चक्रवर्ती राजगोपालाचारी(राजाजी),भारत रत्न-1954
(जन्म- 10 दिसंबर 1878, मृत्यु-25 दिसंबर 1972)
चक्रवर्ती राजगोपालाचारी भारतीय राजनीति के शिखर पुरुष थे जो राजाजी के नाम से भी जाने जाते हैं। बने-बनाए नियमों के विरुद्ध कार्य करना और नए नियम बनाना कितने साहस और धैर्य का काम होता है। यह बात वही जानते हैं, जो ऐसा करते हों या कर चुके हों, परन्तु कुछ लोग ऐसे भी होते हैं, जो अपने फ़ौलादी इरादों और चट्टानी विश्वास के साथ हमेशा अडिग रहते हैं, चाहे कितनी भी बड़ी रुकावट सामने आए।” चक्रवर्ती राजगोपालाचारी के लिए उपरोक्त बात बिल्कुल सटीक बैठती है। उन्होंने अपने सिद्धान्तों और विश्वास के आगे देश की विचारधारा का डटकर मुकाबला किया। बाद में उनकी बात की सच्चाई का लोहा सबको मानना पड़ा। इसलिए उन्हें बीसवीं सदी का चाणक्य भी कहा गया।
नल्लन चक्रवर्ती के घर थोरापल्ली नामक एक छोटे से गांव में 8 दिसम्बर 1878 को, एक वैष्णव ब्राह्मण परिवार में राजा जी का जन्म हुआ था। यह गांव मद्रास के सेलम ज़िले के क़स्बे होसूर से चार-पांच मील की दूरी पर स्थित है। उनके पिता नल्लन चक्रवर्ती होसूर में मुंसिफ़ी किया करते थे और अपनी न्यायप्रियता के लिए बहुत प्रसिद्ध थे। इसके अतिरिक्त वह संस्कृत के भी विद्वान थे। राजा जी की आरम्भिक शिक्षा होसूर में हुई। नेत्र रोग के बावजूद उन्होंने बारह वर्ष की उम्र में मैट्रिक की परीक्षा पास कर ली थी। पिता ने पुत्र को आरम्भिक शिक्षा गांव में दिलाने के बाद उसे बंगलौर भेज दिया। वहां राजा जी ने इंटरमीडिएट पास किया। मद्रास प्रेसीडेंसी कॉलेज से बी.ए. और बी.एल. की परीक्षाएं पास कीं। जब वह वकालत पढ़ रहे थे, उन्होंने स्वामी विवेकानन्द को सुना और उनसे प्रभावित हुए बिना न रह सके। क़ानून की परीक्षा पास करके उन्होंने सेलम ज़िला कोर्ट में स्वतन्त्र रूप से अपनी वकालत शुरू कर दी। उनकी वकालत कुछ ही दिनों में चमक उठी। नाम और पैसा उनकी गुलामी करने लगे। यह राजा जी का पहला क्रान्तिकारी क़दम था |
राजाजी की दिनचर्या किसी भी संन्यासी से कम नहीं रही। प्रातः तय समय पर उठना, पूजा-पाठ कर पढ़ने-लिखने बैठना उनकी दिनचर्या की शुरुआत होती थी। शायद इसी कारण चौरानवे वर्ष की लम्बी आयु उन्हें मिली और जीवन-भर वह शारीरिक और बौद्धिक दृष्टि से स्वस्थ रहे। यह सौभाग्य बिरलों को ही मिलता है।
सरस्वती के इस विद्वान पुत्र ने अपनी रचनाओं से साहित्य का भंडार ख़ूब भरा। राजनीतिक विषयों के अलावा धार्मिक और सांस्कृतिक विषयों पर भी राजा जी ने काफ़ी लिखा। गीता, रामायण और महाभारत के अनुवाद उन्होंने अपने ढंग से किए। मौलिक साहित्य भी लिखते रहे। छोटी-छोटी कहानियां लिखने में तो राजा जी जैसी दूसरी मिसाल ही नहीं। ख़लील जिब्रान की तरह उन्होंने जीवन-दर्शन को बड़ी सरल भाषा में लिखा । साहित्य अकादमी ने उन्हें उनकी तमिल पुस्तक ‘चक्रवर्ती थिरुमगम’ पर सम्मानित भी किया।
नगरपालिका अध्यक्ष कार्यकाल में ही उन्होंने अछूतों से सम्बन्धित कई सुधार कर डाले। उन्हें सड़कों पर निकलने की आज्ञा दे दी गई। नगरपालिका के नलों से उन्हें पानी मिलने लगा और मन्दिरों के आसपास भी उनका निकलना-बैठना क़ानूनी तौर से शुरू हो गया। इस कायाकल्प से आम जनता का उत्साह काफी बढ़ता दिखाई दिया। साथ ही सेलम के ब्राह्मणों का असन्तोष भी उभरा, किन्तु उन हरिजनों की खुशी का ठिकाना न था, जिन्हें बरसों से दबाया जा रहा था, जिनका दिन के उजाले में निकलना तक हराम था और जिनकी छाया से भी दूर रहा जाता था।
1904 में वह कांग्रेस में शामिल हो चुके थे, और सूरत अधिवेशन में उन्होंने लोकमान्य तिलक का समर्थन किया था। बाद में श्रीमती एनी बेसेंट की होमरूल लीग में भी सक्रियता से काम किया। ‘हिन्दू’ समाचार-पत्र के सम्पादक स्वर्गीय कस्तूरीरंगम आयंगर के आग्रह पर मद्रास चले गए और वहीं पर हाईकोर्ट में वकालत शुरू कर दी। सन् 1919 में जब गांधी जी मद्रास आए थे, तब उनके रुकने की व्यवस्था राजा जी के घर में ही की गई थी। गांधी जी वहां दो दिन रुके। इसी बीच गांधी जी और राजगोपालाचारी में इतनी घनिष्ठता हो गई कि गांधी जी उन्हें राजा जी कहकर पुकारने लगे। वहां गांधी जी को पता चला कि राजा जी के कहने पर ही आयंगर ने गांधी जी को आमन्त्रित किया था। रोलेट एक्ट के विरोध में देश-भर में हड़ताल के साथ-साथ उपवास और प्रार्थनाओं की योजना राजा जी की थी, जो बड़ी सफल सिद्ध हुई।
1920 में जब नागपुर अधिवेशन में असहयोग का प्रस्ताव सर्वसम्मति से स्वीकार कर लिया गया, तब उसके अनुसार देशबन्धु चितरंजनदास, पं. मोतीलाल नेहरू आदि वकीलों ने अपना-अपना पेशा छोड़ दिया और वे आज़ादी की लड़ाई में कूद पड़े। राजा जी इनमें सबसे आगे थे। अगले वर्ष 1921 में राजा जी कांग्रेस के महामन्त्री बनाए गए।
नमक सत्याग्रह के दिनों में जिस समय महात्मा गांधी ने साबरमती आश्रम से बीस दिन की पैदल डांडी यात्रा की और नमक का क़ानून तोड़ा, उसी समय राजा जी ने तिरुचिरापल्ली से पन्द्रह दिन पैदल चलकर वेदारण्यम में सागर के किनारे नमक बनाया और गिरफ़्तारी दी थी। राजा जी ने असहयोग आन्दोलन में देश के सभी नेताओं के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर भाग लिया और पहली बार जेल-यात्रा भी की थी।
गया अधिवेशन कांग्रेस के लिए बड़ा ऐतिहासिक और यादगार रहा। देशबन्धु चितरंजनदास की अध्यक्षता में आयोजित इस अधिवेशन में सबसे बड़ा प्रश्न यह उठाया गया कि सत्याग्रह और असहयोग के कार्यक्रमों की बजाय कौंसिलों और विधानसभाओं में जाकर सरकार का खुला मुक़ाबला क्यों न किया जाए? अध्यक्ष चितरंजनदास स्वयं इसके पक्ष में थे। साथ ही पंडित मोतीलाल नेहरू और सत्यमूर्ति आदि सहमत थे, परन्तु राजा जी ने इसका डटकर विरोध किया। प्रस्ताव मत विभाजन के लिए प्रस्तुत किया गया। बहुत ज़्यादा मतों से राजा जी विजयी हुए और उन्हें अखिल भारतीय नेताओं में गिना जाने लगा और कांग्रेस की कार्यकारिणी में भी शामिल कर लिया गया।
काकीनाडा कांग्रेस में जब कौंसिलों में जाने का प्रश्न फिर उठा, तब उनका मत पिछड़ गया और कांग्रेस ने कौंसिलों में अपने प्रतिनिधि भेजना स्वीकार कर लिया, फिर भी राजा जी अडिग रहे। वह तिरुधेनगोड़ा नामक गांव में चले गए और समाज सुधार के काम करने लगे। वहां उन्होंने गांधी आश्रम की स्थापना की, और हरिजनों के उद्धार, नशाबन्दी और खादी के प्रचार में जुट गए। आसपास के इलाक़ों में इन सामाजिक कार्यों को ख़ूब फैलाया।
1946 में जब पंडित जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में अन्तरिम सरकार बनी, तब राजा जी को उद्योग व वाणिज्य मन्त्री बना दिया गया। इसके बाद उन्हें शिक्षा व वित्त विभाग की ज़िम्मेदारी भी सौंपी गई। स्वतन्त्रता प्राप्त होने पर उन्हें भारत का प्रथम भारतीय गवर्नर जनरल का पद सौंपा गया। इससे पूर्व वह बंगाल के गवर्नर भी रह चुके थे, जो उन दिनों दंगों के कारण बेहद संवेदनशील क्षेत्र माना जाता था। वहां राजा जी ने बड़ी योग्यता से अपने कार्यभार को संभाला। उन्हें गवर्नर जनरल का पद देते हुए भारत के भूतपूर्व गवर्नर जनरल लार्ड माउंटबेटन ने कहा था, “मेरे उत्तराधिकारी नए गवर्नर जनरल एक महान राजनीतिज्ञ हैं और आकर्षक व्यक्तित्व के मालिक हैं। वह भारत के प्रथम भारतीय गवर्नर जनरल होने के बिल्कुल योग्य हैं।”
दो वर्षों के बाद उन्होंने अवकाश प्राप्त कर लिया, परन्तु वह अवकाश गवर्नर जनरल के पद से ही था। केवल सात महीनों में ही उनकी कमी महसूस होने लगी और प्रधानमन्त्री नेहरू ने उन्हें फिर अपने मन्त्रिमंडल में ले लिया। 15 दिसम्बर, 1950 में सरदार पटेल के निधन के पश्चात उन्हें गृह मन्त्रालय सौंपा गया, किन्तु यहां भी उनका अड़ियल रुख आड़े आया। नेहरू जी से उनके मतभेद हो गए, जिससे लगभग एक वर्ष में ही उन्होंने त्याग-पत्र दे दिया।
सन 1950 में नेहरु ने राजगोपालाचारी को अपने मंत्रिमंडल में शामिल किया जहाँ वो बिना किसी मंत्रालय के मंत्री थे। सरदार पटेल के मृत्यु के पश्चात उन्हें गृह मंत्री बनाया गया जिस पद पर उन्होंने 10 महीने कार्य किया। प्रधानमंत्री नेहरु के साथ बहुत सारे मुद्दों पर मतभेद होने के कारण अंततः उन्होंने इस्तीफ़ा दे दिया और मद्रास चले गए। इसके पश्चात राजगोपालाचारी लगभग दो साल तक मद्रास के मुख्यमंत्री रहे। इसके बाद उन्होंने कुछ समय के लिए सक्रीय राजनीति से सन्यास ले लिया और लेखन के कार्य में लग गए। सन 1958 में उन्हें उनकी पुस्तक चक्रवर्ती थिरुमगन के लिए तमिल भाषा का साहित्य अकादमी पुरस्कार दिया गया। जनवरी 1957 में उन्होंने कांग्रेस की सदस्यता से इस्तीफ़ा दे दिया और मुरारी वैद्या और मीनू मसानी के साथ मिलकर सन 1959 में एक नए राजनैतिक दल स्वतंत्रता पार्टी की स्थापना की। बाद में एन. जी. रंगा, के. एम. मुंशी और फील्ड मार्शल के. एम. करिअप्पा भी इसमें शामिल हुए। स्वतंत्रता पार्टी 1962 के लोक सभा चुनाव में 18 और 1967 के लोक सभा चुनाव में 45 सीटें जीतने में कामयाब रही और तमिलनाडु समेत कुछ और राज्यों में प्रभावशाली रही पर सत्तर के दशक में हासिये पर आ गयी।
भारत की राजनीति के कौटिल्य कहे जाने वाले राजाजी को वर्ष 1954 में सबसे बड़े नागरिक सम्मान भारतरत्न से भी नवाजा गया। विलक्षण प्रतिभा के धनी इस दूरदर्शी राजनीतिज्ञ को नवम्बर 1972 में स्वास्थ्य बिगड़ने लगा और 17 दिसम्बर 1972 को उन्हें मद्रास गवर्नमेंट हॉस्पिटल में भर्ती कराया गया, इस महान व्यक्ति का 28 दिसंबर 1972 को स्वर्गवास हो गया।