भारत का इतिहास जैसे विरों की गाथाओं से भरा है, वैसे ही संत और ऋषि मुनिओं की भी धरा कहलाता है। जो भारत की हजारों वर्षों की गौरव गाथा को दोहराता है, और उसे प्रतिपादित करता है। आज हम एसे ही एक महान संत और ऋषि मुनि की गाथा दोहराने जा रहे है, जिनका नाम सोने की चिड़िया कहलाता हिंदुस्तान के इतिहास के पन्नो में सुवर्ण अक्षरों से चिंहित है, और वो नाम है ‘संत वाल्मीकि’।
जी हां आजकल विश्व में कोरोना नामक वायरस के चलते पूरे विश्व में जो लॉकडाउन चल रहा है, उसमें भारत के टीवी चैनल में आज से 32 साल पहले आई दूरदर्शन पर प्रसारित ‘रामायण’ सीरियल को लोकों द्वारा देखा जाना और उसे पूरे विश्व में सराहा जाना, इतना ही नहीं हमारी विसरी हुई विरासत को आज की युवा पीढ़ी को फिर से याद दिलाई ही नहीं किंतु उसकी महत्ता भी बढाई है। यह बातें यही दर्शाती है की, उसकी महत्ता उस जमाने में जितनी थी, आज भी वही है। शायद इसीलिए आज भी लोग ‘रामराज्य’ की कल्पना करते है। और उसी रामायण को जिन्होंने अपने कलम से कागज पर जिन्होंने उतारा है, वो ऋषि संत शिरोमणि वाल्मीकि जी के बारे में आज हम जानते हैं।
कहा जाता है ऋषि वाल्मीकि तीनों युग (सतयुग, द्वापर और त्रेता युग) में मौजूद थे और इसके प्रमाण भी पुराणों में है। ब्रह्माजी के, कहने पर उन्होंने इस रामायण नामक महाकाव्य और ग्रंथ की रचना की थी। जो की मूल रुप में संस्कृत में है। और इसी वजह से जिस रचना को ‘वाल्मीकि रामायण’ के नाम से जाना जाता है। रचना करते वक्त उन्होंने उस समय के ग्रहों, नक्षत्रें और काल की स्थितियों का इस तरह वर्णन किया है कि, मानों वो घटनाएं आज के गूगल मैपिंग और डिजिटल के जमाने में भी इतनी ही शाश्वत लगती है।
शायद इसीलिए उन्होंने इस बात से यह तो अंदाजा लगाया जा सकता है कि, वो एक ज्योतिष विद्या और खगोल विद्या के भी प्रकांड ज्ञानी थे। क्योंकि ‘रामचरित मानस’ के अनुसार भगवान राम जब उन्हें मिलने उनके आश्रम आए तब उन्हें दंडवत प्रणाम करते उन्हें ‘त्रिकालदर्शी मुनि’ कहा था। क्योंकि वाल्मीकि राम काल यानि सतयुग और महाभारत काल यानि द्वापरयुग दोनों मे वह मौजूद थे। महाभारत में भी उनका वर्णन है। रामायण जैसा महाकाव्य लिखने वाले वो पहले कवि थे शायद इसलिए उन्हें आदि कवि के नाम से भी जाना जाता है। रामायण की रचना उन्होंने ऐसी की है, जो आज भी पढ़ते समय लगता है मानों जैसे आज कल ही सारी घटनाएं बनी हुए है। उनकी कलम में ऐसा जादू था की, वो सारी घटनाएं वास्तविक लगती है, मानो हमारे सामने ही हो रही है। उन्होंने सुर्यवंशी इकवाक्षु कुल के इतिहास का सटीक वर्णन किया है।
सनातन धर्म के अनुसार पृथ्वी पर सबसे पहले रामकथा भगवान शंकर जी ने माता पार्वती जी को सुनाई थी। जो कथा उस वक्त हिमालय में एक पेड़ पर एक घोंसले में एक कौवे के बच्चे ने सुनी थी। साक्षात् भगवान शिव के द्वारा सुनी गई इस कथा के फलस्वरूप उसका पुनर्जन्म एक ऋषि काकभुषन के नाम से हुआ। जिन्होंने यह रामकथा गरुड़ जी को सुनाई थी, जो ‘अध्यात्म रामायण’ के नाम से जानी जाती है।
कहा जाता है जिस कुल के लहू के संस्कार अच्छे होते है वो कभी विफल नहीं होते। एक अच्छे कुल में जन्म होने के बावजूद संग का रंग ऐसा बन गया कि, एक दस्यु ब्राह्मण के दसवें पुत्र होने के बावजूद वो वाल्मीकि एक भील की भांति शिकार करने और चोरी चपाटी में लग गए थे। इस हद तक की उन्हें वाल्या कोली कहा जाने लगा। और वह एक डकैत बन गए थे। जंगलो से गुजरते लोगो को मारना, उन्हें लूटना उनका काम बन गया था। एक बार इतिहास के पहले चलते फिरते समाचार कार संपादक और पत्रकार कवी ‘नारदजी’ उस जंगल से गुजर रहे थे और वो वाली कोळी के हाथो चढ़ गए। अपने काम के अनुसार उसने नारदजी को लुटने और मारने के लिए पकड़ा। लेकिन इस बार तो संत समागम हुआ था, और फल स्वरूप उनका हृदय और जीवन दोनों परिवर्तित हो गया। कहते है नारदजी ने उन्हें उनके इस पाप के भागीदार को उनके कुटुंब में कौन सहभागी होता है, यह बात पूछने को उन्हें घर वापस भेजा।
लेकिन घर के सदस्यों ने बारी-बारी अपने हाथ खड़े कर लिए इस पाप में सहभागी होने को। तब उनकी अंतर आत्मा उन्हें चुभने लगी और अंदर से आवाज आई, यह पाप किसके लिए कर रहा हूं। वो वापस ‘नारदजी’ के पास आ गए और उनसे उस पाप से मुक्ति का रास्ता पूछा। तब नारदजी ने उन्हें तपश्चर्या करने को कहा। उन्होंने गंगा के किनारे आकर अपनी तपश्चर्या शरू की जिससे प्रसन्न होकर ब्रह्मा जी ने उन्हें वर दिया। माँ सरस्वती का आशीर्वाद भी प्राप्त किया। और अपनी कुल की मर्यादाओं को वापस लाते एक ब्राह्मण पुत्र की भांति वाल्या कोळी से ‘वाल्मीकि’ बन गए। कहते है इंसान अगर ज्यादा दुषनो वाला है तो उसके सुधरने के चांस ज्यादा होते है। क्योंकि ज्यादा बिगड़ा हुआ काम, या इंसान भी बहुत जल्दी पटरीपर वापस आने की संभावना होती है। बेशर्त है की, वो किस कुल से ताल्लुक रखता है, उसके लहू के संस्कार कैसे है वो भी बहुत माइने रखते है। गीता में भी भगवान ने कहा है, किया हुआ व्यर्थ नहीं जाता। ऐसे ही बचपन में दिए गए संस्कार मिले हुए अच्छे विचार जीवन में कब अच्छाई बनकर वापस आते है कहा नहीं जा सकता। विधि का विधान किसी को भी ज्ञात नहीं, खुद भगवान भी इससे अछूते नहीं है। कर्म की व्याख्या या लिखावट भगवान भी बदलने में असमर्थ है।
यही बात वाल्या कोळी के जीवन में घटी। और ऐसा अमुलाग्र परिवर्तन आया की लोगों को लूटनेवाला, चोरी करने वाला और शिकार करने वाला एक देवर्षि नारदजी के सानिध्य से एक महान संत वाल्मीकि बन गया। और इतिहास के पन्नों में वो आदि कवि के नाम से जाना गया। कहते है मूलभूत ‘वाल्मीकि रामायण’ में उत्तरकांड और पूर्व कांड नहीं है उसे बाद में जोड़ा गया है।
लेकिन यही संत वाल्मीकि ने एसी रामकथा लिखी और सुनाई की आज भी रामायण का हर पात्र उतना ही जीवंत लगता है और उस राम काल के रामराज्य की परिकल्पना आज भी लोगों की जहन में समाई हुई है। और उतनी ही पूज्य भाव से उसे मानने को लोग आज भी तैयार है। यह शायद विधि की कलमी थी और उसने साबित कर दिया की, अगर इंसान एक बार मन से ठान ले की उसे करना है तो ‘नर अपनी करनी से नारायण’ भी बन सकता है। बस इसके लिए दिल में यह बदलाव की चिंगारी बजने नहीं देनी है।