चन्द्रशेखर वेंकट रामन, भारत रत्न-1954
(जन्म-7 नवंबर 1888, मृत्यु- 21 नवंबर 1970)
भारत के ज्ञान ने विश्व को हमेशा सद्मार्ग दिखाया है, भारत के विज्ञान और वैज्ञानिकों ने मानव का जीवन सरल और सुविधाजनक बनाया है। जब-जब भारत की उन्नति की बात कहीं होती है, तो इसमें भारत के वैज्ञानिकों का नाम सदैव शीर्ष पर आता है। भारत के महान वैज्ञानिकों में से एक “सीवी रमन” भी थे, जिन्हें 20 वीं शताब्दी के सबसे प्रभावशाली वैज्ञानिकों की श्रेणी में सम्मानित स्थान प्राप्त है|
‘रामन प्रभाव’ के जनक, आविष्कारक चन्द्रशेखर वेंकट रामन का जन्म दक्षिण भारत के तमिलनाडु प्रान्त में तिरुचिरापल्ली के पास बसे हुए थिरुवणिइक्कवल नामक ग्राम के एक अय्यर परिवार में 7 नवम्बर 1888 को, हुआ। उनकी माता का नाम पार्वती अम्मल और पिता का नाम चन्द्रशेखर अय्यर था। वह तिरुचिरापल्ली की एक पाठशाला में अध्यापक थे।
पांच बेटों और तीन बेटियों के भरे-पूरे परिवार में बालक रामन दूसरी सन्तान थे। जब वह तीन वर्ष के थे, तब पिता को विजगापट्टम स्थित वाल्तेयर कॉलेज में गणित व भौतिकशास्त्र के प्राध्यापक का पद प्राप्त हो गया। बालक रामन को अपने पिता से विरासत में भौतिकशास्त्र, गणित और दर्शनशास्त्र का ज्ञान मिला, क्योंकि वह स्वयं भी इन विषयों में गहरी दिलचस्पी रखते थे। उनके पास अनेक पुस्तकें थीं, जो अच्छे-अच्छे लेखकों द्वारा लिखी गई थीं। पुस्तकों के साथ ही वायलिन में भी उनकी गहरी दिलचस्पी थी और वह वायलिन बड़ी ख़ूबी के साथ बजा लेते थे|
रामन की बुद्धि बचपन से ही तेज़ थी। उन्होंने केवल बारह वर्ष की उम्र में मैट्रिक की परीक्षा अच्छे अंकों से पास कर ली। उन्हीं दिनों एनी बेसेंट अमेरिका से भारत आई हुई थीं। उन्होंने जब उनके धार्मिक भाषण सुने, तो मन पर इतना गहरा प्रभाव पड़ा कि एम.ए. में विज्ञान विषय छोड़ दिया। चौदह वर्ष की आयु में एफ.ए. की परीक्षा में प्रथम श्रेणी में पास हुए। उन्हें छात्रवृत्ति प्राप्त हुई, जिससे पिता ने उन्हें मद्रास के एक कॉलेज में पढ़ने के लिए भेज दिया। मद्रास के प्रेसीडेंसी कॉलेज से सोलह वर्ष की आयु में विज्ञान और गणित विषयों के साथ बी.ए. प्रथम श्रेणी में पास किया। उस साल रामन ही एक ऐसे छात्र थे, जिन्हें प्रथम श्रेणी मिली थी। इसके लिए उन्हें ‘स्वर्ण पदक’ प्रदान किया गया। अठारह वर्ष की आयु में विज्ञान विषय में एम.एस-सी. परीक्षा भी अच्छे अंकों से पास की और उस समय तक के विज्ञान विषय में पास छात्रों के प्राप्तांकों में नया रिकॉर्ड कायम किया।
उन्होंने गुरुजनों की सलाह पर वित्त विभाग की चयन परीक्षा दी। वहां भी उनका नाम पहले की भांति सफल उम्मीदवारों की सूची में सबसे ऊपर चमक रहा था। इस तरह उन्होंने कलकत्ता जाकर वित्त विभाग में उप- महालेखाकार का पद-भार संभाल लिया। कहां विज्ञान और उसमें कुछ कर गुज़रने का उत्साह और सपना, और कहां वित्त विभाग के आंकड़ों का जाल, लेकिन वहां भी उन्होंने अपनी योग्यता के झंडे गाड़ दिए।
उन्हीं दिनों रामन के जीवन में एक रोमांचपूर्ण घटना घटी। उन्होंने अपनी आयु से तेरह वर्ष छोटी कन्या लोकसुन्दरी से विवाह कर लिया। रामन ने लोकसुन्दरी को एक बार वीणा पर सन्त त्यागराज की रचना ‘रामा नि समनाम एवरो’ बजाते सुन लिया था। तब परम्पराओं को एक ओर रखकर उन्होंने स्वयं विवाह का प्रस्ताव रख दिया था। विवाह के बाद दोनों कलकत्ता पहुंच गए, जहां रामन ने वित्त विभाग में सहायक महालेखाकार का पद संभाल लिया। वहीं बहू बाज़ार के पास एक मकान किराए पर लिया, जो कलकत्ता पहुंचने के छः-सात दिनों के भीतर ही मिल गया था। रोज़ ट्राम से आना-जाना होता था। घर से कार्यालय और फिर वापस घर, सभी कुछ मशीन की तरह चल रहा था कि एक दिन जब वह ट्राम से अपने कार्यालय जा रहे थे, उनकी नज़र बहू बाज़ार में ही एक नामपट्टिका पर जा पड़ी, जिस पर लिखा था, द इंडियन एसोसिएशन फॉर द कल्टीवेशन ऑफ़ साइंस (विज्ञान के नियमित अध्ययन के लिए भारतीय संस्थान )| बस, फिर क्या था, इस नाम को देखते ही रमन का मन खिल उठा। कार्यालय से लौटते समय वह बहू बाज़ार में उतर पड़े।
विज्ञान के उस संस्थान के दरवाज़े पर दस्तक देने पर किवाड़ खुले । रमन के सामने खड़े थे आशुतोष डे। उन्होंने अपना परिचय दिया। डे ने अन्दर आने के लिए कहा। रमन अन्दर पहुंचे और देखा, एक बड़ी प्रयोग- शाला जैसे किसी का इन्तज़ार कर रही हो।
डे को रामन के मन की बात जानने में ज़रा भी देर नहीं लगी। उन्होंने उनकी भेंट उस संस्था के मन्त्री अमृतलाल सरकार से करा दी। उस प्रयोगशाला को रामन के हाथों में सौंपने का फ़ैसला उन्होंने तुरन्त कर लिया।
इसी बीच विज्ञान की इस साधना में अचानक रुकावट आ गई। रामन का कलकत्ता से रंगून तबादला कर दिया गया। दूसरे वर्ष वहां से उन्हें नागपुर चला जाना पड़ा। यह रुकावट भी उन्हें विज्ञान से दूर नहीं कर सकी। रंगून और नागपुर में भी उन्होंने अपना अध्ययन जारी रखा। घर में ही एक छोटी-सी प्रयोगशाला बनाकर कुछ-न-कुछ प्रयोग करते रहे। उनके मन में नई खोजों की धुन सवार थी। इसी बीच उनके ऊपर एक और विपदा आन पड़ी। उनके पिता का देहान्त हो गया और वह रंगून से मद्रास चले आए। वहां आकर उन्होंने प्रेसीडेंसी कॉलेज की प्रयोगशाला में वैज्ञानिक परीक्षण करने शुरू कर दिए। सफलता उनके चरण चूमती गई।
सन् 1911 में महालेखाकार बनकर, फिर कलकत्ता पहुंच गए। वह पुनः विज्ञान के परीक्षणों में जुट गए। रामन तथा आशुतोष बाबू का परिश्रम रंग लाया। एसोसिएशन के माध्यम से उन्होंने अपनी आवाज़ दूर तक पहुंचाई। एक प्रकाशन आरम्भ किया, जो बाद में एक बुलेटिन ‘इंडियन जनरल ऑफ़ फिज़िक्स’ बन गया।
अपने पिता की तरह रामन भी वायलिन बजा लेते थे। उनकी पत्नी लोकसुन्दरी वीणा वादन में होशियार थीं। वायलिन और वीणा के स्वरों ने रामन के वैज्ञानिक मन-मस्तिष्क पर जादू कर दिया था। उन्होंने कॉलेज के ज़माने से ही तारों की झनकार पर प्रयोग किए थे। आशुतोष डे की मदद से उन्होंने फिर इसे आगे बढ़ाने के बारे में सोचा। सचमुच उनका प्रयोग सफल हुआ उससे निकले भौतिकी के नतीजों पर उन्होंने एक लेख लिखा, जिसे रॉयल सोसाइटी के कार्यकलापों की पुस्तिका ‘प्रोसिडिंग्स’ में प्रकाशित किया गया। इसके बाद ‘ आशुतोष मुखर्जी स्मृति ग्रन्थ’ में भी प्राचीन हिन्दुओं के ‘श्रवण सम्बन्धी ज्ञान’ पर एक लेख लिखा। इस लेख के प्रकाशित होते ही रामन ‘स्वर तथा नाद’ पर एक ज़िम्मेदार लेखक माने जाने लगे।
कलकत्ता विश्वविद्यालय के उपकुलपति आशुतोष मुखर्जी उनके वैज्ञानिक आविष्कारों से बहुत प्रभावित हुए। अतः जब उन्होंने कलकत्ता में एक साइंस कॉलेज खोला, तो भौतिकी के प्रोफ़ेसर के लिए रामन को बुला लिया। इस समय मुखर्जी के मन में यह शक था कि रामन इतने बड़े पद के आगे इस छोटे पद को शायद स्वीकार नहीं करेंगे, परन्तु उन्होंने उसे खुशी से स्वीकार कर लिया, क्योंकि उनके लिए विज्ञान साधना के सामने धन लाभ वाला पद बेकार था। अतः वह सरकारी नौकरी छोड़कर जुलाई, 1917 में कलकत्ता विश्वविद्यालय में भौतिकी के प्रोफ़ेसर के रूप में काम करने लगे।
भारत और यूरोप यात्रा के दौरान उनका जहाज़ भूमध्य सागर की गहराई वाले क्षेत्र से गुज़र रहा था, तब उन्होंने भूमध्य सागर की जलराशि को नीलमणि के समान सुशोभित देखा, तो वह विचारों में डूब गए। उनके मन में बार-बार प्रश्न उठने लगा कि पानी का रंग नीला क्यों है? उसके नीले जल को देखकर लॉर्ड रैले के मत को स्वीकारने से उनका मन इनकार करने लगा। लॉर्ड रैले ने यह प्रमाणित करने का प्रयास किया था कि समुद्र का नीलापन आकाश के वातावरण में बिखरे परमाणुओं के कारण होता है।
शेखर वेंकटरमन उनका मन तुरन्त ही अपने प्रश्न को वास्तविक रूप देने के लिए मचल उठा। उसी समय ज़रूरी उपकरणों द्वारा उन्होंने जहाज़ पर ही प्रयोग प्रारम्भ कर दिया। जहाज़ पर वह इधर-उधर दौड़कर अपने उपकरणों से इस दृश्य को देखने लगे और समुद्र की गहराई से जल लेकर बोतलों में एकत्रित करने लगे। आख़िर रैले के सिद्धान्त के स्थान पर उन्होंने कहा, स्थान पर उन्होंने कहा, “गहरे समुद्र की बहुप्रशंसित नीलिमा आकाश के नीलेपन के प्रतिबिम्ब के कारण दिखाई देती है।” अर्थात समुद्र की नीलिमा जल द्वारा बिखराव के कारण थी। उनका यही आविष्कार ‘रामन प्रभाव’ के नाम से मशहूर हुआ। इस पर सन् 1930 में उन्हें विश्व का सबसे बड़ा सम्मान नोबेल पुरस्कार दिया गया।
इस खोज में रमन ने विश्व के वैज्ञानिकों को बताया कि किसी पदार्थ से विकीर्ण होते समय प्रकाश के रंगों में भी परिवर्तन हो जाता है। सफ़ेद प्रकाश जब रंगीन पदार्थ पर पड़ता है, तो वह विकीर्ण होकर पदार्थ के रंग के अनुसार अपना रंग बदल लेता है। उसके अनुसार कुछ रंग गायब हो जाते हैं, कुछ धुंधले पड़ जाते हैं और पानी के बीच से विकीर्ण पदार्थ में बिल्कुल नए रंग दिखाई देते हैं। यह आविष्कार ‘प्रकाश-विज्ञान’ से सम्बन्धित था। इसके अलावा उन्होंने ‘ध्वनि-विज्ञान’ के सम्बन्ध में भी अनेक महत्वपूर्ण आविष्कार किए। ‘रामन प्रभाव’ के आविष्कार ने उन्हें संसार के श्रेष्ठ वैज्ञानिकों की पंक्ति में खड़ा कर दिया।
1933 में उन्हें जमशेदजी नौशेरवां टाटा इंस्टिट्यूट का निदेशक नियुक्त किया गया। पहले तो वह कलकत्ता छोड़ने को तैयार ही नहीं थे और उस पद को स्वीकारने में टालमटोल करते रहे, परन्तु बाद में पद स्वीकार कर लिया। उन्होंने भारी मन के साथ कलकत्ता छोड़ा, जहां अपने वैज्ञानिक जीवन का स्वर्ण-युग गुज़ारा था। टाटा इंस्टिट्यूट में प्रबन्धकों के साथ तालमेल ठीक तरह से जम नहीं पाया और कुछ समय बाद वह वहां से मुक्त हो गए।
1934 में उन्होंने स्वयं भारतीय विज्ञान अकादमी की स्थापना की। उनका यह प्रयास उन होनहार नौजवान वैज्ञानिकों के लिए था, जो उन्हीं की तरह कुछ कर गुज़रने की इच्छा रखते थे। बीस वर्ष तक विज्ञान के क्षेत्र में कार्य करते रहने के बाद उन्होंने अकादमी की ओर से एक पत्रिका प्रकाशित की, जो संसार में रसायन एवं भौतिकी पर प्रामाणिक सामग्री प्रकाशित करने वाली श्रेष्ठ पत्रिकाओं में गिनी जाती है।
रामन की रुचि हीरों में जगत प्रसिद्ध थी। इसी कारण अपनी प्रयोगशाला में हीरे में अपूर्णता का अध्ययन करते हुए उन्होंने ‘छः किरण फ़ोटोग्राफी’ का आविष्कार किया, जो हीरों के व्यापारियों के लिए बहुत ही लाभदायक सिद्ध हुआ।
उनके आविष्कारों की सबसे बड़ी बात यही थी कि वह विश्व-कल्याण की भावना से जुड़े हुए होते थे। उनके इन्हीं विचारों और आविष्कारों से प्रभावित होकर भारत सरकार ने उन्हें सन् 1954 में, भारत के सर्वोच्च अलंकरण भारतरत्न से सम्मानित किया ।
1948 में जब इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ साइंस से अवकाश मिला और राष्ट्रीय प्रोफ़ेसर बनाया गया, तब उन्हें आशा थी कि जीवन-भर की कमाई से की गई बचत से वह छोटा-सा इंस्टिट्यूट चला लेंगे और शेष जीवन विज्ञान का आनन्द लेंगे, परन्तु दुर्भाग्यवश वह अपनी सारी पूंजी गंवा बैठे, फिर भी उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। अपने उद्देश्य के लिए वह देश भ्रमण के लिए निकल पड़े और धन एकत्रित करने लगे। वह कहते थे, “भिक्षा मांगने में बुराई क्या है? हमारे तो सभी महान पुरुषों ने भिक्षा मांगी थी। बुद्ध, शंकर, गांधी सभी ने अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए भिक्षा मांगी थी।” और इस तरह उन्होंने धन जुटाकर इंस्टिट्यूट चलाया।
1935 में मैसूर के महाराजा ने भी अपनी ओर से ‘राजसभा भूषण’ की उपाधि से नवाजा था। इससे पूर्व 1924 में लन्दन की रायल सोसाइटी ने अपनी फ़ेलोशिप देकर तथा 1929 में भारत की ब्रिटिश सरकार ने नाइटहुड देकर ‘सर’ के ख़िताब से भी सम्मानित किया। सम्मान की कड़ियां यहीं समाप्त नहीं हुईं। भारत में कलकत्ता, पुरस्कार बम्बई, मद्रास, बनारस, ढाका, इलाहाबाद, पटना, लखनऊ, उस्मानिया, मैसूर, दिल्ली, कानपुर और वेंकटेश्वर विश्वविद्यालयों ने सर सी. वी. रामन को पी.एच. डी. की मानद उपाधियां तो समर्पित की हीं, साथ ही विदेशों में ग्लासगो विश्वविद्यालय ने 1930 में एल-एल.डी. की मानद उपाधि तथा 1932 में पेरिस विश्वविद्यालय ने ऑनर्स एस. सी. डी. की उपाधि प्रदान करके स्वयं को सम्मानित किया।
रामन को अमेरिका की ऑप्टिकल सोसाइटी और मिनरालाजिकल सोसाइटी का सम्मानित सदस्य भी बनाया गया। रोमानिया सरकार द्वारा कैटगट अकाउस्टिकल सोसाइटी के सम्मानित सदस्य बनाए गए। वह चेकोस्लोवाकिया की विज्ञान अकादमी के भी सदस्य थे |
रूस सरकार ने भी उन्हें 1957 में लेनिन पुरस्कार प्रदान किया। विश्व के अनेक देशों ने उन्हें अपने अलंकरणों से सम्मानित करके उनके आविष्कारों की खुले दिल से सराहना की। उन्होंने देश में विज्ञान को लेकर रुचि से भरपूर वातावरण बनाने की कल्पना की थी, क्योंकि उनके अनुसार हमारे देश में लोग सभी वस्तुओं के लिए पश्चिम के मोहताज रहना पसन्द करते हैं । इस भावना को बदलने की कोशिश में वह अन्त तक डटे रहे।
यह महान भारतीय वैज्ञानिक अपने देश में ही नहीं, बल्कि सारे संसार में नक्षत्र की भांति हमेशा चमकता रहेगा। डॉ.रमन का देश-विदेश की प्रख्यात वैज्ञानिक संस्थाओं ने सम्मान किया। भारत सरकार ने वर्ष 1954 में’भारत रत्न’ की सर्वोच्च उपाघि देकर सम्मानित किया तथा सोवियत रूस ने उन्हें 1958 में ‘लेनिन पुरस्कार’ प्रदान किया। 21 नवम्बर 1970 को 82 वर्ष की आयु में डॉ. रमन की मृत्यु हुई।