17, कुमारस्वामी कामराज, भारत रत्न-1976

17.  कुमारस्वामी कामराज, भारत रत्न-1976

(जन्म-15 जुलाई 1903, मृत्यु- 2 अक्टूबर 1975)

“देश के सिर्फ़ ग़रीब ही मेरे सगे-सम्बन्धी हैं। वे मेरे देवता हैं। उनके झोंपड़े मेरे मन्दिर हैं। वे बंगला नहीं मांगते, मोटर नहीं मांगते। वे केवल खाना, कपड़ा और सिर के ऊपर छत चाहते हैं। आओ, हम सब मिलकर उनके स्वप्न को साकार करें।” ये विचार थे जनसेवक कुमारस्वामी कामराज।

विरुदपट्टी नामक गांव में नाडार जाति के एक ग़रीब परिवार में 15 जुलाई, 1903 को कामराज का जन्म हुआ था। यह गांव भारत के बिल्कुल दक्षिण में स्थित है। ज्योतिषियों ने भविष्यवाणी की थी कि यह बालक सूर्य के समान चमकेगा, परन्तु उनके परिवार वाले इस भविष्यवाणी को असम्भव मान चुके थे, क्योंकि परिवार की ग़रीबी के कारण बालक के उज्ज्वल भविष्य के बारे में वे सभी आश्वस्त नहीं थे। तब शायद उनकी दादी पार्वती अम्मल और मां शिवकामी भी यही सोच रही होंगी। कामराज को कामात्वी ही पुकारा जाने लगा था। उनकी मां ने देवी कामाक्षी से न जाने कितनी मनौतियां मानी थीं, तब उन्हें कामराज का मुंह देखने को मिला था। इसलिए मां ने उनका नाम कामात्वी कामराज रखा था।

धीरे-धीरे वह दिन भी आ गया, जब कामराज की पढ़ाई की शुरूआत होनी थी। एक छोटा-सा स्कूल था और उसका अध्यापक विकलांग था। इसी से लोग उसे ‘नोन्दी वत्यार वेलुयुत्तम’ अर्थात लंगड़ा अध्यापक पुकारते थे। उनके पिता कुमारस्वामी नाडार ने उस दिन विशेष उत्सव आयोजित किया था। मित्रों और रिश्तेदारों से भरा हुआ सारा घर खुशियों से झूम उठा था। कामराज को परिवार की परम्परागत पोशाक पहनाई गई थी। बड़े पुजारी रामलिंगम भी विशेष रूप से आमन्त्रित थे। बालक को एक सुन्दर पालकी में बैठाकर सारे गांव में घुमाया गया। उनके मामा ने गांव-भर में जुलूस को घुमा-फिराकर गांव वालों को बताया कि कामराज विद्या आरम्भ करने वाला है। एक ताड़ के पत्ते पर उसे पहला अक्षर लिखकर दिखाया गया और उसने स्कूल जाना शुरू कर दिया।

इस घटना के बाद उनके दादा चिनप्पा का देहान्त हो गया। कुछ समय बाद ही उनके पिता भी स्वर्ग सिधार गए । परिवार के भरण-पोषण की सारी ज़िम्मेदारी उनकी बूढ़ी दादी और मां पर आ पड़ी। उनके पास बालक कामराज और बिटिया नागम्माल के पालन-पोषण के लिए कुछ भी तो नहीं था, फिर भी दादी और मां ने हिम्मत नहीं हारी। उन्होंने अपने सारे गहने एक सज्जन साहूकार के पास तीन हज़ार रुपए में रख दिए, ताकि उन्हें प्रतिमाह चालीस रुपए गुज़ारे के लिए मिलते रहें। कामराज स्कूल जाता रहा।

पिता के अकस्मात निधन से कामराज के जीवन को एक ज़बर्दस्त झटका लगा। दादी और मां ने रुपयों की व्यवस्था तो की, किन्तु फिर भी कामराज को पढ़ाई छोड़नी पड़ी। सोचा गया कि पढ़ाई से अच्छा तो यह है कि उन्हें किसी काम-धन्धे में लगा दिया जाए, ताकि कुछ गाड़ी तो चले। जब पिता का देहान्त हुआ, तब वह छह वर्ष के थे। दो वर्ष तक किसी-न-किसी तरह उनकी पढ़ाई की गाड़ी चलती रही। आखिर ग़रीबी की मार के कारण उनकी पढ़ाई छूट ही गई। मां और दादी के संजोए हुए सपने कांच की तरह टूटकर चूर-चूर हो गए। जब खुले वातावरण में उनके खेलने-कूदने के दिन थे, तब वह दो की रोटी जुटाने के लिए मामा की दुकान पर बैठने लगे। उन्होंने बचपन में ही गरीबी की तकलीफ झेली थी। यही कारण था कि आगे चलकर वह ग़रीबों की सेवा में तन-मन से जुट गए।

तभी आया गणेश चतुर्थी का उत्सव। इलाके की पाठशाला में उत्सव मनाना तय हुआ । प्रत्येक व्यक्ति से एक-एक आना चन्दा लिया गया। कामराज ने भी एक आना दिया, परन्तु प्रसाद मिलते समय इतनी भीड़ हो गई कि कामराज पीछे रह गए। जब उन्हें मौक़ा मिला, तो प्रसाद समाप्त हो चुका था। उनके हाथ में थोड़ा-सा प्रसाद देखकर मां शिवकामी को आश्चर्य हुआ। उन्होंने पूछा, “अरे, न नारियल की गिरी है, न मिठाई का कोई टुकड़ा? क्या तुझे कुछ नहीं मिला?”

“मुझे तो इतना ही मिल पाया मा।” मायूसी से वह बोले ।

“और लड़कों ने तो आगे बढ़कर पहले ही ले लिया होगा।” मां ने चिढ़कर कहाँ|

“तो इससे क्या होता है? क्या मैंने चन्दा नहीं दिया था ? मुझे भी पूरा हिस्सा मिलना चाहिए था। उन्होंने मुझे कम क्यों दिया? तुम मास्टर जी से पूछो न ।” “नहीं, यह बात तो तुझे कहनी चाहिए थी कामात्वी।”

मां की इस बात से उनके बालमन में यह बैठ गया कि यह दुनिया डरपोक और दब्बुओं के लिए नहीं है। अगर इस दुनिया में जीना है, तो आगे बढ़कर अपना हिस्सा लेना होगा, छीनना होगा।

इसी बात को वह अपने सम्पूर्ण जीवन में चरितार्थ करते रहे, फिर तेरह वर्ष की आयु में उन्होंने डॉक्टर एनी बेसेंट की होमरूल की पुकार और बंकिमचन्द्र के वन्देमातरम का महामन्त्र सुना। इन सबने उनके मन में एक चिनगारी जगा दी। वह देश के लिए कुछ कर गुज़रने को तड़प उठे।

इधर जब परिवार वालों को मालूम हुआ कि उनकी आंखों का तारा विद्रोही गतिविधियां अपना रहा है, तो उन्होंने उसे देशभक्ति के वातावरण से दूर रखने के लिए गांव ही बदल दिया और दादी पार्वती अम्मल ने युवक कामराज को गृहस्थी के बन्धन में बांधने के लिए सुन्दर कन्या की तलाश आरम्भ कर दी। उन्होंने दुनिया के अन्य मां-बाप की तरह यही सोचा कि शादी हो जाएगी, बाल-बच्चों में मन रम जाएगा, तो सब ठीक हो जाएगा, किन्तु यह हुआ नहीं। उन्होंने साफ़-साफ़ बता दिया कि वह शादी नहीं करेंगे। अगर किसी ने ज़बर्दस्ती करने की कोशिश की, तो वह भाग जाएंगे और कामराज ने शादी नहीं की। वह जीवन-भर अविवाहित रहे।

जलियांवाला हत्याकांड के कारण जिन दिनों सारा देश सुलग रहा था, कामराज का मन भी अंग्रेज़ों के प्रति आक्रोश से भर उठा था। उन्हीं दिनों उनके गांव विरुदपट्टी में डॉक्टर वरदराजुलू नायडू पधारे। उनके ओजस्वी भाषण ने आग में घी का काम किया। उस समय उनकी आयु सोलह वर्ष थी। वह अंग्रेज़ों के जलियांवाला कांड से भली-भांति समझ गए थे कि गुलाम की देश को इसी तरह से रौंदा जाता है। कामराज ने ही डॉक्टर वरदराजुलू सभा संगठित की थी। डॉक्टर नायडू उनके जोश और सेवा-भाव से प्रभावित हुए। उन्होंने कामराज के अन्दर भड़क रही ज्वाला देख ली थी।

उन्हीं दिनों सारे भारत में, विशेष तौर से दक्षिण भारत में छुआछूत का बाज़ार बेहद गर्म था । सवर्ण हिन्दू हरिजनों की छाया से भी परहेज़ करते थे । महात्मा गांधी के निर्देशानुसार अछूतों के उद्धार के लिए आन्दोलन चलाया गया। कामराज ने सर्वप्रथम सत्याग्रही के रूप में अपना नाम लिखवा दिया। सत्याग्रह की सफलता का सम्पूर्ण श्रेय युवक कामराज के परिश्रम को ही गया। यह उनकी पहली राजनीतिक सफलता थी।

मुड़कर नहीं सफलता की पहली सीढ़ी पार कर कामराज ने कभी पीछे देखा। वह आगे ही बढ़ते चले गए। नागपुर का झंडा सत्याग्रह, मद्रास में कर्नल नील की मूर्ति हटाने का आन्दोलन, महात्मा गांधी का देशव्यापी नमक सत्याग्रह जैसे आन्दोलन उनके राजनीतिक जीवन में आए। वह सभी अग्नि-परीक्षाओं में खरे उतरे।

1930 में नमक सत्याग्रह में भाग लेने के कारण उन्हें दो साल की क़ैद को सुनकर वह की सज़ा हो गई। यह उनकी पहली जेल-यात्रा थी। इस सज़ा फूले नहीं समा रहे थे। 1931 में उन्हें अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी का सदस्य चुना गया। 1935 में वह तमिलनाडु कांग्रेस के मन्त्री बने और चार वर्ष बाद ही वहां की कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष चुन लिये गए। वह 1954 तक इस पद पर निर्वाचित होते रहे।

वह अखिल भारतीय गतिविधियों में भाग लेते थे, पर उन्हें केवल तमिल भाषा का ज्ञान था । इस कारण कठिनाई होने लगी। इसलिए उन्होंने धीरे- धीरे अंग्रेज़ी का अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लिया। 1937 में कामराज विरुदनगर के एक ऐसे क्षेत्र से बिना किसी विरोध के चुने गए, जो सदा से अंग्रेज़ों के वफ़ादारों का गढ़ था।

1942 में भारत छोड़ो आन्दोलन की आंधी चली और उसमें सक्रिय भाग लेने के कारण उन्हें तीन वर्ष की जेल-यात्रा करनी पड़ी। 1947 में उन्हें मद्रास विधानसभा का सदस्य मनोनीत किया गया और सन् 1951 में संसद सदस्य निर्वाचित हुए। आगे चलकर 1954 में वह तमिलनाडु के मुख्यमन्त्री बन गए।

कामराज का तमिलनाडु का मुख्यमन्त्री बनना अचानक नहीं था, क्योंकि उनकी कर्मठता और काम के प्रति ईमानदारी ने तमिलनाडु के प्रत्येक व्यक्ति के दिल में उनके लिए सम्मानित जगह बना ली थी। इस तरह गरीबी की कोख में जन्मे, अभावों में पले कामराज को ग़रीबों की सेवा करने का सुअवसर मिला।

आदमी को पहचानने में कामराज ने शायद ही कभी गलती की हो। अपने मन्त्रिमंडल में उन्होंने इसी पहचान की कसौटी पर व्यक्तियों को कसकर मन्त्री बनाया था। जितने कामराज जनता के लिए सुलभ थे, भारत में शायद ही कोई ऐसा नेता अथवा मुख्यमन्त्री हुआ हो। वह हमेशा हर एक की समस्या को बड़े भाई की तरह सुलझाने के लिए तत्पर रहते थे।

वह चाहते थे कि देश के आर्थिक विकास के कार्यक्रमों में शिक्षा को प्राथमिकता मिलनी चाहिए। उनकी योजना थी कि छह से ग्यारह वर्ष की आयु के सभी बच्चों को अनिवार्य शिक्षा प्राप्त हो। उसी के साथ स्कूल के बच्चों को दोपहर का भोजन देने की योजना उनके मन में पनप रही थी। उन्होंने हाईस्कूल तक मुफ्त शिक्षा और मुफ़्त भोजन की व्यवस्था करके राज्य का शैक्षिक विकास किया। शिक्षा के सम्बन्ध में कामराज का एक मत और भी था कि बच्चों को तकनीकी शिक्षा भी देनी चाहिए, ताकि बच्चे डिग्रियां प्राप्त करके सड़कों पर बेकार न घूमें।

उनके काल में राज्य का चहुंमुखी विकास हुआ। प्रशासन में उनकी कुशलता से जवाहरलाल नेहरू भी प्रभावित थे। गांवों की दशा सुधारने के लिए उन्होंने पंचायत प्रणाली को उचित समझा था।

नौ वर्ष तक मुख्यमन्त्री के कार्यालय की चारदीवारी में क़ैद जननायक कामराज का मन फिर जनता के बीच काम करने के लिए मचल उठा । यद्यपि उन्होंने मुख्यमन्त्री काल में भी अपना सम्पर्क शिथिल नहीं किया था और हमेशा जनता से मिलने, उनसे बात करने, उनकी समस्याओं को जानने-परखने और सुलझाने को प्राथमिकता दी थी, फिर भी वह इस पद पर रहते हुए अनेक पाबन्दियां महसूस करते रहते थे।

उन्होंने एक योजना तैयार की। इसमें पुराने नेताओं को सत्ता के पदों का त्याग कर जनता की सेवा करने के लिए कांग्रेस संगठन में अपना पूरा समय देने का प्रस्ताव था । यही प्रस्ताव ‘कामराज योजना’ के नाम से प्रसिद्ध है। इसी योजना के तहत सन् 1963 में कामराज ने स्वेच्छा से तमिलनाडु राज्य के मुख्यमन्त्री पद से त्यागपत्र दे दिया। वह अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष चुन लिए गए परन्तु ‘कामराज योजना’ अधिक प्रभावी ढंग से चल नहीं पाई। केवल दो-चार चोटी के मन्त्रियों को छोड़कर कोई भी अपनी जगह से नहीं हिला।

नेहरू जी के निधन के तुरन्त बाद जो प्रश्न वर्षों से प्रत्येक भारतवासी को परेशान किए हुए था, वह प्रत्यक्ष रूप से सामने आकर खड़ा हो गया, नेहरू के बाद कौन? यह कामराज का बड़प्पन था कि बजाय इसके कि वह स्वयं नेहरू जी का उत्तराधिकारी बनते, उन्होंने ‘किंग मेकर’ की भूमिका निभाना अधिक उचित समझा और प्रमुख मन्त्रियों के विचार-विमर्श से लालबहादुर शास्त्री को प्रधानमन्त्री बनाया गया। कामराज की यह आदत शुरू से रही थी कि वह अपने विरोधी को पूरी तरह से नाप-तोलकर अपनी योजना बनाते थे। यही कारण था कि लालबहादुर शास्त्री के निधन पर उन्होंने सोच लिया था कि इन्दिरा गांधी को प्रधानमन्त्री बनाना है और वह समय आ भी गया। भारत के प्रायः सभी प्रमुख मन्त्री तथा नेता दिल्ली पहुंच रहे थे|  शास्त्री जी के दाह-संस्कार में सम्मिलित होने का अवसर था। कांग्रेस अध्यक्ष कामराज को भी मद्रास से आना था। उनके हवाई जहाज़ में विलम्ब था । प्रतीक्षा में बैठे कांग्रेस अध्यक्ष ने मन-ही-मन अगला प्रधानमन्त्री चुन लिया था।

कामराज एक दूरदर्शी और परिपक्व राजनीतिज्ञ थे। राजनीति के विचारक उन्हें एक कूटनीतिज्ञ मानते हैं। उनकी महान देश-सेवाओं के लिए भारत सरकार ने उन्हें मरणोपरान्त 1976 में भारतरत्न की सर्वोच्च उपाधि से अलंकृत किया। उनका निधन अक्तूबर, 1975 को हुआ। उनकी जीवन कथा हमें सदा इस बात के लिए प्रेरित करती रहेगी।

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