर को सुबह मिडिल टाउन होते हुए सेंट थॉमस चर्च में ले जाया गया और 12 सितम्बर तक आम जनता के दर्शनों के लिए रखा गया। 13 सितम्बर को राष्ट्रीय सम्मान के साथ मदर का अन्तिम संस्कार किया गया। इस अवसर पर देश-विदेश के अनेक राष्ट्र-प्रमुख कलकत्ता में मौजूद थे।

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