पांडूरंग शास्त्री आठवले ‘’दादाजी’’

श्वेत क्रान्ति के प्रणेता प.पू.पांडुरंग शास्त्री आठवले एवं स्वाध्याय कार्य: पांडुरंग शास्त्री आठवले एक ऐसा नाम है, जिन्होंने भगवद गीता के विचारों की सिद्धि के द्वारा न केवल हिंदुस्तान, बल्कि पूरे विश्व के लोगों को स्वाध्याय कार्य के द्वारा एक श्वेत क्रांति का सन्देश दिया, और आज के स्वार्थी जमाने में लाखों लोगों को बिना स्वार्थ कार्य करने के लिए प्रेरणा दी। विश्व के कई सुप्रसिद्ध अवार्ड और सम्मान से उसको सन्मानित किया गया था। पांडुरंग शास्त्री जी को भारत सरकार द्वारा देश का दूसरा सर्वोच्च सन्मान  पद्म  विभूषण से 1999 में सम्मानित किया गया था, जब की उसके पहेले उनको विश्व के सर्वोच्च सम्मान और जिसको नोबेल प्राइज के बराबर माना जाता है ऐसे फ्टेम्पलटन प्राइजय् से भी सम्मानित किया गया था। उसके अलावा  शास्त्री जी को रेमन मेगसेसे एवोर्ड, लोकमान्य तिलक अवोर्ड जैसे कई सम्मानो से सन्मानित किया जा चुका है। भगवद गीता के विचारों को अपनी सरल शैली में लोगों को बताकर, उन्होंने लाखों लोगों को स्वार्थ के बिना कर्म करने के लिए प्रेरित किया  है। आज विश्वभर में दो करोड़ से भी ज्यादा उनके अनुयायी है, जो भगवद गीता के सिद्धांत पर चलकर, अपना टाईम, टिफिन और अपना टिकट खर्च करके, हार्ट टू हार्ट और हट टू हट गीता के विचारों को स्वार्थ के बिना कहने के लिए जा रहे है। आज देश में लाखों युवान है, जो उनके विचारों के आधार पर भगवद गीता जैसे कठिन विषय पर बोलने लगे है, और नियमित सूर्य नमस्कार कर रहे है।

पांडुरंग शास्त्री का जन्म महाराष्ट्र के रोहा गाँव में 19 अक्टूबर, 1920 में हुआ था, और 25 अक्टूबर, 2003 में उनका देह विलय मुंबई में हुआ। मराठी होने के नाते पांडुरंग शास्त्री जी को एक प्रसिद्ध मराठी शब्द, ‘’दादा’’ के नाम से लोग पुकारा करते थे, जिनका अर्थ होता है, बड़ा भाई। आज हमारे देश के एक लाख से भी ज्यादा गाँवो में और विश्व के 40 से भी अधिक देशों में, स्वाध्याय कार्य नियमित और अक्षरशः भगवद गीता के विचारों और सिद्धांतो पर चल रहा है। 2003 में दादाजी के निधन के बाद, उनकी बेटी जयश्री आठवले जी ने उनका कार्यभार संभाला था, जिनको ‘’दीदी’’ के नाम से स्वाध्यायी लोग जानते है। दादाजी को जब 70 साल पूरे हुए तब से लेकर अब तक वो थे, हर साल स्वाध्याय परिवार उनके जन्मदिन को ‘मनुष्य गौरव दिन’ के नाम से मनाता था, जो आज भी ऐसे ही मनाया जाता है।

पांडुरंग शास्त्रीजी की एक विशेषता यह थी की उन्होंने कभी भी प्रेस और मीडिया का प्रयोग अपने और अपने कार्य की प्रसिद्धि के लिए नहीं किया। दादा जी ने अपने पूरे जीवन में भगवद गीता के 700 श्लोकों पर 6 से 7 बार प्रवचन किये है, और आज लाखों वीडियो कैसेट उनके गीता और वेद-उपनिषद के प्रवचनों मे उपलब्ध है, और यह उनकी दूसरी विशेषता है की, उनके प्रवचन की कोई भी विडियो कैसेट बाजार में बिकती नहीं है। अगर किसी को उनका प्रवचन सुनना है, तो उन्हें दादाजी के स्वाध्याय केंद्र में ही जाना पड़ता है, और वहीं पर सब के साथ बैठकर वो प्रवचन सुन सकते है। दादाजी की तीसरी विशेषता यह थी की, उन्होंने अपनी पूरी जिंदगी में कभी भी किसी से सामने हाथ फैलाया नहीं है, उतना ही नहीं पर शायद भारत में यह एक मात्र ऐसी धार्मिक और आध्यात्मिक प्रवृति है कि, जिसमें कोई प्रकार के फंड और डोनेशन कभी भी लिया नहीं जाता। दादाजी, भारत के 10,000 गाँवो में पैदल चलकर या तो सायकिल पर खुद गए हुए है, और एक एक घर एवं खेत में जाकर लोगों को गीता का उपदेश सुनाया है।

प. पू. पांडुरंग शास्त्री जी ने देश के छोटे छोटे गाँव में जाकर भगवद गीता के नियम के अनुसार गाँव में अपौरुषेय लक्ष्मी उत्पन्न करके वही लक्ष्मी गाँव के जरूरतमंदों को प्रसाद के रूप में मिले, जिससे कोई देने वाला बड़ा न हो, और लेने वाला छोटा न हो ऐसे अनगिनत प्रयोग दिए है। जिसमे एक गाँव का हर कोई कर सके ऐसा प्रयोग, योगेश्वर कृषि, 20 गाँव का सामूहिक प्रयोग श्रीदर्शनम, मछिमारो के लिए मत्स्यगंधा, पुरे एक जिले का प्रयोग वृक्षमंदिर, गाँव का एक ही स्थान पर इकठ्ठा होकर सुबह शाम प्रार्थना करने के लिए और उनके द्वारा गाँव के सारी मुश्किल दूर करने के लिए अमृतालयम, उनके प्रयोग में अति लोकप्रिय बन चुके है। एक खेत में गाँव के सब लोग काम करके अपौरुषेय लक्ष्मी पैदा करके, गाँव के उत्थान के लिए उपयोग किया जा सकता है, यह किसी की सोच में ही नहीं था, जो उन्होंने सैंकडो गाँवो में करके दिखाया है।

आज समाज में मुफ्त का मिलने पर जहां लाइन लग जाती है ऐसा माहौल हैं, वहां पर ‘दादाजी’ ने लाखों लोगों को, ‘मुफ्त का लूँगा नहीं, ऐसे भगवद गीता के महान विचारों पर चलने का एक महत्वपूर्ण विचार कार्यान्वित किया है। उसने खुद कभी किसी के पास से कुछ माँगा नहीं और लाखों लोग ऐसे तैयार भी किये, जो नचिकेत्त वृति के हो। भगवद गीता, वेद-उपनिषद और पुराणों की महत्त्व की बातें उन्होंने अपने प्रवचन के द्वारा लोगों में ट्रांसफर की और वही बातें पुस्तकों के माध्यम से गाँव गाँव तक पहुंचाई। कार्य में एक भी पैसे की लेनदेन के बगैर हर कोई व्यक्ति अपना खुद का उद्धार करने के लिए, अपने टिकट और अपने टिफिन के साथ दूसरे गाँव एवं दूसरे व्यक्ति के पास बिना स्वार्थ जाए, ऐसा एक दैवी माहौल उत्पन्न किया। ‘स्वाध्याय’ का मतलब बताते हुए, उन्होंने कहा की यह ‘स्व’ का अध्ययन है, जैसे भगवद गीता में कहा है की, व्यक्ति खुद ही उसका उद्धार कर सकता है।

इलाहाबाद में ‘तीर्थराज मिलन’ करने के बाद देश भर में उनके कई बड़े कार्यक्रम हुए जिसमे 10 लाख, 15 लाख, लोग इकट्टे होते थे, पर कोई पोलिस या सिक्युरिटी की जरुरत न पड़े ऐसे ‘स्वयं शिस्त’ का उनके कार्यक्रम जैसा उदहारण आजतक हमारे देश में कोई दे नहीं सका। दूसरी विश्वधर्म परिषद् में भारत के प्रतिनिधि के रूप में दादाजी को आमंत्रित किया गया था, और उनके द्वारा कहे भगवद गीता के विचारों से विश्व के कई देश और कई लोग बहुत प्रभावित हुए थे। इतना ही नहीं पर मुह मांगी किमत लेकर यह विचार और कार्य उसके देश में किया जाये उनके लिए कई देशों ने उनको कई ऑफर भी दी थी, पर उन्होंने कहा की यह विचारधारा मेरे देश की है, और जब तक यह विचार पर चलने वाले लोग मेरे देश में तैयार नहीं होंगे तब तक मैं कही भी नहीं जाऊंगा।

दादाजी ने स्वाध्याय कार्य की शुरुआत गुजरात से की थी, और फिर महाराष्ट्र से आगे देशभर में लेकर गए। गुजरात में अलग-अलग कई स्थानों पर बिना मूल्य वेद-उपनिषद एवं कौशल के लिए उनके द्वारा पाठशाला शुरू की गई है, और मुंबई के पास थाना में एक विद्यापीठ की स्थापना की गई है! जहा पर ग्रेज्युएट होने के बाद युवाओं को वेद-उपनिषद का प्रशिक्षण बिना मूल्य दिया जाता है। हर साल में एक बार दिया जानेवाला टेम्पलटन प्राइज आजतक सिर्फ चार भारतीयों को मिला है, जिसकी किम्मत 1.1 मिलियन ब्रिटिश पाउंड मतलब की 1-5 करोड़ रूपये होती है, और यह एवोर्ड पाने वाले देश के चार महानुभावों में से एक पांडुरंग शास्त्री जी है, जो हमारे देश के लिए गर्व की बात है। दादाजी के सिवा यह एवोडर् पानेवाले, डॉ. राधाकृष्णन, बाबा आमटे और मदर टेरेसा है। यह सम्मान, ‘प्रोग्रेस इन रिलिजियन’ के लिए दिया गया था, और सम्मान कमिटी के अनुसार स्वाध्याय कार्य, विश्व के लिए एक ‘श्वेत क्रांति’ से कम नहीं था।

जब जब कोई अच्छा काम होता है तब उसमें बाधा डालने वाले लोग तो तैयार ही होते है। और ऐसे ही उनके यह पवित्र कार्य में भी हुआ था। ‘दीदाजी’ के 80वें साल के कार्यक्रम पर उनकी नादुरस्त तबियत के कारण जब उन्हें ऐसा लगा की अब इस  कार्य की डोर किसी को सौंपनी चाहिए तब उनका प्रस्ताव एक मात्र उनकी दतक ली हुई पुत्री, ‘जयश्री दीदी’ के नाम पर ही था। यह बात भी सही थी, क्योकि जो कार्य अपनी कड़ी महेनत से तैयार किया गया हो, उसको वह किसी के भी हाथ में कैसे दे—? उनकी यह बात में कोई वांशिक परंपरा का उद्देश्य नहीं था पर जिस व्यक्ति को उन्होंने बचपन से ही अपने साथ रखकर संस्कृति के विचारों पर चलना सिखाया था, उस पर ही उनका विश्वास होता न— ! लेकिन सालो से पद, प्रतिष्ठा और पैसे की लालसा में उनके आसपास भी ऐसे कई लोग थे, जो चाहते थे की यह कार्य की जिम्मेदारी उनको दी जाये, जो दादाजी को मंजूर नहीं था। और यही बात को लेकर देश भर में यह 10-12 लोगों ने स्वाध्याय कार्य के कई अनुयायी को उकसाया और ‘दीदी’ का विरोध किया। सिर्फ विरोध ही नहीं किया पर दादाजी और दीदीजी पर कई तरह के पैसों को लेकर आरोप लगाये, जो बिलकुल गलत थे! वो सारा स्वाध्याय परिवार जानता था।

यह बात अति सिद्ध है की अगर दादाजी को पैसे की लालसा होती तो, जब डॉ. राधाकृष्णन उपराष्ट्रपति थे तब उनके पास उनकी ‘तत्वज्ञान विद्यापीठ में गए थे, जब दादाजी कई आर्थिक मुश्किलों में घिरे हुए थे, और राधाकृष्णन ने उनको कई चीजे ऑफर की थी तब उन्होंने बहुत नम्र भाव से कहा था की, यह कार्य भगवान का है! और उसको चलाना है तो वो अपने आप मदद कर देगा, यह कार्य को सरकारी मदद की जरुरत नहीं है। 1996 में जब दादाजी को रेमन मेगसेसे अवोर्ड मिला तब भी उनको एवोर्ड लेने के समय में एक ब्लैंक चेक ऑफर किया गया था और कहा था की, इसमें आप चाहे इतनी रकम भर लो और आपका कार्य अच्छी तरह से चलाओ, उस समय पर भी दादाजी ने नम्रता से उसका अस्वीकार किया था। जो व्यक्ति सारे विश्व से पैसों के लिए ऑफर आती हो और वो किसी से भी न लेता हो, उन पर और ऐसे पवित्र कार्य पर ऐसे इल्जाम कैसे लगा सकते है—?

यही कार्यकाल में एक-दो ऐसे प्रसंग भी हुए जो स्वाध्याय कार्य के लिए ज्यादा चर्चित हो गए थे, और उसके खिलाफ भी थे, पर इतने बड़े कार्य में ह्यूमन एरर मतलब की मानव सहज भूल हमेशा होती है, और कुछ अनुयायी की वजह से ऐसा हुआ था। पर सारा स्वाध्याय परिवार दादाजी के द्वारा दी गई, दीदी की जिम्मेदारी के साथ ही रहा, और अनेक मुश्किलों के बाद भी कार्य आगे बढ़ता गया। दादा और दीदी ने आजतक कभी भी अपने परिवार के लोगों को उकसाया नहीं है और कभी किसी को गलत मार्ग में चलने की प्रेरणा भी नहीं दी। आज देश के एक लाख गाँवो से ज्यादा और विश्व के 40 ज्यादा देशों में, यह पवित्र कार्य गति के साथ चल रहा है।

दादाजी ने बगैर कंठी बांधकर और बगैर कोई लौकिक धार्मिक प्रक्रिया के बिना लाखों लोगों को ‘एक बाप- ईश्वर’ के बंधन से जोडा। स्वाध्याय कार्य शुरू हुआ तब भी कोई फंड-डोनेशन नहीं होता था, और आज भी नहीं होता है। बिना किसी लेनदेन से ही यह कार्य चल रहा है। हमारे देश में यह संभव ही नहीं है कि कोई एक धार्मिक संस्था हो और उसका प्रमुख-मंत्री न हो, उसके लिए कोई डोनेशन न हो, लेकिन यह असंभव बात को दादाजी ने संभव करके दुनिया के सामने रखा है और वो है —- ‘स्वाध्याय कार्य’।

 

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