कृष्ण अवतार (आठवां अवतार)

जिस काल में भारत में भ्रष्ट राज्य संस्था बन गई थी तथा कथित सचिव संस्थान का नेतृत्व पापी लोगो के हाथो में चला गया था। इतना ही नहीं तत्व ज्ञानी लोग भी अकर्मण्य हो गए थे। इन सब के चलते धर्म दुर्बल और निसहाय बन गया था। निति-धर्म-तत्वज्ञान यह सब ऐसे समर्थ शाली लोगो के हाथो में था वह ये सारी बाते ठीक हो ऐसा चाहते ही नहीं थे। जो दिखावा तो धार्मिकता का करते थे, किंतु काम सब उल्टा ही करते थे। मानो यह एक वैश्विक समस्या जैसा बन गया था। इन सब के चलते धर्म-तत्व ज्ञान सब मानो दुर्बल लोगो का बनके रह गया था। वो काल था जरासंघ, कंस, कालयवन जैसे महा शक्तिशाली राक्षसों का। ऐसे छह छह बड़े बलवान राजा उस वक्त थे।

जब भगवान कृष्ण यानि विष्णु के आठवें अवतार का जन्म हुआ। उस समय की समाज की सामप्रत परिस्थितियाँ ऐसी बनी हुई थी की, सुधार करे तो शुरुआत कहां से करे यह भी समझ में नहीं आ रहा था। ऐसे कराल काल में भगवान ने पूर्ण पुरुषोत्तम बनके इस धरा पर जन्म लिया। भगवान विष्णु के दस अवतार में राम और कृष्ण दो अवतार ऐसे हैं जिसका रस काल भी छीन नहीं सका है। यह दोनों अवतार आज भी लोगो के दिलोदिमाग बसे हुए है। और दोनों रुदय सम्राट है।

राम काल में विशिष्ट और विश्वामित्र जैसे ऋषि मुनियों की वजह से भगवान राम को काम करने में थोड़ी आसानी हुई थी। रमने खुद तो काम किया ही लेकिन उन्होंने दूसरो से भी यह काम करवाया। शायद इसी कारण से राम राज्य में सु-संस्कृत, सुनियोजिस और दैवी जीवन कार्य था। समाज को स्वयं शासित राज्य बनाने का भरपूर प्रयास किया गया था। सामान्य जनों को कायदे का डर दिखाकर नहीं, किंतु सेल्फ शिस्तप्रिय बनाया गया था। इसीलिए तो आज भी राम राज्य की कल्पना हम करते है। राम यानि दूसरे के बारे में सोचने वाले। और रावण यानि केवल अपने स्वार्थ का सोचने वाले। यह सब करते हुए भी राम ने कभी भी अपनी मर्यादा का उल्लंघन नहीं किया। तभी वे मर्यादा पुरुषोत्तम राम कहलाये।

इससे विपरीत कृष्ण काल में भगवान ने हर सीमाओं को तोड़ दिया है। या कहिए की उसका उल्लंघन किया है। इसलिए तो श्री कृष्ण को पूर्णावतार कहा जाता है। उनका जीवन ही ऐसा है की उसमें कही भी चंचुपात करने का या ऊँगली करने की जगह ही नहीं है। वैसे हम तो अपनी छोटी बुद्धि से कहा अवतार का आकलन कर सकते है। किंतु हमारी छोटी सी बुद्धि में जितने कृष्ण बैठे है उसका वर्णन अवश्य कर सकते है। कृष्ण यानी महान यशस्वी, कुशल राजनीतिज्ञ, एक विजयी योध्धा, धर्म सम्राज्ञ के संस्थापक। मानवी जीवन और उसके विकास की परंपरा के नैतिक मूल्यों को समज कर उसको समझने वाले उदगाता। धर्म के महान रक्षक, धर्म के प्रवचन कार, भक्त वत्सल। खुद ज्ञान के भंडार होने के साथ जिज्ञासुओं की जिज्ञासा पूर्ण करने वाले ऐसे जगत गुरु श्री कृष्ण है।

कहते है कर्षति आकर्षति इति कृष्णा। जो सब के मनको आकर्षित करता है वो कृष्ण। आबाल वृद्ध सबको अपना लगता है वो कृष्ण। आयु के किसी भी पड़ाव पर अपना दबदबा बनाए रखने वाला कृष्ण। जिनकी बाते मान कर लोग अपनी परंपराएं भी तोड़ने को तैयार होते थे। ऐसा व्यक्तित्व था कृष्ण का। जिनकी बताई हुई गीता रूपी बाते या तत्व ज्ञान जो पूरे विश्व की मानव जाती को मार्गदर्शन करने वाली है। फिर भी वि किसी भी धर्म या जाती का क्यों ना हो। एक बार अगर वो गीता पढ़ले तो उसे पता चल जाएगा की अगर वो इस धरा पर मानव अवतार लेके आया है तो उसे क्या करना चाहिए। मानव का मानव होने का अर्थ क्या है?  यही बात उन्होंने गीता में कही है। तभी तो जब करुक्षेत्र के मैदान में गीता कही गई तब, उस पूरी गीता में कही भी कृष्ण उवाच ऐसा वर्णन कही भी नहीं है। केवल भगवान उवाच ही है। गीता केवल अर्जुन को ध्यान में रखके नहीं कही गई है। लेकिन गीता की बाते बताते वक्त वो आदिम सुप्रीम पावर ऑफ गॉड ही समग्र मानव जाती को ध्यान में रखते हुए सारी बाते बताई गई है। जो त्रिकाल बाधित है। यानि भुत, भविष्य और वर्तमान सभी कालो में वो सत्य ही है।

भगवान कृष्ण ने अपने जीवन काल में मानव जातिके मनका अभ्यास करके उसके मनको परख कर उसके मुताबिक ही बाते की है। यानि वो महान मनोवैज्ञानिक भी थे दुसरे के मनको मारे बगैर उसके मन को मोड़ना वो जानते थे। इतनी बड़ी बात उन्होंने अपने तक ही सिमित नहीं रखी थी। यह बात उन्होंने दुसरो के पास भी करवाई। और अपने जिवन में भी लाने का भरपूर प्रयास किया।

उनके जीवन के बहोत से ऐसे प्रसंग है जो लोगो को दुविधा में डालते है। जैसे बाल्यकाल में गोपी ओसे माखन चुराना उनके वस्त्र हरना। यह सब बाते हुई तब कृष्ण वृंदावन में थे, और केवल पांच या छह साल के थे। जरा अगर हम सोचे की वृंदावन के राजा का बेटा जिसके घर में दही और मक्खन के घड़े भरे हो वो दूसरे के घर माखन चुराने क्यों जाएगा? इस बात का मर्म है, वो गांव के हर घर में कोई न कोई अच्छी बात है, उसे चुराके सब में बांटने का काम करते थे। अच्छी बाते तो सभी को भाती है। उसे अपना ते भी है। वस्त्र हरन वाली बात तो गोपिओ  सबक सिखाने के लिए। स्त्री अपनी मर्यादाओं को न भूले। घर से बहार हो तो अपने वस्त्रें का ख्याल जरुर रखे। चाहे वो कोई भी काल हो।

दूसरा पात्र आता है राधा का। रा $ धा = राधा यानि जो रास (यानि नृत्य ) के लिए दोडी चली आती है ऐसी गोपिया। कृष्ण की बंसरी में वो मिठास वो मधुरता थी की लोग अपना सब कुछ भूल के उसमें मोहित हो जाते थे। इस रूपक का अर्थ घटन करते लोगो ने कहलाते पंडितों ने राधा का रूपक इतना फैला दिया की उसे कृष्ण के नाम के साथ जोड़ दिया। और विश्व को एक बेजोड़ भक्ति का रूप देखनेको मिला राधा-कृष्ण के रुप में।

ऐसी अगणित घटनाएं कृष्ण के जीवन काल में देखने को मिलती है। अगर हर घटना का विश्लेष्ण करने बैठे तो बहुत बड़ा ग्रंथ बन जायेगा।

कृष्ण जीवन या उसका इतिहास या उसकी कथा भारत में ही नहीं पूरे विश्व में सभी कृष्ण भत्तफ़ों को ज्ञात है। इसलिए उस कथा या कहानी में हम नहीं दोहराएंगे। किंतु उनके जीवन काल में उन्होंने अपने और गैर सभी को उतना ही प्यार दिया। उनके एक हाथ में विचार और दूसरे हाथ में प्यार था। उन्होंने गरीब हो या श्रीमंत, अबाल हो या वृद्ध राजा हो या रंक सभी का मन, अपनी मनमोहक बातो से अपने तत्व ज्ञान से, और अपने प्यार से जित ही लिया था। हर मुश्किलों की गुत्थी वो पल में सुलजाने में माहिर थे। फिर वो जरासंघ के साथ संधी करनी हो, कंस का वध करना हो या महाभारत के युध्ध के पहले दुर्याेधन के साथ शांति वार्ता हो सभी में उनका बुद्धि चातुर्य और वाक पटुता दिखाई पड़ती है। धर्म संस्थापनार्थ उन्होंने पांड्वो को इस कार्य का प्रतिनिधि बनाके आजीवन उनकी हर मुश्किलों में उनका साथ दिया। धीरज भी उतनी ही रखी  थी।

उनके जीवन में सब कुछ इतना आसान कुछ भी नही था। जन्म जेल में हुआ। जन्म दाता को छोड़ पालक माता पिता साथ बड़े हुए। मामा-मौसी ही उन्हें मारने आए उनको ही मारना पड़ा। वृंदावन में गोप जनो को संस्कार परंपरा जीवन मूल्य सिखाने में उन पर माखन चोरी का और वस्त्र हरण का लांछन लगा। नरकासुर के कारागार से 16 हजार राणियो को छुड़ाया और समाज में स्वाभिमान से जीने के लिए अपने छाव तले लिया तो लंपट का आरोप लगा। मथुरा में मथुरा की जनता को जरासंघ के आक्रमण से बचाने के लिए मथुरा छोड़ द्वारिका में जाके नगर का निर्माण कर के रणछोड़ के भागने वाले की उपाधि भी स्वीकार की।

समाज के ततकालीन जरूरत और परिस्थितियां देख के जो भी मुनासिब सब के लिए था वो उन्होंने किया। कभी अपना निजी स्वार्थ या निजी काम कभी नहीं सोचा। फिर भी सदैव हसते मुस्कारते और चिर परिचित स्माइल के साथ वो पूरे महाभारत में देखने को मिलते है। कहीं भी हताश या निराश होके सर पर हाथ रखे कृष्ण की एक भी फोटो आपको देखने को नहीं मिलेगी। शायद यही सीख कृष्णावतार की है। जीवन में मुस्केलिया तो आएगी ही उसी में से रास्ता ढूंढकर हमें मार्ग खोज के सफलतापूर्वक अपनी मंजिल तक पहुंचना है।

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