42. भीमसेन जोशी -भारतरत्न 2009
(जन्म -4 फरवरी 1922 -मृत्यु- 24 जनवरी 2011)
भारतीय शास्त्रीय संगीत, सिनेमा और खेल के बड़े सितारों को शामिल किया गया था। गीत की शुरुआत पंडित भीमसेन जोशी के आलाप से होती थी। राग भैरवी को साधते हुए, बड़ी ही तन्मयता से उन्होंने गीत की इब्तिदा की थी। उनका वह मनोहारी अक्स आज भी आंखों में ज़िंदा और सुरीली आवाज़ कानों में गूंजती है। ऐसे गायक विरले ही होते हैं। भारतीय शास्त्रीय संगीत में पंडित भीमसेन जोशी का मुक़ाम स्वर भास्कर का है।
भारतीय शास्त्रीय संगीत को ललत भटियार, मारवाश्री, कलाश्री जैसे राग उन्हीं की देन है। पंडित भीमसेन जोशी, 20वीं सदी के महान क्लासिकल गायकों में से एक थे। उनके पसंदीदा रागों में भोगी, पूरिया, दरबारी, मालकौंस, तोड़ी, मुलतानी, ललित, यमन, भीमपलासी, शुद्ध कल्याण आदि शामिल थे। पंडित भीमसेन जोशी की आवाज़ में बादलों की गरज है, तो शहद की मिठास भी। वे बड़े ही प्यार से अपनी बंदिश को सजाते थे।
भीमसेन गुरुराज जोशी को पुरानी पीढ़ी के लोग ” रघुवर तुमको मेरी लाज” से जानते हैं, जो आज की नई पीढ़ी “मिले सुर मेरा तुम्हारा” के जरिये इस आवाज को उन तमाम आवाजों की भीड़ में अलग पहचान लेती है। 11 साल की उम्र में बिना बताए संगीत सीखने के लिए घर छोड़ कर भाग जाने वाले की आवाज में इतना दम है कि ग्यारह साल के बच्चे भी उस आवाज को सुनते ही रूक जाते हैं और ध्यान से सुनने लगते हैं। वे नहीं जानते कि क्या गाया जा रहा है? मगर उन्हें जो भी आवाज सुनाई देती है, वो उनके कानों को ही नहीं बल्कि पूरी रूह को सुकून देती है ।
86 वर्षीय पंडित जी जब सुर लगाते हैं, तो सुनने वालों को कानों पर हाथ लगाने का मन होता है कि इस लायक हैं भी या नहीं, जो पंडित जी को सुन सकें? इस दैवीय सुर को सुनने का जिसको भी अवसर मिला वह धन्य हो गया ।
जोशी जी के दादा जहां गायक थे, वहीं पिता एक शिक्षक थे। 4 फरवरी 1922 में उनका जन्म हुआ था कर्नाटक के धारवाड़ जिले के एक कन्नड़ परिवार में। उनके पिता पुराने ख्यालों वाले एक स्कूल शिक्षक थे। जोशी जी के बचपन का एक मजेदार वाकया है। हुआ यूं कि उनके गांव में एक बारात जा रही थी, उसके पीछे पीछे बजती शहनाई के सुर सुनते-सुनते बालक भीमसेन दूसरे गांव चले गए। घरवाले पुलिस वाले ढूंढ परेशान। आखिर किसी ने घर में खबर दी कि बालक को पास के गांव में देखा गया है, घर वाले समाचार
सुन कर जब उनका समाचार पूछते-पूछाते गांव के थाने पहुंचे तो वह वहां सोते हुए मिले। उनके पिता ने उस समय तो कुछ नहीं कहा और उन्हें घर लिवा लाए। लेकिन अगले दिन डांट फटकार करने के बाद पिताजी ने उनकी कमीज पर यह वाक्य लिखवा दिया कि ये लड़का कहीं गुम हो जाए तो इसे निम्न पते पर पहुंचाने की कृपा करें। पता लिखा था- गुरुराज जोशी, मुख्य गलकोट।
दरअसल बचपन से ही बालक भीमसेन को गाने के प्रति दीवानगी थी । ये वाकया तब का है, जब वे नौ साल के थे। उन दिनों आजादी के आंदोलन के दौरान नेहरू जी और गांधी उनके कस्बे में आने वाले थे। उनके सम्मान में रखी सभा में समस्या ये आ रही थी कि वन्दे मातरम का गायन कौन करेगा? यह समस्या जानकर नौ वर्षीय भीमसेन ने कहा कि “मुझे हारमोनियम दिलवा दो तो मैं गा दूंगा।” सब लोग हंसने लगे कि ये बालक क्या गाएगा? पर बालक ने फिर जिद्दपूर्वक कहा कि “बस मुझे पेटी दिलवा दो फिर देखना।” गांव वाले उसकी जिद्द के आगे मजबूर हो गये और भीमसेन के लिए हारमोनियम का इंतजाम करवाया गया।
नौ साल के बालक ने कार्यक्रम मे जब वन्दे मातरम गाना शुरू किया तो नेहरू जी और गांधी जी ने बालक को गोद में उठा लिया और पूछने लगे कि “शास्त्रीय संगीत कहां सीखते हो?”
बालक भीमसेन ने कहा, “मस्जिद की अजान और शहनाई की आवाज से कुछ-कुछ सीख गया हूं।”
बाद में गांधी जी ने 1931 में अहिंसा आन्दोलन चलाया तो उसमें उन्हें बुलाया और तभी से पंडित जी के संगीत का सफर शुरू हो गया।
पंडित भीमसेन जोशी की संगीत यात्रा बहुत संघर्षमयी और रोमांचक है। उनके पिता चाहते थे कि भीमसेन पढ़ लिखकर विद्वान बनें, लेकिन बचपन से ही उनके हृदय में संगीत की लहरें फूट रही थीं। उन्हें संगीत का मीठा सुर अपनी मां से मिला था, जो मधुर भजन गाती थीं। बचपन में एक बार घर के नजदीक ग्रामोफोन की दुकान में उन्होंने उस्ताद करीम का राग जोगिया में अमर गीत पिया मिलन की आस सुना जिसका उन पर इतना गहरा असर हुआ कि उन्होंने उस्ताद जैसे ही बनने की ठान ली और संगीत साधना के लिए 11 वर्ष की उम्र में घर से भाग निकले।
11 साल की उम्र में बिना टिकट रेल में सवार हो गए। जब टी.सी. ने टिकट मांगा तो टी.सी. को भी सुरों में उतार दिया। टी.सी. के कहने पर वे जालंधर स्टेशन पर ट्रेन से उतर कर भगत जी के यहां पहुंच गए। उन दिनों पंजाब में भगत जी की शास्त्रीय संगीत की तूती बोलती थी।
ग्यारह साल के भीमसेन जब भगत जी से मिले तो उन्होंने उनसे वहां आने का प्रयोजन पूछा। इस पर भीमसेन ने जवाब दिया, “गाना गाना सीखने आया हूं।”
भगत जी ने पूछा – “यहां कैसे आए हो?”
बालक भीमसेन बोले- ‘बगैर टिकट आया हूं।”
हैरान परेशान भगत जी ने उन्हें कहा कि “भई मेरे पास रहने की जगह नहीं है, इसलिए मैं तुम्हें अपने साथ नहीं रख सकता।”
भीमसेन भी कहां हार मानने वाले थे? सो उन्होंने तड़ से कहा- “आप तो मुझे गाना सिखाएं, रहने का इंतजाम मैं कर लूंगा।”
भगत जी तब तक उनके अंदर छिपे संगीत साधक को पहचान चुके थे लिहाजा उन्होंने इस विलक्षण प्रतिभा के धनी बालक को सिखाना शुरू किया। रात हुई तो भीमसेन ने रहने का ठिकाना खोजना शुरू किया, तो उन्हें आश्रय दिया भगत जी के सामने स्थित ढाबे वाले ने। फिर तो वे जितने दिन जालंधर में रहे उसी ढाबे वाले के शरणागत रहे। इस प्रकार से संगीत की प्राथमिक शिक्षा उनकी जालंधर में हुई।
अच्छे गुरु की तलाश में भीमसेन पुणे होते हुए ग्वालियर, खडगपुर कोलकाता. दिल्ली और रामपुर से लेकर जालंधर तक भटकते रहे। ख्याल गायन में अपना वर्चस्व बनाने के बाद एक दिन उनके मन में पूरब की गायकी ठुमरी, दादरी, होरी और भजन आदि सीखने की तीव्र उत्कंठा जागी और वे फिर सब कुछ छोड़कर रामपुर पहुंचे। साल भर उस्ताद मुश्ताक हुसैन खां के पास रहने के बाद वे ठुमरी का अंदाज महसूस करने के लिए लखनऊ जा पहुंचे। उस जमाने में अमीनाबाद की एक चाय के मालिक थे, डी. सी. दत्ता । गीत-ग़ज़ल के गवैए के हिसाब से डी.सी. दत्ता साहब ने काफी शोहरत हासिल कर ली थी। उन्हीं की कोशिशों से भीमसेन रेडियो के स्टाफ आर्टिस्ट बने और पच्चीस रुपए की फीस पर ख्याल और ज्यादातर भजन ही गाने लगे थे। वहां उनका बेगम अख्तर और पंडित शंभू महाराज से मिलना और उनके साथ संबंधों की एक लंबी दास्तान है। संगीत को सीखने की चाह में आखिर में उन्हें अपने ही क्षेत्र में गुरु के रूप में सवाई गंधर्व मिले। जहां संगीत सीखने के लिए उनका दृढ़ संकल्प आखिरकार पूरा हुआ ।
शुरूआती दिनों में रोज सोलह-सत्रह घंटे रियाज करने वाले संगीत के साधक पंडित भीमसेन जोशी कहते हैं कि शास्त्रीय संगीत तो बहुत लोग जानते हैं लेकिन असल बात ये है कि कौन कितना बढ़िया स्वर लगाता है। उन्होंने शुद्ध रागदारी में सबसे ज्यादा ध्यान स्वर, तान और उनकी संगतियों पर दिया। गायन में उनकी प्रतिभा की एक बड़ी मिसाल है कि 1946 में अपने गुरु सवाई गंधर्व की साठवीं वर्षगांठ पर संयोग से पुणे के एक समारोह में उन्हें गाने का न्यौता मिला। इतना बड़ा समारोह, वह भी गुरु के सामने । बहरहाल उन्होंने राग मियां मल्हार चुना। उनके दमदार और सुरीले गायन ने श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर दिया। कालांतर में उनके संगीत का जादू श्रोताओं के सिर चढ़कर बोलता रहा।
उन्होंने अपना सबसे पहला परफार्मेंस 19 साल की उम्र में दिया, और पहला एल्बम 20 वर्ष की उम्र में निकला। इस एल्बम में कन्नड और हिन्दी के धार्मिक गीत थे।
उनकी ठुमरी और भजन की भी काफी चर्चा होती है। “पिया के मिलन की आस” और “पिया तो मानत नहीं” नाम की दो लोकप्रिय ठुमरी उन्हीं के द्वारा स्वरबद्ध हैं। हर साल पुणे में आयोजित होने वाला सवाई गंधर्व संगीत महोत्सव भीमसेन जोशी की देखरेख में ही संपन्न होता रहा है, और इसमें ठुमरी को जितनी लोकप्रियता मिली है इसका सारा श्रेय भी उन्हीं को जाता है। पंडित भीमसेन जोशी ने भारतीय भक्ति गीत को भी अपनी पराकाष्ठा पर पहुंचाया है। अपने पिता का प्रिय भजन जो “भजे हरि को सदा वहीं परम पद पाएगा” गाते-गाते पंडित जोशी इतने आगे निकल गए कि उन्होंने “अंखियां हरि दर्शन की प्यासी” और “आया द्वार तुम्हारे राम” को जन-जन तक पहुंचाया।
उनकी आवाज बहुत ही बुलंद और जोरदार है, लेकिन उन्हें आश्चर्यजनक तरीके से वॉल्यूम कंट्रोल करना आता है, और ऐसी बुलंद आवाज के साथ उसी स्वर में वे एक नए किस्म का प्रभाव पैदा करते हैं।
ख़्याल गायकी के वे पर्याय थे। ख़्याल गायकी में उन्होंने जो मुक़ाम हासिल किया, वह आज भी मील का पत्थर है। बीसवीं सदी में अपने बेहतरीन और बेजोड़ गायन से पंडित भीमसेन जोशी ने किराना घराने की परिधि को विस्तृत किया। उन्होंने ख़्याल गायकी को विश्व स्तर तक पहुंचाया। वे देश के सर्वकालीन महान कलाकार हैं। भीमसेन जोशी के गायन की ख़ासियत गगनचुंबी आवाज़, अपूर्व सुर, तेज लय में तान लेने की कला, असाधारण आलाप और सभी रागों को साध लेने की महारत थी। वे शास्त्रीय संगीत महफ़िलों के मानो बादशाह थे। जिन्हें घंटों सुनकर भी श्रोताओं की प्यास नहीं बुझती थी।
भारतीय शास्त्रीय संगीत को देश में नहीं, बल्कि विदेश में भी लोकप्रिय करने में पंडित भीमसेन जोशी का अमूल्य योगदान है। यूरोप, अमरिका,मध्य पूर्व देश और एशियाई देशों में होने वाली संगीत की महफ़िलों में वे अनिवार्य तौर पर शिरकत करते थे। एक दौर ऐसा भी था, जब शास्त्रीय संगीत का कोई भी समारोह, महोत्सव उनके गायन के बिना अधूरा होता था। पंडित भीमसेन जोशी ने अपने गायन से सामान्य जन में भी शास्त्रीय संगीत के प्रति अभिरुचि पैदा की। शास्त्रीय संगीत को अभिजात्य वर्ग से खींचकर, वे आम जन तक ले गए। पंडित भीमसेन जोशी उम्र के आठवे दशक तक संगीत की महफ़िलों को गुलज़ार करते रहे। 24 जनवरी, 2011 को पंडित भीमसेन जोशी की ज़िंदगी की संगीतमय यात्रा अपने आख़िरी पड़ाव पर पहुंची।