25. वल्लभभाई पटेल- भारतरत्न- 1991-(मरणोपरांत)

25. वल्लभभाई पटेल, भारतरत्न- 1991-मरणोपरांत

(​​जन्म-31 अक्टूबर 1875 – मृत्यु- 15 दिसंबर 1950)

“आप तो किसान हैं। किसान कभी दूसरे की ओर हाथ नहीं पसारता। आप सब मेरे हैं, फिर डर किस बात का? आप किसी से न डरें। न्याय के लिए, प्रतिष्ठा के लिए बराबर लड़ें। यहां अमर होकर कौन आया है। देश के लिए अपने-आप को मिटाकर संसार में अपनी अमर कीर्ति फैला दीजिए।”

इस जोशीले आवाहन के द्वारा किसानों में क्रान्ति का संचार करने वाले, सरदार वल्लभभाई पटेल का जन्म 31 अक्टूबर 1875 को, गुजरात के खेड़ा ज़िले के करमसद ग्राम के एक किसान परिवार में हुआ था।

इनके पिता झवेरभाई पटेल, एक साधारण किसान थे, किन्तु उनके भीतर भी ब्रिटिश साम्राज्य के लिए गुस्सा था। 1857 की आज़ादी की पहली लड़ाई में उन्होंने सक्रिय भाग लिया था। इस प्रकार सरदार पटेल एक क्रान्तिकारी पिता के पुत्र थे।

सरदार पटेल की आरम्भिक शिक्षा उनके गांव में हुई और बाद में उन्होंने नडियाद तथा बड़ौदा में शिक्षा प्राप्त की। नाडियाद में दसवीं कक्षा पास करने के बाद इन्होंने मुख़तार की परीक्षा पास की तथा गोधरा में मुख्तारी करने लगे। अंग्रेज़ मजिस्ट्रेट उनके तर्कों को सुनकर हैरान रह जाते थे।

गोधरा में मुख़तारी के दौरान, उनकी पत्नी की मृत्यु का समाचार मिला। उन्होंने तार पढ़ा और मेज़ पर रख दिया। उस समय वह किसी ज़रूरी काम में डूबे हुए थे। काम पूरा हो जाने के बाद उन्होंने यह बात अपने मित्रों को बताई। उस समय उनकी ऐसी गम्भीरता देखकर मित्रों को यह भांपते देर नहीं लगी कि यह व्यक्ति कठिन से कठिन हालात में भी धैर्य रखने वाला है।

सरदार वल्लभभाई पटेल ने लन्दन से प्रथम श्रेणी में बैरिस्टरी पास की और उसके बाद अहमदाबाद में प्रैक्टिस शुरू कर दी। पटेल पर गांधी जी का गहरा प्रभाव था। 1918 में गांधी जी ने किसानों पर सरकार द्वारा, किए जा रहे अत्याचारों का विरोध किया। इस सत्याग्रह में भाग लेने वालों में पटेल पहले व्यक्ति थे और उन्होंने सत्याग्रह का प्रदर्शन कुछ इस प्रकार किया कि अंग्रेज़ सरकार को झुकना पड़ा। वह बड़े साहसी तथा निडर व्यक्ति थे। उनके जीवट की प्रशंसा ब्रिटिश राज में पुलिस सुपरिंटेंडेंट मिन्द्रोली ने भी की थी।

जलियांवाला बाग हत्याकांड के बाद सरदार पटेल ने पूरी तरह बैरिस्टरी छोड़ दी तथा गांधी जी के पक्के अनुयायी बनकर देश-सेवा करने का व्रत ले लिया। गुजरात में 1922 के बाद जो भी आन्दोलन हुए, उनके पीछे सरदार पटेल का बड़ा हाथ रहता था। वल्लभभाई की दृढ़ता और कार्यकुशलता के अनेक उदाहरण हैं, जिनसे पता चलता है कि उनमें देशभक्ति कूट-कूट कर भरी हुई थी। उनमें ग़ज़ब की संगठन शक्ति थी। झंडा सत्याग्रह, आनन्द का सत्याग्रह तथा अन्य अंग्रेज़ी शासन विरोधी आन्दोलनों में उन्होंने सदैव आगे बढ़कर भाग लिया।

सरदार पटेल कभी भी दैन्य और पलायन में विश्वास नहीं करते थे। जब अड़ गए, तो अड़ गए। सरकार से टक्कर लेने में भी वह आगे ही रहे। चर्खा तथा खादी का प्रचार उन्होंने ख़ूब किया और कांग्रेस के रचनात्मक कार्यों से भी जुड़े रहे। गो-संवर्धन, ग्राम विकास, सहकारिता और किसान जागरण द्वारा किसानों में मेल-मिलाप तथा एकता पैदा करने के लिए भरसक प्रयास किया। वह अहमदाबाद नगरपालिका के चेयरमैन भी बने तथा पांच वर्ष तक नगर के विकास के लिए ठोस कार्य किए।

बारदोली के अहिंसक आन्दोलन में विजय से उनकी धाक दूर-दूर तक जम गई। वह एक ज़बर्दस्त नेता के रूप में उभरे। इस आन्दोलन की सफलता से वह सरदार पुकारे जाने लगे। यह ख़िताब उनके नाम के साथ सदैव के लिए जुड़ गया।

गांधी जी ने 1930 में नमक सत्याग्रह की घोषणा की। पटेल इस सम्बन्ध में बोरसद की एक सभा में भाषण देना चाहते थे। सरकार को यह मंजूर नहीं था। इसलिए उन्हें पकड़ लिया गया और तीन महीने के कारावास के साथ पांच सौ रुपए जुर्माने की सज़ा सुना दी। कारावास से मुक्त होकर सरदार पटेल फिर देश-सेवा में जुट गए।

सरकार ने मनमानी करते हुए कांग्रेस कार्य-समिति को अवैध करार दे दिया तथा पं. मोतीलाल नेहरू को बन्दी बना लिया। ऐसी विषम परिस्थिति में सरदार पटेल ने सत्याग्रह की बागडोर संभाली। कुछ समय बाद ‘तिलक दिवस’ धूमधाम से मनाने तथा जुलूस निकालने को अपराध मानकर अंग्रेज़ सरकार ने उन्हें पुनः बन्दी बना लिया और फिर से तीन महीने के कारावास का दंड दे दिया।

अद्भुत नेतृत्व-क्षमता के कारण उन्हें कराची अधिवेशन में कांग्रेस का अध्यक्ष मनोनीत किया गया। इसी तरह 1931 में प्रान्तीय चुनावों में कांग्रेस विजयी हुई और प्रान्तीय सरकारों की सुव्यवस्था के लिए संसदीय समिति के अध्यक्ष भी सरदार पटेल मनोनीत किए गए। इससे स्पष्ट पता चलता है कि कांग्रेस के अन्दर उनका स्थान कितना महत्त्वपूर्ण है। 1942 का क्रान्तिकारी वर्ष आया और गांधी जी ने देश की स्वतन्त्रता के लिए अपने जीवन का अन्तिम संघर्ष करने का निश्चय किया। इस आन्दोलन में ‘अंग्रेज़ो भारत छोड़ो’ का नारा दिया गया। इसमें भाग लेने के कारण गांधी जी तथा अन्य नेताओं के साथ वल्लभभाई भी बन्दी बना लिए गए। उन्हें तीन वर्ष तक अहमदनगर दुर्ग में बन्दी बनाकर रखा गया। 1945 में जब अन्य नेता रिहा हुए, तो उन्हें भी छोड़ दिया गया। अंग्रेज़ सरकार को कांग्रेस की अनेक मांगें स्वीकार करने के लिए विवश होना पड़ा। 1946 में केन्द्र में बनी अंतरिम सरकार के वह गृह विभाग के मन्त्री बने। 1947 में आज़ादी के बाद उन्होंने गृह मन्त्रालय का कार्यभार संभाला।

भारत की आज़ादी की जंग में सरदार पटेल का बहुत बड़ा योगदान था। उनकी सूझबूझ की वजह से सैकड़ों छोटी-छोटी रियासतों में बंटा भारत एक हो सका। हैदराबाद तथा जूनागढ़ की रियासतों का बिना किसी रक्तपात के भारत में शामिल होना सरदार पटेल की मेहनत का नतीजा था। सरदार पटेल विलक्षण प्रतिभा के धनी और भारतीय राजनीति के चाणक्य थे। वह कठोर प्रशासक तथा अनुशासन बनाए रखने में मज़बूत थे। विकट परिस्थितियों में भी अचल रहकर जो भी निर्णय लेते थे वह फलदायी होता था। उनका चेहरा आभा से दमकता रहता था और जब बोलते थे, तो उनके शब्द सन्तुलित तथा प्रभावशाली होते थे।

वह राष्ट्रहित को सर्वोपरि रखते थे और कभी किसी से समझौता नहीं करते थे। यही वजह है कि आज भी भारत में ऐसे लोग हैं, जो मानते हैं कि यदि सरदार पटेल, राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन तथा रफी अहमद किदवई जैसे लोग भारत में कुछ समय और जीते, तो भारत की तस्वीर ही दूसरी होती । हिमालय जैसे व्यक्तित्व, वज्र से ज़्यादा कठोर तथा फूलों से ज़्यादा कोमल स्वभाव के धनी पटेल को राष्ट्र ने लौह पुरुष की संज्ञा दी।

देश के लिए अथक परिश्रम करते-करते उनकी काया थक गई थी और कमज़ोर होने लगी थी। एक बार उन्हें दिल का दौरा भी पड़ चुका था, फिर भी वह कोई काम अधूरा छोड़ना नहीं चाहते थे। डॉक्टर उन्हें आराम की सलाह देते थे, परन्तु वह चाहते थे कि मृत्यु से पहले नए और मज़बूत भारत का निर्माण कर लें लेकिन 15 दिसम्बर, 1950 को स्वतन्त्रता आन्दोलन के महान सेनानी सरदार पटेल सदा के लिए देश को बिलखता छोड़कर दुनिया से चले गए।

भारत सरकार ने इस लौह पुरुष को 1991 में, मरणोपरान्त देश के सर्वोच्च अलंकरण भारतरत्न से विभूषित कर उनकी महान सेवाओं का सम्मान किया।

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