32. गुलजारीलाल नन्दा -भारतरत्न 1997
(जन्म- 4 जुलाई, 1898 -मृत्यु- 15 जनवरी, 1998 )
पाकिस्तान में स्यालकोट जिले के गांव गड़थल के एक मध्यमवर्गीय परिवार में 4 जुलाई, 1898 को जन्मे गुलजारीलाल नन्दा को मज़दूर नेता के रूप में ख्याति मिली। सीधी-सादी प्रवाहमयी वाणी बोलने वाले नन्दा जी की प्रारम्भिक शिक्षा आर्य स्कूल में हुई।
मोरारजी के बाद गांधीवादी परम्परा को निभाने वाले गुलजारीलाल नन्दा ने अपना कर्मक्षेत्र गुजरात बनाया। वह श्रमिकों की भलाई के कामों में जुट गए। समाज के प्रत्येक व्यक्ति को सुखी बनाने की उनकी बड़ी इच्छा थी । उनका उद्देश्य सभी की उन आवश्यकताओं को पूरा करना था, जिनकी हर इंसान को बुनियादी ज़रूरत रहती है अर्थात रोटी, कपड़ा और मकान।
उन्होंने यह अच्छी तरह समझ लिया था कि भारत की आज़ादी के लिए श्रमिकों का सहयोग बहुत आवश्यक है। शायद इसीलिए उन्होंने श्रमिकों में एकता और राष्ट्रीय चेतना लाने के लिए काफी काम किया। उन सभी समाजवादी उद्देश्यों तथा आदर्शों को एक साथ करने का महत्त्वपूर्ण कार्य किया, जो भारत जैसे ग़रीब देश के लिए काफ़ी उपयोगी हो सकते थे।
1921 में वह मज़दूर-महाजन सभा के मन्त्री बने। इस सभा को गांधी जी का आशीर्वाद प्राप्त था । उनके नेतृत्व में मिल मालिकों के विरुद्ध अपनी आवाज़ ऊंची करने में मज़दूरों को सफलता मिली। उनका विश्वास था कि कुटीर उद्योग के साथ-साथ बड़े उद्योगों को भी प्रोत्साहित करने की ज़रूरत है, क्योंकि संसार में तेज़ी से हो रही वैज्ञानिक प्रगति को देखते हुए भारत को अपने संसाधनों का विस्तार तथा विकास करना ही होगा, अन्यथा प्रगति की दौड़ में वह काफी पिछड़ जाएगा।
नन्दा जी महात्मा गांधी के कट्टर अनुयायी थे। गांधीवादी विचारधारा से भरपूर, शालीन व्यक्तित्व के धनी गुलजारीलाल नन्दा ने अपने जीवन में कोई धन-सम्पत्ति नहीं जोड़ी। नैतिक मूल्य ही उनके जीवन की पूंजी थे।
मार्च 1950 में वे योजना आयोग में इसके उपाध्यक्ष के रूप में शामिल हुए। अगले वर्ष सितंबर में वे केंद्र सरकार में योजना मंत्री बने। इसके अलावा उन्हें सिंचाई एवं बिजली विभागों का प्रभार भी दिया गया। 1952 में उन्होंने अपना पहला लोकसभा चुनाव मुंबई से लड़ा और जीत कर संसद की शोभा बढ़ाई। 1957 में चुनाव हुए तो उन्हें योजना एवं श्रममन्त्री बनाया गया। 1962 में वह गुजरात के साबरकांठा से लड़े और जीतने के बाद उन्हें श्रम व रोज़गार मन्त्रालय का काम-काज दिया गया। 1972 और 1977 में हरियाणा के कैथल से लड़े और जीते। उनका वजूद इतना भारी भरकम था कि जहां से भी चुनाव लड़ते, जनता भारी वोटों से उन्हें जिताती । नेहरू जी ने 1963 में उन्हें गृहमन्त्री बनाया और उनकी कोशिशों से कलकत्ता के दंगे एकदम रुक गए। सही मायनों में नंदा जी जिस पद पर रहे, उस पर हमेशा के लिए छाप छोड़ गए।
देश को योजनाबद्ध विकास के मार्ग पर चलाने की बारी आई, तब सबको नन्दा जी से सही और कोई नहीं लगा । अतः तब उन्हें योजना आयोग का प्रथम अध्यक्ष बनाया गया। वहीं नेहरू जी के मन्त्रिमंडल में उन्होंने बखूबी काम किया, तो इंदिरा जी के साथ भी मन्त्री रहे। वह लगातार कई मन्त्रालयों के मन्त्री बनते रहे और जिसमें भी गए, उसे उन्नति पर पहुंचाया। वह मन से यही चाहते थे कि इस देश के ग़रीबों तथा बेसहारा लोगों को रोज़ी-रोटी मिले और उस शोषण से उन्हें मुक्ति मिले, जिसे वे सदियों से भोगले आ रहे हैं।
1964 में नेहरू जी की मृत्यु के बाद उन्हें अन्तरिम प्रधानमन्त्री बनाया गया। 1966 में पुनः लालबहादुर शास्त्री की मृत्यु के बाद अन्तरिम प्रधानमन्त्री बने। उनके सामने इस दौरान कई तरह के प्रलोभन आए, किन्तु उन्होंने उनकी ओर ध्यान नहीं दिया। गुलजारी लाल नंदा तीन बार भारत के कार्यवाहक-अंतरिम प्रधानमंत्री रहे। एक बार विदेश मंत्री भी बने थे।
1966 में इन्दिरा गांधी के मन्त्रिमंडल में गृहमन्त्री के पद पर रहे। उन्हीं दिनों गोवध के विरोध में अनेक संगठनों ने संसद भवन पर प्रदर्शन की योजना बनाई । इस योजना के तहत उन्होंने नन्दा जी से प्रदर्शन की अनुमति मांगी। सहज में ही नन्दा जी ने उस प्रदर्शन की अनुमति दे दी। प्रदर्शन हुआ और वहां उपद्रव मच गया। उपद्रव दबाने के लिए पुलिस को गोली चलानी पड़ी, जिससे नौ लोग मारे गए। इसका दोष नन्दा जी पर मढ़ दिया गया और इन्दिरा जी को उनसे गृहमन्त्री पद से इस्तीफ़ा लेना पड़ा। इससे व्यथित नन्दा जी ने राजनीति से संन्यास ले लिया और समाज-सुधार में लग गए।
गुलज़ारी लाल नंदा सादा जीवन उच्च विचार के सौम्य पैरोकार थे । सत्ता से बाहर आते ही उन्होंने तमाम सरकारी सुविधाएं लौटा दीं। यहां तक कि सरकारी आवास भी छोड़ दिया और किराए के मकान में रहने लगे। वह फ़र्श पर दरी बिछाकर बैठ जाते और अपना काम करते। उन्होंने अपने दो पुत्रों और एक पुत्री को भी खुद से आगे नहीं बढ़ाया। वे अपने प्रयत्नों से ही सुखी और सम्पन्न हुए। वह साधु स्वभाव के ऐसे गांधीवादी नेता थे, जिन्होंने कभी अपने आदर्शों से समझौता नहीं किया । इसीलिए उनके सभी कार्य मानव कल्याण की भावनाओं से ओत-प्रोत हैं, जिनमें मानवीय संवेदना और करुणा शामिल है।
4 जुलाई, 1997 को उन्होंने अपना सौवां जन्मदिन मनाया। 24 जुलाई को उन्हें भारतरत्न की उपाधि से नवाज़ा गया। जीवन के अन्तिम दिनों में वह चलने-फिरने में असमर्थ हो गए थे। उन्होंने शतायु तो पाई ही, बल्कि वह 103 वर्ष तक जिए। उनका निधन अहमदाबाद में अपनी पुत्री के यहां हुआ।