46. महामना  पंडित मदन मोहन मालवीय-

46. महामना  पंडित मदन मोहन मालवीय

(जन्म  25 दिसम्बर 1861 को प्रयाग, निधन-12 नवंबर 1946 )

पंडित मदन मोहन मालवीय को महामना मलविया के भी नाम से जाना जाता है। उनका जन्म सन 25 दिसम्बर 1861 को प्रयाग में हुआ था | उनके दादा पंडित प्रेमधर और पिता पंडित बैजनाथ संस्कृत विद्वानों मे से एक थे।

उनके पिता पंडित बैजनाथ एक उत्कृष्ट कथावाचक थे संस्कृत में प्रारंभिक प्रशिक्षण के बाद, मालवीय जी अंग्रेजी में अध्ययन के लिए सरस्वती स्कूल में शामिल हो गए। उन्होंने कला में स्नातक मुईर केन्द्रिय विद्यालय से सन 1884 में किया। उनका विवाह सन 1878 में मिर्जापुर की कुमारी देवी से हुआ।

मालवीय जी ने पांच वर्ष की आयु में संस्कृत भाषा में प्रारंभिक शिक्षा लेकर प्राइमरी परीक्षा उत्तीर्ण करके इलाहाबाद के जिला स्कूल में पढ़ाई की तथा 1879 में म्योर सेंट्रल कॉलेज, जिसे आजकल इलाहाबाद विश्वविद्यालय के नाम से जाना जाता है से 10वीं की परीक्षा उत्तीर्ण की तथा छात्रवृत्ति लेकर कोलकाता विश्वविद्यालय से सन् 1884 में बी.ए. की उपाधि प्राप्त की। उनका विवाह 16 वर्ष की आयु में मीरजापुर के पं. नंदलाल की पुत्री कुंदन देवी के साथ हुआ था।

पत्रकारिता, वकालत, समाज सुधार, मातृभाषा तथा भारत माता की सेवा में अपना जीवन समर्पित करने वाले मालवीय जी ने राष्ट्र की सेवा के साथ ही साथ नवयुवकों के चरित्र-निर्माण के लिए और भारतीय संस्कृति की जीवंतता को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना की। उनका मानना था कि संसार के जो राष्ट्र उन्नति के शिखर पर हैं, वे शिक्षा के कारण ही हैं।

मालवीय जी अपने पिता की तरह एक अच्छे कथवाकक बनना चाहते थे। लेकिन उनके सपने घर में गरीबी और उसकी माँ के आँसू में डूब गए। घर की परिस्थिथियों ने उन्हें एक शिक्षक के रूप में 1884 में सरकारी स्कूल में प्रतिमाह 40 रुपये के वेतन पे काम करने को मजबूर कर दिया |

अपनी स्नातक और एक शिक्षक की नौकरी करने के बाद 1884 में, मालवीय जी ने 1891 में कानून की शिक्षा पारित की। उन्होने पहली बार 1891 में जिला न्यायालय में और 1893 से उच्च न्यायालय में वकालत की। सर तेज बहादुर सप्रू के शब्दों में, “वह जल्द एक प्रतिभाशाली सिविल वकील बन चुके थे। सर मिर्जा इस्माइल के शब्दों में, “वह एक महान वकील थे जो कानूनी पेशे के लिए एक आभूषण थे। अपने 50 वें जन्मदिन के दौरान उन्होंने कानूनी अभ्यास त्याग कर देने का फैसला किया और देश की सेवा करने के लिए 1913 में सेवानिवृत्त हुए।

गोपाल कृष्ण गोखले के अनुसार मालवीय जी का बलिदान एक असली बलिदान है, क्यूँकी उन्होने एक गरिब परिवार में जन्म लिया उसके बाद उच्च शिक्षा हासिल करके वह हजारों में मासिक कमाई करने के बाद भी उन्होने धन को त्याग कर अपना जीवन देश को समर्पित कर दिया।

1886 में आयोजित कलकत्ता में कांग्रेस के दूसरे अधिवेशन के दौरान राजा रामपाल सिंह उनके भाषण और व्यक्तित्व से बेहद प्रभावित हुए सो उन्होने मालविया जी को 1887 में हिंदी दैनिक “हिंदोस्थान संपादित करने के लिए उनसे अनुरोध किया, लेकिन उस समय मालविया जी सम्पादन के लिये बहुत नये व्यक्ति थे पर उन्होने जो पहले कुछ लेखों का सम्पादन किया था उससे उनको काफी मदद मिली।

उन्हें महामना की उपलब्धि हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने दी थी. 1886 में कलकत्ता में आयोजित भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के दूसरे सत्र में उनके भाषण ने उन्हे राजनीतिक क्षेत्र में पहुंचा दिया गया था। उन्होंने चार बार कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में कार्य किया जिसमे 1909 में (लाहौर). 1918 (दिल्ली), 1930 (दिल्ली) और 1932 (कोलकाता) सत्र शामिल था। उन्होने लगभग 50 साल के लिए कांग्रेस की सेवा की।

आजादी की लड़ाई में, मालवीय जी उदारवादी और राष्ट्रवादियों, नरमपंथी और चरमपंथियों के मध्य में थे जो की गोखले और तिलक के अनुयायी क्रमशः को कहा जाता था जब महात्मा गांधी ने 1930 में नमक सत्याग्रह और सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरु किया तब मालविया जी ने उस में भाग लिया और गिरफ्तारी दी। महात्मा गांधी उन्हे एक बड़े भाई के रूप में मानते थे और उन्हे नवीन भारत के निर्माता भी कहते थे। मालविया जी के बारे में पंडित जवाहर लाल नेहरू स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री ने कहा था, “वह एक महान आत्मा थे जिन्होने आधुनिक भारतीय राष्ट्रवाद की नींव रखी।

एक स्वतंत्रता सेनानी और राजनेता होने के अलावा, पंडित मालवीय एक प्रख्यात शिक्षाविद भी थे। उन्होंने वाराणसी में 1916 में बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) की स्थापना की जो की एशिया और दुनिया में सबसे बड़ा आवासीय विश्वविद्यालय है इसके संस्थापक के रूप उन्हें याद किया जाता है। उन्होंने 1919-1938 तक के बीच इस विश्वविद्यालय के कुलपति (वीसी) के रूप में कार्य किया।

पंडित मालवीय जी ने एक अत्यंत प्रभावशाली अंग्रेजी दैनिक समाचार पत्र की स्थापना की। 1909 में “दी लीडर” नामक पत्रिका स्वतंत्रता संग्राम को मजबूत करने के लिए इलाहाबाद से प्रकाशित की। 1924 से 1946 तक वह एक लोकप्रिय अंग्रेजी अखबार हिंदुस्तान टाइम्स के अध्यक्ष पद पर भी थे और उन्ही के नेतृत्व में ही 1936 में इसके हिंदी संस्करण का शुभारंभ हुआ।

सक्रिय राजनीति और विश्वविद्यालय प्रशासन की जिम्मेदारी से मुक्त होने के बाद उन्होंने सनातन धर्म सभा से अपना पुराना सम्बंध बनाये रखा जिसका कार्यालय उनके निवास स्थान पर ही था जहा से सनातन धरम पत्रिका प्रकाशित हुई।

बहुआयामी व्यक्तित्व का धनी होने, अनेक सिद्धियों की प्राप्ति करने, अनेक सम्राटों जितना यश प्राप्त करने के बाद भी एक भिक्षुक की तरह रहना और स्वभाव में विनम्रता बनाए रखना एक बहुत बड़ा साधु लक्षण है जो पंडित मदन मोहन मालवीय जी में था।

एक महान शिक्षाविद् जिन्होंने शिक्षा के मूलतत्व को जाना और इस देश को किस प्रकार की शिक्षा की ज़रूरत है और भविष्य में किस प्रकार की शिक्षा की ज़रूरत पड़ने वाली है, इन दोनों बातों को समझते हुए एक नए प्रकार की शिक्षा पद्धति काशी विश्वविद्यालय में प्रस्थापित करने का उन्होंने प्रयास किया।

भारत सरकार ने प्रखर देशभक्त पंडित मदन मोहन मालवीय को भारतरत्न देकर उनके योगदान को रेखांकित किया है. पंडित मदन मोहन मालवीय अगर नहीं होते तो गांधीजी और अम्बेडकरजी का पूना पैक्ट संभव नहीं हो पाता. मालवीय जी ने भारत की आजादी के लिए अलख जगाने का काम किया जिसे स्वयं नेहरू ने भी स्वीकार किया.

वे कहते थे कि राष्ट्र की उन्नति तभी संभव है, जब वहां के निवासी सुशिक्षित हों। वे जीवन भर गांवों में शिक्षा के प्रचार-प्रसार में जुटे रहे। मालवीय जी का मानना था कि व्यक्ति अपने अधिकारों को तभी भलीभांति समझ सकता है, जब वह शिक्षित हो । बनारस हिंदू विश्वविद्यालय की स्थापना महान शिक्षाविद् रहे पंडित मदन मोहन मालवीय की मुख्य उपलब्धियों में शामिल है।

मालवीय जी को स्वतंत्रता संग्राम में सशक्त भूमिका तथा हिंदू राष्ट्रवाद के प्रति उनके समर्थन के लिए भी जाना जाता है। सन् 1886 में कोलकाता में कांग्रेस के दूसरे सत्र में अपने पहले विचारोत्तेजक भाषण के बाद ही वे राजनीति में छा गए थे। उन्होंने सन् 1887 से हिन्दी अंग्रेजी समाचार पत्र ‘हिन्दुस्तान’ का संपादन करके दो-ढाई साल तक जनता को जागरूक करने का कार्य किया।

हिन्दी साहित्य सम्मेलन के प्रथम अधिवेशन (काशी – 1910) के अध्यक्षीय अभिभाषण में हिन्दी के स्वरूप निरूपण में उन्होंने कहा कि हिंदी को फारसी – अरबी के बड़े-बड़े शब्दों से लादना जैसे बुरा है, वैसे ही अकारण संस्कृत शब्दों से गूंथना भी अच्छा नहीं है। उनकी भविष्यवाणी थी कि एक दिन हिन्दी ही देश की राष्ट्रभाषा होगी। वह 1909 और 1918 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष रहे। उन्होंने 1924 में दिल्ली आकर हिन्दुस्तान टाइम्स के साथ कार्य किया।

वे संस्कृत, हिन्दी तथा अंग्रेजी भाषाओं के ज्ञाता थे। पं. मदनमोहन मालवीय जी का निधन 1946 में हुआ तथा वे देश को स्वतंत्र होते नहीं देख सके थे। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के प्रणेता महामना पंडित मदनमोहन मालवीय को मरणोपरांत सन् 2014 में भारत का सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ दिया गया।

इतना ही नहीं हिन्दी के उत्थान में मालवीय जी की भूमिका ऐतिहासिक रही है। वे अपने सरल स्वभाव के कारण लोगों के बीच प्रिय थे। वे भारत के पहले और अंतिम व्यक्ति थे जिन्हें ‘महामना’ की सम्मानजनक उपाधि से विभूषित किया गया।

भारत की स्वतंत्रता से एक साल पहले उनका देहांत हो गया, डॉ राजेन्द्र प्रसाद, भारत गणराज्य के पहले राष्ट्रपति ने लिखा है: पंडित मालविया एक महान आत्मा ने हमें छोड़ दिया है उनका नाम और काम भविष्य की पीढ़ी को प्रेरित करेगा और यह सुनिश्चित करेगा की निर्धारित व्यक्ति के लिए कुछ भी असंभव नहीं है”। राष्ट्र के नाम उनकी सेवा शब्दों से परे है, वह एक असली देशभक्त थे।

देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न प्राप्त करने वाले वह ४३ वे भारतीय नागरिक है।

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