22. डॉ. भीमराव अम्बेडकर, भारतरत्न- 1990
(जन्म-14 अप्रैल 1891, मृत्यु– 6 दिसंबर 1956)
“दलित नौजवानों को जब कभी अवसर मिले, तो यह सिद्ध करने का प्रयास करें कि वे बुद्धिमानी और योग्यता में किसी भी अन्य व्यक्ति की अपेक्षा रत्ती भर भी कम नहीं हैं। साथ ही उन्हें सदा निजी स्वार्थ की ओर ध्यान न देकर अपने समाज को स्वतन्त्र, बलशाली और प्रतिष्ठित बनाने का प्रयत्न करना चाहिए।”
दलित समाज को प्रेरणा देने वाले ये शब्द डॉ. भीमराव अम्बेडकर के हैं, जिनका जन्म 14 अप्रैल, 1891 में मध्य-प्रदेश की महू छावनी में हुआ था। उनके पिता रामजी राव महाराष्ट्र के रत्नागिरि ज़िले में थे। वह सेना में सूबेदार मेजर थे। भीमराव की माता का नाम भीमाबाई था।
डॉ. अम्बेडकर का बचपन का नाम भीमजी था। वह अपने माता-पिता की चौदहवीं सन्तान थे। इन चौदह बच्चों में केवल पांच जीवित रहे। तीन पुत्र और दो पुत्रियां। भीमजी सबसे छोटे थे। उनके भाई थे बलराम और आनन्द राव। बहनें थीं मंजुला और तुलसी।
डॉ. अम्बेडकर महार जाति के थे। यह जाति दलित वर्ग से सम्बन्ध रखती है, परन्तु शूरवीरता के लिए प्रसिद्ध थी। छत्रपति शिवाजी की सेना में बहुत से महार सैनिक थे । उन्नीसवीं सदी में अंग्रेज़ों ने भी इनकी बहादुरी को पहचाना और महार रेजीमेंट का गठन किया। ईस्ट इंडिया कम्पनी की सेना में एक अच्छा नियम यह था कि जो लोग काम करते थे, उनके बच्चों को ज़रूरी तौर पर शिक्षा दी जाती थी। सैनिक टुकड़ियों के साथ हर जगह उसने स्कूल खड़े किए थे। इससे महारों को पढ़ने-लिखने के अवसर प्राप्त हुए और उनके बच्चे आगे बढ़ सके। संयोग से अम्बेडकर के पिता और दादा, मामा और नाना सब ईस्ट इंडिया कम्पनी की सेना में काम कर चुके थे। जब अंग्रेज़ सरकार ने सेना में महार लोगों की भर्ती पर रोक लगा दी, तो 1893 में रिटायर रामजी अपने परिवार को लेकर दपोली चले गए। 1896 में यहीं भीमजी को प्राथमिक पाठशाला में दाखिल कराया गया, किन्तु वह दपोली में अधिक दिन नहीं पढ़ सके, क्योंकि उनके पिता को सतारा में लोक-निर्माण विभाग में स्टोरकीपर की नौकरी मिल गई थी।
भीमजी ग़रीब घर में जन्मे थे, किन्तु इससे भी अधिक वह एक दलित क़ौम में जन्मे थे । गरीब घर की बात पैसे की तंगी की होती है, लेकिन दलित क़ौम की बात हीनभावना की होती है, जो धरती पर मनुष्य के जन्म की सबसे बड़ी कमज़ोरी है। इसी कारण भीमजी के साथ बचपन से ही कई ऐसी घटनाएं घटीं, जिन्होंने आरम्भ से ही उन्हें सामाजिक अन्याय के ख़िलाफ़ सोचने पर मजबूर कर दिया।
छह वर्ष की छोटी अवस्था में ही भीमजी को छुआछूत का कटु अनुभव हुआ। वह बैलगाड़ी से किसी गांव जा रहे थे। उनके साथ बड़ा भाई था । गाड़ी में अन्य सवारियां भी थीं। उनमें कौन सवर्ण और कौन दलित है, यह किसी को मालूम न था। गाड़ीवान बैलगाड़ी चलाते हुए दोनों भाइयों से बात कर रहा था। उसका व्यवहार स्नेहपूर्ण था। काफ़ी दूरी तय कर लेने पर उसे पता चला कि ये बालक महार जाति के हैं, तो उसका व्यवहार बदल गया। उसने दोनों भाइयों को ख़ूब डांटा-फटकारा और नीचे उतार दिया। दोनों भाइयों के मन को इस अपमान से चोट पहुंची। लाचार हो वे पैदल चलकर अपनी मंज़िल तक पहुंचे। जब यह घटना भीमजी ने अपने पिता को सुनाई, तो उन्हें भी दुख हुआ। उन्होंने अपने बेटों को समझाया कि ख़ूब शिक्षा प्राप्त करके ही वे सामाजिक अपमान से बच सकते हैं, अन्याय के ख़िलाफ़ लड़ सकते हैं। भीमजी ने मन में ठान लिया कि अधिक-से-अधिक शिक्षा प्राप्त करेंगे। यह गांव में रहकर सम्भव न था। वहां का वातावरण अच्छा नहीं था। लोग ऊंच-नीच में विश्वास करते थे। हर समय अपमान का डर रहता था। अतः भीमजी ने शहर जाने की बात सोची। एक दिन वह घर में किसी को बताए बिना अपनी बहन के पास बम्बई पहुंच गए। भाई के अचानक आने पर बहन को आश्चर्य हुआ, किन्तु जब उसने भाई की दुख-भरी कथा सुनी, तो उसका मन भर आया|
बम्बई में भी एक चाय वाले द्वारा अपमान किए जाने पर भीमजी का मन निराशा से भर उठा। उन्हें लगा कि शिक्षा सम्बन्धी उनका सपना कभी पूरा न होगा। अपमान के अहसास ने उनके बालमन को झकझोर कर रख दिया। वह खोए-खोए से रहने लगे। तब बहन ने उन्हें समझाते हुए कहा, “हमारे पिता भी तो दलित हैं। वह भी कभी तुम्हारी तरह बालक रहे होंगे और उन्हें भी यही सब सहन करना पड़ा होगा, परन्तु वह तो कभी इस समाज से नहीं डरे । उन्होंने हर बाधा का मुक़ाबला किया और अन्त में महार रेजीमेंट में सूबेदार बने।” बहन ने आगे कहा, “इसी तरह तुम भी अपने लक्ष्य से मत डिगो । निडर होकर बाधाओं का सामना करो, ताकि बड़े होकर जाति-प्रथा को समाप्त करके दलितों का उत्थान कर सको। लाखों बालक ऐसे हैं, जो तुमसे भी अधिक अपमानित जीवन जी रहे हैं। क्या तुम चाहते हो कि बड़े होकर वे ऐसा ही जीवन जिएं?”|
बहन के शब्दों ने उनमें आशा का संचार कर दिया। वह वापस सतारा लौट गए, जहां उन्हें सरकारी पाठशाला में प्रवेश मिल गया और वह मन लगाकर पढ़ने लगे । अध्ययन के लिए उनकी लगन देखकर पाठशाला के अधिकतर अध्यापक स्नेह करने लगे। इन्हीं दिनों एक लम्बी बीमारी के बाद उनकी माता भीमाबाई का देहान्त हो गया। माता की मृत्यु से उनके मन को बड़ा आघात लगा, किन्तु उनकी बुआ मीराबाई ने उन्हें संरक्षण दिया।
1904 में रामजी की नौकरी समाप्त हो गई। वह परिवार को लेकर बम्बई चले गए। वहां भीमजी ने एल्फिस्टन हाईस्कूल में दाखिला ले लिया । सतारा के स्कूल में महार जाति का छात्र क्रिकेट नहीं खेल सकता था । बम्बई में इस तरह की रोक न थी, किन्तु एक रूप में छुआछूत यहां भी थी। सवर्ण बच्चे अपने टिफ़िन कक्षा में ब्लैकबोर्ड के पीछे रख देते थे। एक दिन अध्यापक ने भीमजी को ब्लैकबोर्ड पर कुछ लिखने का आदेश दिया। इस पर सवर्ण बच्चे ब्लैकबोर्ड के पीछे से अपने खाने के डिब्बे हटाने के लिए दौड़ पड़े। उन्हें डर था, कहीं डिब्बों में छूत न घुस जाए।
दसवीं की परीक्षा भीमजी ने 1907 में पास की। उनके परिवार के सब लोग बहुत खुश हुए। महार जाति के लिए यह गौरव की बात थी कि उसका एक लड़का दसवीं पास हो गया है।
छोटी आयु में उनका विवाह रामाबाई से हुआ। रामाबाई ने अपने पति की शिक्षा में कोई बाधा न डाली, बल्कि मन से चाहा कि वह ज्यादा-से-ज्यादा पढ़ें। अम्बेडकर की शिक्षा में उनके पिता और पत्नी का बड़ा योगदान था|
दसवीं पास करने पर उनकी कॉलेज शिक्षा के लिए बड़ौदा नरेश सयाजी राव आगे आए। वह योग्य अछूत छात्रों को आर्थिक सहायता दिया करते थे । उन्होंने भीमजी को पच्चीस रुपए माहवार छात्रवृत्ति देनी शुरू की| बम्बई के एल्फिंस्टन कॉलेज में भीमजी ने दाखिला ले लिया। कॉलेज के प्रोफ़ेसर मुलर अपने इस योग्य छात्र को पुस्तकें और कपड़े देकर मदद किया करते, किन्तु अपमान के राक्षस ने अम्बेडकर को सताना नहीं छोड़ा। कॉलेज की कैंटीन एक ब्राह्मण चलाता था। वह उन्हें न पानी देता था, न चाय। अम्बेडकर ने इस तरह के अपमान से विचलित होना छोड़ दिया। वह पूरे मन से पढ़ाई करते रहे। उन्होंने बी.ए. की परीक्षा भी पास कर ली। बी.ए. करने के बाद अम्बेडकर बड़ौदा रियासत की सेना में लेफ्टिनेंट हो गए। रियासत के बड़े-बड़े पदों पर सवर्ण हिन्दू काम करते थे। वहां छुआछूत की जड़ें बहुत गहरी थीं। चपरासी भी उनकी मेज़ पर फ़ाइल रखने से बचते थे। वे फ़ाइलों को दूर से मेज़ पर फेंक देते। अम्बेडकर को किराए का मकान तक न मिल सका। खाने की व्यवस्था भी न हो पाई। एक आर्यसमाजी पंडित आत्माराम ने उन्हें अपने पास ठहराया। सामाजिक वातावरण इतना प्रतिकूल था कि अम्बेडकर को नौकरी छोड़नी पड़ी।
2 फ़रवरी, 1913 को उनके पिता का निधन हो गया। अम्बेडकर के लिए यह बहुत बड़ा आघात था। उनके शिक्षा-प्रेमी पिता को यह देखना नसीब नहीं हुआ कि एक दिन उनका पुत्र विदेश जाकर ऊंची शिक्षा प्राप्त करेगा। अम्बेडकर पहले महार युवक थे, जिन्होंने महाराजा बड़ौदा की सहायता से अमेरिका में शिक्षा पाई। अमेरिका में अम्बेडकर ने समानता और स्वतन्त्रता के वातावरण में सांस ली। अतः वह पूरी लगन से ज्ञान प्राप्त करने में जुट गए। प्रोफ़ेसर सेलिगमैन जैसे प्रसिद्ध अर्थशास्त्री के मार्गदर्शन में उन्होंने एम. ए. पास किया। उन्हें कोलम्बिया विश्वविद्यालय से भारतीय अर्थशास्त्र पर पी-एच.डी. की डिग्री मिली। अब वह डॉ. भीमराव अम्बेडकर हो गए थे।
भारत लौटने पर अम्बेडकर महाराज बड़ौदा के सैनिक सचिव नियुक्त हुए, किन्तु बाद में छुआछूत के अपमान को न सह सकने के कारण नौकरी से त्याग-पत्र देकर बम्बई आ गए। यहां कोशिश करने पर उन्हें सीडेनहम कॉलेज में प्राध्यापक का पद मिल गया । यह ईसाइयों की संस्था थी। अतः दलित होने के कारण कोई उन्हें अपमानित नहीं करता था। छात्र उनका बहुत आदर करते थे। उन्हीं दिनों उनकी दो पुस्तकों ‘कास्ट्स इन इंडिया’ और ‘स्माल होल्डिंग्स इन इंडिया एंड देयर रेमेडीज़’ का प्रकाशन हुआ।
नवम्बर, 1917 में दलित जातियों के बम्बई में दो सम्मेलन हुए। अम्बेडकर ने इनमें मांग की कि दलितों को अपने प्रतिनिधि स्वयं चुनने का अधिकार दिया जाए। 1918 में एक आयोग ने भारत के विभिन्न वर्गों के प्रतिनिधियों से देश की स्थिति सुधारने के लिए राय मांगी। अम्बेडकर ने भी सुझाया कि दलित जातियों को उनकी जनसंख्या के अनुपात में सुरक्षित सीटें मिलनी चाहिए। उनका यह मत भी था कि स्वाधीनता से पहले दलितों को सामाजिक समानता मिले।
31 जनवरी, 1920 को अम्बेडकर ने बम्बई से ‘मूकनायक’ साप्ताहिक अख़बार निकालना शुरू किया। सितम्बर, 1920 में वह आगे अध्ययन के लिए इंग्लैंड गए। वहां लन्दन स्कूल ऑफ इकोनोमिक्स एंड पोलिटिकल साइंस में दाखिला लेकर 1923 तक अनेक विषयों का अध्ययन किया। कड़े परिश्रम का फल मिला। उन्हें अर्थशास्त्र में डी.एस-सी. की डिग्री मिली। साथ ही बोन विश्वविद्यालय में लिखी गई उनकी थीसिस ‘द प्रॉब्लम ऑफ़ द रुपी’ बहुत सराही गई। इसको लन्दन के एक प्रकाशक ने छापा। 1923 में अम्बेडकर ने बैरिस्टरी भी पास कर ली। वह भारत लौट आए और बम्बई हाईकोर्ट में वकालत का काम शुरू कर दिया।
वकालत करते हुए डॉ. अम्बेडकर स्वयं को एक बड़ी भूमिका के लिए तैयार कर रहे थे। यह भूमिका थी सामाजिक अन्याय का विरोध करने की। अम्बेडकर के विचारों पर तीन लोगों का मुख्य प्रभाव था। ये थे, महात्मा बुद्ध, कबीर और ज्योतिबा फुले । बुद्ध से उन्हें मानसिक प्यास बुझाने वाला अमृत मिला, कबीर से भक्ति भावना मिली और ज्योतिबा फुले ने उन्हें दलितों के उद्धार का सन्देश दिया। शीघ्र ही डॉ. अम्बेडकर को अन्याय के विरोध में खड़ा होना पड़ा। कुछ ब्राह्मणों ने तीन दलित लेखकों पर मुक़दमा दायर कर दिया था। लेखकों ने अपनी पुस्तक में ब्राह्मणों पर आरोप लगाया था कि वे अछूतों पर अत्याचार करते हैं। यह मानहानि का मुकदमा था। दलित लेखकों की पैरवी डॉ. अम्बेडकर ने की। उनकी दलीलें लाजवाब थीं। अन्त में जीत उन्हीं की हुई। इस जीत से वह देश के सारे दलितों में लोकप्रिय हो गए। बम्बई के दलितों ने कोलाबा में उनका अभिनन्दन किया।
19 और 20 मार्च, 1927 को महाड़ में एक अछूत सम्मेलन बुलाया गया। इसमें दस हज़ार प्रतिनिधि उपस्थित थे। डॉ. अम्बेडकर के आह्वान पर दलितों की भीड़ महाड़ बावड़ी की ओर चल पड़ी। अछूत उस बावड़ी का उपयोग नहीं कर सकते थे, पर उस दिन वहां दलित जमा हो गए थे। तभी सवर्ण वहां आए और दलितों पर टूट पड़े। अनेक लोगों को चोटें आईं। डॉ. अम्बेडकर ने पुलिस थाने में शरण ली।
डॉ. अम्बेडकर ने मन्दिर के लिए भी संघर्ष किया। सवर्ण हिन्दू, अछूतों को मन्दिर में नहीं जाने देते थे। मई, 1930 को नासिक के कालाराम मन्दिर में प्रवेश के लिए आन्दोलन प्रारम्भ हुआ। डॉ. अम्बेडकर का विचार था कि इस प्रकार के अहिंसक आन्दोलन से सवर्ण लोगों के मन में बदलाव आएगा। इसमें पन्द्रह हज़ार पुरुषों और पांच सौ महिलाओं ने भाग लिया। एक मील लम्बा जुलूस कालाराम मन्दिर की ओर चल पड़ा। मन्दिर के द्वार बन्द थे| अतः जुलूस गोदावरी घाटी की दिशा में मुड़ गया। अन्त में दोनों पक्षों में एक समझौता हुआ। तय किया गया कि रामनवमी के दिन सवर्ण और अछूत मिलकर भगवान राम का रथ खींचेंगे, लेकिन फिर सवर्णों ने इस समझौते को मानने से इनकार कर दिया। अछूतों ने इसका भारी विरोध किया। एक साल तक मन्दिर बन्द रहा। यह आन्दोलन पांच साल तक चलाया गया|
वास्तव में डॉ. अम्बेडकर हिन्दू जाति की कमज़ोरियों को दूर करना चाहते थे । छुआछूत हिन्दू समाज पर कलंक था। वह समता के समर्थक थे । इसीलिए हमेशा वर्णों को समाप्त करने पर बल दिया करते थे। उनके अनुसार अन्तर्जातीय विवाहों से ही वर्ण व्यवस्था का अन्त हो सकता था|
डॉ. अम्बेडकर एक राजनीतिक प्राणी थे। उनके राजनीतिक महत्त्व में कभी कमी नहीं आई। मोंटफोर्ड सुधारों से लेकर कैबिनेट मिशन योजना तक संविधान निर्माण-सम्बन्धी हर बैठक में डॉ. अम्बेडकर ने भाग लिया। वह दलित वर्ग के सबसे बड़े नेता थे।
1930 में पहले गोलमेज सम्मेलन में डॉ. अम्बेडकर ने अछूतों के लिए समान नागरिकता, नागरिक अधिकारों के निर्भय उपभोग और विधायिकाओं, सरकारी सेवाओं तथा मन्त्रिमंडल में उचित प्रतिनिधित्व की मांगें पेश कीं। 5 मार्च, 1931 को गांधी-इरविन समझौता हुआ और 7 सितम्बर, 1931 को दूसरा गोलमेज़ सम्मेलन आयोजित किया गया, जिसमें डॉ. अम्बेडकर ने अछूतों के लिए अलग निर्वाचन मंडल की मांग को दोहराया। गांधी जी ने इसका कड़ा विरोध किया, क्योंकि इससे हिन्दू समाज का बंटवारा होता था, किन्तु ब्रिटिश सरकार ने डॉ. अम्बेडकर की मांग स्वीकार कर ली। 20 अगस्त, 1932 को पूना पैक्ट में अछूतों के लिए अलग निर्वाचक मंडल की घोषणा कर दी गई। गांधी जी ने इसके विरोध में आन्दोलन शुरू कर दिया, तो उन्हें यरवदा जेल में डाल दिया गया। वह जेल के अन्दर आमरण अनशन पर बैठ गए। पूरा देश चिन्ता में डूब गया। कांग्रेसी नेताओं ने तय किया कि किसी प्रकार गांधी जी और डॉ. अम्बेडकर में सुलह कराई जाए, नहीं तो बापू के प्राण संकट में पड़ जाएंगे। मदनमोहन मालवीय तथा अन्य नेताओं ने डॉ. अम्बेडकर को समझाने की कोशिश की। स्वयं कस्तूरबा गांधी अपने पुत्र देवदास गांधी को लेकर डॉ. अम्बेडकर से मिलीं। वह अपने साथ गांधी जी का पत्र भी ले गई थीं।
पत्र पाकर डॉ. अम्बेडकर चिन्तित हो उठे और उन्होंने समझौता कर लिया। गांधी जी ने अपना अनशन समाप्त कर दिया। जेल से रिहा होने पर उन्होंने हरिजनों की स्थिति सुधारने का बीड़ा उठाया और ‘अखिल भारतीय छुआछूत निवारक संघ’ की स्थापना की गई। डॉ. अम्बेडकर ने सुझाव दिया कि संघ में अछूतों का बहुमत हो और उसे अछूतों के आर्थिक, सामाजिक, शैक्षिक और राजनीतिक उत्थान के लिए काम करना चाहिए। बाद में गांधी जी ने संघ का नाम ‘हरिजन सेवक संघ’ कर दिया। उन्होंने ‘हरिजन’ नामक एक साप्ताहिक अख़बार भी निकालना शुरू किया। इस प्रकार कांग्रेस के हरिजन-उद्धार कार्यक्रमों में तेज़ी आ गई। कहना गलत न होगा कि इन कार्यक्रमों के पीछे डॉ. अम्बेडकर का ही प्रभाव था।
डॉ. अम्बेडकर का सार्वजनिक जीवन बहुत व्यस्त था| इसमें एक निजी दुखद घटना से कुछ बाधा आई। उनकी पत्नी रामाबाई का 20 मई, 1935 को उनका निधन हो गया। रामाबाई के स्वर्गवास से डॉ. अम्बेडकर बहुत दुखी हुए। यहां तक कि कुछ समय के लिए उनमें विरक्ति की भावना आ गई। वह बैरागी के कपड़े पहनने लगे। उन दिनों लोगों ने उन्हें बाबा साहब कहना शुरू कर दिया। इस तरह उनका दूसरा नाम बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर पड़ा। डॉ. अम्बेडकर दलितों के प्रति समर्पित थे। उनके हितों की उन्हें बहुत चिन्ता थी। अतः वह देर तक सार्वजनिक जीवन से दूर न रह सके|
दलितों का अपना कोई राजनीतिक मंच नहीं था। इस कमी को के लिए डॉ. अम्बेडकर ने 1936 में इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी का गठन किया। इस पार्टी ने पुरानी बम्बई प्रेसीडेंसी से आम चुनाव लड़ा, क्योंकि यही क्षेत्र उनकी गतिविधियों का केन्द्र था। यहां अछूतों के लिए पन्द्रह सीटें तय की गई थीं डॉ. अम्बेडकर की पार्टी ने उनमें से तेरह सीटें जीतीं। पार्टी ने दो असुरक्षित सीटों पर भी विजय प्राप्त की। डॉ. अम्बेडकर ने कांग्रेसी उम्मीदवार विख्यात क्रिकेट खिलाड़ी पी. बालू को हराया। कांग्रेस ने इसलिए चुनाव लड़ा था, क्योंकि वह उस एक्ट को रद्द करवाना चाहती थी, जिसमें अछूतों को हिन्दुओं से अलग माना गया था। डॉ. अम्बेडकर इस एक्ट के समर्थक थे। उन्होंने यह चुनाव लड़कर यह सिद्ध करने का प्रयास किया कि कांग्रेस अछूतों का प्रतिनिधित्व नहीं करती।
2 जुलाई, 1942 को डॉ. अम्बेडकर वायसराय की कार्यकारिणी कौंसिल में श्रम सदस्य नियुक्त किए गए। यह पहला मौका था, जब एक अछूत हिन्दू को वायसराय की कौंसिल में लिया गया। डॉ. अम्बेडकर ने कहा, “यदि ऐसा नहीं होगा, तो अछूत कभी शासक जाति नहीं बन सकेगी।” उनकी नियुक्ति ब्राह्मणों के लिए एक बड़ा आघात था।
दूसरा विश्वयुद्ध चल रहा था। डॉ. अम्बेडकर ने श्रमिकों से कहा कि वे इंग्लैंड का साथ देकर हिटलर को पराजित करें, इसीलिए उन्होंने युद्ध का सामान तैयार करने वाले कारख़ानों में विशेष रुचि दिखाई।
1942 को जब कांग्रेस ने ‘भारत छोड़ो’ आन्दोलन और ‘करो या मरो’ का नारा दिया, तो डॉ. अम्बेडकर ने भारत छोड़ो आन्दोलन का समर्थन नहीं किया। उनका विचार था कि युद्ध जीत जाने पर इंग्लैंड स्वयं भारत को आज़ाद कर देगा। कांग्रेस ने डॉ. अम्बेडकर की तीखी आलोचना की। युद्ध समाप्त होने पर ब्रिटिश सरकार ने भारतीय नेताओं से बातचीत करने के लिए मार्च, 1946 में कैबिनेट मिशन को यहां भेजा। उसमें ब्रिटिश मन्त्रिमंडल के सदस्य थे।
डॉ. अम्बेडकर ने अछूतों की ओर से मिशन को एक स्मरण-पत्र दिया। पत्र में अछूतों के लिए अलग मतदान प्रणाली के अलावा विधान सभाओं, मन्त्रिपरिषदों, सरकारी पदों और लोक सेवा आयोगों में संरक्षण की मांग की गई। दलित जातियों में शिक्षा का प्रसार करने के लिए अलग से कोष बनाने की मांग भी पत्र में शामिल थी। कैबिनेट मिशन से उन्हें अनुकूल उत्तर प्राप्त नहीं हुआ। अतः डॉ. अम्बेडकर ने दलितों की राजनीतिक गतिविधियों में तेज़ी लाने पर विचार किया। उन्होंने इसी उद्देश्य के लिए अखिल भारतीय अनुसूचित जाति संघ की स्थापना की और डटकर संघर्ष करते रहे।
ब्रिटिश संसद ने 15 जुलाई, 1947 को भारतीय स्वाधीनता विधेयक पास कर दिया। मन्त्रिमंडल का गठन किया गया। पंडित नेहरू ने डॉ. अम्बेडकर को अपना विधि मन्त्री बनाया। उन्होंने देश के हित में कांग्रेस का विरोध त्याग दिया। विधि मन्त्री के रूप में डॉ. अम्बेडकर का प्रमुख काम संसद में हिन्दू कोड बिल पेश करना था। उन्होंने मौजूदा हिन्दू कोड में चार मुख्य बातें और जोड़ीं –
1. जन्मजात अधिकार के सिद्धान्त की समाप्ति,
2. महिलाओं को सम्पत्ति के पूर्ण अधिकार,
3. पिता की सम्पत्ति में पुत्री का अधिकार और
4. तलाक की व्यवस्था।
इस बिल का कट्टर हिन्दुओंने जमकर विरोध किया। पं. नेहरू ने कहा कि यदि संसद ने बिल पास न किया, तो वह इस्तीफा दे देंगे। सरदार पटेल भी हिन्दू कोड बिल के विरोधी थे।
संसद में बिल की अनेक धाराओं में केवल चार ही पास हो सकीं। शेष धाराओं पर बहस अगले अधिवेशन के लिए स्थगित कर दी गई। यह इसलिए किया गया, क्योंकि देश में बिल का कड़ा विरोध हो रहा था। डॉ. अम्बेडकर बहुत निराश हुए। 27 सितम्बर, 1951 को उन्होंने नेहरू मन्त्रिमंडल से इस्तीफ़ा दे दिया|
देश की सेवा और दलितों के हितों की रक्षा के लिए वह संविधान बनाने में जुटे। इस सम्बन्ध में उनके विचार स्पष्ट और प्रगतिशील थे। वास्तव में भारतीय संविधान की रचना डॉ. अम्बेडकर की देश को सबसे बड़ी देन है, जो 26 जनवरी, 1950 को लागू किया गया। 14 अक्टूबर, 1956 को उन्होंने अपने हज़ारों अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म की दीक्षा ले ली। दीक्षा के बाद उन्होंने कहा, “गले-सड़े धर्म को त्याग कर जो असमानता और उत्पीड़न को मान्यता देता है, मैं आज एक नया जन्म ले रहा हूं और नरक से मुक्ति प्राप्त कर रहा हूं।” उन्होंने घोषणा की, “मैं हिन्दू धर्म को त्यागता हूं।”
धर्म-परिवर्तन के बाद डॉ. अम्बेडकर काठमांडू गए। वहां विश्व बौद्ध सम्मेलन हो रहा था। 15 नवम्बर, 1956 को नेपाल नरेश महेन्द्र ने इसका उद्घाटन किया। इस अवसर पर दिए गए अपने भाषण में उन्होंने बौद्ध धर्म को समानता के लिए विकल्प बताया।
उनके स्वास्थ्य में निरन्तर गिरावट आ रही थी। वह डायबिटीज़ रोग से पीड़ित थे। 5 दिसम्बर की रात को उन्होंने ‘द बुद्ध एंड हिज़ रिलीजन’ नामक पुस्तक पूरी की। इसके बाद उन्हें तुरन्त नींद आ गई। वह इसी के साथ चिरनिद्रा में डूब गए, वह 1956 का साल था।
भारत के इतिहास पर अपनी अमिट छाप छोड़कर डॉ. अम्बेडकर ने संसार से विदा ली। कृतज्ञ राष्ट्र ने उनकी सेवाओं को याद करते हुए 1990 में उन्हें मरणोपरान्त भारतरत्न के सम्मान से विभूषित किया।