49. कर्पूरी ठाकुर – 2024

49. कर्पूरी ठाकुर – 2024

(24 जनवरी 1924 – 17 फरवरी 1988)

कर्पूरी ठाकुर इतने ही सरल थे। आम लोगों की फरियाद भी उतनी ही तल्लीनता से सुनते थे, जितने तल्लीन होकर प्रदेश का कोई अहम काम निपटाते थे। भारतीय राजनीति में ऐसे-ऐसे बिरले लोग हुए हैं, जो आज भी लोगों के लिए मिसाल है। इन्हीं में से एक थे बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर। वे अपनी सादगी के लिए जाने जाते थे। उन्होंने सामाजिक मुद्दों को अपने एजेंडे में आगे रखा। वे जनता के सवाल को सदन में मजबूती से उठाने के लिए जाने जाते थे। समाज के कमजोर तबकों पर होनेवाले जुल्म और अत्याचार की घटनाओं को लेकर कर्पूरी ठाकुर सरकार को भी कठघरे में खड़ा कर देते थे।

जननायक कर्पूरी ठाकुर जी सामाजिक न्याय के पुरोधा सबसे अग्रणी नेता थे। उनकी राजनीतिक यात्रा को एक ऐसे समाज के निर्माण के महान प्रयासों द्वारा चिह्नित किया गया था जहां संसाधनों को उचित रूप से वितरित किया गया था और हर किसी को, उनकी सामाजिक स्थिति की परवाह किए बिना, अवसरों तक पहुंच थी।

बिहार के समस्तीपुर जिले में एक गांव है पितौंझिया, जिसे अब कर्पूरी ग्राम कहा जाता है। इसी गांव के एक नाई परिवार में 24 जनवरी 1924 को कर्पूरी ठाकुर का जन्म हुआ था। कर्पूरी ठाकुर 1940 में पटना से मैट्रिक परीक्षा पास की थी। उस वक्त देश गुलाम था। मैट्रिक परीक्षा पास करने के बाद आजादी के आंदोलन में कूद पड़े। उन्होंने समाजवाद का रास्ता चुना और आचार्य नरेंद्र देव के साथ समाजवादी आंदोलन से जुड़ गए। 1942 में महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन में हिस्सा लिया और उन्हें जेल भी जाना पड़ा और राजनीति में आ गए। कर्पुरी ठाकुर ने कांग्रेस के खिलाफ मोर्चा खोल दिया जो आजीवन खुला रहा। वे कांग्रेस की नीतियों के विरोधी थे। स्पष्टवादी थे। मन में कुछ नहीं रखते थे। एक समय ऐसा आया जब आपातकाल में इंदिरा गांधी उन्हें गिरफ्तार करवाना चाहती थीं पर कामयाब नहीं हो सकीं।

कर्पूरी ठाकुर ने सन् 1952 में पहली बार बिहार विधानसभा का चुनाव जीता और महज 28 वर्ष की उम्र में विधायक बने। इसके बाद जब तक जीवित रहे लोकतंत्र के किसी न किसी सदन में सदस्य के रूप में मौजूद रहे। प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के साथ अपने राजनीतिक करियर की शुरुआत करते हुए, वह बाद में 1977 से 1979 तक बिहार के मुख्यमंत्री के रूप में अपने प्रारंभिक कार्यकाल के दौरान जनता पार्टी के साथ जुड़ गए.और तब से, वह श्रमिक वर्ग, मजदूरों, छोटे किसानों और युवाओ के संघर्षों को सशक्त रूप से आवाज देते हुए, विधायी सदनों में एक ताकतवर आवाज बन गए। बिहार की सत्ता उन्होंने 1970 से 1979 के बीच दो बार मुख्यमंत्री के रूप में संभाली। वह 22 दिसंबर 1970 को पहली बार मुख्यमंत्री बने पर उनकी सरकार 163 दिन ही चली थी। 1977 में जनता पार्टी की जीत के बाद वे फिर सीएम बने पर तब भी दो साल से भी कम समय तक उनका कार्यकाल रहा. उन्होंने मुख्यमंत्री रहते हुए बिहार में पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण का रास्ता साफ किया था। उन्होंने कभी खुद को अपने संकल्प से विचलित नहीं होने दिया। इसके लिए उन्हें अपनी सरकार की कुर्बानी भी देनी पड़ी। बिहार बोर्ड की मैट्रिक परीक्ष में अंग्रेजी की अनिवार्यता को भी उन्होंने ही खत्म किया था।

बिहार विधानसभा में विपक्ष के नेता भी रहे। इसके बावजूद घर, गाड़ी और जमीन, कुछ भी नहीं था. राजनीति की इसी ईमानदारी ने उन्हें जननायक बना दिया. कर्पूरी ठाकुर समाज के पिछड़ों के विकास के लिए जितने जागरूक थे, राजनीति में परिवारवाद के उतने ही विरोधी भी थे| इसीलिए जब तक वह जीवित रहे, उनके परिवार का कोई भी सदस्य राजनीति में नहीं आ पाया| 17 फरवरी 1988 को उन्होंने संसार को अलविदा कह दिया, तब उनकी उम्र सिर्फ 64 साल थी|

मुख्यमंत्री के रूप में कर्पूरी ठाकुर पटना में सरकारी आवास पर सुबह साढ़े सात बजे से लोगों की समस्याएं सुनने बैठ जाते। एक टूटी बेंच पर वह बैठते थे और सामने रखी टेबल भी जगह-जगह से टूटी हुई थी, जिसका कोई असर उन पर नहीं पड़ता था। वह बिहार के कोने-कोने से आए लोगों की बात बड़ी ध्यान से सुनते थे। इनमें से कई बिना चप्पल के होते थे तो कई के कपड़े मैले-कुचैले। वे लोगों की समस्याएं सुनते और अफसरों को निस्तारण के लिए आदेश देते। उनके पास गलत काम लेकर भी लोग नहीं जाते थे। बिहार ने राय बना ली थी कि ठाकुर नियम-कानून के दायरे में आने वाला कोई काम रुकने नहीं देंगे और इससे इतर होने नहीं देंगे।

वैसे पिछड़ों के जन नायक कर्पूरी ठाकुरजी का जीवन सादगी और सामाजिक न्याय के दो स्तंभों के इर्द-गिर्द घूमता था। उनकी सरल जीवनशैली और विनम्र स्वभाव आम लोगों के बीच काफी चर्चित था, कर्पूरी ग्राम से गुजरने वाली हर रेल और बस में ये लोगों के बीच ये चर्चा आम है। उनकी जड़ें हमेशा समाज के अंतिम पंक्ति के व्यक्ति से जुड़ी रही। ऐसे कई किस्से हैं जो उनकी सादगी और बोलचाल को दर्शाता है।

मंडल कमीशन लागू होने से पहले कर्पूरी ठाकुर बिहार की राजनीति में वहां तक पहुंचे जहां उनके जैसी पृष्ठभूमि से आने वाले व्यक्ति के लिए पहुँचना लगभग असंभव ही था| वे बिहार की राजनीति में ग़रीब गुरबों की सबसे बड़ी आवाज़ बन कर उभरे थे|

राजनीति में कर्पूरी ठाकुर को भूला पाना उतना ही मुश्किल है, जितना की राज्य को चलाना. कर्पूरी ठाकुर की ईमानदारी की आज भी मिसाल दी जाती है…वे ऐसे नेता थे जो एक ही धोती-कुर्ता में कई महीनों बिता दिया करते थे| बता दें कर्पूरी ठाकुर दो बार बिहार के मुख्यमंत्री बने थे, और निधन के समय उनके पास एक इंच भी जमीन नहीं थी|

भारत छोड़ो आन्दोलन के समय उन्होंने 26 महीने जेल में बिताए थे। लेकिन इस देश के लिए उनका योगदान आज भी हमारे देशवासियों के दिलों में बसा हुआ है| ठाकुर ने साहसपूर्ण राष्ट्रभक्ति और समर्पण ने भारतीय समाज को सजीवन दिशा दी और हमें एक आदर्श नेता की मिसाल प्रदान की| इस प्रकार कर्पूरी ठाकुर ने अपने जीवन से हमें एक महान स्वतंत्रता सेनानी और राजनीतिक नेता के रूप में याद रखा गया है|

राजनीति में इतना लंबा सफ़र बिताने के बाद जब वो मरे तो अपने परिवार को विरासत में देने के लिए एक मकान तक उनके नाम नहीं था। ना तो पटना में, ना ही अपने पैतृक घर में वो एक इंच जमीन जोड़ पाए। जब करोड़ो रूपयों के घोटाले में आए दिन नेताओं के नाम उछल रहे हों, कर्पूरी जैसे नेता भी हुए, विश्वास ही नहीं होता. उनकी ईमानदारी के कई किस्से आज भी बिहार में आपको सुनने को मिलते हैं।

1977 में मुख्यमंत्री बनने के बाद मुंगेरीलाल कमीशन लागू करके राज्य की नौकरियों आरक्षण लागू करने के चलते वो हमेशा के लिए सर्वणों के दुश्मन बन गए, लेकिन कर्पूरी ठाकुर समाज के दबे पिछड़ों के हितों के लिए काम करते रहे|

मुख्यमंत्री रहते हुए उन्होंने राज्य के सभी विभागों में हिंदी में काम करने को अनिवार्य बना दिया था. इतना ही नहीं उन्होंने राज्य सरकार के कर्मचारियों के समान वेतन आयोग को राज्य में भी लागू करने का काम सबसे पहले किया था|

युवाओं को रोजगार देने के प्रति उनकी प्रतिबद्धता इतनी थी कि, एक कैंप आयोजित कर 9000 से ज़्यादा इंजीनियरों और डॉक्टरों को एक साथ नौकरी दे दी| इतने बड़े पैमाने पर एक साथ राज्य में इसके बाद आज तक इंजीनियर और डॉक्टर बहाल नहीं हुए|

दो बार बिहार के मुख्यमंत्री रहे और बिहार में अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) की राजनीति के सूत्रधार माने जाने वाले कर्पूरी ठाकुर का नाम मरणोपरांत देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ 2024 के लिए चुना गया है। पिछड़ों और वंचितों के उत्थान के लिए कर्पूरी जी की अटूट प्रतिबद्धता और दूरदर्शी नेतृत्व ने भारत के सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य पर अमिट छाप छोड़ी है। उनका 17 फरवरी, 1988 को निधन हो गया था।

 

 

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