श्रीमद आदि शंकराचार्य

भारतीय संस्कृति में जिनका नाम आदर और सम्मान के साथ लिया जाता है, ऐसे माँ भारती के एक महान दार्शनिक और धर्म प्रवर्तक आदि शंकराचार्य जी है। जिन्होंने भारतीय संस्कृति के अद्वैत और वेदांत को मूलभूत आधारों के साथ समाज के सामने पेश किया। उस काल की समाज में चल रही विविध विचारधाराओं का उन्होंने एकीकरण करके उसे वेदांत और उपनिषद के रुप में लिखकर समाज के सामने प्रसिद्ध किया है।

कहा जाता है भारत के केरल प्रांत में इसा पूर्व 788 में, आज के केरल और उस वक्त के काषल नामक ग्राम में एक ब्राह्मण कुटुंब में उनका जन्म हुआ था। उस वक्त कालानुसार वैशाख शुक्ल पंचमी (कोई कहता है अक्षय तृतीया के दिन) उनका जन्म तैतरीय शाखा के यजुर्वेदी ब्राह्मण पिता शिवगुरु भट्ट और माता शुभद्रा के घर हुआ था। यह पति-पत्नी ने बहुत दिनों तक शिव की आराधना करने बाद, उनके यहां एक पुत्र रत्न का जन्म हुआ। जन्म के समय देवज्ञ ब्राह्मणों ने उसके मस्तक पर चक्र, ललाट पर नेत्र चिन्ह और कंधे पे शूल का चिन्ह पाने के बाद उनका नाम शंकर रखा, क्योंकि वो शिव का अवतार मानते थे। किंतु उनके जन्म के तीन साल के बाद ही, उनके पिता का देहावसान हो गया। बहुत पहले से ही उनकी माता पर उनकी परवरिश की जिम्मेदारी आ गई। किन्तु उन्होंने उसमें कोई कसर नहीं छोड़ी। शंकर बचपन से ही बड़े मेधावी और प्रतिभाशाली बालक थे। पांच वर्ष की आयु में उन्हें यज्ञोपवित दिया गया। जिसके बाद वो गुरुकुल पढ़ाई के लिए चले गए। जहां उन्होंने 2 वर्ष में ही वेद, उपनिषद पुराण, रामायण, महाभारत आदि ग्रंथ कंठस्थ कर लिए। जो देख उनके गुरुजन भी चकित रह गए, और उन्होंने कहा इससे ज्यादा हमारे पास उसे पढ़ाने के लिए कुछ नहीं शेष रहा। छह वर्ष की आयु में तो वे प्रकांड पंडित बन गये। तब उनकी माता ने उनके विवाह की सोची। लेकिन वो संसार से दूरी बनाना चाहते थे, इस लिए आठ साल की आयु में उन्होंने संन्यास ग्रहण कर लिया। कहा जाता है कि, एकलौती संतान को संन्यास लेने की अनुमति माता नहीं दे रही थी, इसलिए उन्होंने माता को नदी किनारे ले गए। वहां मगरमच्छ ने उनका पाव पकड लिया। तब उन्होंने माँ से कहा आप मुझे सन्यासी बनने की अनुमति दे दीजिए, वर्ना यह मगरमच्छ मुझे खा जाएगा। तब भयभीत होकर माँ ने उनको आज्ञा दे दी। तब मगरमच्छ ने शंकर के पैर छोड़ दिए। यह सारी बातें ताम्रपत्र में शंकर मठों में सभी उपलब्ध है। इस तरह शंकर माता की अनुमति लेकर जीवन के लक्ष्य के लिए वह निकल पड़े। जाते वक्त  माँ को वचन दिया की उनके अंतिम वक्त वो उनके पास जरुर आयेंगे। और उन्होंने ऐसा ही किया। बारह साल के पश्चात उन्होंने गाव के पास से गुजर रहे थे, तब उनको माँ की याद आई। जब वो घर आये तब माँ ने देह त्याग दिया था। तब विधि विधान के साथ उन्होंने अपने घर के आगन में ही उनका अंतिम संस्कार कर दिया। और उनके कुटुंबी जनों को भी आगे ऐसा ही करने को कह एक नया रास्ता दर्शाया। जो परंपरा आज तक चल रही है।

कहा जाता है कि, फिर उन्होंने गुरु गोविंद नाथ से संन्यास ग्रहण किया, और योग की शिक्षा प्राप्त की साथ ही अद्वेत और ब्रह्म का ज्ञान भी लिया। तीन वर्ष तक आचार्य शंकर तत्व की साधना करते रहे। वहां से वो काशी के लिए निकले जहां रास्ते में उन्हें चांडाल मिला। उन्होंने क्रोधित होकर चांडाल को उनके रास्ते से हट जाने को कहा।  तब चांडाल बोला आप मुनि के रुप में एक परमात्मा है जो की बचपन से ही मेधावी रहे है। शंकर आप परमात्मा की उपेक्षा कर रहे है इसलिए आप अ-ब्राहमण है। उसकी यह देववाणी सुन के शंकर अति प्रभावित हुए। उन्हें प्रणाम किया तभी चांडाल की जगह भगवान शिव के दर्शन हुए। पहले कुछ दिन काशी में रहने के बाद, यहा तालवन में उन्होंने मंडन मिश्र को शास्त्रर्थ में परास्त किया। मंडन मिश्र के बारे में एक दंत कथा है।

उनके आश्रम में तोता-मैंने भी वेद की भाषा बोलते थे, और उस बात का उन्हें बहुत घमंड था। और वो घमंड आचार्य शंकर ने उनसे शास्त्रर्थ करके उन्हें पराभूत करके उतार दिया। तब उनकी पत्नी भारती ने उन्हें गृहस्थाश्रम के बारे में चर्चा करने को कहा, लेकिन वो तो बाल ब्रह्मचारी थे। इसलिए उन्होंने उनसे थोडा समय मांगा। और अपना शरीर अपने शिष्यों को संभालने को कहा और राजा के यहां रानी के शरीर में परकाया प्रवेश कर गृहस्थाश्रम के बारे में जाना। बाद में वापस अपनी काया में आकर उन्होंने भारती जी को चर्चा में हराया। इस तरह काशी परिभ्रमण में उन्होंने कई पंडितो को शास्त्रर्थ में परास्त किया और उनके चेलों ने उनको गुरु पद पर बिठा दिया। और आचार्य शंकर से शंकराचार्य बन गए। अब आचार्य शंकर महासागर बन गए थे, जिसमें अनेक वाद और वेद की गंगा आकर मिली हुई थी। और सगुण भक्ति की धाराएं एक साथ सजने लगी थी। उन्होंने सगुन और निर्गुण दोनों का समर्थन करने के लिए सगुन को उपासना की सीडी बनाई।

उन्होंने ब्रह्म सत्य और जगत मिथ्या का उद्घोष किया। उन्होंने भगवान शिव पार्वती, गणेश विष्णु आदि के भक्तिपूर्ण स्रोत की रचनाएं भी की है। भक्ति रस के साथ ही उन्होंने विवेक चुडामणि जैसे ग्रंथो की भी रचनाएं की है। पूरे भारत में भ्रमण करते उन्होंने चार मठों की स्थापना भी की। और पूरे देश को सांस्कृतिक, धार्मिक, अध्यात्मिक और भौगोलिक एकता से बांधते हुए एक सूत्र में बांध दिया। केरल से पैदल चलते वाराणसी होकर बदरिकाश्रम पहुंचे थे, वो जहां उन्होंने ‘ब्रह्मसूत्र’ पर भाष्य लिखा था। रास्ते में आते सभी स्थानों पर देश में चल रही कुरीतियों को दूर करते-करते, उन्होंने धर्म की स्थापन की। यह कोई सामान्य मानव का काम नहीं है। कहा जाता है की केरल से लेकर काशी से कन्याकुमारी  तक उन्होंने परिभ्रमण करते वैदिक धर्म की पुनः स्थापना कर भारतीय संस्कृति का झंडा गाड़ दिया। वह जब ब्राह्मण कर रहे थे, तब काशी के पास एक जगह उन्होंने कुमारिल भट्ट नामक ब्राह्मण को खुद को आत्मदंडित करते देखा।

उन्होंने देखा वैदिक संस्कृति को बचाने के लिए कुमारिल भट्ट तत्कालीन समाज के, पंडितो को शास्त्रर्थ में नहीं हरा सके। और दंड स्वरूप मूंगफली के छिलकों का ढेर बनाकर, उसमे नीचे से अग्नि प्रज्वलित करके खुद को जिंदा जलाने के लिए उस पर बैठ गए। एक माचिस की जलती तीली भी ऊँगली पर लग जाए तो कितनी जलन होती है। और यहां तो पूरा शरीर भूनने के लिए, अंगारों पर रख दिया था। प्राण भी तिल-तिल कर निकल रहे थे। सब देखते थे, पर कोई उनको नीचे नहीं उतार रहा था। क्योंकि उनकी शर्त थी की, उनका अधूरा काम जो पूरा करेगा उसके बाद ही वो निचे आयेगे। लेकिन कोई माइ का लाल यह हिम्मत नहीं करता था। खुद को नामी प्रचंड कहलाने वाले, पंडित भी यह हिम्मत नहीं जुटा पा रहे थे। ऐसा प्रकोप था उस काल के सनातनी पंडितो का, जिनको हराना नामुमकीन जैसा लगता था। तभी वहां से युवा शंकर निकले, उन्होंने देखा गांव के बीचों बीच यह तमासा चल रहा है, लोग दूर दूर से आ रहे है, देख रहे है, अफसोस भी कर रहे है पर उस व्यक्ति को बचाने कोई आगे नहीं आ रहा है। तब शंकर वहा पहुंचे उन्होंने उन्हें वचन दिया की, आपकी वैदिक संस्कृति को बचाने की यह कोशिश मै पूर्ण करूँगा, अब आप निचे आ जाईए। किन्तु तब तक कुमारिल  भट्ट का आधे से ज्यादा शरीर जल चूका था। यह देख शंकराचार्य की आखों में आसू आ गए। उन्होंने उनका अधुरा वैदिक संस्कृति बचाने का झंडा अपने हाथ में लेकर, पूरे भारत में भ्रमण किया और फिर से वैदिक संस्कृति का झंडा लहरा दिया और बौद्ध धर्म और विचारों को देश निकाल उनके नीर-कर्मण्य वादातम्क विचार को देश निकाला दे दिया।

इस तरह उन्होंने दक्षिण भारत के केंद्र में स्थित भगवान शिव, महाराष्ट्र के गणपति, गुजरात की माँ अंबा, पूर्वोत्तर की सूर्य उपासना और श्रीकृष्ण को जोड़ के पंचायतन पूजा का मंत्र दिया। इस तरह उन्होंने पूरे भारत को एक सूत्र में बांध लिया। भक्ति में आई अकर्मण्यता को उन्होंने देश निकाला कर दिया। भक्ति और कर्मयोग को जोड़ के पुन्ह भक्ति की करोड़ रज्जू को स्थिर कर दिया। उनके द्वारा स्थापित चार मठों में दक्षिण में श्रुंगेरी मठ, ओड़िसा में जगन्नाथपूरी में गोवर्धन मठ, द्वारका में शारदा मठ और बदरिकाश्रम में ज्योर्ति मठ शामिल है।

जीवन की 32 वर्ष की आयु में उन्होंने इतना सारा काम करके इस दुनिया से विदाई ले ली। शायद इसीलिए इन्हें आदि गुरु शंकराचार्य कहा जाता है। भगवान ने भी गीता में कहा है जब जब धर्म पर अन्याय होगा तब तब मैं उसे बचाने इस धरती पर आऊंगा। शायद वैदिक धर्म को बचाना उस अज्ञात शक्ति ने अपने हाथ में रखा है इसीलिए जब जब जरुरत आन पड़ती है वो शक्ति कोई न कोई रूप में प्रगट हो जाती है।

 

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