मनुष्य जीवन जीते हुए हर व्यक्ति अपना सांसारिक और सामाजिक कर्तव्य पूरा करता है लेकिन इसके बाद भी कुछ है और वो है हमारा पुण्य-फल। जब किसी व्यक्ति के जीवन में दुःख आता है तब हम कहते हैं कि गत जन्मों के कुछ पाप किये होंगे, जो भुगत रहा है। यह एक सामान्य प्रक्रिया है और ऐसा ही होता है। तो फिर मनुष्य जीवन जीते हुए हमें सिर्फ अपने संसार का, अपने परिवार, अपने माँ-बाप और बच्चों का, ही ख्याल नहीं रखना है, बल्कि उसके साथ-साथ हमारे खुद के जीवन उद्धार का भी ख्याल रखना है। हम लोग 21वीं सदी में जी रहे हैं इसलिए हमें इन सभी बातों पर ज्यादा विश्वास नहीं होता है, यह स्वाभाविक है। लेकिन हमारे रामायण-महाभारत-भगवद गीता में कोई तथ्य नहीं होता, अगर भारतीय संस्कृति और संस्कारो में कोई नवीनतम बात नहीं होती तो, सऊदी अरब जैसे मुस्लिम देश में भारतीय संस्कृति और उनके ग्रंथो को अभ्यास क्रम में लिया नहीं जाता। अब तक तो हम सुन रहे थे कि, अमेरिका, कनाडा और इंग्लैंड जैसे देशों ने अपनी यूनिवर्सिटी में बच्चों को पढ़ाने के लिए, भारतीय संस्कृति को प्रधानता दी है, लेकिन अब तो यह भी सुनने में आ रहा है कि, मुस्लिम देश भी यही काम कर रहे हैं।
इसका मतलब है कि हमारी संस्कृति और संस्कार में कोई ठोस बात है। और अगर ऐसा है तो, मुस्लिम और इसाई संस्कृति के लोग हमारी भारतीय संस्कृति को अपनाएं। उसके पहले हम हिन्दुओं को उसका अभ्यास करना चाहिए, उनपर विश्वास करना चाहिए और उनके रास्ते पर चलने का प्रयत्न भी करना चाहिए। हम सब को इस बात का पता है कि अगर हमारे बैंक खाते में पैसा होता, मतलब की बैलेंस होता है तो ही हम वहां से पैसे उठा सकते हैं। उनका उपयोग कर सकते हैं।
यह एक सामान्य समझने की बात है। तो फिर हमारे पुण्य-कर्म के बारे में भी यही रास्ता होगा ना!— अगर इस मनुष्य अवतार में जीते जीते हम हमारी गतिविधियों के उपरांत अगर हमारे पुण्य के खाते में कुछ जमा करते हैं तो ही हमें वो पुण्य-फल हमारी इसी जिन्दगी में या आने वाले दूसरे जन्म में उपयोगी होगा। जैसा हमारे बैंक का नियम है ऐसा ही हमारे कर्माे और पुण्य-फल का भी नियम है, कि बैलेंस होगा तो उपयोग कर पाएंगे। वैसे हम सामान्यतः यह बोलते है कि फ्जैसा बोया वैसा पायाय्, यह बात बिलकुल ही सच है। हम अभी जो कर्म कर रहे हैं, उसे सिर्फ अभी के लिए ही नहीं लेकिन आगे की जिन्दगी के लिए और आगे के जन्म के लिए भी ध्यान में रखकर करने हैं। इस बात को भगवद गीता के सिवा और कोई नहीं समझा सकता।
भगवद गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने मनुष्य को जीवन में क्या क्या करना चाहिए, क्या क्या नहीं करना चाहिए और कैसे करना चाहिए, उन सभी बातों का मार्गदर्शन साफ किया है। वास्तव में भगवद् गीता क्या है? वह हमें पता ही नहीं। क्योंकि हम उनका अभ्यास करना उचित नहीं समझते। वैसे तो पूरी भगवद गीता अभ्यास करने योग्य है और पूरे 700 श्लोक से हमें कुछ न कुछ सीखने को मिलता है। लेकिन गीता के 12वें अध्याय, भक्तियोग में भगवान ने हमारा मार्गदर्शन किया है कि कैसे व्यक्ति या कैसे भक्त भगवान को प्रिय है। हम कुछ भी करते हैं लेकिन आिखर में तो हमारा यही उद्देश्य है कि,हमें अपने पुण्य-फल और कर्म के माध्यम से अपनी बाकि की जिन्दगी और अगले जन्म को संवारना है। इसके लिए हमें उन गुणों का आ“वान करना पड़ेगा जो भगवान चाहते हैं। इस अध्याय के 13से लेकर 19वें श्लोक तक, भगवान को कैसा भक्त प्रिय है वो कहा गया है। यह सात श्लोक इस प्रकार से है।
“अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च।
निर्ममो निरहंकार समदुःखसुखः क्षमी।।
संतुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढ़निश्चयः।
मयर्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्तः स मैं प्रियः।।’’
इसका मतलब है कि, फ्जो पुरुष सब भूतों में द्वेष भाव से रहित, स्वार्थरहित सबका प्रेमी और हेतु रहित दयालु है तथा ममता से रहित, अहंकार से रहित, सुख-दुःखों की प्राप्ति में सम और क्षमावान है अर्थात अपराध करने वाले को भी अभय देने वाला है तथा जो योगी निरन्तर संतुष्ट है, मन-इन्द्रियों सहित शरीर को वश में किए हुए है और मुझमें दृढ़ निश्चय वाला है- वह मुझमें अर्पण किए हुए मन-बुद्धि वाला मेरा भक्त मुझको प्रिय है| यहाँ पर भगवानने सबसे पहले जो बात कही, वो आज समाज में सामान्यतः ज्यादा लोगों में देखने मिलती है और वो है द्वेष भाव। हमें अगर भगवान का प्रिय होना है तो हमारे भीतर से यह द्वेष के अवगुण को दूर करना पड़ेगा। फिर हमें स्वार्थ रहित जीवन जीना होगा और सब को प्रेम करना पड़ेगा। आज स्वार्थ के बिना लोग एक कदम भी नहीं चलते, मुझे क्या मिलेगा? यह बात सभी के दिमाग में दृढ़ है| उसके बीच हमें स्वार्थ को त्याग कर निश्वार्थ भाव से कार्य करने का निश्चय करना है। दूसरा व्यक्ति आज किसी को प्रिय नहीं, लेकिन गीता कहती है कि प्राणी मात्र को प्रेम करो।
यहाँ पर एक बात ऐसी कही गई है कि हमारे दिमाग में वो फिट नहीं हो पाए और वो है, क्षमा। भगवान ने ऐसा कहा है कि अपराध करने वाले को भी क्षमा करो और अभय दान दो। यह बात मनुष्य जीवन में ज्यादा कठिन है लेकिन व्यक्ति चाहे तो वो अभ्यास और ज्ञान के माध्यम से कर सकता है। भगवान ने ऐसा कहा कि यह सब बातें अपने जीवन में साकारित करके फिर मुझे याद करो और अपना मन-बुद्धि मुझे समर्पित करो उसके बाद के दो श्लोक में भगवान ने कहा है –
यस्मान्नोद्विजतेलोको लोकान्नोद्विजते च यः।
हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो यः स च मैं प्रियः।।
अनपेक्षः शुचिर्दक्ष उदासीनो गतव्यथः।
सर्वारम्भपरित्यागी यो मद्भक्तः स मैं प्रियः।।’’
इसका मतलब है, जिससे कोई भी जीव उद्वेग को प्राप्त नहीं होता और जो स्वयं भी किसी जीव से उद्वेग को प्राप्त नहीं होता तथा जो हर्ष, अमर्ष (दूसरे की उन्नति को देखकर संताप होने का नाम ‘अमर्ष’ है), भय और उद्वेग आदि से रहित है वह भक्त मुझको प्रिय है। जो पुरुष आकांक्षा से रहित, बाहर-भीतर से शुद्ध, चतुर, पक्षपात से रहित और दुःखों से छूटा हुआ है- वह सब आरम्भों का त्यागी मेरा भक्त मुझको प्रिय है, यहाँ पर और कठिन बात आ गई और वो है किसी भी व्यक्ति से उद्वेग नहीं करना है। किसी की उन्नति को देखकर संताप नहीं करना है। मतलब की जलना नहीं है। और किसी भी प्रकार का भय भी नहीं रखना। यह बात आज के कोरोना महामारी के काल में बहुत ही उपयोगी है। क्योंकि ज्यादातर लोग भय से ही मरते हैं। भगवान कहते हैं कि व्यक्ति को किसी प्रकार का भय नहीं रखना है। अपने कर्मा के अनुसार, जो बात होना निश्चित है, वो तो होकर ही रहेंगी, तो फिर हमें भय रखकर क्या फायदा।
हमें तो बस अपने कर्मा पर ध्यान केन्द्रित करना है। बाकी का काम अपने-आप ही हो जाएगा। आगे कहा गया है कि व्यक्ति को आकांक्षा से रहित होना है। मतलब की कोई प्रकार की अपेक्षा नहीं रखनी और कार्य अविरत चालू रखना है। भगवद गीता के दूसरे अध्याय में भगवान ने साफ कहा है कि किसी भी कर्म के फल को हम निश्चित नहीं कर सकते। वो हमारे हाथ में नहीं है। उससे आगे कहा गया है कि हमें बाह्य और भीतर से शुद्ध होना है। इसका मतलब यह है कि हमें हमारे भीतर आंतरिक गुणों का प्रस्थापन करना है और बाहर जो दिखता है उसको भी ठीक करना है। मतलब कि सभी के साथ अपने व्यवहार को अच्छा बनाना है। व्यक्ति छोटा हो या बड़ा लेकिन हर व्यक्ति भगवान का अंश है। सभी में भगवान बसे हुए हैं, इस कल्पना के साथ हमें हर दूसरे व्यक्ति को मान-सन्मान देना है। किसी भी प्रकार का पक्षपात नहीं करना है और हमारे भीतर के दुःख को हटाना है। यहाँ पर इतने से बात खत्म नहीं होती, भारतीय संस्कृति के अनुसार हमें कई प्रकार के गुणों को हमारे भीतर प्रभावित करना पड़ेगा। आगे के दो श्लोक में भगवान् ने क्या कहा-
“यो न हृष्यति नद्वेष्टि न शोचति न काघ्क्षति।
शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्यः स मैं प्रियः।।
समः शत्रै च मित्रे च तथा मानापमानयोः।
शीतोष्णसुखदुःखेषु समः सघ्गविवर्जितः।।’’
इसका अर्थ यह है कि, जो न कभी हर्षित होता है, न द्वेष करता है, न शोक करता है, न कामना करता है तथा जो शुभ और अशुभ सम्पूर्ण कर्मों का त्यागी है-वह भक्तियुक्त पुरुष मुझको प्रिय है। जो शत्रु-मित्र में और मान-अपमान में सम है तथा सर्दी, गर्मी और सुख-दुःखानि द्वंद्वों में सम है और आसक्ति से रहित है। यहाँ पर भगवान ने कहा कि व्यक्ति को सुख आने से ज्यादा हर्षित नहीं और दुःख आने से ज्यादा शोकातुर नहीं होना, सुख और दुःख दोनों व्यक्ति के अपने कर्म का ही परिणाम है और वो व्यक्ति के जीवन की एक सामान्य प्रक्रिया है। जीवन में चलते चलते कभी भी किसी चीज की कामना नहीं करनी, ऐसा भगवान ने कहा, जो हमारे लिए ज्यादा कठिन है।
आज व्यक्ति कामना के बिना एक कदम भी नहीं चल सकता। लेकिन भगवान श्रीकृष्ण का कहने का तात्पर्य यह है कि आप कर्म ही ऐसा करो कि किसी चीज की कामना करनी ही नहीं पड़े, अपने-आप ही हमारे कर्मों से हर इच्छित चीजों की प्राप्ति हो जाए। इससे आगे यह कहा कि हमें शत्रु और मित्र में सम रहना है मतलब कि सामने जो भी व्यक्ति हो, वो भगवान का अंश है ऐसा मानकर की उसके साथ व्यवहार करना है। जीवन में मान-अपमान और सर्दी-गर्मी, एक आकस्मिक क्रिया है, जिसमें हमें हमारे भाव को बदलना नहीं है। इसके बाद सबसे पीछे 19वें श्लोक में भी भगवान की कुछ अपेक्षा है।
“तुल्यनिन्दास्तुतिर्मानीसन्तुष्टो येन केनचित्।
अनिकेतः स्थिरमतिर्भक्तिमान्मैं प्रियो नरः।।’’
मतलब, जो निंदा-स्तुति को समान समझने वाला, मननशील और जिस किसी प्रकार से भी शरीर का निर्वाह होने में सदा ही संतुष्ट है और रहने के स्थान में ममता और आसक्ति से रहित है- वह स्थिर बुद्धि भक्तिमान पुरुष मुझको प्रिय है। यहाँ पर एक बात ऐसी है कि हमें वो गहनता से देखनी पड़ेगी और वो है, हमें जो भी प्रकार का जीवन मिला है। उसी में हमें संतुष्ट रहना है। वैभव होना, गाड़ी-बंगला होना, या झुग्गी में रहना, सभी कुछ हमारे कर्म-फल के अधीन है, हमें उसे स्वीकार करके, हर परिस्थिति में स्थिर रहने को भगवान ने कहा है। हमें अपने रहने के स्थान में ममता और आसक्ति नहीं रखनी है, जहां भी जाना पड़े, हमें तैयार रहना होगा। अगर यह आसक्ति हम छोड़ सकते हैं तो हमें मृत्यु से कभी डर नहीं लगेगा। क्योंकि जो अपना स्थान आसानी से छोड़ सकता है। वो अपने जीवन को भी आसानी से छोड़ सकता है। यह सभी काम करने के बाद सब से जरूरी बात यह है कि हमें अपनी बुद्धि को स्थिर रखना है।
भगवान के पास वो ही व्यक्ति जा सकता है, जिसकी बुद्धि स्थिर हो और बुद्धि को स्थिर करने के लिए, ऊपर दिए गए 13 से 19 श्लोक में भगवान ने जो भी कहा है, हमें करना पड़ेगा। दो चार फूल चढ़ाने से, फल चढ़ाने से, उपवास रख देने से या तो दिन में चार बार मंदिर जाने से भगवान की प्राप्ति नहीं होती, यह बात श्रीमद्भगवद गीता कहती है। अगर हमें भगवान का प्रिय बनना है, अगर उसके चरणों में स्थान लेना है तो, उनकी अपेक्षा के अनुसार सभी गुणों को हमारे जीवन में प्रस्थापित करना पड़ेगा, उन्होंने जो रास्ता दिखाया है उस रास्ते पर चलना पड़ेगा। दिया अगर मंदिर में नहीं भी जलाया तो शायद चलेगा, लेकिन अपने खुद के हृदय में और दूसरों के जीवन में भगवद मान्य गुणों का दिया जलाना, महत्त्व की बात है।