डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन्, भारत रत्न-1954
(जन्म-5 सितम्बर 1888,मृत्यु – 17 अप्रैल 1975)
डॉ. राधाकृष्णन् का जन्म 5 सितम्बर 1888 को, आन्ध्र-प्रदेश के तिरुतणि नामक गांव में हुआ। उनके पिता वीरस्वामी पुरोहिताई करते थे, साथ ही शिक्षण का कार्य भी करते थे परिवार में उन्हें धार्मिक वातावरण मिला। पिता ने ही बालक राधाकृष्णन् को अक्षर-ज्ञान दिया। बारह वर्ष की आयु तक गांव में ही रहे। उनकी शिक्षा का आरम्भ मिशनरी स्कूल से हुआ।
राधाकृष्णन् बाल्यकाल से ही संयमी व मेधावी थे। पढ़े हुए का मन-ही-मन विश्लेषण करना उन्हें विशेष रूप से प्रिय था। उन्होंने अन्य लोगों की भांति ईसाई धर्म की हिन्दू धर्म पर श्रेष्ठता की इच्छा को कभी बल नहीं दिया, बल्कि ईसाइयों की अपने धर्म के प्रति निष्ठा और त्याग देखकर वह हिन्दू धर्म की ओर तीव्र गति से आकर्षित हुए। इस तरह माता-पिता द्वारा दिए गए भारतीय संस्कारों की अमिट छाप कभी भी धूमिल नहीं हुई।
कम उम्र में ही स्वामी विवेकानंद और वीर सावरकर को पढा तथा उनके विचारों को आत्मसात भी किया। 1902 में मैट्रिक स्तर की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की और छात्रवृत्ति भी प्राप्त की । डॉ राधाकृष्णन ने 1916 में दर्शन शास्त्र में एम. ए. करने के बाद, वह मद्रास के क्रिश्चियन कॉलेज में दाखिल हुए। क्रिश्चियन कॉलेज, मद्रास ने उनकी विशेष योग्यता के कारण छात्रवृत्ति प्रदान की। उन्हीं दिनों उन्होंने स्वामी विवेकानन्द के भाषण सुने। उनके भाषणों के एक-एक शब्द से सच्चे हिन्दू का परिचय मिलता था। डॉ. राधाकृष्णन् उस अनूठे व्यक्तित्व से अभिभूत हो गए और स्वयं हिन्दू होने के स्वाभिमान से भर उठे । हिन्दू धर्म में फैली सारी गलतफहमियां भारत के इस आधुनिक राजर्षि ने ऐसे दूर कर दीं कि पश्चिम के विद्वानों को हिन्दू-दर्शन के सम्बन्ध में उनका लोहा मानना पड़ा।
मेधावी राधाकृष्णन् ने एक बार कहा था, “मैं इंग्लैंड पढ़ने नहीं गया, पढ़ाने अवश्य जाऊंगा।” उनकी इस उक्ति व स्वाभिमान युक्त स्वर ने छात्रों को मोहित कर लिया। विश्वकवि रवीन्द्रनाथ पर लिखी उनकी पुस्तक ‘रवीन्द्रनाथ का दर्शन’ भी उन्होंने इसी काल में लिखी। लोकमान्य तिलक भी उनकी विद्वत्ता से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने अपने ग्रन्थ ‘गीतारहस्य’ में राधाकृष्णन् के लेखों के अंश उद्घृत किए।
कलकत्ता विश्वविद्यालय में डॉ. राधाकृष्णन् ने अध्यापन के अलावा विविध क्रियाकलापों में भाग लेना आरम्भ कर दिया। यहीं पर एक शिक्षक के जीवन में प्रशासनिक योग्यता के लक्षण भी दिखाई देने लगे। उस समय तक डॉ. राधाकृष्णन् के लेख संसार की सभी प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में सम्मान सहित प्रकाशित होने लगे थे। ‘हिस्बर्ट जनरल’ में प्रकाशित उनके लेखों से उसके सम्पादक एल.पी. जैक्स प्रभावित हुए और उन्होंने डॉक्टर साहब को ऑक्सफ़ोर्ड के मैनचेस्टर कॉलेज में व्याख्यान देने के लिए आमन्त्रित किया।
1915 में डॉ.राधाकृष्णन की मुलाकात महात्मा गाँधी जी से हुई। उनके विचारों से प्रभावित होकर राधाकृष्णन ने राष्ट्रीय आन्दोलन के समर्थन में अनेक लेख लिखे। 1918 में मैसूर में वे रवीन्द्रनाथ टैगोर से मिले । टैगोर ने उन्हें बहुत प्रभावित किया , यही कारण था कि उनके विचारों की अभिव्यक्ति हेतु डॉक्टर राधाकृष्णन ने 1918 में ‘रवीन्द्रनाथ टैगोर का दर्शन’ शीर्षक से एक पुस्तक प्रकाशित की। वे किताबों को बहुत अधिक महत्त्व देते थे, उनका मानना था कि, “पुस्तकें वो साधन हैं जिनके माध्यम से हम विभिन्न संस्कृतियों के बीच पुल का निर्माण कर सकते हैं।“ उनकी लिखी किताब ‘द रीन आफ रिलीजन इन कंटेंपॅररी फिलॉस्फी’ से उन्हें अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान मिली।
वह कलकत्ता विश्वविद्यालय की ओर से सन् 1936 में ब्रिटिश साम्राज्य के विश्वविद्यालयों की कॉन्फ्रेंस में प्रतिनिधि बनाकर भेजे गए। अमेरिका के हार्वर्ड विश्वविद्यालय में अपने भाषणों द्वारा उन्होंने श्रोताओं को मन्त्रमुग्ध कर दिया। उनके अद्भुत आत्मविश्वास के आगे सब नतमस्तक हो जाते थे। डॉक्टर साहब के इन व्याख्यानों के बाद प्रकाश में आई उनकी प्रसिद्ध पुस्तक ‘द हिन्दूव्यू ऑफ़ लाइफ़’ (जीवन का हिन्दू दृष्टिकोण) और तभी से संसार में डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन् एक अद्वितीय दार्शनिक के रूप में प्रतिष्ठित हो गए।
उनमें एक विशेषता थी। वह एक योग्य श्रोता भी थे। विद्वानों की सभा में जब सभी अपने-अपने मतों व तर्कों पर वाद-विवाद में उलझे रहते, ऐसे में हमारे युवा प्रोफ़ेसर चुपचाप सुनते रहते। जहां उन्हें लगता कि बोलना अति आवश्यक है, वहीं बोलते। उनके धाराप्रवाह वक्तव्यों में कई भाषाओं और धर्म-ग्रन्थों के उद्धरण शामिल रहते इनके व्याख्यानों से पूरी दुनिया के लोग प्रभावित थे|
प्रोफ़ेसर सर्वेपल्लि राधाकृष्णन् ने योग्य शिक्षकों की नियुक्ति की। कुछ ही समय में भवन तैयार हो गए। विज्ञान विभाग आरम्भ होने में भी अधिक समय नहीं लगा। कलकत्ता में वह अभी भी दर्शनशास्त्र के प्रोफ़ेसर ही थे । उस पद का भी कुशलतापूर्वक निर्वाह होता रहा। कभी-कभी यह सोचने पर हमें विवश होना पड़ता है कि वह इतने अधिक कार्यों को कम समय में इतनी ख़ूबसूरती से कैसे पूरा कर देते थे!
उन्हें सम्मान पर सम्मान मिलते रहे, किन्तु फिर भी उन्होंने अपनी शान्त प्रकृति, विनय-भाव और मधुरता का परित्याग कभी नहीं किया। महामना मालवीय की हार्दिक इच्छा थी कि राधाकृष्णन् को काशी विश्वविद्यालय का कुलपति बनाया जाए। वह स्वयं उनके पास पहुंचे और अपना प्रस्ताव रखा। राधाकृष्णन् ने अवैतनिक कुलपति के रूप में कार्य करना स्वीकार कर लिया। उन्होंने इस विश्वविद्यालय की जी-जान से सेवा की। धन-संग्रह के मामले में भी वह बेहद उत्साही रहे। विश्वविद्यालय के उत्थान के लिए चन्दा मांगने में उन्होंने संकोच नहीं किया।
जिन दिनों वह कलकत्ता में थे, तो ऑक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालय में पूर्वीय दर्शन के भी प्रोफ़ेसर थे। इस प्रकार अब वह कलकत्ता, वाराणसी व ऑक्सफ़ोर्ड तीनों स्थानों का काम देखने लगे। सन् 1940 में वाराणसी में व्यस्तता के कारण उन्हें कलकत्ता से त्याग-पत्र देना पड़ा।
यूं तो राधाकृष्णन् ने किसी भी प्रकार के स्वतन्त्रता आन्दोलन में प्रत्यक्ष रूप से भाग नहीं लिया, किन्तु फिर भी वह एक महान स्वतन्त्रता सेनानी व देश-प्रेमी भी रहे। 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन के समय विश्वविद्यालय पर अंग्रेज़ सरकार की बुरी दृष्टि पड़ी और उस पर ताला लगाने का कुचक्र भी रचा गया, किन्तु उन्होंने सूझबूझ व धैर्य का प्रयोग कर अप्रिय स्थिति को उत्पन्न ही नहीं होने दिया।
राधाकृष्णन् ने एक शिक्षा-शास्त्री के रूप में कई सम्मेलनों की अध्यक्षता की। वह सन् 1952 तक यूनेस्को में भारतीय प्रतिनिधि के रूप में कार्यरत रहे । इससे पहले सन् 1950 में राधाकृष्णन् मास्को में रूस के राजदूत नियुक्त किए गए। यह उनके धीर-गम्भीर दार्शनिक स्वभाव के लिए चुनौती-भरी परीक्षा थी। मास्को की कड़कड़ाती सर्दी में भी उन्होंने अपना सादगीपूर्ण बाना नहीं छोड़ा। अनेक नियम व कायदे-कानून थे, जिनका पालन करना असम्भव था। जैसे रात्रि-भोजों में देर तक रुकना। राजनीतिज्ञों को यह बहुत आश्चर्यजनक लगता था कि भारतीय राजदूत रात दस बजे के बाद कहीं नहीं रुकते। राधाकृष्णन् मानते थे कि स्वस्थ शरीर के लिए रात को शीघ्र सोना व प्रातः जल्दी उठना अति आवश्यक है।
राधाकृष्णन् व स्तालिन की परस्पर भेंट भी बहुत रोचक थी। स्तालिन ने पहली फुरसत में ही उन्हें बुलवाया। स्तालिन उनसे मिलकर प्रसन्न हुए और उन्हें एक देशभक्त कहकर सम्मान भी दिया। सन् 1952 में राधाकृष्णन् रूस से लौट रहे थे। विशेष रूप से विदाई भोज का आयोजन दोपहर में रखा गया। यह नियम उस व्यक्ति के लिए तोड़ा गया था, जिसे हम राधाकृष्णन् के रूप में जानते हैं। स्तालिन उन दिनों रोग से पीड़ित थे। उन्होंने राधाकृष्णन् से भेंट की और कुछ क्षणों में ही दोनों हृदय परम आत्मीयता से भर गए।
1952 में जवाहरलाल नेहरू के आग्रह पर राधाकृष्णन सोवियत संघ के विशिष्ट राजदूत बने और इसी साल वे उपराष्ट्रपति के पद के लिये निर्वाचित हुए। डॉ. राधाकृष्णन 1962 से 1967 तक भारत के राष्ट्रपति रहे, और कार्यकाल पूरा होने के बाद मद्रास चले गए। वहाँ उन्होंने पूर्ण अवकाशकालीन जीवन व्यतीत किया। उनका पहनावा सरल और परम्परागत था, वे अक्सर सफ़ेद कपडे पहनते थे और दक्षिण भारतीय पगड़ी का प्रयोग करते थे। इस तरह उन्होंने भारतीय परिधानों को भी पूरी दुनिया में पहचान दिलाई।
इसके साथ ही वह दिल्ली विश्वविद्यालय के कुलपति बने। उन्हें साहित्य अकादमी का उपाध्यक्ष भी बनाया गया। सन् 1954 में डॉ. राधाकृष्णन् को भारतरत्न की उपाधि से सम्मानित किया गया। उनका जन्मदिन 5 सितम्बर भारत में शिक्षक दिवस के रूप में मनाकर उनके प्रति सम्मान प्रकट किया जाता हैं। लम्बी बीमारी के बाद सर्वपल्ली राधाकृष्णन जी का निधन 17 अप्रैल 1975 हो गया। राधाकृष्णन को मरणोपरांत मार्च 1975 में अमेरिकी सरकार द्वारा टेम्पलटन पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। इस पुरस्कार को ग्रहण करने वाले यह प्रथम गैर-ईसाई सम्प्रदाय के व्यक्ति थे।