40.लता मंगेशकर- भारतरत्न 2001
(28 सितंबर 1929 – 6 फ़रवरी 2022)
“अगर ताजमहल सातवां आश्चर्य है, तो लता मंगेशकर आठवां ।” — उस्ताद अमजद अली खां
सुर साम्राज्ञी लता मंगेशकर नाम उस हस्ती का है, जिसे सुनकर हरेक भारतीय गर्व से सिर ऊंचा उठा लेता है। 28 सितम्बर, शनिवार, सन् 1929 को जन्मीं इस अद्भुत कलाकार के पिता मास्टर दीनानाथ भी विख्यात संगीतज्ञ और कलाकार थे। संगीत का अमृत लता ने जन्म-घुट्टी की तरह बचपन से ही पीना आरम्भ कर दिया था। छह मास की उम्र में ही पिता को, उनके संगीत साम्राज्ञी होने का आभास होने लगा था
लता चार वर्ष की थीं। एक दिन घर के बरामदे में उनके पिता सारंगी बजा रहे थे। तभी लता ने आगे बढ़कर सारंगी को अपने हाथों में ले लिया और फिर दीनानाथ जी सारंगी पर उनके साथ संगीत का खेल खेलने लगे उसी वर्ष लता जी अपने पिता के संग इन्दौर गई। वहां एक छोटे से समारोह में तन्त्रम शहनाई के साथ बाल सुलभ स्वर में उन्होंने एक गीत गाया, जिसे सुनकर दीनानाथ जी खुशी से झूम उठे| उस दिन उन्होंने निर्णय किया कि वह लता को विधिवत संगीत शिक्षा देंगे।
लता जी का पिता के साथ संगीत का रियाज़ चलने लगा। जिस उम्र में उनकी बराबर की लड़कियां गुड्डे-गुड़ियों का ब्याह रचातीं, लता जी संगीत के सुरों के साथ अठखेलियां करने लगीं। वह प्रतिदिन प्रातः जल्दी उठतीं और तानपूरे पर अपना रियाज़ आरम्भ कर देतीं। उनकी लगन देखकर माता-पिता बड़े प्रसन्न होते। जल्दी ही वह पूरिया धनेश्वरी राग आदि रागनियां अपने घर आने वाले संगीत के छात्रों को भी सिखाने वर्गी छह वर्ष की आयु में, लता जी ने के. एल. सहगल की फिल्म ‘चंडीदास’ देखी सहगल का व्यक्तित्व उनके बाल हृदय को छू गया। उन दिनों घरों में सहगल के अभिनय की चर्चा आम थी। इसी बात से प्रेरित होकर उन्होंने घर आकर भोलेपन के साथ कह दिया, “मैं बड़ी होकर सहगल के साथ शादी करूंगी।” घर वाले उनके भोलेपन पर हंस पड़े और मज़ाक में चुटकी लेने लगे। फ़िल्मों से सुने गाने लता जी को पूरी तरह याद रहते थे। उनकी प्रतिमा का प्रकाश जब सभी को दिखाई देने लगा, तब पिता ने उनसे स्टेज प्रोग्राम में गवाने का निश्चय किया। उन्होंने पहला स्टेज प्रोग्राम शोलापुर में दिया।
लता जी के पिता अपने कार्यक्रम प्रस्तुत करने के लिए एक शहर से दूसरे शहर घूमते रहते थे और लता जी भी उनके साथ रहतीं। उनकी बहनें मीना, आशा और ऊषा तथा भाई हृदयनाथ भी पिता के साथ घूम-घूमकर प्रोग्राम देते थे। लता जी का जीवन इसी तरह सीधी-सरल गति से चलता रहा कि अचानक एक दिन उसमें भूचाल आ गया। वह तेरह वर्ष की थीं कि दीनानाथ जी का देहान्त हो गया। घर की आर्थिक हालत गम्भीर हो गई। सबसे बड़ी होने के कारण घर की आर्थिक ज़िम्मेदारी लता जी के कन्धों पर आ पड़ी। ऐसी कठिन स्थिति में लता जी ने मां से नौकरी करने की अनुमति मांगी। उस समय मां के सामने हां करने के अलावा और कोई चारा नहीं था।
दीनानाथ जी के साथ श्रीपाद जोशी नामक सज्जन बहुत लम्बे समय से जुड़े रहे थे। उन्होंने लता जी को फ़िल्मों में बाल कलाकार के रूप में काम से लगवा दिया। घर की रुकी हुई गाड़ी चल निकली। आगे लता जी ने विभिन्न फ़िल्मों में पार्श्व गायन शुरू किया। उनके गाए गानों ने धूम मचा दी । ‘महल’ फिल्म का ‘आएगा आने वाला’ और ‘बीस साल बाद ‘ का ‘कहीं दीप जले, कहीं दिल ऐसे गाने थे, जिन्होंने लता जी को प्रसिद्धी के शिखर पर पहुंचा दिया। फिर तो उन्होंने पीछे मुड़कर कभी नहीं देखा। लता जी वास्तव में मराठी-भाषी थीं। एक बार की बात है कि उनकी भेंट अभिनय सम्राट दिलीप कुमार से हुई। तपाक से उन्होंने ऐसी बात कह दी कि लता जी के भीतर तक उतरती चली गई। उन्होंने उनके उच्चारण को कचोटा था, जो मराठी भाषा होने के कारण हिन्दी-उर्दू को ठीक से नहीं ले पाता था। आख़िर लता जी ने कड़ी मेहनत की और भाषा की तमाम कमज़ोरियों को दूर कर लिया, फिर तो इस स्वर साम्राज्ञी ने हिन्दी -उर्दू के हज़ारों गाने गाए।
लता जी की दुनिया फ़िल्म संगीत की रही, किन्तु प्रशिक्षण उन्होंने शास्त्रीय पद्धति से ही प्राप्त किया था। उनकी मधुर आवाज़ के जादू के साथ अनूठी प्रतिभा वाले संगीत निर्देशक, गीतकार और भाव विभोर कर देने वाली स्थितियां जुड़ी रहीं। इसी कारण लता जी के गाए गीतों का आनन्द ऐसे करोड़ों श्रोता भी कर सकते हैं, जिन्हें शास्त्रीय संगीत की रत्ती भर भी जानकारी न हो। उनके गले की मिठास और सुरों का आकर्षण श्रोता को मन्त्रमुग्ध बना देता है। पंडित भीमसेन जोशी ने एक बार कहा था कि “यदि आम लोग भी शास्त्रीय संगीत पसन्द करने लगे हैं, तो इसका श्रेय लता को मिलना चाहिए।”
जब वह अपने बालपन की स्मृतियों को टटोलती हैं, तो एक सहज मुस्कान उनके सौम्य चेहरे पर बिखर जाती है। वह अपनी दादी और नानी के साथ एक छोटे से घर में रहती थीं। उनकी नानी मां का एक छोटा सा पूजा कक्ष था। शाम को सन्ध्या-पूजा के बाद सब एकत्र होते और वह हारमोनियम पर भक्ति गीत गातीं । लता जी की नानी उन्हें कई तरह की कहानियां सुनाती थीं। वह हिन्दी और मराठी के मिश्रण में भजन गाया करती थीं और लोकगीत भी सुनाती थीं। लता जी को भगवद्-भक्ति के संस्कार बचपन से ही मिलने लगे थे। वह भगवद्गीता के श्लोकों का बचपन से ही मनन करने लगी थीं। गीता को उन्होंने अपने जीवन में पूरी तरह आत्मसात कर लिया था। यही कारण है कि वह किसी भी परिस्थिति में शान्त भाव से गा सकती हैं। उनकी यह शक्ति संसार-भर को तब दिखाई दी, जब वह न्यूयार्क के एक ऑडिटोरियम में अपना प्रोग्राम दे रही थीं। तभी वहां बम रखे होने की अफवाह फैल गई।
यह ख़बर मिलने के बाद भी लता जी बिना विचलित हुए शान्त भाव से गाती रहीं। लता जी ने ढेरों फ़िल्मों में असंख्य गीत गाए। गैर फिल्मी गीतों और भजनों में भी उन्होंने कमाल दिखाया। अनेक संगीतकारों के साथ उनके गाए यादगार गीतों ने उन्हें न भुलाने वाली ऐसी शख़्सियत बना दिया, जिसे युगों तक याद किया जाता रहेगा।
भारत के पहले प्रधानमन्त्री पं. जवाहरलाल नेहरू साहित्य, कला और संगीत के बड़े पारखी थे। उन्होंने लता मंगेशकर की गायकी को भी दिल की गहराइयों सुना था। इसीलिए उन्हें ‘नाइटेंगिल ऑफ इंडिया’ की उपाधि से विभूषित किया था। अवसर था एक भव्य समारोह का, जिसमें देश के ही नहीं, विदेशों के भी ढेरों विशेष मेहमान आए हुए थे। इस दिन लता जी ने कवि प्रदीप का लिखा देश-भक्ति से भरा-पूरा अमर गीत ‘ए मेरे वतन के लोगों ज़रा आंख में भर लो पानी, जो शहीद हुए हैं उनकी, ज़रा याद करो कुर्बानी ।’ यह गीत उन्होंने इतने डूब कर तथा ऐसी आवाज़ और लयकारी में गाया कि सचमुच लोगों की आंखों में पानी भर आया।
लता जी को उनकी संगीत उपलब्धियों के कारण देश-विदेश से अनेक पुरस्कार और सम्मान प्राप्त हुए। 1989 में दादा साहब फाल्के पुरस्कार से भी उन्हें सम्मानित किया गया। लता जी को शिवाजी यूनिवर्सिटी, कोल्हापुर और हैदराबाद यूनिवर्सिटी ने डी.लिट्. की उपाधियां भी प्रदान कीं। सन् 2001 में राष्ट्रपति के.आर. नारायणन द्वारा ‘भारतरत्न’ की उपाधि देकर उनकी महानता को रेखांकित किया।