कर्मफल की इच्छा के त्याग

त्यागः संपूर्ण भौतिक ऊर्जा भगवान की है और यह उनकी खुशी के लिए है। इसलिए, संसार की ऐश्वर्य किसी के भोग के लिए नहीं है। बल्कि ईश्वर की सेवा में उपयोग करने के लिए है। इस समझ में स्थिर होना ही त्याग है। वैसे तो इस संसार में मनुष्य का भोगों के प्रति आकर्षण स्वाभाविक है। पर विचारने पर दृष्टिगत होता है कि त्याग ही वह तत्व है जिसे महत्व देने पर मनुष्य का जीवन वास्तविक रूप से सुखमय, कल्याणमय और आनंदमय हो पाता है।

जैसे-जैसे व्यक्ति भोगपरायण होता जाता है उसकी प्रवृत्ति संग्रह और परिग्रह की होती चली जाती है। संग्रह-परिग्रह का भाव क्रिया का वह वेग है जिसका परिमाण, तीव्रता और दिशा हम इस प्रकार तय करते हैं कि संग्रहित वस्तु और सेवा का उपभोग सदा पीढ़ी दर पीढ़ी सिर्फ हम और हमारा परिवार हीं करे तथा दूसरे को इसके उपयोग तक से भी वंचित रखा जाय। व्यक्ति अपने हीं विवेक का निरादर करना आरंभ कर देता है। अपने विवेक की उपेक्षापूर्ण निरादर करता हुआ संग्रह-परिग्रह के वशीभूत किसी व्यक्ति के कार्यकलाप को दूर से देखना प्रायः एक ज्ञानवर्धक अनुभव हो सकता है।

हम देखते हैं कि जैसे ही उसके संग्रह-परिग्रह के मार्ग में कोई बाधा उपस्थित होती है, उसे समाप्त करने के लिए वह किसी भी सीमा तक स्वयं को ले जाता है। परिणामतः ऐसे लोलचित्त व्यक्ति को अंततः प्रायः अपनों से हीं तिरस्कार, अपमान, दुःख एवं क्लेश का भागी होना पड़ता है। और यदि संग्रह-परिग्रह भ्रष्टाचार एवं पापाचार से प्रेरित हो तो आश्चर्य नहीं कि उस व्यक्ति को जीवन के सांध्यवेला तक में भी अपने उस दुष्कृत्य की खातिर दण्डित भी होना पड़े।

श्रीमद्भगवद्गीता में त्याग का स्थान साधन के रुप में सर्वाेपरि कहा गया है, कारण इसके आश्रय से तत्काल हीं शान्ति प्राप्त हो जाती है। त्याग को अभ्यास, शास्त्रज्ञान, ध्यान इन सभी से श्रेष्ठ माना गया है। त्याग से तात्पर्य कर्मफल की इच्छा के त्याग से है।

इसलिये यदि कम से कम इस आसक्ति का त्याग हो जाय तो यह व्यक्ति का उसके स्वयं के प्रति सबसे बड़ी सेवा है जो उसके जीवन को विलक्षण रूप से आगे के लिये मूल्यवान बना देती है।

दृढ़ताः प्रतिकूल परिस्थितियों के कारण मन और इन्द्रियों के थक जाने पर भी लक्ष्य प्राप्ति में आंतरिक शक्ति और दृढ़ संकल्प है। दुनिया में अधिकांश महत्वपूर्ण चीजें उन लोगों द्वारा पूरी की गई हैं जो तब भी कोशिश करते रहे जब उन्हें कोई उम्मीद ही नहीं थी। श्री अरबिंदो ने इसे बहुत ही वाक्पटुता से कहाः ‘आपको कठिनाई से अधिक दृढ़ रहना होगा।’ कोई और रास्ता नहीं है।

सिर्फ इच्छा करने मात्र से ही हमें सफलता नहीं मिलती बल्कि सफलता पाने के लिए अपने भीतर आत्मविश्वास को जगाना होता है और साथ ही दृढ़ संकल्पित होने की भी आवश्यकता होती है। दृढ़ संकल्प में अद्भुत शक्ति होती है, जिसकी मदद से हम अपने जीवन में न सिर्फ सफलता बल्कि चिंताओं से भी मुक्ति पा सकते हैं। ईश्वर ने मनुष्य का निर्माण ही कुछ इस प्रकार से किया है कि उसके सामने जब तक भागने का एक भी उपाय शेष रहता है, तब तक वह कष्ट पाने की अपेक्षा भागने के लिए ही लालायित रहता है। ऐसे व्यक्ति को विजय तभी प्राप्त हो सकती है, जब वह अपने दिल में दृढ़ संकल्प कर ले कि मनोवांछित चीज हासिल कर के रहूंगा।

जूलियस सीजर के बारे में कहा जाता है कि वह नेपोलियन की तरह अंतिम निर्णय लेने में माहिर था। युद्ध के समय वह तमाम दुविधाओं एवं विकल्पों को ही नष्ट कर दिया करता था। जब भागने का कोई मार्ग खुला न हो तो मनुष्य के लिए डटकर मुकाबला करने के अलावा कोई विकल्प ही नहीं होता है। इस स्थिति में योद्धा असहनीय कष्ट और कठिनाइयों को सहन करते हुए भी अपने लक्ष्य से विचलित नहीं होता है। यदि कोई व्यक्ति अपने जीवन में आने वाली बाधाओं पर विजय प्राप्त करने का निश्चय कर लेता है तो उसके भीतर एक आंतरिक महाशक्ति का उदय होता है। दृढ़ संकल्प में असीम शक्ति होती है जो व्यक्ति को किसी भी प्रकार की बाधाओं से जूझने में सक्षम बनाती है।

जब कोई व्यक्ति आत्मा से प्रतिज्ञा करता है कि वह लक्ष्य प्राप्ति में सफल होकर रहेगा, तो उसके अंदर की तमाम शक्तियां आश्चर्यजनक रूप से उजागर होने लगती हैं। जब उसकी आत्मा लक्ष्य पर अटल रहती है, तब उसकी सभी योग्यताएं उसकी मदद करने में जुट जाती हैं और परिणामस्वरूप वह साधारण से असाधारण बन जाता है।

स्वच्छताः यह आंतरिक और बाहरी शुद्धता दोनों को संदर्भित करता है। सदाचारी लोग बाहरी स्वच्छता को बनाए रखने में विश्वास करते हैं क्योंकि यह आंतरिक शुद्धता के लिए अनुकूल है। जॉर्ज बर्नार्ड शॉ ने कहा, ‘बेहतर होगा कि आप अपने आप को साफ और उज्ज्वल रखें। आप वह िखड़की हैं जिसके माध्यम से आपको दुनिया को देखना चाहिए।’

स्वच्छता एक क्रिया है जिससे हमारा शरीर, दिमाग, कपड़े, घर, आस पास और कार्यक्षेत्र साफ और शुद्ध रहते है। हमारे मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य के लिये साफ सफाई बेहद जरूरी है, अपने आस पास के क्षेत्रें और पर्यावरण की सफाई सामाजिक और बौद्धिक स्वास्थ्य के लिये बहुत जरूरी है। स्वच्छता से हमारा आत्मविश्वास बढ़ता है और दूसरों का भी हम पर भरोसा बनता है। दोस्तों ये एक अच्छी आदत है जो हमें हमेशा खुश रखेगी। ये हमें समाज में बहुत गौरान्वित महसूस कराएगी। स्वच्छता एक ऐसा कार्य नहीं है, जो पैसा कमाने के लिये किया जाए बल्कि ये एक अच्छी आदत है जिसे हमें अच्छे स्वास्थ्य और स्वस्थ जीवन के लिये अपनाना चाहिये। स्वच्छता सबसे पुण्य का कार्य है जिसे जीवन का स्तर बढ़ाने के लिये एक बड़ी जिम्मेदारी के रुप में हर एक को अनुकरण करना चाहिये।

स्वच्छता से हमें रहने के लिए अच्छी जगह मिलती है, सास लेने के लिए साफ हवा मिलती है। पीने के लिए साफ पानी मिलता है। हमारे आस-पास किसी भी प्रकार की दुर्गंध नहीं फैलती। हम साफ सफाई से रहेंगे तो हमारी समाज में इज्जत होगी। हम अपने गली मोहल्ले को साफ रखेंगे तो बीमारियां मच्छर नहीं होंगे। अगर हम अपने इलाके को सवच्छ रखेंगे तो हमारे यहा दूसरे लोग आएंगे और हमारी तारीफ होगी। इसी प्रकार हम हमारे देश को सवच्छ रखेंगे तो विदेश में हमारे देश की तारीफ होगा। और दोस्तों गांवों में भी आज कल लोग अपने जानवरों को सवच्छ रखते हैं उनकी रहने की जगह की साफ सफाई अच्छे से करते हैं तो इसका ये फायदा होता है कि वो अच्छा दूधः देते हैं। स्वस्थ रहते है। बीमारियों से भी बचाव होता है। हम देखते हैं साफ-सफाई रखने वाले लोग कम बीमार पड़ते है। यदि आप अपने घर को साफ और स्वच्छ रखेंगे तो आपके घर से बीमारियां कोसाें दूर रहेंगी।

किसी से दुश्मनी नहीं रखनाः दूसरों के प्रति शत्रुता का भाव हमारे मन को विषैला कर देता है और यह आध्यात्मिक उन्नति के मार्ग में बाधक बन जाता है। दूसरों के प्रति घृणा से मुक्ति का गुण यह महसूस करने से विकसित होता है कि वे भी हमारे जैसे हैं, और ईश्वर सभी में निवास करता है।

इस दुनिया में ऐसा कोई भी व्यक्ति नहीं है जिसे सब पसन्द करते हों। जीवन कितना आसान होता अगर हम उन सभी लोगों को नजंदाज कर सकते जो हमें पसंद नहीं करते हैं। परंतु हम सब जानते हैं कि असल जिंदगी में ऐसा करना मुमकिन नहीं है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। हमारे लिए रिश्तों का बहुत महत्व है_ चाहे यह व्यक्तिगत हों या पेशेवर। ऐसे में आपको नापसंद करने वालों से निपटने के लिए कुछ उपाय हैं-

यह जानने की कोशिश करें कि उन्हें आपकी किस बात से तकलीफ है। हो सकता है आप सच में गलत हों। इससे आपको सीखने का मौका मिलेगा। यह दूसरे लोगों की सोच और नजरिया जानने का अवसर है। खुले मन से संवाद की कोशिश करें। एक दूसरे पर दोष डालने से कोई हल नहीं निकलता।

सभ्यता के दायरे में रहें। अक्सर ऐसी स्थिति में सामने वाले को पीटने या सबक सिखाने की होती है पर किसी भी हाल में लड़ाई से बचें। गुस्से के कारण आसानी से उत्तेजित मत होइए। ऐसा कुछ भी मत करिए/कहिए जिसकी वजह से आपको बाद में पछतावा हो।

अंत में जब कुछ भी हल ना निकले और ऐसा लगे कि कोई बिना किसी कारण के नफरत करता है तो आपको यह स्वीकार करना ही होगा कि कुछ लोग केवल दूसरों को बुरा महसूस कराने के लिए जीते हैं। उनका जीवन में कोई ठोस उद्देश्य नहीं होता इसी वजह वे अपना खाली वक्त ऐसे जाया करते हैं। ऐसे लोग अक्सर ईर्ष्यालु प्रवृत्ति के होते हैं और इनसे दूरी बना के रखने में ही भलाई है।

अपने आदर्शों के साथ समझौता न करें। केवल दूसरों को खुश करने के लिए न जिएं। यह मार्ग आपको सिर्फ तनाव और असफलता की ओर लेकर जाएगा। यदि आप ऐसा कर रहे हैं तो हो सकता है कि आपने अभी तक अपने आपको ही नहीं स्वीकारा है। निरंतर अपने विकास में लगे रहें परंतु यह सब दूसरों को प्रभावित करने के लिए न करें। यह बात हमेशा याद रखें कि आप सभी को खुश नहीं कर सकते हैं। बस आप जो करते हैं उसमें अपना सर्वश्रेष्ठ दें।

घमंड का अभावः स्वाभिमान, घमण्ड, आडम्बर आदि सब अभिमान से उत्पन्न होते हैं। संत लोग अपने आप में गर्व करने के लिए कुछ भी नहीं देखते हैं। बल्कि अपने पास मौजूद अच्छे गुणों के लिए भगवान के प्रति कृतज्ञता महसूस करते हैं। इस प्रकार, वे आत्म-उन्नति से बचते हैं।

अहंकार अथवा घमंड बीमारी अथवा दीमक की तरह है। जिस तरह बीमारी के रोगाणु दिनोंदिन शरीर को क्षीण कर एक दिन समाप्त कर देते हैं। अहंकार भी उसी अनुरूप व्यक्ति को ऐसे नशे में मदहोश कर देता है वह व्यक्ति को न केवल सच्चाई से परे एक कल्पना लोक में ले जाता हैं बल्कि जीवन के लिए असमायोजन करने वाली विकट स्थितियों को भी जन्म दे देता हैं।

जीवन में दुःख का पर्याय अहंकार ही हैं। व्यक्ति अपने अहम भाव के कारण सभी से स्वयं को श्रेष्ठ तथा हर क्षेत्र में ज्ञान, शक्ति से सम्पन्न मानने लगता हैं। वह इस नशे में इस हद तक डूबा रहता है कि दूसरों के ज्ञान, अनुभव, सलाह का उपयोग करने की कभी जरूरत ही नहीं समझता है। संसार में अनगिनत जीव हैं उनमें सबसे कमजोर जीव में भी एक जबर्दस्त खूबी होती है वो है अनुकरण। जिसके सहारे वह अपनी क्षमता में वृद्धि करता जाता हैं। मगर अहंकारी इंसान कभी किसी के अनुकरण को स्वीकार नहीं करता हैं।

जहाँ अहंकार का वास होता है वहां नम्रता, बुद्धि, विवेक, चातुर्य कोई गुण विद्यमान नहीं होगा। घमंड जिस इंसान पर हावी होता है वह सबसे पहला काम भी यही करता है कि अन्य गुणों का प्रवेश न हो। व्यर्थ के अहं भाव के कारण उसकी नजर में हमेशा सब लोग नीचे एवं निम्न स्तर के होते हैं। वह सदैव दूसरों की राह में बाधाएं उत्पन्न कर प्रसन्नता पाता है तथा दूसरों को गिराकर अपनी राहें बनाता हैं।

जैसे-जैसे अहंकारी व्यक्ति का ओहदा बढ़ता जाता है उसी अनुरूप उसका दम्भ भी वृद्धि करने लगता है। सत्ता, धन आदि के नशे में इस कद्र मशगूल रहता है कि वह कभी कल्पना नहीं कर पाता है कि एक दिन उसका भी पतन होगा। जीवन में कठिनाईयाँ आएगी तथा उस समय उसके साथ खड़े होने वाला कोइ नहीं होगा। कितना भी अच्छे व्यक्तित्व वाला इंसान हो यदि वह अहंकारी है तो उसके समस्त गुण उस तरह धुंधले हो जाते हैं। जिस तरह धधकते अंगारों पर जमी राख की परत अग्नि को धुंधला कर जाती हैं।

क्षमा, दया, करुणा, प्रेम, धैर्य, नम्रता, सादगी ये कुछ ऐसे गुण हैं जो प्रत्येक मानव में आंशिक रूप से हों यह अपेक्षा की जाती है। मगर जहाँ अहंकार का घर होता है वहां इन समस्त मानवीय मूल्यों के लिए कोई जगह नहीं बसती है। वह व्यक्ति इन अमोघ रूपी औषधि से जीवन भर अपरिचित ही रहता हैं। जिसके कारण उसके अहं का स्वरूप दिन ब दिन उसे जकड़ता चला जाता है।

यदि एक विवेकशील व्यक्ति चाहे तो अपने अहंकार को मिटा सकता है। उस पर नियंत्रण पा सकता है। इससे पूर्व उन्हें यह स्वीकार करना होगा कि वह दम्भ में रहता है। जब तक गलती स्वीकार नहीं की जाएं उसमें सुधार की गुंजाइश न के बराबर होती है। अतः खुले ”दय से अपने अहं भाव को स्वीकार करिये तथा भविष्य में उसके दोहरान से बचने का प्रयास करें तो निश्चय ही हम अहंकार रूपी रावण से बच सकते हैं। हमारे हिन्दू धर्म ग्रंथों में कहा गया है क्षमा परमो धर्मः, अतः हमें उस इंसान से क्षमा मांग लेनी चाहिए जिसकों हमारे अहं भाव के कारण पीड़ा पहुंची हो।

विनम्रता व्यक्तित्व का गहना होती है। इसकी शुरुआत अहंकार के अंत से ही होती है। जीवन में शान्ति और आनन्द के अनुभव तभी पाए जा सकते हैं जब हम विनम्र हों, हमें विनम्रता के आभूषण का वरण कर अपनी आंतरिक असीम शक्ति को जागृत करना। होगा यदि हम ऐसा कर पाते हैं तो निश्चय ही समस्त तरह के मानसिक मनोविकारों से भी स्वयं को बचा सकते हैं। अपने खुशहाल जीवन की नीव रख सकते हैं।

 

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