16.इन्दिरा गांधी-(जन्म उपनाम: नेहरू), भारत रत्न-1971
(जन्म-19 नवंबर 1917, मृत्यु-31 अक्टूबर 1984)
“यदि मेरी हत्या भी कर दी जाए, तो मुझे उसकी तनिक भी परवाह नहीं । मेरे ख़ून का एक-एक क़तरा एक-एक हिन्दुस्तानी की रचना करेगा।” अपनी इस वाणी को पूरी तरह चरितार्थ किया श्रीमती गांधी ने। हमारे देश का यह सौभाग्य है कि उसने एक ऐसी महान विभूति को जन्म दिया, जिसकी गणना शताब्दियों तक विश्व के महानतम नेताओं में की जाएगी। इन्दिरा गांधी को भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री जवाहरलाल नेहरू का राजनीतिक उत्तराधिकार प्राप्त हुआ था। वह भारत की पहली महिला प्रधानमन्त्री बनी।
19 नवम्बर, 1917 को जब इन्दिरा गांधी का जन्म हुआ, तो दादा मोतीलाल नेहरू रोग-शैया पर थे। उनकी बड़ी इच्छा थी कि बेटे जवाहरलाल की कोई सन्तान देखकर ही स्वर्गवासी हों। नवजात शिशु को जब मोतीलाल जी के पास लाया गया, तो वह प्रसन्नता से झूम उठे। वहां उपस्थित व्यक्तियों में से किसी ने कहा, “यह लड़की आपके परिवार एवं जवाहर की वास्तविक उत्तराधिकारी बनकर आपके सपनों को पूरा करेगी।” और यह भविष्यवाणी वास्तव में सत्य सिद्ध हुई। पिता जवाहरलाल नेहरू और मां कमला नेहरू इस बालिका को पाकर बेहद ख़ुश थे। नेहरू परिवार का आनन्द भवन धन्य हो गया। माता-पिता ने बालिका का नाम प्रियदर्शनी इन्दिरा रखा। घर-परिवार में धनधान्य की कोई कमी नहीं थी। मोतीलाल नेहरू इलाहाबाद हाईकोर्ट के जाने-माने वकील थे।
आनन्द भवन केवल आवास गृह नहीं, बल्कि स्वाधीनता सेनानियों का देवालय भी था, जहां प्रतिदिन राष्ट्रीय नेताओं की भीड़ लगी रहती थी और राष्ट्रीय हित में विचार-विमर्श होता रहता था। आनन्द भवन के ऐसे माहौल में प्रियदर्शनी धीरे-धीरे बड़ी होती गई। आयु के साथ-साथ उसमें गम्भीरता भी आती गई । घर पर माता-पिता की राजनीतिक सरगर्मियों और उनकी गिरफ्तारियों को देखते हुए बालिका इन्दिरा बचपन से ही राजनीति का पाठ पढ़ने लगी । सार्वजनिक पार्कों और रेलों में भारत और भारतीयों के अपमान को देख-सुनकर उसका मन विचलित हो उठता था और भारतीयों द्वारा किए गए प्रतिकार की बात सुनकर वह प्रसन्न हो उठती थी।
पिता जवाहरलाल उन दिनों प्रायः जेलों में ही रहते थे। इसलिए यह बालिका अपनी मां कमला नेहरू के संरक्षण में रहती। वह विदुषी महिला थीं। भारतीय संस्कृति के प्रति उनकी गहरी निष्ठा थी। इन्दिरा जी ने स्वयं कहा था, “पिता जी मुझसे आकाश तक उठने की बात करते थे और माता जी मुझे धरती पर ढंग से रहना सिखाती थीं।”
नेहरू की एकमात्र सन्तान होने के कारण उनका लालन-पालन बड़े लाड़-प्यार से हुआ। उनकी शिक्षा पूना, स्विट्ज़रलैंड और ऑक्सफ़ोर्ड में हुई। इन्दिरा जी ने कुछ दिन शान्तिनिकेतन में गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर के सान्निध्य में भी शिक्षा प्राप्त की। इन्दिरा जी बारह-तेरह वर्ष की आयु में ही राजनीति में उतर आईं। उन्होंने कांग्रेस की सहायता के लिए एक वानर सेना का निर्माण किया। बाद में इस संगठन में 60 हज़ार सदस्य हो गए। जहां आनन्द भवन की गतिविधियों से उन्होंने राजनीति का पहला पाठ पढ़ा, वहीं ऑक्सफ़ोर्ड में शिक्षा प्राप्त करते हुए ब्रिटिश मज़दूर दल में शामिल होकर राजनीति का दूसरा पाठ पढ़ा। इक्कीस वर्ष की आयु में वह कांग्रेस की सक्रिय सदस्य बन गईं। इसके बाद आज़ादी की लड़ाई में बढ़-चढ़कर भाग लिया। 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन में भाग लेने पर उन्हें तेरह महीने के लिए जेल जाना पड़ा।
इन्दिरा जी ने कांग्रेस के ही एक आकर्षक व्यक्तित्व वाले नेता फ़िरोज़ गांधी को अपने जीवनसाथी के रूप में चुना। शादी के कुछ ही दिनों बाद दोनों को पकड़कर जेल में डाल दिया गया। यह उनके जीवन-संघर्ष की महान थी। साहस और जोखिम भरे काम करने की शिक्षा उन्हें अपने पिता से ही मिली थी|
भारत के स्वतन्त्र होने पर जब जवाहरलाल नेहरू प्रथम प्रधानमन्त्री बने, तो इन्दिरा जी का अधिकांश समय उन्हीं के साथ बीतता था। कई बार वह उनके साथ विदेश यात्रा पर भी गईं और विश्व के अनेक राजनेताओं से सम्पर्क हुआ। पहले और दूसरे आम चुनावों में उन्होंने नेहरू जी के चुनाव क्षेत्र की ज़िम्मेदारी संभाली और साथ ही फ़िरोज़ गांधी के चुनाव क्षेत्र का भी दौरा लगातार करती रहीं, जिससे वह जनता के निकट सम्पर्क में आईं।
फ़रवरी, 1959 में वह अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नागपुर अधिवेशन में दल की अध्यक्ष चुनी गईं। उनकी अध्यक्षता के दौरान कांग्रेस ने अनेक महत्त्वपूर्ण सफलताएं प्राप्त कीं।
नेहरू जी की मृत्यु के बाद प्रथम प्रधानमन्त्री बने लालबहादुर शास्त्री ने उन्हें सूचना और प्रसारण मन्त्री बनाकर अपने मन्त्रिमंडल में शामिल कर लिया। यह सर्वविदित है कि इस पद पर रहते हुए उन्होंने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। शास्त्री जी के अकस्मात निधन पर देश के सामने एक बार फिर यह समस्या आई कि देश की बागडोर किसे सौंपी जाए। दुर्भाग्य से दल किसी एक नाम पर एकमत न हो सका और मोरारजी देसाई तथा इन्दिरा गांधी के मध्य चुनाव की नौबत आ गई। इस चुनाव में श्रीमती इन्दिरा गांधी को 355 तथा मोरारजी देसाई को 169 मत प्राप्त हुए। इस प्रकार संसदीय दल के नेता पद का चुनाव जीतकर 1965 में देश की प्रथम महिला प्रधानमन्त्री बनने का गौरव उन्हें प्राप्त हुआ।
प्रधानमन्त्री पद संभालते ही उनके सामने कठिनाइयों का सिलसिला आरम्भ हो गया। 1969 के आम चुनाव सिर पर थे। यह इन्दिरा जी के नेतृत्व को एक बड़ी चुनौती थी। जनता ने इन्दिरा जी में अपना अटूट विश्वास प्रकट करते हुए विपक्षी दलों के गठबन्धन को करारी मात दे दी। इसके थोड़े ही दिन बाद इन्दिरा जी को अपने ही दल में संकट का सामना करना पड़ा|
बंगलौर के कांग्रेस अधिवेशन में दक्षिण पन्थी या सिंडीकेट ग्रुप के नेता उनकी नीतियों का विरोध करके सरकार पलटने की योजना बनाने लगे। श्रीमती गांधी ने साहस का परिचय देते हुए दल के आन्तरिक संकट पर विजय प्राप्त कर ली। उन्होंने वित्त मन्त्रालय को अचानक अपने हाथ में लेकर चौदह बड़े बैंकों के राष्ट्रीयकरण की घोषणा कर दी, जिसे आम जनता में पूरी तरह सराहा गया। इसी के साथ राजा-महाराजाओं को प्राप्त प्रिवीपर्स को ख़त्म करके जनमानस को अपने प्रति भावनामय बना लिया। श्रीमती गांधी राष्ट्रीय नेता के रूप में देश के मंच पर आसीन हो गईं और जिस प्रकार जनता का अटूट विश्वास पं. नेहरू को प्राप्त था, उससे भी एक क़दम आगे जनता ने इन्दिरा जी को अपना विश्वास दिया।
1971 का मध्यावधि चुनाव उनके नेतृत्व के लिए एक कसौटी था। विरोधी पक्ष एकजुट होकर ‘इन्दिरा हटाओ’ अभियान में लगे हुए थे, तब इन्दिरा जी ने ‘ग़रीबी हटाओ’ का नारा देकर जनता को अपनी ओर आकर्षित कर लिया। यह चुनाव उन्होंने अपनी ही कमान में लड़कर देश के दिग्गज नेताओं को भारी पराजय दी। उसी वर्ष 9 अगस्त, 1971 को राष्ट्रहित में उन्होंने सोवियत रूस से बीस वर्षीय शान्ति और मैत्री सन्धि करके भारतीय जनता को बाहरी ख़तरों से सुरक्षित कर दिया।
बंगलादेश का प्रश्न इसलिए आया कि पाकिस्तानी शासकों की नीति और बर्बरतापूर्ण अत्याचारों के कारण लाखों की संख्या में शरणार्थी भारत आ गए। इससे भारत का अर्थतन्त्र लड़खड़ाने लगा। श्रीमती गांधी ने विश्व के मानवतावादी देशों से अपील की कि स्थिति को बिगड़ने से रोकने में वे अपना सहयोग दें, परन्तु कोई फल न निकला। यह उनके लिए कठिन परीक्षा की घड़ी थी। उनके द्वारा किए गए शान्ति और राजनीतिक समाधान के सारे प्रयत्न नाकाम हो गए। बंगलादेश की मुक्तिवाहिनी को भारत की सहानुभूति से चिढ़कर पाकिस्तान ने भारत पर आक्रमण कर दिया। इस पर इन्दिरा जी ने करारा जवाब देने की ठान ली। चौदह दिन के भारत-पाक युद्ध में हमारी ऐतिहासिक विजय ने श्रीमती गांधी की शक्ति और दूरदर्शिता पर अपनी छाप लगा दी। भारत के हाथों जहां पाकिस्तान की पराजय हुई, वहां बंगलादेश के रूप में एक नए राष्ट्र का निर्माण भी हो गया।
विश्व के बड़े-बड़े राजनेता यह स्वीकार करने के लिए बाध्य हो गए कि श्रीमती गांधी में महान साहस है और चुनौतियों का सामना करने की ज़बर्दस्त इच्छाशक्ति भी है। इसके बाद 28 जून, 1972 को शिमला में भारत तथा पाकिस्तान के मध्य ऐतिहासिक समझौता हुआ। भारत के प्रधानमन्त्री के तौर पर श्रीमती गांधी तथा पाकिस्तानी राष्ट्रपति के रूप में जुलफ़िकार अली भुट्टो ने परस्पर मैत्री का हाथ बढ़ाया।
देश में विरोधी तत्त्वों को इन्दिरा गांधी की शक्ति और लोकप्रियता रास नहीं आई और वे अशान्ति फैलाने में जुट गए। राजनीति एक अजीब से जाल में फंस गई। देश के आन्तरिक संकट पर काबू पाने के लिए 25 जून, 1975 को उन्होंने आपात काल की घोषणा कर दी और जनता को बीस सूत्री आर्थिक कार्यक्रम दिया, जिसके फलस्वरूप देश में फिर से प्रगति और खुशहाली का दौर शुरू हो गया।
1977 के चुनाव में उन्हें एक करारा झटका लगा। वह स्वयं तथा उनका दल इस चुनाव में जनता का विश्वास खो बैठा। मोरारजी देसाई के नेतृत्व में नवगठित जनता पार्टी की सरकार बनी, परन्तु श्रीमती गांधी ने तब भी मानसिक हार स्वीकार नहीं की। यहां तक कि तब की सरकार ने उन्हें अनेक प्रकार से तंग करना आरम्भ कर दिया। उनके विरुद्ध आयोग बिठाए गए, जिनका उन्होंने बड़ी दिलेरी के साथ सामना किया। प्रधानमन्त्री पद से हाथ धो बैठने के बावजूद इन्दिरा जी ने बड़े साहस के साथ सभी बाधाओं का सामना किया। अपनी कटु आलोचना का भी बड़ी सहजता से उत्तर दिया।
अपनी राजनीतिक सूझबूझ का परिचय देते हुए उन्होंने जनता सरकार को समय से पहले ही हटने को बाध्य कर दिया। 1980 में मध्यावधि चुनावों की घोषणा का जनता ने स्वागत किया। इस चुनाव में श्रीमती गांधी ने अपनी पिछली पराजय का भरपूर बदला लिया और भारी विजय प्राप्त कर फिर से प्रधानमन्त्री के पद पर आसीन हो गईं। इस प्रकार उन्होंने विश्व में एक अनोखा उदाहरण प्रस्तुत किया । इन्दिरा जी एकमात्र नेता थीं, जिन्होंने अपने दमख़म से राजनीति के महारथियों को पछाड़कर अपनी पार्टी को फिर से सत्ता दिलाई|
श्रीमती गांधी ने इस बार आम जनता की भलाई के लिए विभिन्न कल्याणकारी योजनाएं आरम्भ कीं। उनके छोटे पुत्र संजय गांधी युवा नेता के रूप में विख्यात हो चुके थे। वह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के महामन्त्री के रूप में इन्दिरा जी का हाथ बंटा रहे थे, परन्तु भगवान को कुछ और ही मंजूर था। अचानक दिल्ली में वह एक हवाई दुर्घटना का शिकार हो गए और असभय ही एक युवा नेता संसार से विदा हो गया । इन्दिरा जी के लिए यह एक गहरा सदमा था। उन्होंने पुत्र ही नहीं, अपने विश्वसनीय सहयोगी को खो दिया था।
नए बीस सूत्री आर्थिक कार्यक्रम के अन्तर्गत भारत चतुर्मुखी उन्नति कर रहा था। इस कार्यक्रम की घोषणा करते हुए इन्दिरा जी ने कहा था, “1975 में जब पहली बार बीस सूत्री कार्यक्रम की घोषणा की गई थी, तब मैंने आपको जता दिया था कि आप चमत्कार की उम्मीद न करें। ग़रीबी दूर करने के लिए बस एक ही जादू है और वह है, कड़ी मेहनत। इसके साथ ही उद्देश्य की स्पष्ट अनुभूति और अनुशासन का होना भी ज़रूरी है। खड़ी चढ़ाई की सड़क पर रुकने के लिए न तो समय है और न ही कोई स्थान। हमारा आदर्श राष्ट्रीय वाक्य है, सत्यमेव जयते, अर्थात केवल सत्य की ही विजय होती है। हमें अपने दैनिक जीवन में एक और आदर्श वाक्य अपनाना चाहिए, श्रमेव जयते। यह सच्चाई और कड़ी मेहनत के प्रति सम्मान प्रगति और खुशहाली का मूल सिद्धान्त है।”
इन्दिरा गांधी को सन् 1972 में उन्हें भारतरत्न की सर्वोच्च उपाधि से विभूषित किया गया। उन्होंने सिद्ध कर दिया कि वह इस विशाल देश की जनता की इच्छाओं को पूरा करने वाली एक मसीहा हैं। उनमें दृढ़ इच्छाशक्ति, गहन आत्मविश्वास और लक्ष्य के प्रति अटूट निष्ठा थी। हार को जीत में बदलने की उनके पास अपार शक्ति थी।
31 अक्टूबर, 1984 को लगभग नौ बजे, प्रातः प्रधानमन्त्री निवास पर ही उनके अंगरक्षकों ने उनकी हत्या कर दी और अहिंसा, शान्ति तथा सहिष्णुता की यह मूर्ति सदा के लिए चिरनिद्रा में सो गई।