लालबहादुर शास्त्री, भारत रत्न- 1966 (मरणोपरांत)
(जन्म-2 अक्टूबर, 1904, मुगलसराय, भारत – मृत्यु 11 जनवरी, 1966)
“जो मशाल गांधी ने जलाई और जिसकी रोशनी पंडित नेहरू ने फैलाई, उस मशाल को जलाए रखना हम सबका कर्तव्य है। मैं लोगों के जोश, उत्साह और सहायता से इस मशाल को देश के कोने-कोने में ले जाना चाहता हूं, जिससे ग़रीबी, बेरोज़गारी तथा अन्धकार दूर हो।”
इन शब्दों को कहने वाले लालबहादुर शास्त्री सरलता और सादगी के प्रतिरूप थे। जब देश संकट की भयानक घड़ी से गुज़र रहा था और पड़ोसी पाकिस्तान ने हमारे देश पर क्रूर आक्रमण कर दिया था, तब उस अजेय लौहपुरुष ने प्रधानमन्त्री के रूप में इस देश की बागडोर अपने सशक्त हाथों में संभाली थी ।
नेहरू जी की मृत्यु के तुरन्त बाद भारत में ही नहीं, विश्व भर में एक बड़ा सवाल सामने उठ खड़ा हुआ था कि प्रधानमन्त्री के रूप में कौन आएगा। अन्त में भारत का वह कर्मठ ‘लाल’ सामने आया और अपनी ईमानदारी, कुशलता तथा कार्यक्षमता से भारत का प्रिय नेता बन गया। लालबहादुर शास्त्री के अठारह मास के छोटे-से प्रधानमन्त्री-काल में सोई हुई देश की आत्मा जाग उठी और जनता का ख़ून जोश की आंच में तपकर खौल उठा।
पड़ोसी पाकिस्तान और चीन द्वारा भारत का मणिमुकुट कश्मीर और लद्दाख का क्षेत्र हड़पने का षड्यन्त्र बना, परन्तु शास्त्री जी की ललकार से उनका सपना मिट्टी में मिल गया। यह पहला अवसर था, जब पूरा देश कश्मीर से कन्याकुमारी तक एकजुट हो गया। शास्त्री जी ने पाकिस्तानी आक्रमण के अवसर पर देश की जनता को बड़ी ओजस्वी भाषा में सम्बोधित किया हम रहें न रहें, लेकिन भारत का सिर ऊंचा रहेगा। भारत दुनिया के देशों में एक बड़ा देश होगा और शायद दुनिया को बहुत कुछ दे सकेगा
जिस तरह मौर्य साम्राज्य के निर्माता आचार्य चाणक्य कुटिया में रहकर साधारण जीवन बिताते थे, वैसे ही लालबहादुर शास्त्री प्रधानमन्त्री रहते हुए बहुत ही साधारण जीवन व्यतीत करते थे। उस समय उनके पास केवल दो जोड़ी जूते और तीन पुराने कोट थे। वह बान से बुने पलंग पर सोते थे और क़र्ज़ में भी डूबे हुए थे। उन्होंने न मकान बनवाया, न ज़मीन खरीदी, न उनके पास बैंक बैलेंस ही था । शास्त्री जी के व्यक्तित्व के बारे में नेहरू जी ने कहा था, “उच्चतम व्यक्तित्व वाले, निरन्तर सजग और कठोर श्रमशील व्यक्ति का नाम है, लालबहादुर शास्त्री।”
लालबहादुर शास्त्री का जन्म 2 अक्टूबर 1904 को, वाराणसी के मुगलसराय में एक साधारण कायस्थ परिवार में हुआ । लालबहादुर के पिता शारदा प्रसाद श्रीवास्तव मुगलसराय के रेलवे स्कूल में अध्यापक थे। पुत्र के जन्म के बाद वह सोचा करते थे कि बच्चा जब पढ़-लिखकर बड़ा होगा, तो उन्हें किसी प्रकार का कष्ट नहीं रहेगा, किन्तु विधाता को शायद यह स्वीकार नहीं था। बालक लालबहादुर डेढ़ वर्ष के हुए, तब पिता का स्वर्गवास हो गया। उनकी मां रामदुलारी भी असहाय हो गईं।
बालक लालबहादुर को पिता का स्नेह नहीं मिल पाया, किन्तु नाना हजारीलाल का संरक्षण प्राप्त था । वह नवासे को बहुत प्यार करते थे। उनका पालन-पोषण नाना के घर पर ही हुआ। वहां रहते हुए उन्होंने छठी कक्षा पास कर ली|
वह दस वर्ष के हुए, तब अपनी मौसी के साथ वाराणसी चले आए। वहां हरिश्चन्द्र हाईस्कूल में भर्ती हो गए। उनके मौसा रघुनाथ प्रसाद बनारस के म्युनिसिपल दफ्तर में हेड क्लर्क थे। उनकी आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी, फिर भी लालबहादुर को बड़ी अच्छी तरह रखते थे। उन्होंने साठ वर्ष की आयु में अवकाश प्राप्त करने के बाद परिवार के भरण-पोषण के लिए किराने की खोल ली। लालबहादुर पर मौसा के कर्मठ जीवन का काफी प्रभाव पड़ा।
लालबहादुर शास्त्री का बचपन ग़रीबी में बीता, किन्तु यह उनकी आत्मा को कुचल नहीं पाई, बल्कि इससे उनका आत्मबल मज़बूत हुआ और उन्हें आत्मनिर्भर होने की प्रेरणा मिली। अपने कपड़े वह स्वयं धोते, अपने घर से सोलह मील पैदल चलकर पढ़ाई के लिए स्कूल पहुंचते। कभी-कभी पैसा पास में न होने से उन्हें नदी तैर कर पार करनी पड़ती थी। कई बार उपवास भी करना पड़ता था, पर सारा दु:ख वह बड़े धैर्य के साथ, सहन कर लेते थे। बहुत विनयशीलता की वह जीती-जागती तस्वीर थे। उनके व्यवहार से शिक्षक प्रसन्न रहते। एक अध्यापक निष्कामेश्वर मिश्र थे, जो उन्हें राणाप्रताप, शिवाजी जैसे वीरों की कहानियां सुनाया करते थे।
उन दिनों देश-भर में स्वाधीनता संग्राम ज़ोर पकड़ रहा था । विपिनचन्द्र पाल, सुरेन्द्रनाथ बनर्जी, बालगंगाधर तिलक, गोपालकृष्ण गोखले जैसे प्रमुख नेताओं के देश-प्रेम की चर्चा चारों ओर सुनाई पड़ रही थी। लोकमान्य तिलक और महात्मा गांधी अपने जोशीले भाषणों से देश की जनता को गुलामी की बेड़ियां तोड़ फेंकने के लिए जाग्रत कर रहे थे।
देश-प्रेम की तरंग से लालबहादुर शास्त्री का मन भी भीग गया। वह अस्सी मील की पैदल यात्रा करके लोकमान्य तिलक का ओजस्वी भाषण सुनने पहुंचे तथा ‘स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है’ जैसा गूंजता हुआ नारा उनके मन पर छाप छोड़ गया।
1921 में गांधी जी ने असहयोग आन्दोलन शुरू किया, तब लालबहादुर पढ़ाई छोड़कर उसमें कूद पड़े। वाराणसी में गांधी जी के दर्शनों ने उन्हीं के आदर्श जीवन-भर अपनाने की प्रेरणा दी और उन्होंने संकल्प कर लिया कि बापू के बताए रास्ते पर ही चलेंगे। बाद में अपनी शिक्षा पूरी करने के लिए वह राष्ट्रीय भावना जगाने वाले काशी विद्यापीठ में भर्ती हो गए।
उन्हें स्वदेशी वातावरण और राष्ट्र-भक्ति की प्रेरणा देने वाले अध्यापक मिले। वहां चार वर्ष तक अध्ययन किया। वह रूसी साहित्यकार टॉलस्टाय के विचारों के प्रति बहुत आकर्षित हुए। उन्होंने रामकृष्ण परमहंस तथा विवेकानन्द के विचारों का भी अध्ययन किया। काशी विद्यापीठ से ही परीक्षा पास करने पर शास्त्री की उपाधि मिली। इसके बाद वह शास्त्री कहलाने लगे। शिक्षा पूरी करने के बाद समाज-सेवा का क्षेत्र अपने लिए चुना। वह लाला लाजपतराय द्वारा स्थापित लोक सेवक मंडल के सदस्य बन गए।
सन् 1927 में तेईस वर्ष की आयु में उनका विवाह मिर्ज़ापुर की ललिता देवी के साथ हो गया। शास्त्री जी दहेज के विरुद्ध थे। विवाह के समय उन्होंने अपने ससुर से कह दिया था कि दहेज में उनकी पत्नी को एक जोड़ी कड़ा, एक साड़ी और सिन्दूर दें और मुझे मात्र एक चरखा । ललिता देवी का साथ शास्त्री जी के लिए बड़ा प्रेरणादायक सिद्ध हुआ।
विवाह के बाद लालबहादुर शास्त्री पूरी तरह से राजनीति में कूद पड़े । सत्याग्रह आन्दोलन में उन्हें कई बार जेल जाना पड़ा। सन् 1930 से 1945 के बीच नौ वर्ष जेल में रहे। जेल में विश्व-साहित्य का गहन अध्ययन किया। वहां अनेक प्रकार की यातनाएं भी सहनी पड़ीं, किन्तु उस साहसी व्यक्ति ने कभी उफ़ तक नहीं किया।
सन् 1937 के चुनावों में शास्त्री जी उत्तर-प्रदेश विधानसभा के सदस्य चुने गए। उन्होंने ज़मींदारी प्रथा और भूमि-सुधार के सम्बन्ध में गहरा अध्ययन किया तथा कांग्रेस द्वारा नियुक्त एक गैरसरकारी समिति के सचिव के रूप में भूमि-सुधारों के सम्बन्ध में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की, जो आगे चलकर ज़मींदारी उन्मूलन का आधार बनी।
8 अगस्त, 1942 को कांग्रेस ने ‘भारत छोड़ो’ का ऐतिहासिक नारा लगाया। लालबहादुर शास्त्री उन दिनों बम्बई में थे। उन्हें बम्बई से इलाहाबाद छिपकर जाना था। पुलिस उन्हें बन्दी बनाने के लिए ताक में थी। वह किसी तरह इलाहाबाद पहुंच गए और आठ दिनों तक छिपकर रहे। शहर में कर्फ्यू और धारा 144 लागू थी। शास्त्री जी ने किसी तरह प्रबन्ध करके इलाहाबाद की सार्वजनिक सभा के आयोजन पर पर्चे छपवाकर बांट भी दिए। शाम को भीड़ जमा हो गई। हथियारबन्द गाड़ियों को देखकर जनता ने सोचा, शास्त्री जी ऐसी स्थिति में शायद ही आएं। इतने में धोती-कुर्ता पहने एक ठिगना-सा व्यक्ति तांगे पर आ धमका और पुलिस के विरोध के कारण तांगे पर ही खड़े होकर भाषण देने लगा । यही शास्त्री जी थे। उनका एक वाक्य भी पूरा न हो पाया था कि पुलिस उन्हें गिरफ़्तार करके ले गई।
द्वितीय विश्वयुद्ध समाप्त होने पर 1945 में भारत में फिर प्रान्तीय स्वशासन स्थापित किया गया । प्रान्तों के विधानमंडलों के चुनावों में कांग्रेस ने बहुमत प्राप्त किया। इस सफलता में लालबहादुर शास्त्री का बड़ा योगदान था।
देश स्वतन्त्र होने के बाद पं. गोविन्द वल्लभ पन्त ने 1947 में उन्हें उत्तर-प्रदेश में पुलिस तथा परिवहन मन्त्री का पद प्रदान किया। शास्त्री जी की संगठन क्षमता और कर्तव्य को सर्वोच्च स्थान देने के कारण उनका मान बहुत बढ़ गया। वह पुरुषोत्तमदास टंडन और जवाहरलाल नेहरू के समान रूप से विश्वासपात्र बने रहे। एक बार टंडन जी और नेहरू जी के बीच काफ़ी मतभेद हो गया। इस अवसर पर शास्त्री जी ने बड़ी कुशलता से मध्यस्थता का कार्य किया और कांग्रेस में फूट पड़ने से बचाया।
टंडन जी द्वारा कांग्रेस के अध्यक्ष पद से त्यागपत्र देने के बाद जब नेहरू जी ने इस पद को संभाला, तो उन्होंने लालबहादुर शास्त्री को महासचिव नियुक्त कर दिया। इस अवधि में कांग्रेस के चुनाव अभियानों में वह प्रमुख सूत्रधार रहे और सभी चुनावों को सफल बनाते रहे।
बाद में वह नेहरू जी की इच्छा के अनुसार राज्यसभा के सदस्य बन गए और केन्द्र सरकार में रेल मन्त्री का पद संभाला। उन्होंने अपने विभाग में कई महत्त्वपूर्ण सुधार किए। आम लोगों की सुविधा के लिए जनता एक्सप्रैस चलाई। 1956 के अगस्त महीने में महबूब नगर और इसके बाद मद्रास में भयंकर रेल दुर्घटनाएं हुईं, जिसमें काफ़ी लोग मारे गए। इन दुर्घटनाओं से शास्त्री जी बड़े दुखी हो गए। उन्होंने इसका दायित्व अपने ऊपर लेकर मन्त्री पद से त्यागपत्र दे दिया। शास्त्री जी के त्यागपत्र से उनका सम्मान बहुत बढ़ गया।
सन् 1957 के चुनावों में जीतकर आने पर इस बार उन्होंने संचार और परिवहन मन्त्री का पद संभाला। कुछ अरसे बाद वाणिज्य और उद्योग मन्त्री बन गए। इस पद पर इतनी अच्छी तरह कार्य किया कि उन्हें 1961 में गृहमन्त्री के अत्यधिक महत्त्वपूर्ण पद को संभालना पड़ा। उन्होंने असम की भाषा समस्या, मास्टर तारासिंह द्वारा संचालित पंजाबी सूबे के निर्माण की समस्या को बड़ी कुशलता के साथ हल किया तथा नेपाल यात्रा करके भारत के साथ उस देश के बिगड़े हुए सम्बन्धों को सुधारा। अगस्त, 1962 में कामराज योजना के अन्तर्गत केन्द्र के मन्त्रियों को स्वेच्छा से अपने पद छोड़ने थे । लालबहादुर शास्त्री उनमें पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने तत्काल अपने पद से त्यागपत्र दे दिया।
शास्त्री जी अनेक विकट समस्याओं को तत्काल सुलझाने की क्षमता के कारण प्रसिद्ध हो गए। जब भी कोई कठिन समस्या देश के सामने उपस्थित होती, उसको हल करने के लिए उन्हीं की ओर दृष्टि जाती। सन् 1963 में कश्मीर में हज़रत मोहम्मद साहब के बाल की चोरी की आड़ में हज़रतबल दरगाह कांड के अन्तर्गत हिंसात्मक उपद्रव शुरू हुए। इसका समाधान शास्त्री जी को ही सौंपा गया और वह उन उपद्रवों को शान्त करने में सफल हुए।
1964 का जनवरी का महीना था। शास्त्री जी कश्मीर जाने वाले थे। नेहरू जी समझ गए कि गर्म कोट शास्त्री जी के पास नहीं है और न ठीक-ठाक जूते ही। उन्होंने अपना कोट और जूते उनको दे दिए। यह शायद संयोग ही था। इस प्रकार अपना कोट और जूते देकर नेहरू जी ने शास्त्री जी को एक तरह से अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया। 27 मई, 1964 को नेहरू जी के स्वर्गवास के बाद लगभग सर्वसम्मति से लालबहादुर शास्त्री भारत के प्रधानमन्त्री बने।
अपने प्रधानमन्त्री के अल्पकाल में ही शास्त्री जी ने जिस अद्भुत राजनीतिक कुशलता का परिचय दिया, उसे देखकर विदेशी राजनीतिज्ञ भी चकित रह गए। अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्रों में भारत के सम्मान में कोई कमी नहीं आई। जब 1965 के मई महीने में पाकिस्तान ने भारत पर आक्रमण किया और चीन भी आंखें दिखाने लगा, तब शास्त्री जी सिंह गर्जना कर उठे और सारे देश में आत्मविश्वास की लहर दौड़ गई । शास्त्री जी ने दुनिया को बता दिया कि हम शान्ति के दूत जरूर हैं, किन्तु हमारी स्वतन्त्रता पर डाका डालने वाले आक्रमणकारियों को हम शक्ति के बल पर झुका भी सकते हैं। उनकी ज़बर्दस्त इच्छा-शक्ति और दूरदर्शिता से देश ने जीत का हार पहना और स्वतन्त्र भारत में पहली बार भारतीय सेना ने शानदार कामयाबी प्राप्त की।
शास्त्री जी केवल शक्ति के योद्धा ही नहीं थे, वह शान्ति के भी पुजारी थे। जब रूस के ताशकन्द में उन्हें आमन्त्रित किया गया, तब वह पाकिस्तान के राष्ट्रपति अयूब खां से शान्ति वार्ता के लिए तनिक भी नहीं हिचकिचाए, बल्कि उस दौरान उन्होंने कहा, “देश का साधारण व्यक्ति युद्ध नहीं करना चाहता। वह शान्ति का आश्रय मांगता है। आइए, हम परस्पर युद्ध न करके ग़रीबी, अशिक्षा और रोग-बीमारियों के विरुद्ध युद्ध करें। हमारे दोनों ही देशों के नागरिकों की आशा-आकांक्षाएं समान रूप से एक ही हैं। उन्हें शस्त्र नहीं चाहिए, गोला-बारूद नहीं चाहिए, बल्कि चाहिए पर्याप्त खाद्य और वस्त्र।”
10 जनवरी 1966 को, ताशकन्द समझौता सम्मानपूर्वक सम्पन्न हुआ। दोनों देशों की जनता ने सुख की सांस ली। वार्ता की समाप्ति पर सब लोगों को वापस लौटना था, किन्तु होनी कुछ और ही थी। रात को एक बजे शास्त्री जी को अचानक दिल का दौरा पड़ा। इस रोग के वह पुराने मरीज़ थे। हृदय गति रुक जाने से कुछ देर बाद ही शान्ति के इस प्रहरी की आत्मा चिर निद्रा में लीन हो गई। शास्त्री जी के स्वर्गवास से, देश में हाहाकार मच गया। यहां तक कि सारा विश्व विचलित हो उठा।
1966 में 26 जनवरी के, एक विशेष समारोह में भारत के इस लाल को राष्ट्रपति डॉ. राधाकृष्णन् ने, उनके मरणोपरान्त भारतरत्न की उपाधि प्रदान कर देश की ओर से श्रद्धांजलि अर्पित की।