हमारी प्राचीन भारतीय संस्कृति के इतिहास में भगवान विष्णु का प्रथम अवतार मत्स्यावतार को बहुत ही सुंदर रमणीय, गौरवपूर्ण और तेजस्वी चरित्र के साथ एक अविस्मरणीय एसा ज्वलंत पृष्ठ माना है। इसी अवतार में मनु के कर्तव्य निष्ठ जीवन की पराकाष्ठा का परिचय भी दिया गया है। जिनके अथाग और महान, अविरत प्रयत्न से मानव जाती सुसंस्कृत और दैवी जीवन से समृद्ध हुई। मनु महाराज यानि राजा सत्यव्रत ने केवल खुद ही कर्म नहीं किया किंतु उनके बताए हुए रास्ते पर चलने वाले हजारो निष्ठावान युवक तैयार किए। जिन्होंने अपने पॉकेट से मनु महाराज का यह काम यानि दैवी जीवन और उसे जीने के लिए लोगों को तैयार करने का काम किया। इस के लिए हयद्रिव जैसे राक्षसों ने उनके मार्ग में बहोत अवरोध उत्पन्न करने का काम किया। किंतु उन अवरोधों से ना डरकर न घबराकर उन युवानो ने समाज के सभी वर्गों में जाकर एक ही बात कही अगर सच्चा मानव बनना है तो उस के लिए मनु ही एक दवा है। उनके बताए हुए मार्ग पर चलो। उनकी कही हुई बाते मानो, उसका अनुकरण करो तो आपका जीवन उत्कृष्ट बन जाएगा। फिर आपके जीवन में कभी निराशा नहीं आएगी। शायद यही मत्स्यावतार का फलस्वरूप था। जो भगवान ने स्वयं इस रूप में धरा पर आकर इसे प्रादुर्भाव किया था।
वैसे भी देखा जाए तो उत्क्रांतिवाद के अनुसार मत्स्य युग से आगे चलके बात करे तो जलयुग की समाप्ति के बाद जलचर युग का प्रारंभ शुरू होता है। मतलब की जल और स्थल दोनों पर रहने वाले प्राणियो का निर्माण शरू हुआ। बहोत सी जगा पानी सुख जाने के बाद वहा भूमि नजर आने लगी। और ऐसी धरा पर सस्तन प्राणियो के जुंड उत्पन्न होने लगे। यानि उत्क्रांती वाद का दूसरा टप्पा यानि कुर्मा अवतार। जिसे भी इश्वर ने स्वयं ही इस रूप में आके इस इस उत्क्रानी वाद की बातो को साधर सिद्ध कर दिया। विश्व में हमेशा से दो परस्पर विरोधी शक्तियां सूरा-सुर के रुपमे खड़ी होती है। उनमे उत्क्रांत होते होते उतरोत्तर विकसित होक उसमें से अनेक रूप से बहार आती है।
वैसे पुराणों में इसका बहोत ही सुंदर रूपक कथा रोचक ऐसी वार्ता के रुपमे बताया गया है। जिसे पंडित जी बहोत ही रोचक रूप से पेश करते है और बुध्हिमान ऐसे श्रोतागण भी उसे चाव से बच्चो की कहानियों की तरह सुनकर अपने आप को धन्य अनुभवित करते है।
पुरानों के अनुसार देवों और दानवों ने मिलके समुंद्र मंथन किया। जिसमें नागो के राजा वासुकी को रस्सी बनाया गया। मंदराचल पर्वत को समुद्र को मथा गया। दोनों और से मथते मथते मंदराचल पर्वत धीरे-धीरे समुद्र में निचे जाने लगा तब सब चिंतामग्न हो गए। तब भगवान ने स्वयं कुर्मा अवतार (कछुआ बनके) लेके अपने पीठ पर उस मंदराचल पर्वत को अपनी पीठ पर धर लिया और इस तरह समुद्र मंथन का काम आगे बढ़ा। जिसमें से धीरे धीरे चौदह रत्न बहार निकले जिस से यह धरा फिर से रसवंती हो गई।
अगर जरा सा भी तर्क लगाके यह सोचा जाए की पृथ्वी को बचाने और इतने छोटे काम के लिए भगवान को इस रूप में आने की क्या जरुरत पड़ी! आज के भौगोलिक रूप से देखा जाए तो बिहार के भागलपुर जिले में आज भी मंदराचल पर्वत विद्यमान है। उस वत्तफ़ की बाद करे तो पर्वत के एक पर दैवी संस्कृति के लोग और दूसरी तरफ राक्षसी संस्कृति के लोग रहते थे। धीरे धीरे वो पर्वत मिटने लगा और दोनों तरफ के लोग एक दुसरे के यहा आने जाने लगे जिससे दैवी संस्कृति ज्यादा प्रभावित हुई। बंधन में रहना और अपना विकास करना वैसे भी लोगोको कम ही पसंद आता है। यही बात हमारी सिविलाइजेशन वाली बात और सामान्य जनोकी बात आती है। चाहे मेरा विकास ह क्यों न हो लेकिन बंधन रोक टोक किसी को पसंद नहीं आता। शायद इसी लिए आज जो भी डिसिप्लिन में रहके अपना कम करते है अपना विकास करने हेतु महेनत करते है उनका विकास होता है और उन्हीं को सफलता मिलती है।
वैसे भी देखा जाए तो कुर्म यानि शांत स्वभाव का और परिस्थितियों के अनुरूप अपने आप को ढालने वाला यही कछुए का मुक्भुत स्वाभव होता है। ऐसे ही किसी दैवी पुरुष ने समाज में उस वत्तफ़ ऐसा कम किया होगा जिसका आकार कछुआ जैसा होगा इसी। कारण उसे कुर्मा अवतार कहा गया। भगलपुर के आसपास आज भी कुर्मी नामक जाती विद्यमान है। उस जमाने में उस पर्वत पर उस अवतारी पुरुष ने दोनों संस्कृतियों के लोगो को चर्चा करवाने हेतु वहा बुलाया होगा? दोनों संस्कृतियों का वैचारिक मिलम करवाया होगा। लोगोको कहा होगा अपना मनोमंथन करो। जीवनमे भोगवाद और आध्यात्मिक संघर्ष क्यों होना चाहिए यह सोचो। सह-जीवन और सह गौरव का स्वीकार करो। और ऐसे घुल मिल के रहो की मर्त्य और मानवकी संस्कृति अमर रहे। क्योंकि भारतीय संस्कृति में ही लक्ष्मी और सम्पत्तिवान को भी भगवान मिल सकता है यह बात इतिहास ने भी सिद्ध कर दी है। जैसे राजा जनक। शायद यही काम कुर्मा अवतार का रहा होगा। जो भी हो हमें तो भगवान के इस रूप में दर्शन हुए यही बात हमारे लिए जीवन धन्य बनाने जैसी है।