20. खान अब्दुल गफ़्फ़ार खां भारतरत्न- 1987

20. खान अब्दुल गफ़्फ़ार खां -भारतरत्न- 1987

(जन्म:- o6 फरवरी  1890, उतमानजई, भारत, मृत्यु- 20 जनवरी 1988, पेशावर, पाक)

“मैंने खुदा को गवाह बनाकर यह क़सम खाई है कि मैं अपनी प्रिय जन्मभूमि और ज़ाती भाइयों की ख़िदमत में अपने-आप को पूरी तरह लगा दूंगा । सर्वशक्तिमान ख़ुदा के सामने मेरी यही इलतजा है कि मैं इस कोशिश में लगा हुआ शहीद हो जाऊं ।”

इस संकल्प को वास्तविक रूप देने वाले सीमान्त गांधी का जन्म पश्चिमोत्तर सीमान्त के हस्तनगर (अष्टनगर) के उतमानज़ई ग्राम में 1890 में हुआ था । उनके पिता ज़मींदार बहराम खां थे। पठानों में तब नवजात शिशु की जन्मतिथि लिखकर रखने का रिवाज नहीं था। शायद इसी कारण उनकी जन्मतिथि सही-सही ज्ञात नहीं। वह अपने पिता की चौथी सन्तान थे। पिता बहराम खां ईमानदार, ख़ुदा पर भरोसा रखने वाले, नेकदिल इंसान थे। गांव के ग़रीब लोग अपनी धरोहर उनके पास इत्मीनान से रख जाते थे। अंग्रेज़ अफ़सर भी उनकी इज़्ज़त करते थे और उन्हें चचा कहकर पुकारते थे ।

उस समय पख़तून क्षेत्र में शिक्षा का माहौल नहीं था। अतः पख़्तून जाति शिक्षा की दौड़ में पिछड़ गई। 1901 तक उत्तर-पश्चिम सीमा प्रान्त पंजाब का ही भाग बना रहा, पर शिक्षा व सामाजिक कल्याण सम्बन्धी सुविधाओं से वंचित रहा।

सरदार बरहाम खां ने मौलवियों के फतवों की चिन्ता नहीं की और अपने बच्चों को स्कूल भेजा। गफ़्फ़ार ख़ां पेशावर के म्यूनिसिपल बोर्ड के हाईस्कूल में जाने लगे। उस समय उनकी आयु आठ वर्ष थी। ऊंच-नीच की भावना उनसे कोसों दूर थी। इसीलिए उनकी मित्र-मंडली में सभी जातियों के छात्र थे। प्राथमिक शिक्षा समाप्त करने के बाद उन्हें पेशावर के एडवर्ड मेमोरियल मिशन स्कूल में दाखिल कराया गया।

अब्दुल गफ्फार खां के बड़े भाई पहले ही बम्बई से डॉक्टरी पास करके इंग्लैंड चले गए थे। गफ़्फ़ार खां ने हाईस्कूल पास कर लिया था। वह रेखागणित में तेज़ थे। इसी कारण बड़े भाई ने उन्हें इंजीनियरिंग का अध्ययन करने के लिए इंग्लैंड बुलाना चाहा। इसका सारा इन्तज़ाम हो गया, परन्तु मां ने उन्हें उतनी दूर भेजने से साफ़ इनकार कर दिया।

जिन दिनों वह मिशन स्कूल में पढ़ा करते थे, उनका नौकर बारानी काका उन्हें सेना की वीरता से भरी कहानियां सुनाया करता था। इससे उनके मन में सेना में नौकरी करने की इच्छा जाग उठी। एक दिन उन्होंने पिता से मंजूरी लिए बिना ही डायरेक्ट कमीशन के लिए कमांडर इन चीफ़ के पास आवेदन-पत्र भेज दिया। उन्हें भर्ती कार्यालय में उपस्थित होने का आदेश मिल गया और इस तरह वह सेना में भर्ती हो गए, परन्तु कुछ ही दिनों में उन्होंने पाया कि सेना की नौकरी में उन जैसे व्यक्ति के स्वाभिमान को आए दिन बेइज्ज़ती की आग में झुलसना पड़ेगा। इसलिए सेना की नौकरी छोड़ दी और घर वापस आ गए।

1910 में उन्होंने देवबन्द जैसे प्रगतिशील इस्लामिक शिक्षा संस्थान के सहयोग से सारे प्रान्त में स्कूल खोले। सभी पख़तून माता-पिताओं से अपने बच्चों को उन स्कूलों में पढ़ने के लिए भेजने की प्रार्थना की, ताकि स्वतन्त्रता संग्राम के लिए उन स्कूलों के छात्रों को तैयार किया जा सके।

आख़िर अंग्रेज़ सरकार ने सीमान्त प्रान्त को पंजाब से अलग कर दिया और जनता पर एक भयंकर काला क़ानून थोप दिया। यह फ्रंटियर क्राइम्स रेग्यूलेशन एक्ट था। इस काले क़ानून ने पठान जाति के सामूहिक जीवन को नष्ट करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। इस क़ानून के अन्तर्गत अनेक निर्दोष व्यक्तियों पर झूठे मुकदमे चलाए गए और उन्हें क़ैद में डाल दिया गया। अनेक देशभक्तों को फांसी की सज़ा दे दी गई। सीमान्त प्रान्त में अशिक्षा का अन्धकार था, जिसका नाजायज़ फ़ायदा अंग्रेज़ सरकार और धर्म के ठेकेदार, दोनों ही उठा रहे थे।

इसी बीच 1912 में उनका विवाह हुआ। उन्हें दो पुत्र प्राप्त हुए। वह आगरा गए, तो वहां उन्होंने मौलाना अबुलकलाम आज़ाद का भाषण सुना। वापस लौटकर उत्साह के साथ शिक्षा का प्रचार तेज़ कर दिया। वह स्थान-स्थान पर जाकर लोगों को शिक्षा का महत्त्व समझाने लगे और प्रार्थना करने लगे कि सभी अपने बच्चों को स्कूल भेजें।

लोगों में शिक्षा के प्रति उत्पन्न जागरूकता से अंग्रेज़ों की नींद हराम हो गई। मुख्य कमिश्नर ने गफ़्फ़ार ख़ां के पिता को बुलवाया और अपने पुत्र की हरकतों को रोकने के लिए उन्हें डराया-धमकाया, परन्तु पिता-पुत्र दोनों ही निडर थे। उन्होंने अंग्रेज़ों की गीदड़ भभकियों की ज़रा भी परवाह नहीं की। 1915 में उसकी पत्नी का देहान्त हो गया। इससे दुखी होकर भी उन्होंने खिलाफ़त नहीं छोड़ी।

प्रथम विश्वयुद्ध समाप्त हुआ, तो भारत इस प्रतीक्षा में था कि उनके भारतीय जवानों के बलिदान और सेवाओं के बदले अंग्रेज़ सरकार भारतवासियों को कुछ अवश्य देगी, किन्तु इसके बदले देश को फरवरी, 1919 में रौलट एक्ट जैसा दमनकारी काला कानून मिला। इस क़ानून के विरोध में सारे देश में विद्रोह की लहर दौड़ गई। गफ़्फ़ार खां चुप बैठने वाले नहीं थे। उन्होंने भी इस क़ानून का डटकर विरोध किया और सभाएं आयोजित कीं।

अंग्रेज़ों ने मार्शल लॉ लागू कर दिया। अब्दुल गफ्फार खां को गिरफ्तार कर लिया गया। यह उनकी पहली गिरफ़्तारी थी। उनकी लम्बी-चौड़ी कद-काठी के आगे अंग्रेज़ सरकार की हथकड़ी-बेड़ी छोटी पड़ गई। वह उन्हें पहनकर पैदल चलने योग्य नहीं थे। अतः पुलिस अधिकारी को नियम और रिवाज के विपरीत क़ैदी को तांगे पर ले जाना पड़ा।

न्यायाधीश ने जेल की सज़ा सुनाई। उन्हें मरदान की जेल में डाला गया । सज़ा समाप्त हो जाने पर वह अपने गांव आए, तो उनके पीछे-पीछे अंग्रेज़ फ़ौज की टुकड़ी भी आ धमकी। सारे गांव को घेर लिया गया। गांव वालों को घुटनों के बल बैठा दिया गया और चारों तरफ़ तोपें लगा दी गईं। उन पर तीस हज़ार रुपयों का दंड घोषित किया गया, परन्तु वसूल किया गया एक लाख रुपया। डेढ़ सौ से अधिक लोगों को ज़मानत के तौर पर बन्द कर दिया, परन्तु पिता बहराम खां को इसी बात की प्रसन्नता थी कि उन्हें भी उसी जेल में रखा गया था, जिसमें उनकी आंखों का तारा अब्दुल गफ्फार खां बन्द था। छह महीनों के बाद उन्हें फिर मुक्त कर दिया गया, परन्तु कुछ समय पश्चात नौशहरा बम-कांड के सिलसिले में उन्हें और उनके चचेरे भाई को फिर पकड़ लिया गया।

उन्होंने अपने क्षेत्र में ‘अंजुमन इसलाह उल अफ़गान’ नामक आज़ाद हाईस्कूल की स्थापना की। अंग्रेज़ों ने सरदार बरहाम खां को पट्टी पढ़ाई कि वह अपने बेटे अब्दुल गफ्फार खां को समझाए कि गांव-गांव घूमते रहने के बदले घर पर आराम से क्यों नहीं बैठते? स्कूल खोलकर और पठानों को शिक्षा की ओर झुकाकर वह क्यों गुनाह कमा रहे हैं, जब कि इस्लाम में यह सब मना है। अंग्रेज़ भली-भांति जानते थे कि अब्दुल गफ़्फ़ार खां अपनी धुन के पक्के हैं और किसी की बात नहीं मानते। अगर वह बरहाम खां की बात नहीं मानते, तो दोनों में निश्चित रूप से ठन जाती, झगड़ा होता और इस फूट से अंग्रेज़ों को लाभ होता। अब्दुल गफ़्फ़ार ने अपने पिता को समझाया। बहराम खां मान गए।

उन्हें पेशावर की ख़िलाफ़त कमेटी का अध्यक्ष चुना गया। इस पद को स्वीकार करने के लिए उनकी शर्त थी कि सीमान्त प्रान्त में जो चन्दा जमा होगा, वह प्रान्त में ही शिक्षा पर खर्च किया जाए। शर्त स्वीकार कर ली गई । वह दूने उत्साह और जोश के साथ शिक्षा के प्रचार- प्रसार में जुट गए। सरकार ने उन्हें 17 दिसम्बर, 1921 को पुनः गिरफ़्तार कर लिया। अपराध था आज़ाद स्कूल खोलना। इस बार उन्हें तीन वर्ष के कठोर कारावास का दंड दिया गया।

1924 में जब वह रिहा होकर पहुंचे, तो घर वीरान हो चुका था । पुत्र के वियोग में मां चल बसीं। 1926 में जब बहराम ख़ां का निधन हो गया, तो रीति-रिवाज के अनुसार मुल्लाओं को धार्मिक कर्म करने के बदले पारिश्रमिक दिया जाना था। उन्होंने बिरादरी की आम राय से दो हज़ार रुपए की राशि स्कूल के लिए दे दी। उनके इस प्रगतिशील क़दम से कई लोग हाथ मलते रह गए।

उन्होंने इस बात की आवश्यकता महसूस की कि जनता में शिक्षा के जागरण के साथ-साथ राजनीतिक और सामाजिक जागृति भी आए। इसी उद्देश्य को साकार करने के लिए उन्होंने मई, 1928 में ‘पख़तून’ नामक समाचार-पत्र निकाला। यह पत्र सीमान्त प्रान्त में बेहद लोकप्रिय हो गया।

गफ़्फ़ार खां पखतून, बलोच जैसे पठानों की सांसों में बसते थे। वह उन्हें जगाना और ऊंचा उठाना चाहते थे। उनमें वतनपरस्ती का जज़बा उन्होंने ही भरा था। इसीलिए उनके नेतृत्व में उनके ये अनुयायी सदैव अंग्रेज़ों से टकराते रहे। गफ़्फ़ार ख़ान उनके दिलों के बादशाह थे। इसी कारण उन्हें बादशाह ख़ान जैसे खिताब से नवाजा गया। वह महात्मा गांधी के सिद्धान्तों पर चलते रहे। सत्य, अहिंसा, सत्याग्रह, सविनय अवज्ञा का कभी दामन नहीं छोड़ा। इसीलिए उन्हें सरहदी गांधी या सीमान्त गांधी कहा गया।

1929 में उन्होंने ‘खुदाई खिदमतगार’ नामक एक गैर राजनीतिक एवं स्वयंसेवी संस्था की स्थापना की। इसके सदस्यों को निःस्वार्थ भाव से लोगों की सेवा करने, हिंसा न करने, किसी प्रकार का बदला न लेने और करुणा तथा क्षमा अपनाने की क़सम दिलाई जाती थी। इस संस्था के सदस्यों की वेशभूषा लाल होती थी और उनका झंडा भी लाल होता था। अतः यह संस्था ‘लाल कुर्ती सेना’ के नाम से मशहूर हो गई। फिर सविनय अवज्ञा आन्दोलन का दौर चला। गफ़्फ़ार ख़ां को बन्दी बना लिया गया। जेल से रिहा होने के बाद वह कांग्रेस में शामिल हो गए। उन्हें बार-बार गिरफ़्तार किया जाता रहा और अन्त में सीमान्त प्रान्त में उनके प्रवेश पर भी रोक लगा दी, लेकिन वह शान्त बैठने वाले नहीं थे। बंगाल में रहते हुए उन्होंने ग्रामीण क्षेत्रों में जन-जागरण की योजना बनाई, किन्तु सरकार ने उन्हें फिर बन्दी बना लिया। पहले उन्हें बम्बई की जेल में रखा गया। 29 दिसम्बर, 1934 को उन्हें साबरमती जेल भेज दिया गया। जेल में उनका वज़न 170 पौंड से घटकर 149 पौंड रह गया। जेल-यात्रा के दौरान अंग्रेज़ सरकार ने उन्हें बीमार करने की भरसक शरारत की। जेल जीवन में भी वह अनुशासन का विशेष ध्यान रखते थे। एक रहमदिल वार्डन ने जेल में उन्हें गेहूं पीसने के बजाय आटा देने की बात कही, तो उन्होंने साफ इनकार कर दिया और अपने हिस्से के गेहूं स्वयं पीसते रहे।

1942 में कांग्रेस ने अंग्रेज़ों के विरोध में भारत छोड़ो आन्दोलन की शुरुआत की। सरकार ने दमन का रास्ता अपनाया। गफ्फार खां 50 साथियों के साथ चारसद्दा से मरदान ज़िला न्यायालय पर धरना देने के लिए रवाना हुए। रास्ते में पुलिस ने उन्हें पकड़ लिया और इतना पीटा कि उनकी दो पसलियां टूट गईं। कपड़े ख़ून से तर हो गए। उन्हें मरदान जेल ले जाया गया। वहां उनकी कोई चिकित्सा नहीं की गई। उधर हरिपुर जेल से छूटने के बाद चुनाव अभियान शुरू हुआ। अंग्रेज़ों ने मुस्लिम लीग का खुलकर साथ दिया। उन्होंने मुस्लिम लीग के साम्प्रदायिक स्वरूप को चुनौती के रूप में स्वीकार किया। इससे लीग को भारी मतों से पराजय का मुंह देखना पड़ा। वह भारत-विभाजन के सख़्त ख़िलाफ़ थे। जब कांग्रेस कार्यकारिणी ने उसे स्वीकार कर लिया, तो उन्होंने कहा, “महात्मा जी ने हमें भेड़ियों के हवाले कर दिया है।”

अन्त में 15 अगस्त, 1947 को देश आज़ाद हो गया । स्वतन्त्र भारत और स्वतन्त्र पाकिस्तान का निर्माण हो गया था। आज़ादी की लड़ाई में अपना सर्वस्व लुटा देने वाले बादशाह ख़ान को अलग खड़ा कर दिया गया। मुस्लिम लीग वाले उनके पहले से ही दुश्मन थे। पाकिस्तान के निर्माण के बाद वह मुस्लिम लीग को तोड़ देना चाहते थे। इसलिए मार्च, 1948 में सिन्ध के सईद के साथ मिलकर पीपुल्स पार्टी की स्थापना की। वह नई पार्टी के अध्यक्ष चुने गए। पाकिस्तान सरकार बौखला उठी और उन्हें 15 जून, 1948 को गिरफ़्तार कर लिया । स्वतन्त्र पाकिस्तान में यह उनकी पहली गिरफ़्तारी थी। उन्हें कुल मिलाकर लगभग पन्द्रह साल जेल की कठिन यातनाओं में बिताने पड़े। इस्लामी सरकार ने निहत्थे पठान स्त्री-पुरुषों की छातियों को छलनी कर दिया। 1950 में उनके अनुयायी गांवों पर बम भी बरसाए ।

31 अगस्त, 1965 को सीमान्त गांधी ने काबुल की एक सभा में कहा, “पाकिस्तान में वही लोग सत्ताधारी हैं, जो अंग्रेज़ों के सेवक थे। उनका संघर्ष पाकिस्तान से है। वह पठानों को उनके अधिकार दिलाने के लिए अन्तिम समय तक लड़ते रहेंगे।”

अमन और शान्ति के प्रहरी, साम्प्रदायिक सद्भाव और सत्याग्रह के अजेय योद्धा को भारत ने गांधी शताब्दी समारोह में भाग लेने के लिए आमन्त्रित किया था। 1 अक्तूबर, 1969 को सीमान्त गांधी ने पहली बार स्वाधीन भारत की धरती पर क़दम रखा। 15 नवम्बर, 1969 को तीनमूर्ति मार्ग पर एक विशेष समारोह में उन्हें तत्कालीन राष्ट्रपति वी.वी. गिरि ने विश्व शान्ति और अन्तर्राष्ट्रीय सद्भाव के प्रतीक ‘नेहरू पुरस्कार’ से सम्मानित किया ।

वह अपनी विचारधारा के अनुकूल नए पाकिस्तान का सपना संजोए हुए थे। अपने विचार को साकार रूप देने के लिए उन्होंने जी.एम. सैयद के सहयोग से सिन्ध, बलोच और पख़तून फ्रंट की स्थापना की। पाकिस्तान सरकार ने उनके सिन्ध प्रवेश पर पाबन्दी लगा दी। इतनी वृद्धावस्था में भी निरन्तर संघर्ष से जूझते रहने के कारण उनके फेफड़े ख़राब हो गए।

भारत सरकार के निमन्त्रण पर वह मई, 1987 में अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान, दिल्ली में इलाज के लिए भारत आए। इलाज में सफलता नहीं मिल सकी। उन्हें वापिस पेशावर ले जाया गया। पेशावर ले जाने से पूर्व ही 14 अगस्त, 1987 को भारत सरकार ने उन्हें सत्य और अहिंसा के पथ पर चलते हुए जीवन-भर संघर्ष करने के लिए भारतरत्न के सर्वोच्च अलंकरण से विभूषित किया। लम्बी अचेतन अवस्था के बाद 20 जनवरी, 1988 को प्रातः इस अजेय सेनानी ने मौत को गले लगा लिया। उनकी अन्तिम इच्छानुसार अफ़गानिस्तान के जलालाबाद नामक स्थान पर उन्हें दफना दिया गया ।

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