तपस्या का महत्व, केवल धर्म एवं अध्यात्म तक ही सीमित नहीं….

बलिदान इसका अर्थ है अपने वैदिक कर्तव्यों और सामाजिक दायित्वों को पूरा करना, भले ही वे आनंद दायक न हों। जब भगवान की प्रसन्नता के लिए किया जाता है तो बलिदान को पूर्ण माना जाता है। दूसरे अर्थों में बलिदान किसी नेक सामाजिक कारण हेतु मृत्यु या हत्या को प्राप्त होना होता है। जैसे पृथ्वीराज चौहान, गुरु तेग बहादुर, बन्दा बैरागी, चन्द्र शेखर अजाद, भगत सिन्ह, राज गुरु, खुदिराम बोस आदि देशभक्त देश की स्वतन्त्रता के लिये अपना जीवन बलिदान किया। जीवन बलिदान करने के पश्चात आप यह नहीं देख सकते कि आपके जीवन के बलिदान का क्या हुआ जबकि त्याग का परिणाम आप जीते जी देख सकते हैं या अनुभव कर सकते हैं।

ईश्वर प्राप्ति के लिए चार प्रकार के बलिदान का उल्लेख किया जाता है। भक्ति, जीवन बलिदान, संपत्ति का बलिदान, और प्रेम का बलिदान। भक्ति एक प्रकार का ऐसा बलिदान है जिसमें व्यक्ति खुद को ईशवर को समर्पित कर देता है और वे दिन रात अपने आराध्य की ही बातें और उनके गुणों के बारे में सोचता है। दूसरों की जरूरतों के लिए योगदान देना उदारता के बलिदान के रूप में देखा जाता है। इस दर्शन के अंतर्गत हमें अपने शत्रुओं से भी उदारतापूर्वक व्यवहार करना चाहिए ‘यदि वह भूखा हो तो उसे खाना खिला दें। यदि प्यासा हो तो उसे पानी पिला दें। यह भी एक प्रकार की ईश्वर भक्ति है, उदारता उसे आश्चर्यचकित कर देती है और वह शत्रुता की भावना का त्याग कर सकता है। प्रेम का बलिदान भलाई करना और उदारता दिखाना न भूले, क्योंकि ईशवर ऐसे बलिदानों से प्रसन्न होते हैं। अच्छा करने का अर्थ है उन चीजों को छोड़ देना जो अच्छी नहीं है।

पवित्र पुस्तकों का अध्ययनः दैवीय प्रकृति की साधना का एक महत्वपूर्ण पहलू है शास्त्रें से ज्ञान को ऊपर उठाना। जब बुद्धि उचित ज्ञान से प्रकाशित हो जाती है तो व्यक्ति के कर्म स्वाभाविक रूप से उदात्त हो जाते हैं। धार्मिक ज्ञान ही जीवन का आधार और संचार है और यह धार्मिक ज्ञान हमें पवित्र पुस्तकों अर्थात गीता, रामायण, कुरान, बाइबल, और गरुग्रन्थ साहिब इत्यादि के माध्यम से मिलता है। धार्मिक ज्ञान हमें बताता है- जीवन क्या है? हमें जीवन कैसे जीना चाहिए? और जीवन में आने वाली परेशानी से हम कैसे बाहर निकल सकते हैं? क्योंकि हमारे धार्मिक ग्रंथ और संबंधित किताबों में जीवन से जुड़ी घटनाएं बड़े ही सलीके से बतायी गयी है।

धार्मिक ग्रंथो की कथाओं के सार से हम जीवन में होने वाली घटनाओं से सही परिणाम निकाल सकते हैं। हर धर्म के अपने अलग त्योहार और रीति रिवाज होते हैं। धर्म हमें हर एक की सभ्यता को बताता है कि वो किस धर्म से जुड़ा हुआ है। हर धर्म की अलग अलग धार्मिक ग्रंथ है। जिन्हें पढ़ कर इन्सान जीवन जीने के लिए सही मूल्यों जैसे कि प्यार, दया, परोपकार, हमदर्दी, आदर और तालमेल अपने जिंदगी में शामिल करता है। और धर्म ही हमें इन्सानियत सिखाता है। इसलिए जीवन के अर्थ एवं उद्देश्य को समझने में, धर्म हमारी सहायता कर सकता है। ज्ञान एवं कर्म, दोनों मुक्ति के मार्ग बताए गये हैं। इसलिए परित्र पुस्तकों का अध्यन व्यक्ति के प्रमुख लक्षणों में एक होना चाहिए।

तपस्याः शरीर-मन-इंद्रियां ऐसी हैं कि यदि हम उन्हें लाड़-प्यार करते हैं। तो वे सुख-साधक बन जाते हैं। लेकिन यदि हम उन्हें संयमित करते हैं। तो वे अनुशासित हो जाते हैं। इस प्रकार, तपस्या शरीर, मन और बुद्धि को शुद्ध करने के लिए कठिनाइयों की स्वैच्छिक स्वीकृति है। मनुष्यों और देवताओं के अतिरिक्त दानव भी तपस्या के महत्व को स्वीकार करते हैं। क्योंकि तपस्या से उन्हें शक्तियों की प्राप्ति होती हैं। फिर इन्हीं शक्तियों के बूते मनुष्य और देवता सर्जन का कार्य करते हैं, तो दानव विध्वंस का खेल खेलते रहते हैं।

तपस्या का महत्व केवल धर्म एवं अध्यात्म तक ही सीमित नहीं है। बल्कि जीवन के दूसरे क्षेत्रें में भी इसका काफी महत्व है। जब मनुष्य तप के माध्यम से साधना में लीन होता है, तो उसे अलौकिकता की प्राप्ति होती है। जैसे-जैसे उसकी साधना बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे वह स्पष्ट रूप से इस लाभ को महसूस करने लगता है। इसका अनुभव अक्सर तपस्वी लोग करते रहते हैं। तप का अवलंबन करके ही मनुष्य में आंतरिक प्रसन्नता और आनंद की अनुभूति होती है, जो इस संसार की किसी भी वस्तु में नहीं मिल सकती। क्योंकि धर्म ग्रंथों में इसकी पुष्टि होती है।

तपस्या करने वाला मनुष्य ही अध्यात्म में विश्वास करता है और अध्यात्म ही हमें अच्छे कर्म की ओर ले जाता है। इससे हमें निस्वार्थ भाव से कर्म करने की प्रेरणा मिलती है। निस्वार्थ कर्म ही मनुष्य को अपने लक्ष्य अर्थात् ईश्वर की प्राप्ति करा सकता है। कर्म शरीर, वाणी और मन से किए जाते हैं। प्रत्येक कर्म का नियत परिणाम होता है। परिणाम कारण में वैसे ही निहित रहता है, जैसे बीज में वृक्ष। प्रत्येक कर्म का हमारे ऊपर तुरंत परिणाम होता है। कोई इसे स्वीकार करे या न करे।

उसके मन की प्रत्येक वृत्ति उसके जीवन पर अमिट छाप डाल देती है और उसके जीवन निर्माण का विकास उसी के अनुसार अच्छा या बुरा होता है। यदि मेरे मन में आज गलत विचार उत्पन्न होते हैं और मैं उनको रोक नहीं पाता, तो कल अधिक तत्परता से ऐसे विचारों का प्रादुर्भाव होगा। लेकिन तपस्या का सहारा लेकर हम ऐसे विचारों पर अंकुश लगा सकते हैं। इतना ही नहीं हम तपस्या और साधना के जरिए अपने व्यक्तित्व को भी निखार सकते हैं।

तपस्या की शक्ति के सहारे हम अपनी कमजोरियों पर विजय प्राप्त कर सकते हैं और स्वयं को मजबूत बना सकते हैं। ईर्ष्या, लोभ और मोह जैसी कमजोरियों से छुटकारा पा सकते हैं और अपने मन को अपने वश में रख सकते हैं। तपस्या के माध्यम से ही हम अपनी अंतरात्मा को शुद्ध कर सकते हैं। जिससे हमें शुद्ध संकल्प, उमंग, उत्साह व ऊर्जा प्राप्त होती है। हमारे मन में व्यर्थ और नकारात्मक विचारों का प्रभाव बंद हो जाता है और आंतरिक बल, क्षमता व प्रतिरोधक शक्ति बढ़ाने वाले सकारात्मक विचार उत्पन्न होने लगते हैं। तपस्या का फल हमें इस लोक में तो मिलता ही है, इसके साथ-साथ हमें परलोक में भी इसका फल प्राप्त होता है।

श्रीरामचरितमानस में तुलसीदास जी ने लिखा है कि तपस्या की शक्ति से ही विधाता प्रपंच रचते हैं। तपस्या की शक्ति से ही विष्णु पूरी दुनिया का पालन-पोषण करते हैं। तपस्या की शक्ति से ही भगवान शिव सहांर करते हैं और तपस्या की शक्ति से ही शेष नाग धरती का भार वहन किए हुए हैं। हम कह सकते हैं कि पूरी सृष्टि का आधार ही तपस्या की शक्ति है। तपस्या और साधना का आश्रय लेकर ही हम अपनी शक्ति को पहचान सकते हैं और उससे कोई भी लाभ प्राप्त कर सकते हैं। इसलिए हमें तपस्या के महत्व को समझना चाहिए और उससे लाभ उठाना चाहिए। लेकिन इसके लिए अपेक्षित आत्मबल अर्जित करना होगा। यदि हम ऐसा कर पाए, तो इससे हमारा जीवन अवश्य सुगम और सुखमय बन जाएगा।

सीधापनः वाणी और आचरण में सरलता मन को अव्यवस्थित करती है और नेक विचारों को जन्म देती है। अंग्रेजी वाक्यांश ‘सादा जीवन, उच्च विचार’ सीधेपन के गुण के लाभों को उपयुक्त रूप से व्यक्त करता है। आधुनिक जीवन में सीधेपन को एक हद तक मूखर्ता से जोड़ा जाता है। मुंशी प्रेमचंद की पुस्तक की कहानीः दो बैलों की कथा में सीधेपन की व्याख्या बड़े ही रोचक ढंग से की गई है और इसके फायदे नुकसान हैं उसे दो बैंकों के अनुभव के माध्यम से व्यक्त किया गया है।

वे कहते हैं जानवरों में गधा सबसे ज्यादा बुद्धिमान समझा जाता है। हम जब किसी आदमी को पहले दर्जे का बेवकूफ कहना चाहते हैं, तो उसे गधा कहते हैं। गधा सचमुच बेवकूफ है या उसके सीधेपन, उसकी निरापद सहिष्णुता ने उसे यह पदवी दे दी है, इसका निश्चय नहीं किया जा सकता। गायें सींग मारती हैं, ब्याही हुई गाय तो अनायास ही सिंहनी का रूप धारण कर लेती है। कुत्ता भी बहुत गरीब जानवर है, लेकिन कभी-कभी उसे भी क्रोध आ ही जाता है, किन्तु गधे को कभी क्रोध करते नहीं सुना, न देखा। जितना चाहो गधे को मारो, चाहे जैसी खराब, सड़ी हुई घास सामने डाल दो, उसके चेहरे पर कभी असंतोष की छाया भी नहीं दिखाई देगी।

अहिंसाः इसका अर्थ है विचार, वचन या कर्म के माध्यम से अन्य जीवों के प्रगतिशील जीवन को बाधित नहीं करना। शाब्दिक रूप से अहिंसा शब्द अहिंसा के योग से बना है। अतः अहिंसा का शाब्दिक या सामान्य अर्थ है- जो हिंसा न हो। इस प्रकार किसी की हत्या न करना या किसी प्राणी को कष्ट न पहुंचाना अहिंसा है। मन में किसी का अहित न सोचना, किसी को कटुवाणी से नुकसान न पहुंचाना तथा कर्म से भी किसी भी प्राणी की हिंसा न करना, यह अहिंसा है। मुख्य रूप से अहिंसा के दो प्रकार होती है- निषेधात्मक तथा विधेयात्मक।

निषेध का अर्थ होता है किसी चीज को रोकना, न होने देना। अतः निषेधात्मक अहिंसा का अर्थ होता है किसी भी प्राणी के प्राणघात का न होना या किसी भी प्राणी को किसी प्रकार का कष्ट न देना। अहिंसा का निषेधात्मक रूप ही अक्तिाक लोगों के ध्यान में आता है किन्तु अहिंसा केवल कुछ विशेष प्रकार की क्रियाओं को न करने में ही नहीं होती है, अपितु कुछ विशेष प्रकार की क्रियाओं के करने में भी होती है, जैसे-दया, करुणा, मैत्री, सहायता, सेवा, क्षमा करना आदि। यही सब क्रिया विधेयात्मक अहिंसा कहलाती है।

गाँधीजी ने कहा है, ‘सारा समाज अहिंसा पर उसी प्रकार कायम है, जिस प्रकार कि गुरुत्वाकर्षण से पृथ्वी अपनी स्थिति में बनी हुई है।’ समाज में पग-पग पर अहिंसा की आवश्यकता है। यह एक ऐसा साधन है जो बड़े से बड़े साध्य को सिद्ध कर सकता है। अहिंसा ही एक ऐसा शस्त्र है, जिसके द्वारा बिना एक बूंद रक्त बहाये वर्गहीन समाज का आदर्श प्रस्तुत किया जा सकता है क्योंकि अहिंसा का लक्ष्य यही है कि वर्गभेद या जाति भेद के ऊपर उठकर समाज का प्रत्येक सदस्य अन्य के साथ शिष्टता और मानवता का व्यवहार करे।

अहिंसा में ऐसी अद्भुत शक्ति है, जिसके द्वारा आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक समस्याओं को सरलता पूर्वक समाहित किया जा सकता है। अहिंसा के आधार पर सहयोग और सहभागिता की भावना स्थापित करने से समाज को बल मिलता है। मानव हृदय की आंतरिक संवेदना की व्यापक प्रगति ही परिवार, समाज और राष्ट्र के उद्भव एवं विकास का मूल है।

अहिंसा में जीवन का वेग जन्म लेता है। अहिंसा अभय का मुख्य द्वार उद्घाटित करती है। अहिंसा बली की धीर वृत्ति है, जिसके आदि, अन्त और मध्य में शान्ति, प्रेम और कैवल्य का अमृत भरा है। बिना अहिंसा के समाज (तथा प्राणी मात्र) रह ही नहीं सकता। यहाँ तक कि सेना आदि हिंसक संगठनों को भी अहिंसा का आसरा लेना पड़ता है। अस्तु, समाज को जीवित रहने, विकास करने और विनाश से बचने के लिए अहिंसा की आवश्यकता है।

आदमी को जीवन के लिए ही अहिंसा की आवश्यकता है। वह सुख-शांति चाहता है और इसके वास्ते उत्पादन और निर्माण-कार्य करना होता है, यह कार्य भी अहिंसा बिना नहीं हो सकता, इसलिए भी अहिंसा आवश्यक है। ‘मानवता का मूलभूत आधार अहिंसा है-प्राणी मात्र की स्वाभाविक प्रवृत्ति अहिंसामय है। अतएव दैनिक जीवन में अहिंसा की व्यावहारिक आवश्यकता स्वतः सिद्ध है।

सच्चाईः इसका अर्थ है किसी के उद्देश्य के अनुरूप तथ्यों को विकृत करने से स्वयं को रोकना। ईश्वर परम सत्य है, और इसलिए सत्यता का अभ्यास हमें उसकी ओर ले जाता है। दूसरी ओर, असत्य, सुविधाजनक होते हुए भी, हमें ईश्वर से दूर ले जाता है। मानव जीवन में सच्चाई का बहुत महत्व होता है। क्योंकि सत्य ही वह माध्यम है। जिसके द्वारा हम किसी व्यक्ति पर विश्वास कर पाते हैं। सच्चाई ही वह कारण है जिसके द्वारा इस संसार में मानवता बची हुई है। सत्य सदैव अपरिवर्तनशील होता है जबकि झूठ परिस्थिति या समय के अनुसार बदलता रहता है।

भारतीय संस्कृति में भी सच्चाई को काफी महत्व दिया गया है और इतिहास में भी अनेकों ऐसे उदाहरण मिलते हैं जिसमें व्यक्ति ने सत्य के लिए अपना सब कुछ न्योछावर कर दिया।

राजा हरिश्चंद्र उन उदाहरणों में से एक हैं जिन्होंने सदैव सत्य का साथ दिया और समय आने पर सत्य के लिए अपना सब कुछ न्योछावर कर दिया। यही कारण है कि आज राजा हरिश्चंद्र के आगे सत्यवादी अवश्य लगाया जाता है और किसी भी व्यक्ति की ईमानदारी की तुलना राजा हरिश्चंद्र के साथ की जाती है। सच्चाई के विषय में किसी महापुरुष का वचन भी है कि सत्य को परेशान किया जा सकता है परंतु पराजित नहीं। सत्य को शुरू में बहुत परेशानियां झेलनी पड़ सकती है परंतु अंत में जीत सदैव सत्य की ही होती है।

किसी व्यक्ति को जीवन में उन्नति करने के लिए सच्चा होना अत्यंत ही आवश्यक है क्योंकि सत्य का मार्ग सदैव व्यक्ति को उन्नति की ओर ही ले जाता है। सत्यवादी व्यक्ति को कभी भी किसी बात का भय नहीं होता है, वह सदैव निडर रहता है। वहीं दूसरी ओर झूठ का मार्ग अपनाने वाला व्यक्ति अपनी बर्बादी की ओर बढ़ता जाता है और उसे सदैव उसके द्वारा बोले गए झूठ के पकड़े जाने का भय होता है।

शांतिः सद्गुण की साधना के लिए मानसिक शांति की आवश्यकता होती है। शांति में बाहरी परिस्थितियों को परेशान करने के बावजूद आंतरिक संतुलन बनाए रखने की क्षमता है। मानव जीवन के लिए मन की शांति एक ऐसा अनमोल धन है जिसकी प्राप्ति के लिए वह सदैव प्रयत्नशील रहता है। हमेशा इस मूल्यवान धन की रक्षा करना चाहता है क्योंकि यह एक ऐसा खजाना है जो आपको बड़ा भाग्यवान और ताकतवर बनाता है। रुपया-पैसा चला गया तो उतना नुक्सान नहीं होगा जितना की मन की शांति के चले जाने से होगा।

जीवन में शांति से जीने के लिए दो तरीकें ऐसे हैं जो सब के लिए जरूरी है। माफ कर दो उन्हें जिन्हें तुम भूल नहीं सकते भूल जाओ उनकों जिन्हें तुम माफ नहीं कर सकते माफ करना जीवन की एक बड़ी जीत है और यहाँ माफ करने का अर्थ सिर्फ दूसरों को नहीं खुद की गलतियों को भी है। खुद को शांत रखने के लिए माफ करना, कड़वी बातों को भूलना और नकारात्मक सोच को खुद पर हावी नहीं होने देना एक बहुत कला है।

ईश्वर ने हम सबको अलग अलग शारीरक संरचना और सोच के साथ बनाया है। इसलिए शांति पाने का तरीका भी सब के लिए भिन्न है। किसी को मेडिटेशन करके शांति मिलती है तो किसी गाने सुन कर या नाच कर, किसी को खेल कर मिलती है या बच्चो के साथ समय बिता कर। इस तरह तरीके बहुत है। लेकिन आपको अपनी रुचि के हिसाब से शांति पाने की कोशिश करते रहना होगा तभी हमारे जीवन को सार्थकता मिल पायेगी।

सर्वश्रेष्ठ लक्ष्य या सफलता प्राप्त करने के लिए मन की शांति बहुत जरूरी है। अशांत और चिंतित मन से आप किसी अच्छे परिणाम को पाने की उम्मीद नहीं कर सकते। सकारात्मक सोच रखने से जिस कार्य के होने की उम्मीद हम खो चुके होते हैं वो भी पूरा हो जाता है। किसी ने सच ही कहा है- शांति का कोई मार्ग नहीं हैं, बल्कि शांति खुद ही एक मार्ग हैं।

सुख प्राप्ति का सबसे अच्छा मार्ग मन की शांति है। शांति की शुरुआत हमारी खुशी या मुस्कराहट के साथ होती है। हमारे मन की शांति खुद के मन से ही शुरू होकर और मन पर ही खत्म हो जाती है। संसार का सबसे सुखी व्यक्ति वही है जिसका मन शांत है। अगर आप सोचते हैं कि आप हर समय परेशान नहीं रहें तो आपको खुद को शांत रखने की कला सीखनी होगी।

एक शांत और प्रसन्न चित्त मष्तिष्क बड़ी से बड़ी समस्या को भी आसानी से हल कर लेता है। एक शांत दिमाग से सही निर्णय लेने में सक्षम होता है। इसलिए मन की शांति के महत्व को समझना बहुत जरूरी है। जिंदगी की महत्वपूर्ण दौलतों में से एक है मन की शांति। अगर आप एक सच्चे इंसान बनना चाहते हैं तो मन की शांति बनाये रखने के बारे में भी सोचिये। इस दौलत के बिना आप अमीर नहीं बन सकते। क्योंकि ऐसी अमीरी किस काम की नहीं होती जहाँ उसे पाकर भी खुशी महसूस नहीं हो। शांति एक ऐसी चीज है जो किसी भी उपलब्धि पर मन को सुकून देती है- अशांत मन हमेशा कुछ न कुछ उधेड़बुन में ही लगा रहता है और जिंदगी के सुख-ऐश्वर्य को भोगने के आत्मिक सुख से वंचित रहता है। सुख का अनुभव करने के लिए मन का शांति होना जरूरी है।

सभी जीवों के प्रति करुणाः जैसे-जैसे व्यक्ति आध्यात्मिक रूप से विकसित होते हैं। वे स्वाभाविक रूप से आत्म-केंद्रितता से ऊपर उठते हैं। सभी जीवित प्राणियों के लिए सहानुभूति विकसित करते हैं। करुणा वह गहरी सहानुभूति है जो दूसरों के कष्टों को देखकर उत्पन्न होती है। मैकडुगल ने कहा था फ्साधारण अर्थों में करुणा या सहानुभूति एक प्रकार की कोमलता है। जो उस व्यक्ति के प्रति होती है, जिसके साथ करुणा प्रकट की जाती है। दूसरे के दुख में दुखी होना या दूसरे किसी व्यक्ति या प्राणी में एक विशेष भावना या संवेग को देखकर अपने में भी उसी तरह विशेष भावना या संवेग को देखकर अपने में भी उसी तरह की भावना या संवेग का अनुभव करना ही करुणा है। जेम्स ड्रेवर के अनुसारः ‘दूसरे के भावों एवं संवेगों के स्वाभाविक अभिव्यक्तपूर्ण चिन्हों को देखकर उसी प्रकार के भावों एवं संवेगों को अपने में अनुभव करने की प्रवृति को करुणा कहते हैं।’’

करुणा ऐसे मनोभाव से होता है जिसमें व्यक्ति दूसरे व्यक्ति के अनुरूप भावना या संदर्भ की अनुभूति करता है। जैसे एक स्त्री के रोने का विलाप करने पर दूसरी स्त्री के भी आंखों में आंसू आना है। यह उसकी शारीरिक अभिव्यक्ति से प्रामाणित होता है। इस प्रकार कई अच्छी विशेषताओं को व्यक्ति मैं करुणा के द्वारा विकसित किया जा सकता है। करुणा में दो पक्ष होते हैं एक पक्ष करुणा दिखाने वाला तथा दूसरा पक्ष करुणा प्राप्त करने वाला। करुणा में व्यक्ति के संवेगों एवं भाव की प्रधानता उसकी क्रियाओं एवं व्यवहारों से अधिक होती है। करुणा में करुणा प्रकट करने वाले व्यक्ति में ठीक उसी तरह का संवेग या भाव उत्पन्न होता है जिस तरह का भाव या संवेग करुणा प्राप्त करने वाला व्यक्ति दिखलाता है।

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