जननी जन्मभूमि स्वर्ग से भी महान होती है, और वो भी जब भारत जैसी हो। जो मस्तक पर लगते ही पवित्र कर देती है। शायद इसीलिए जनेऊ बदलते समय यही मिट्टी माथे पर लगाकर यही प्रार्थना करते हैं कि मेरे पापों का निर्मूलन करो। क्योंकि इसी धरा पर राम और कृष्ण ने अवतार लिया है। जिस धरा की संस्कृति बचाने के लिए ऋषि मुनिओं ने अपने तलवे घीस दिए। कई संत महापुरूषों ने सामान्य जन की ऊँगली पकड कर, सदमार्ग पर चलना सिखाया। लोगों का जीवन उन्नत और उत्कृष्ट हो इस कारण दिन रात एक कर दिए। क्योंकि उनको भारत की धरा पर भगवन का संसार अच्छा बने इसकी फिक्र थी और वो सब इसी कार्य में जुड़े थे। आज जितनी भी मानवता दिखाई देती है उनमें उन्हीं का भगीरथ प्रयत्न है।
आज ऐसे ही एक संत जिनके बारे में हम जानेगे, जिनको ऋषि वाल्मीकि का अवतार माना जाता है। जिनकी कलम से रामचरितमानस की रचना हुई वो है महान संत तुलसीदास। जिनका जन्म यमुना तट के पास रामपुर गांव मे आत्माराम नामक एक ब्राह्मण के घर हुआ था। उनके पिता आत्माराम की बहुत इच्छा थी की उनके यहा तेजस्वी संतान पैदा हो जो संस्कृति का काम करे। ऐसी सोच रखनेवाले लोग भी समाज में बहुत कम होते हैं। लोगों की मान्यता है संतान चाहिए वारिस के लिए, मरने के बाद मुखाग्नि देने के लिए। किंतु संस्कृति बचाने के लिए भगवान का काम करे ऐसी बात सोच से परे है। तभी तो ऐसे लोग उंगलियों पर गिने जाए इतने ही मिलते है। वैसे भी सिंहो की टोलियां नहीं होती। जंगल में शेर एक ही होता है झुंड में नहीं।
भगवान ने भी उनकी सुन ली और एक तेजस्वी बालक का जन्म उनके यहां हुआ। तुलसीदास बचपन से ही बड़े तेजस्वी थे, पढाई में भी और सभी बातों में। आज तो हम भागवद रामायण पढ़ने वालों को पंडित कहते हैं। किन्तु जिसने न्याय शास्त्र और व्याकरण शास्त्र का पूर्ण अभ्यास किया हो उसी को ही पंडित कहा जाता है। तुलसीदास जी ने यह अभ्यास पूर्ण किया था इसीलिए उनको पंडित भी कहा जाता था। उनको उनके गुरु जी ने कहा था तेरे भाग्य में सामान्य स्त्री ही पत्नी के रूप में है। तब उन्होंने अपने गुरु से कहा था इंसान अपने कर्मों से विधाता की बातों को भी पलट सकता है। और यही उनके जीवन में भी हुआ, उन्हें भी त्रिलोक्य सुंदरी ऐसी रत्नावली जैसी पत्नी मिली। जो सुंदरता के साथ बुद्धिमान भी थी। कहते है जब भगवान सब कुछ दे देता है तो उसका विस्मरण होने लगता है।
तुलसीदास के जीवन में भी ऐसा होने लगा। सुंदर पत्नी मिलते ही उनका ध्यान वैदिक कार्यों से हट गया। उनको रत्नावली के अलावा कुछ भी दिखाई नहीं देता था। मानो वही उनका भगवान हो गया था। पिता की आज्ञा से कर्म करते थे पर उनमें उनकी रूचि नहीं लगती थी। एक बार रत्नावली के मायके से उनकी माँ ने एक संदेश वाहक भेजा और कहा उनकी तबियत ठीक नहीं है आप जल्दी आ जाओ। उस वक्त तुलसीदास पास के गांव में गए हुए थे। उनको लौटने में वक्त लगने वाला था। रत्नावली ने चिठ्ठी छोड़कर उसी संदेश वाहक के साथ चली गई। तुलसीदास जब घर आए तो उन्हें रत्नावली के बारे में पता चला। वहीं उलटे पांव वो उनके सुसराल चल दिए। आधी रात को जब वह अपने ससुराल पहुंचे तब रत्नावली के शयनकक्ष की खिड़की से चढ़कर वो उसके कमरे में पहुंचे। रत्नावली भी जाग ही रही थी। जब उसने तुलसीदास को सामने देखा तो उसने कहां कैसे आए? तब तुलसीदास ने कहा तूने तो मेरे लिए खिड़की पर रस्सी बांध रखी थी उसी के सहारे मैं आया। जब वापस उन दोनों ने देखा तो वहा सांप लटक रहा था। तब रत्नावली बोली इतनी जिजीविषा अगर भगवान के बारे में रखते तो भगवान मिल जाते। प्यार भी किया तो एक माटी के पुतले से! फिर उन दोनों में बहुत चर्चा हुई। मानव जीवन मिला है कुछ सार्थकता पाने के लिए। उसे यूं ही व्यर्थ गवाना आप जैसे महापुरुष को शोभा नहीं देता। तब तुलसीदास को आत्म ज्ञान हुआ और उन्होंने रत्नावली से आज्ञा लेकर संसार का त्याग कर भोगों की पराधीनता छोड़ इश पराधीनता स्वीकार कर ली। जब मेघा और श्रद्धा का समन्वय होता है तभी सफलता मिलती है, और तुलसीदास ने उसे प्रभु को पाने में लगा दी।
उसी क्षण उन्होंने संसार छोड़ राम को पाने के लिए निकल पड़े। उन्होंने गंगा तट पर पर्णकुटी बनाकर उसमें रहने लगे। उन्होंने पर्ण कुटी के बाहर एक आम की गुठली थी उसे एक जगह जमीन में डालकर उसे हर दिन उसमें पानी डालते थे ऐसा करते बारह साल हो गए। कहते हैं बारह साल में एक तप पूर्ण होता है। उस आम की गुटली से एक घटादार आम का पेड़ बन गया। उस पेड़ के नीचे एक प्रेतात्मा रहती थी वह एक दिन प्रसन्न हो गई और उसने तुलसीदास को कहा आप जो चाहे मांग लो। तुलसीदास बोले मुझे जो चाहिए वो आप नहीं दे सकते मुझे राम के दर्शन करने हैं। तब उसने कहा पास के गांव में राम कथा चलती है उसमें एक बूढ़ा आदमी हर रोज सुनने आता है सबसे अंत में जाता है उसे पकड़ लेना वो आपको राम के दर्शन कराएगा। तुलसीदास तो चले गए पास के गांव में राम कथा में। उन्होंने उस बूढ़े बाबा को देखा और उनका पीछा किया। गांव के बाहर आकर उनके पैर पकड लिए और कहा मुझे राम के दर्शन कराइए। फिर उन्होंने तुलसीदास को चित्रकूट पर्वत जाकर राम की आराधना करने को कहा। वहां भगवान राम ने आकर उनको दर्शन दिए। फिर तो उनका जीवन ही बदल गया। पूरा जीवन उन्होंने प्रभु कार्य में लगा दिया। दूर दूर से लोग उनके पास अपनी समस्याएं लेकर आते वे उन्हें इसका हल बताते। और प्रभु का नाम और कम समझाते। ऐसे उन्होंने रामचरितमानस का निर्माण किया। सरल और प्राकृत भाषा में ताकि लोगों की समझ में राम का चरित्र आए और उनकी महता सबको मालूम हो।
कहते हैं उनके यहां एक बार कोई उत्सव था उसमें आस पास के लोग इकठ्ठा हुए थे। उसमें दो चोर भी चोरी के इरादे से आए थे। लेकिन जैसे ही वो चोरी करके निकलने लगे घर के द्वार पर दो सैनिक धनुष वाण लेकर पहरा दे रहे थे वो चोर जा ही नहीं पाए। तब वो चोर वापस तुलसीदास के पास आकर अपना गुनाह कबूल कर लिया। तब तुलसीदास उस सैनिक के पास आए और भगवान को पहचान लिया। खुद राम और लक्ष्मण उनके द्वार पर पहरा दे रहे थे। भगवान से कहा प्रभु धन्य भाग्य मेरे कि आप मेरे द्वार पधारे। हमारे कुल का नाम रोशन हो गया।
अगर वाल्मिकी ऋषि को राम रक्षा स्त्रोत में रामायण की कोकिल कहा जाता है तो उसी रामायण को जन साधारण तक पहुंचाने का श्रेय तुलसीदास को जाता है। चित्रकूट पर्वत पर जब तुलसीदास चंदन घिसते थे, तब भगवान उसे अपने हाथों से उससे तिलक लगा लेते थे। ऐसे थे भक्त तुलसीदास।