हिन्दुओं में गुरुपूर्णिमा का खास महत्व है और इसे सभी हिन्दू एक खास और पावन उत्सव की तरह मानते हैं| गुरुपूर्णिमा का उत्सव मनाना मतलब, गुरु का पूजन करना, गुरु के प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त करना | हमारे जीवन में अज्ञान के अंधकार को दूर कर, ज्ञान की ज्योति को प्रगट करनेवाले व्यक्ति का नाम ही है, गुरु | वैसे संस्कृत में गुरु का मतलब है, जो बड़ा है, जो लघु नहीं है | जो व्यक्ति अपने जीवन का सर्वस्व हमारे लिए न्योच्छावर करता है, अपने ज्ञान के माध्यम से हमारे जीवन को उन्नत करता है और हमें सही जीवन जीने की राह पर चलना सिखाता है, वो गुरु है | हमारी भारतीय संस्कृति ने गुरु को नमस्कार करते हुए कहा है कि…..
ब्रह्मानन्दम परमसुखदं केवलं ज्ञानमूर्ति, द्वन्द्वातितं गगनसद्र्शम तत्वमस्याविलक्ष्यम |
एकं नित्यं विमलमचलं सर्वधीसाक्षीभूतं, भावातीतं त्रिगुणरहितं सद्गुरु तं नमामि ||
अर्थात, ब्रह्म के आनंदरूप, सुखरूप, ज्ञानमूर्ति, द्वन्द्व से परे, आकाश जैसे निर्लेप, और तोजमय गुरु ही है | तू ही तेज है, तू ही इशतत्व है, उसकी अनुभूति कराना ही जिसका लक्ष्य है, ऐसे अद्वितीय, नित्य, विमल, अचल, अनेक भाव से परे, त्रिगुणरहित ऐसे गुरु को मेरा नमस्कार |
यह श्लोक ही गुरु का वर्णन करता है | वासना और विकार के पुतले को, जिसने चिरंतन सुख और शांति का मार्ग दिखाया, पशुतुल्य जीवन जीनेवाला और “खाओं-पियों मौज करो” वृति के मनुष्य को जिसने नर में से नारायण बनने का सौभाग्य प्राप्त करवाया, वही सच्चा गुरु है | गुरुपूजन मतलब, उस व्यक्ति का पूजन, जिसने मेरे जीवन को सार्थक बनाने के लिए, अपने जीवन की परवाह नहीं की, जिसने मेरे मनुष्यत्व को उज्वलित किया और मेरी उंगली पकड़कर जिसने मुझे जीवन की सही राह पर चलना सिखाया, उस महान व्यक्ति का पूजन |
पुराने ज़माने में भारतीय संस्कृति में, जब बच्चा सात साल का हो जाता है, और यज्ञोपवित संस्कार हो जाता है, तब उसे गुरु के पास भेज दिया जाता है | वहां से वह बच्चा तब तक वापस नहीं आता, जब तक गुरु बताये कि, अब यह बच्चा सही मनुष्य बन गया है | तब गुरु के आश्रम में सिर्फ पैसा कमाने का ज्ञान नहीं दिया जाता था, बल्कि दुनिया की हर बात, जो एक मनुष्य को जीवन जीते जीते सामने आती है, उसका ज्ञान दिया जाता था | मैं किसी का शिष्य हूं, यह बताने में लोग एक गौरव मानते थे | राम और लक्ष्मण के लिए विश्वामित्र, कृष्ण के लिए सांदीपनी, कर्ण के लिए परशुराम, अर्जुन के लिए द्रोणाचार्य और जनक के लिए याज्ञवल्क्य, अपने जीवन में अति श्रेष्ठ स्थान पर थे, भगवान के बाद गुरु को स्थान दिया जाता था |
आज जमाना कुछ बदल गया है | लोग अपने आप ही बौधिक और ज्ञानी होने लगे हैं| शिक्षा को एक पैसे कमाने का साधन और गुरु को एक बिकाऊ ज्ञानी माना जाता है | लेकिन किसी का भी दोष नहीं है, क्योकि आज गुरु भी लघु है, पैसे कमाने के लिए ही अपने ज्ञान का प्रयोग करते हैं, विद्यालय एक टंकशाल बनके रह गई है, ऐसे में कोई शिष्य, कोई भी व्यक्ति की पूजा करे भी तो कैसे करें | गुरु को शिक्षक ही माना जाता है, और लोग ऐसा समझते है की शिक्षक को पैसा दो और ज्ञान प्राप्त करो | लोगों की नजर में आज शिक्षक की कोई कीमत ही नहीं है, उसे समाज का सब से निम्न स्तर दिया गया है, सब से कम दाम में अगर कोई मिलता है तो वो शिक्षक है ऐसा माना जाता है |
इसी सन्दर्भ में एक कहानी है कि -‘ एक बार एक शिक्षक एक सामारोह में गए , जहां पर शहर के प्रतिष्ठित लोग आए हुए थे, डॉक्टर थे, इंजीनियर थे, बिल्डर थे…. | इन सब ने मिलकर उस शिक्षक का मजाक उड़ाया और बोला कि, यह डॉक्टर बन गया जो महीने में एक लाख कमाता है, यह इंजीनियर बन गया जो महीने में दो लाख कमाता है, यह बिल्डर बन गया जो महीने में पांच लाख कमाता है, और आप तो वहीं के वहीं रह गए और बीस हजार से आगे ही नहीं बढ़ते | तब उन्होंने बड़ी नम्रता से कहा भाई लोग, भले ही मै पैसे कम कमाता हूं, पर मैं वो ही हूं जिसने एक डॉक्टर को बनाया, एक इंजीनियर को बनाया, एक बिल्डर को बनाया | तब लोगों की आंखे शर्म से झुक गई | ‘ बात भी सही थी I एक शिक्षक ही समाज के हर व्यक्ति का निर्माण करता है, मनुष्य के जीवन सच्ची राह एक शिक्षक के जीवन को पार करते हुए ही चल सकती है | डॉ अब्दुल कलाम हमेशा यह कहते थे कि- मुझे आप लोग वैज्ञानिक, मिसाइल मैन, राष्ट्रपति जैसे शब्द से नहीं बुलाते हुए एक शिक्षक ही रहने दो, मुझे एक शिक्षक होने में बड़ा गर्व महसूस होता है |
भारतीय संस्कृति में माता-पिता के बाद का स्थान गुरु का है, क्योकि व्यक्ति अपना सारा यौवन गुरु के पास ही बिताता है, जीवन के हर प्रश्न को सुलझाने की शक्ति उन्हें गुरु से ही मिलती है | इसलिए तो कबीर जी ने एक दोहे में कहा है कि…
“गुरु गोविन्द दोऊ खड़े , काके लागू पाय|
बलिहारी गुरु आपने , गोविन्द दियो बताय |”
कबीर दास जी ने इस दोहे में गुरु की महिमा का वर्णन किया है। वे कहते हैं कि जीवन में कभी ऐसी परिस्थिति आ जाये की जब गुरु और गोविन्द (ईश्वर) एक साथ खड़े मिलें तब पहले किन्हें प्रणाम करना चाहिए। गुरु ने ही गोविन्द से हमारा परिचय कराया है इसलिए गुरु का स्थान गोविन्द से भी ऊंचा है|
गुरुपूर्णिमा के यह दिन को, व्यास पूर्णिमा भी कहा जाता है, और सही में बताये तो व्यास पूर्णिमा के ऊपर से ही गुरुपूर्णिमा, नाम का उद्भव हुआ है | वेदव्यास जी, जिन्होंने हमारे वैश्विक ग्रन्थ महाभारत का निर्माण किया | तब समाज में अलग अलग ऋषियों द्वारा समाज के निर्माण का कार्य, अलग-अलग तरीके से किया जाता था| वेदव्यास जी ने सारे विचारों का संकलन करके संस्कृति के ज्ञानकोष रूप महाभारत ग्रन्थ का निर्माण किया, जिसे भारतीय संस्कृति में पांचवा वेद भी माना जाता है | वेदव्यास जी ने अपने महान विचारों को एक ग्रन्थ में संकलित किया और विश्व के लोगों का सही जीवन जीने में मार्गदर्शन किया | इसलिए तो तभी से संस्कृति के विचारों का वहन करने वाले को व्यास और वो जो तख्ते से विचार का वहन करता है, उसको व्यासपीठ कहा जाता है |
गुरुपूजन मतलब, ध्येय का पूजन, विचार का पूजन, संयम का पूजन | भगवद गीता के अनुसार, “तद्विद्वी प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया”, शिष्य नम्रता, जिज्ञासा और सेवा भाव से गुरु के पास बैठकर ज्ञानामृत को ग्रहण करता है | गुरु, शिष्य के जीवन का एक पेपर सफेद है, जिसकी वजह से वासना के विचारों से शिष्य के जीवन पुस्तक के पन्ने उड़ नहीं जाते |
आज हम लोग 21 वीं सदी में जी रहे हैं , इसलिए समाज की स्थिति कुछ और ही है | समाज में शिक्षक को शिष्य से और शिष्य को शिक्षक से प्यार नहीं है, लगाव नहीं है, आदर नहीं है | जब एक विद्यार्थी का जीवन बिगड़ता है, तो उसके लिए एक गुरु जिम्मेदार होता है, पर आज तो कोई जिम्मेदारी लेने के लिए तैयार ही नहीं है | माँ-बाप कहते है कि मेरा बेटा शिक्षक के पास जाकर बिगड़ गया और शिक्षक कहता है कि, मेरे पास जब आया तब से बिगड़ा हुआ ही है | आज विद्यालयों में ध्येय और संस्कार के पाठ तो पढ़ाये ही नहीं जाते, सिर्फ अर्थोपार्जन के तरीके ही सिखाये जाते हैं | और शायद इसलिए ही, गुरु-शिष्य के बीच कोई ह्रदय का सम्बन्ध ही नहीं है|
कही पर लिखा है , “गुरु से भेद न मानिये, गुरु से रहे न दूर ; गुरु बिन ‘सलिल’ मनुष्य है, आंखे रहते सुर” I हमारे जीवन में तीन प्रकार के गुरु होते हैं I हमारे प्रथम गुरु है, हमारे माँ-बाप, जो हमारे जन्म के बाद हमें ऊंगली पकड़कर चलना सिखाते हैं , प्रारंभिक जीवन की जो बाते हैं , बड़ो से कैसे व्यव्हार करना-माता-पिता को और ईश्वर को नमस्कार करना, जीवन की हर बात का कैसे आचरण करना, घर के लोगों का सम्मान करना … यह सब बाते हमें सिखाते हैं | हमारे दूसरे गुरु है, हमारे शिक्षक I शिक्षक हमें अध्ययन कराते हैं, जीवन का मूल्य सिखाते हैं | हमारे निजी जीवन में इतिहास, विज्ञान, भूगोल, हमारा राष्ट्र, हमारी संस्कृति… यह सब बाते शिक्षक सिखाते हैं | जीवन में निश्वार्थ रहना, त्याग वृति का निर्माण करना, हमारे जीवन में आदर्श को कैसे चुनना… यह सब शिक्षक सिखाते हैं | और तीसरे गुरु है, आध्यात्मिक गुरु|
आध्यात्मिक गुरु हमें जीवन की उस राह पर लेकर जाते हैं, जो मनुष्य जीवन को सार्थक करने के लिए जरुरी है | आत्मा और परमात्मा का मिलन, जीवन में योग और ध्यान का महत्त्व, सच्चाई के मूल्य, संस्कृति का अध्ययन… यह सब बाते हमें आध्यात्मिक गुरु से सिखने को मिलती है | अज्ञान को दूर कर, ज्ञान का दीपक जलाने का कार्य एक आध्यात्मिक गुरु ही कर सकते हैं | जैसे स्वामी विवेकानंद के लिए रामकृष्ण परमहंस, शिवाजी महाराज के लिए रामदास स्वामी, प्रमुख स्वामी के लिए सहजानंद स्वामी… हर कामयाब व्यक्ति के पीछे एक आध्यात्मिक गुरु का स्थान होता है | आजकल तो बाबाओं की लाइन लगी हुई है, पर यहां पर , पैसे इकठ्ठे करने का काम करने वाले और लोगों को गुमराह करने वाले ढोंगी बाबाओं की बात नहीं कर हो रही है | हमें अपने लिए, एक योग्य अध्यात्मिक गुरु का संशोधन करना होगा, जो हमारी संपति नहीं परन्तु, हमारे जीवन के उत्थान में उत्सुक हो, जो हमें एक सच्चा इन्सान बनाए और सही-गलत की पहचान करायें |
आज से ही हम भी अपने सही गुरु को पहचाने और उसके ज्ञान में तल्लीन होकर जीने की सही राह खोजने का प्रयास करें | हमारे ऐसे गुरु को शत शत प्रणाम |
“यह तन विषकी बेलरी गुरु अमृत की खान, सीस दिए जो गुरु मिले तो भी सस्ता जान |”
“सब धरती कागज करू लेखनी सब वनराय, सात समुंद्रकी मसी करू गुरु गुण लिखा न जाय ||”