मनुष्य के तीन दुश्मन-काम, क्रोध और लालच

भारतीय संस्कृति के आधार ग्रंथ श्रीमद् भगवद गीता में मानव जीवन उद्धार के लिए स्वयं ईश्वर के मुख से कही गई कितनी ही बातों का उल्लेख किया जा सकता है । इसी परिप्रेक्ष्य में मनुष्य जीवन के उत्कर्ष में मुख्य तीन बाधाओं-काम, क्रोध और लोभ पर चर्चा अनिवार्य हो जाती है क्योंकि ये तीनों ही ऐसी बातें है जिन पर नियंत्रण द्वारा मनुष्य के जीवन का उद्धार भी हो सकता है और इनके नियंत्रण में पड़े हुए मनुष्य के जीवन का नाश भी हो सकता है। यहां यह ध्यान देने की बात है कि हमारे पारंपरिक जीवन में इन तीनों ही बातों का कदम-कदम पर उपयोग होता है और हम सब इन बातों से सर्वथा परिचित भी हैं, फिर भी हमारी दृष्टि इन बातों पर विशेष ध्यान देने पर काम नहीं करती। भगवद गीता हमें जीवन पथ पर चलने का सही रास्ता प्रदान करती है और इसलिए ही सदियों से भारतीय समाज में लोग जीवन मूल्यों के विषय में इसके आधार पर बात करते हैं। काम, क्रोध और लोभ के संदर्भ में भगवद् गीता के 16वें अध्याय के श्लोक 21 में भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा है कि-

त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः।

कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्त्रयं त्यजेत् ।।

कहने का तात्पर्य यह है कि काम, क्रोध तथा लोभ- ये तीनों आत्मा का नाश करने वाले हैं और इस प्रकार ये नरक के द्वार हैं, अर्थात् इनमें प्रवेश करने वाला व्यक्ति किसी पुरूषार्थ के योग्य नहीं रहता है इसलिए इन तीनों का सर्वथा त्याग कर देना चाहिए।

यहां सांकेतिक निरूपण किया गया है कि एक ओर स्वर्ग सुख का परिचायक है, तो दूसरी ओर नरक अनन्त दुख का! अतः मनुष्य मृत्युलोक में रहते हुए भी अपनी मनःस्थिति के अनुसार स्वर्ग और नरक का अनुभव कर सकता है। शास्त्रों के अनुसार स्वर्ग और नरक के अस्तित्व का भी ज्ञान होता है। दूसरे अध्याय में कहा गया है कि किसी विषय को सुख का साधन समझकर उसका निरन्तर चिन्तन करने से उसकी कामना उत्पन्न होती है। यदि इस कामनापूर्ति में कोई बाधा आती है, तो उससे क्रोध उत्पन्न होता है। यदि कामना अधिक तीव्र हो, तो क्रोध भी इतना उग्र रूप धारण करता है कि वह सम्पूर्ण जीवन में व्याप्त होकर जीवन को अस्त व्यस्त कर के मनुष्य को पूरी तरह से विनाश के कगार पर पहुंचा देता है।

वहीं दूसरी ओर यदि कामना की पूर्ति होती जाती है तो मनुष्य का लोभ भी उतना बढ़ता ही जाता है, और इसी प्रकार मनुष्य की शक्ति का भी ”हास होता जाता है। क्योंकि असन्तुष्टि का भाव ही लोभ उत्पन्न करने का कारक है, जो हमारे वर्तमान असन्तुष्टि के भाव को और अधिक विषाक्त करता जाता है। लोभी पुरुष को कभी सुख और शान्ति नहीं प्राप्त होती है। क्रोध और लोभ के इस क्रिया प्रतिक्रिया को यदि हम समझ लें तो भगवान् के उपदेश को हमें स्वीकार करना ही पड़ेगा कि काम, क्रोध एवं लोभ- इन तीनों को त्याग देना चाहिए। उन्होंने इन तीनों के त्याग की कामना करते हुए कहा है इनके प्रश्रय से ही आसुरी जीवन की शुरुआत होती है।

व्यक्ति अपनी वासना को संतुष्ट करने का प्रयास करता है और जब वह नहीं कर पाता है तो क्रोध और लोभ उत्पन्न होता है। समझदार व्यक्ति जिसका झुकाव आसुरी जीवन के प्रति नहीं होता है। उसे इन तीनों शत्रुओं को त्यागने का प्रयास करना चाहिए। क्योंकि ऐसी प्रवृति के चलते वे स्वयं को इस हद तक मार सकते हैं कि इस भौतिक बंधन से मुक्ति की कोई संभावना ही नहीं बचती।

गीता के 16वें अध्याय के 21वें श्लोक के माध्यम से श्री कृष्ण यही बता रहे हैं कि सभी समझदार व्यक्तियों को काम, क्रोध और लोभ का पूर्णतः त्याग कर देना चाहिए। ये गुण अत्यंत आकर्षक परन्तु इतने खतरनाक हैं कि इससे सात्विक और दैवीय स्वभाव वाले व्यक्ति को भी डरना चाहिए। क्रमिक रूप से जब काम असंतुष्ट होता है तो क्रोध पैदा होता है। इस पर काबू पाना बहुत मुश्किल होता जाता है।

गीता के 16वें अध्याय के अन्य श्लोकों में भी श्री कृष्ण द्वारा इन चीजों के बारे में विस्तार से बताया है जैसे चौथे श्लोक में वे कहते हैं कि-

‘‘दम्भो दर्पाभिमानश्च क्रोधः पारुष्यमेव च।

अज्ञानं चाभिजातस्य पार्थ सम्पदमासुरीम्।।’’

जिसका अर्थ है, दम्भ करना, घमण्ड करना, अभिमान करना, क्रोध करना, कठोरता रखना तथा अविवेकी होना- ये सभी आसुरी सम्पदा को प्राप्त हुए मनुष्य के लक्षण हैं।

इसी प्रकार 16वें अध्याय के 7वें श्लोक में श्री कृष्ण कहते हैं-

‘‘प्रवृतिं च निवृतिं च जना न विदुरासुराः।

न शौचं नापि चाचारो न सत्यं तेषु विद्यते।।’’

जिसका भावार्थ है, आसुरी स्वभाव वाले मनुष्य प्रवृत्ति और निवृत्ति- इन दोनों को ही नहीं जानते। इसलिए उनमें न तो बाहर-भीतर की शुद्धि है न श्रेष्ठ आचरण है और न ही सत्य बोलने की आदत ही है।

और भगवद गीता के 16वें अध्याय के 10वें श्लोक में यह भी कहा है कि-

‘‘काममाश्रित्य दुष्पूरं दम्भमानमदान्विताः।

मोहाद्गृहीत्वासद्ग्राहान्प्रवर्तन्तेशुचिव्रताः।।’’

जिसका भावार्थ है, दम्भ, मान और मद से युक्त मनुष्य किसी प्रकार भी पूर्ण न होने वाली कामनाओं का आश्रय लेकर अज्ञानता के चलते झूठे सिद्धांत गढ़ कर भ्रष्ट आचरण को धारण करके जीवन यापन करते हैं।

जबकि 16वें अध्याय के ही 22वें श्लोक में उन्होंने इसका समाधान बताते हुए कहा है कि-

‘‘एतैर्विमुक्तः कौन्तेय तमोद्वारैस्त्रिभिर्नरः।

आचरत्यात्मनः श्रेयस्ततो याति परां गतिम्।।’’

अर्थात- इन तीनों नरक के द्वारों से मुक्त पुरुष अपने कल्याण का आचरण करता है (अपने उद्धार के लिए भगवदाज्ञानुसार बरतना ही, अपने कल्याण का आचरण करना है), इससे वह परमगति को प्राप्त होता है अर्थात् मुझको प्राप्त हो जाता है।

सामान्यतः हम देख सकते हैं कि क्रोध तभी प्रकट होता है जब हमारी इच्छाओं की पूर्ति नहीं होती है। तो यदि हम अपनी इच्छाओं को बिना किसी दिक्कत परेशानी के संतुष्ट कर सकें तो क्या तब हम शांत हो जाते हैं? नहीं, हम लोभ से भरे पड़े हैं और लोभ, मोह तथा माया विवेक की हानि पहुँचाते है और विवेक के समाप्त हो जाने से अभिमान का प्रादुर्भाव होता है। अभिमान के वशीभूत होकर व्यक्ति अपना ही विनाश कर बैठता है। ईर्ष्या, मत्सर, माया, लोभ और लालच का मिश्रण पूरी तरह से क्रोध को प्रकट करने में सक्षम है। इस प्रकार ये सभी आसुरी गुण वासना में निहित हैं।

श्रीकृष्ण हमारे सकारात्मक दृष्टिकोण का प्रतीक हैं। इस श्लोक में उन्होंने बताने का प्रयास किया है कि हम अधिकतम कुशल हैं। ऐसी भावना के साथ अन्य विचारों की संगतता की जाँच की जाती है तो विचार स्वतः ही क्रिया बन जाते हैं। इसके लिए दृढ़ निश्चय के साथ काम करने के लिए हमें यह समझना चाहिए कि किस तरह से आत्मा को संदिग्ध तरीकों जैसे काम, क्रोध और लोभ के हेरफेर से बचाया जा सकता है। यह सुनिश्चित करने के लिए विचारों को आसानी से क्रियाओं में परिवर्तित किया जाता है।

हमारी स्वस्थिति या वास्तविक स्थिति (शुद्धतम स्थिति में स्थित मनोभावना की अवस्था) का कम होना वासना का प्रतीक क्यों है? क्योंकि जैसे किसी को आकर्षित करने के लिए हमें उसकी सभी जरूरतें पूरी करनी होती हैं पर यदि कोई सीधे उसे प्राप्त कर लेता है, तो उसे अस्वीकार किया जा सकता है। या अन्य समस्याएं पैदा हो सकती हैं। उसी तरह यदि हमारी स्व या वास्तविक स्थिति (लोभ, क्रोध और काम से मुक्त) हमारे सकारात्मक दृष्टिकोण की ओर कम हो जाती है। तो हमारे जीवन के अन्य विचारों के साथ हमारी स्व स्थिति के विचार की संगतता कम हो जाएगी और अंत में बिल्कुल भी नहीं रहेगी। इस प्रकार यदि इस दृष्टिकोण का उपयोग करके एक विचार को एक क्रिया में परिवर्तित किया जाता है। तो यह क्रिया हमारे जीवन के अन्य सभी विचारों के साथ असंगत हो जाएगी।

हमारे नकारात्मक रवैये के कम होने का क्रोध पर सकारात्मक असर पड़ता है क्योंकि हमारा नकारात्मक रवैया हमें संतुष्टि प्रदान करने में सक्षम नहीं होता है और इसके कम होने से हम हर चीज से संतुष्ट होंगे। हमारा सकारात्मक दृष्टिकोण न्यूनतम मानक है जिसे हम सहन करने के लिए तैयार हैं। इसके आगे हम संघर्ष करते हैं। यदि हम अपना सकारात्मक दृष्टिकोण बढ़ाते हैं तो हमारा न्यूनतम स्तर अपने आप में बहुत ऊँचा हो जाएगा। और यह हमें जीवन में असीमित प्रेरक शक्ति प्रदान करेगा। इस प्रकार इस श्लोक (अध्याय 16 अलोक 22) के अनुसार यदि हम संदिग्ध साधनों का उपयोग करके जीवन में जल्दी से ऊपर आ भी जाते हैं। तो वस्तुतः हमारा जीवन नरक बन जाएगा।

श्री कृष्ण कहते हैं कि काम, क्रोध और लोभ इन तीन शत्रुओं पर हमें अपने दैनिक जीवन में सदैव नजर रखने की जरूरत है, और जितना संभव हो सके उन्हें कम से कम करना चाहिए। क्योंकि वे मुक्ति के मार्ग के बजाय विनाश के मार्ग की ओर ले जाते हैं। इन तीनों का क्रम जानना भी अत्यंत महत्वपूर्ण है क्योंकि क्रोध और लोभ दोनों ही कामना का अनुसरण करते हैं। दूसरे अध्याय में बताया गया है कि कैसे काम या इच्छा हमारे जीवन में आती है। ध्यानतो विषयः, किसी वस्तु (व्यक्ति या स्थिति) के बारे में लगातार सोचने से हम उसके साथ एक जुड़ाव विकसित करते हैं। यदि यह लंबे समय तक किया जाए तो यह जुड़ाव उस वस्तु को प्राप्त करने की इच्छा में परिणत होता है। यदि हमारे और विषय के बीच कोई या कुछ भी आ जाता है। तो हमारा क्रोध जागृत होता है और समय के साथ हम इसका विकास करते हैं। एक बार जब हमारे पास वस्तु हासिल हो जाती है, एक बार जब हमारी इच्छा पूरी हो जाती है। हम और अधिक चाहते हैं। इसका परिणाम लोभ के रूप में परिलक्षित होता है।

तो फिर मनुष्य नरक के इन तीन द्वारों से कैसे निपटें? इसके लिए पहले काम या इच्छा को देखें। यदि वस्तुओं के चिंतन से इच्छा विकसित होती है। हम अपने मन को उजागर करने वाले कार्यों पर नजर रख कर कुछ हद तक इच्छा को कम कर सकते हैं। उदाहरण के लिए, जिन चीजों की हमें आवश्यकता नहीं है हम उन दुकानों के इर्द-गिर्द घूमने के बजाय आवश्यक खरीदारी की एक निश्चित सूची के साथ मॉल जा सकते हैं, इससे स्वतः ही बिना जरूरत की चीजों की खरीददारी नहीं होगी या कम होगी। लेकिन इच्छा का मूल हमारे मन द्वारा वांछित वस्तुओं के बारे में सोचना या हमारी पसंद के रूप में जाना जाता है। यही कारण है कि एक ही पोशाक एक व्यक्ति के लिए जरूरत और दूसरे के लिए अप्रासंगिक लगती है। क्योंकि वस्तुएं अपने आप में जरूरत या वांछनीय नहीं हैं। शास्त्रें के अध्ययन और ध्यान के माध्यम से मन को नियंत्रित करने और समझाने से इस सोचने या पसंद को कम करने में मदद मिलती है।

मन की इच्छाओं पर नियंत्रण पाना थोड़ा कठिन है। लेकिन एक बार जब हम क्रोध की चपेट में आ जाते हैं तो ऐसा करना बिल्कुल असंभव ही हो जाता है। कम से कम हम सार्वजनिक रूप से अपनी इच्छाओं को प्रदर्शित नहीं करते हैं। लेकिन हम सार्वजनिक रूप से अपना गुस्सा दिखाने में जरा भी संकोच नहीं करते हैं। क्रोध के चंगुल से मुक्त होने के लिए हमें अपने मन पर अत्याधिक नियंत्रण की आवश्यकता होती है। इसलिए क्रोध का सीधे सामना करने की तुलना में अनावश्यक इच्छाओं को जड़ से उखाड़ फेंकने पर ध्यान देना बेहतर विकल्प है। अंत में, लोभ या लालच को दान के माध्यम से नियंत्रण में रखा जा सकता है। जब भी हमें अपने धन या संपत्ति पर गर्व महसूस होने लगे। हमें तुरंत अपने धन या संपत्ति का एक हिस्सा दान कर देना चाहिए। इस प्रकार हम काम क्रोध और लोभ से मुक्त होकर जीवन यापन करते हैं तो हमारा जीवन सप्रार्ग पर चलते हुए परमगति को प्राप्त होता है।

मनुष्य जीवन में काम क्रोध और लोभ, यह तीनों ही बातें अविरत ही चलती रहती हैं। भगवद गीता के अनुसार अगर मनुष्य को अपने जीवन का उद्धार करना है तो इन तीनो शत्रुओं से बचना पड़ेगा या तो ऐसा भी कह सकते हैं कि, इन तीनों

अवगुणों का त्याग करना पड़ेगा। अगर व्यक्ति यह त्याग करने में सफल रहता है तो उसका जीवन धन्य बन जाएगा, और उसकी मुक्ति का मार्ग भी खुल जाएगा। उसे भगवान के प्रिय लोगों में स्थान भी मिलेगा। वस्तुतः कोई ईश्वरीय लाभ हो या न हो। इन तीनों

अवगुणों से दूर रहना ही विवेकशील मनुष्य की पहचान है क्याेंकि ये तीनों बातें मनुष्य जीवन को अधोगति की ओर ले जाकर उसका नाश करने वाली है।

 

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