जवाहरलाल नेहरू (भारतरत्न- 1955)

जवाहरलाल नेहरू (भारतरत्न- 1955)

(जन्म 14 नवम्बर 1889, मृत्यु-27 मृत्यु 1964)

विजय हमारे साथ में नहीं होती, लेकिन साहस और प्रयास से वह अक्सर मिल जाती है, लेकिन जो कायर हैं और नतीजों से डरते हैं, उन्हें तो विजय कभी नसीब ही नहीं हो सकती।” इन विचारों के मानने और बच्चों को ढेर सारा प्यार लुटाने वाले तथा उनके दिलों को जीतने वाले पंडित जवाहरलाल नेहरू का जन्म 14 नवम्बर, 1889 को इलाहाबाद में हुआ था। होनहार एवं शानदार व्यक्तित्व के मालिक पंडित जवाहरलाल नेहरू को आम जनता का अपार प्यार मिला। उनके पिता देश के मशहूर वकील थे। उनका नाम था, मोतीलाल नेहरू । माता स्वरूपरानी के लाड़ले जवाहर की दो बहनें थीं, विजयालक्ष्मी और कृष्णा।

पंडित जवाहरलाल के घर का खानपान, रहन-सहन और शिष्टाचार आदि सब अंग्रेज़ी ढंग का था। उनका लालन-पालन बड़े लाड़-प्यार के बीच हुआ। घर पर ही प्राथमिक शिक्षा दी जाने लगी। कई अंग्रेज़ अध्यापक घर पर पढ़ाने आया करते थे। उनमें एफ.टी. ब्रुक्स मुख्य थे, पर वह शिक्षक कम, थियोसोफ़ी के प्रचारक अधिक थे। इस कारण बालक जवाहर पर थियोसोफ़ी द्वारा आध्यात्मिक प्रभाव भी पड़ा। उन्हीं दिनों उन्होंने श्रीमती एनी बेसेंट को भी ख़ूब सुना। बचपन में ही वह अपने पिता के मुंशी मुबारक अली से फ़ारसी पढ़ने के साथ-साथ 1857 के स्वतन्त्रता संग्राम के वीरों की कहानियां सुनते थे। माता स्वरूपरानी उन्हें रामायण, महाभारत और पुराणों की कथाएं सुनाया करती थीं। उनके बाल मानस पर पश्चिमी सभ्यता के साथ भारतीयता का रंग भी चढ़ता गया।

एक दिन वह घुड़सवारी सीखते हुए गिर गए। उन्हें काफी चोट आई, लेकिन डरे नहीं, बल्कि घुड़सवारी का शौक और भी बढ़ गया। पन्द्रह साल की आयु मैं जवाहरलाल को मोतीलाल ने इंग्लैंड के प्रसिद्ध स्कूल हैरो में भर्ती करा दिया। स्कूल में सभी विद्यार्थियों को जूतों की पॉलिश जैसे छोटे-छोटे काम खुद करने पड़ते थे। एक बार मोतीलाल ने उन्हें पॉलिश करते देखा, तो बिगड़कर बोले, “यह काम तुम नौकरों से क्यों नहीं करा लेते?” जवाहर का फौरन उत्तर मिला, “जो काम में स्वयं कर सकता हूं, वह दूसरों से क्यों कराऊं?”

इसके बाद वह कैम्ब्रिज के ट्रिनिटी कॉलेज में भर्ती हुए। यहां से बी.ए. और एम.ए. की शिक्षा प्राप्त करके इनस्टेरियल से वैरिस्ट्री की परीक्षा पास की। सात साल विदेश में रहकर 1912 में स्वदेश लौट आए। उस समय उनकी आयु तेईस साल के आसपास थी। उन्होंने अपने पिता के साथ मिलकर इलाहाबाद हाईकोर्ट में वकालत शुरू कर दी।

सन् 1916 की वसन्त पंचमी को दिल्ली निवासी जे.एल. कौल की सुपुत्री कमलादेवी से उनका विवाह हो गया। कमलादेवी अत्यन्त सुशील, आदर्श और समर्पित महिला थीं। विवाह के दो वर्ष पश्चात ही उनके यहां इन्दिरा जी का जन्म हुआ। आनन्द भवन में आनन्द-ही-आनन्द छा गया।

देश में बदलती परिस्थितियों को देखते युवक जवाहर के मन में कुछ कर गुज़रने की इच्छा जागने लगी। प्रथम विश्वयुद्ध समाप्त होने के बाद अंग्रेजों ने वायदे के अनुसार भारतीय शासन में कुछ सुधार लाने के बदले रोलट एक्ट जैसा दमनकारी कानून बनाकर भारतीय जनता को कुचलना शुरू कर दिया। इस कानून से किसी भी आदमी को केवल शक की बिना पर अनिश्चित काल के लिए बन्दी रखा जा सकता था। इसके विरोध में महात्मा गांधी ने असहयोग और सविनय अवज्ञा आन्दोलन छेड़ दिया।

महात्मा गांधी के सम्बन्ध में जवाहरलाल काफ़ी पढ़ और सुन चुके थे। जब उन्हें लखनऊ अधिवेशन में देखा, तो उनसे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके। वह भी गांधी जी के साथ आन्दोलन में कूद पड़े। मोतीलाल ने बेटे को रोकने की कोशिश की, किन्तु जवाहरलाल अपने फ़ैसले पर अडिग रहे। उनकी देशभक्ति से प्रभावित होकर मोतीलाल भी पसीज गए।

फिर चली आन्दोलन और संघर्षों की आंधी, जेल-यात्राएं, धरने और पिकेटिंग, भाषण और लाठीचार्ज। विदेशी वस्त्रों की होलियां और जुलूसों का लगातार सिलसिला चला, जिससे सारा भारत एक ही रंग में रंग गया, आज़ादी की उमंग का रंग।

सन् 1920 तक वह वकालत करते रहे, परन्तु गांधी जी की विदेशी बहिष्कार की नीति एवं असहयोग आन्दोलन के प्रभाव में आकर उन्होंने वकालत छोड़ दी और उस आन्दोलन में खुलकर भाग लेने लगे। सन् 1921 में उन्हें छह महीने की और सन् 1922 में अठारह महीने की क़ैद हुई। इसी वर्ष वह अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के महामन्त्री बन गए।

1928 में जब साइमन कमीशन का देश-भर में काले झंडों से स्वागत किया जा रहा था। लाला लाजपतराय ब्रिटिश सरकार के क्रूर प्रहार से घायल हो चुके थे। हर तरफ विरोध की ज्वाला धधक रही थी। जहां साइमन कमीशन जाता, वहां उसके विरोध की चिनगारियां भड़क उठतीं। इसके चलते सरकार का दमन चक्र जनता पर कहर ढाता रहा।

साइमन कमीशन 30 नवम्बर, 1928 को लखनऊ पहुंचा। उसका विरोध करने के लिए हज़ारों लोग कई समूहों में स्टेशन की ओर बढ़ चले। सरकार ने जुलूसों पर रोक लगा दी, सोलह-सोलह की टुकड़ियों में पहुंचकर सभा स्थल पर इकट्ठा होने की व्यवस्था कर ली गई। सारा शहर डरा हुआ था, फिर भी कुछ कर गुज़रने के जोश से भरपूर था। सड़कें सूनी थीं, चप्पे-चप्पे पर पुलिस तैनात थी। यह जुल्म के ख़िलाफ़ विरोध और दमन की ज़बर्दस्त टक्कर थी। उस दिन लखनऊ का चारबाग स्टेशन नारों से गूंज उठा था –

साइमन कमीशन वापस जाओ!

काला कानून मुर्दाबाद! इंकलाब ! जिन्दाबाद!

भारत माता की जय !

वन्देमातरम !

पुलिस का घुड़सवार दल देशभक्तों पर टूट पड़ा। जवाहरलाल नेहरू और पं. गोविन्दवल्लभ पन्त सबसे आगे थे। पुलिस ने निर्दयता से उन पर लाठियां बरसानी आरम्भ कर दीं। सत्याग्रही वहीं सड़क पर बैठ गए और बाजुओं से सिर को ढकने का असफल प्रयास करने लगे। पं. गोविन्दवल्लभ पन्त ने अपने लम्बे-चौड़े डील-डौल से नेहरू को ढक लिया, किन्तु, जोशीले जवाहरलाल उनकी गिरफ्त से बाहर निकलने के लिए ज़ोरों से मचलने लगे।

एक सवार ठोकर मारता हुआ तीर-सा निकल गया। प्रहार के कारण जवाहरलाल की आंखों के आगे अंधेरा छा गया। क्रोध का उत्तर क्रोध से देने की भावना भी जागी, किन्तु संयम ने उन्हें रोक लिया। लाठीचार्ज के दौरान वह दल से बिछड़ गए। उन पर ज़ोरों से लाठियां बरसीं और बेहोश होकर गिर पड़े। आधी बेहोशी में भी वह वहां से हटना नहीं चाहते थे । अंग्रेज़ सरकार ने उन्हें लखनऊ, बरेली, देहरादून, अहमदनगर कई स्थानों पर जेल में बन्द रखा। जब भी वह जेल से बाहर आते, फिर से दहाड़ते शेर की तरह राजनीति में सक्रिय हो जाते। इस तरह नौ वर्ष का कारावास भोगा । ज़ेल में रहकर उन्होंने ‘विश्व इतिहास की झलक’ और ‘भारत की खोज’ नामक प्रसिद्ध पुस्तकें लिखीं। ‘पिता के पत्र पुत्री के नाम’ भी उनकी ऐसी उत्कृष्ट पुस्तक है।

सन् 1929 में लाहौर में हुए कांग्रेस अधिवेशन में उन्हें अध्यक्ष बनाया गया। वहीं रावी के तट पर 26 जनवरी को पूर्ण स्वाधीनता का प्रस्ताव पारित किया गया और समस्त देश एक विशाल संघर्ष के लिए तैयार हो गया, फिर वही दौर चला, जुलूस, प्रदर्शन, लाठीचार्ज और कारावास का। सन् 1930 में गांधी जी ने नमक सत्याग्रह आरम्भ कर दिया। समूचे देश में नवजागरण की लहर दौड़ गई। हज़ारों देशभक्त नमक क़ानून तोड़कर जेल जाने लगे। जेलें मन्दिर बन गईं। इसी बीच जवाहरलाल के पिता मोतीलाल का देहान्त हो गया और पांच साल बाद पत्नी भी स्वर्गवासी हो गईं। वह इन दोनों मौतों से संभले भी नहीं थे कि माता स्वरूपरानी भी उन्हें छोड़कर चल बसीं। उनकी बेटी इन्दिरा तब छोटी ही थी, लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी। वह अपने इस गम को भुलाने के लिए पूरी तरह देश की सेवा में लग गए। 20 जून, 1938 को पेरिस रेडियो से प्रसारित उनके प्रभावशाली भाषण से पूरी दुनिया में तहलका मच गया।

उनका भावुक हृदय पशु-पक्षियों के दुख-दर्द को भी ख़ूब पहचानता था। जेल के दिनों में एक बार स्वयं बीमार थे, पर तीमारदारी करते थे एक पिल्ले की। लखनऊ जेल में जब वह पढ़ा करते थे, तो बिल्कुल बिना हिले-डुले काफी समय तक बैठे रहते थे। तब एक गिलहरी उनके पांव पर चढ़ आती थी और उनके घुटने पर बैठकर निहारा करती थी। उसे जब यह भान होता कि वह कोई वृक्ष नहीं एक जीवित पुरुष है, तो तुरन्त फुदककर चली जाती थी । ग़लतफ़हमी का यह ड्रामा दिन में न जाने कितनी बार खेला जाता था। नेहरू उन बेजुबानों की अठखेलियों को देखते और आत्मविभोर हो जाते, जैसे कोई भावुक कवि कुदरत के इन कारनामों को देख निहाल हो जाता है।

सन् 1942 में कांग्रेस ने ‘अंग्रेज़ो भारत छोड़ो’ का नारा बुलन्द किया। इस आन्दोलन में नेहरू को गिरफ्तार कर लिया गया। वह 1945 तक जेल में रहे। अन्त में 1947 को सत्ता का हस्तान्तरण हुआ। अंग्रेज़ों की चाल से भारत के दो टुकड़े हो गए और दंगों की आग भड़क उठी। आदमी का ख़ून बहुत सस्ता हो गया। इंसानियत की कोई कीमत नहीं रही। सारा दिल्ली शहर आतंकित हो उठा था। कर्फ्यू खुलते ही ख़ून की होली खेली जाती। जवाहरलाल दिल्ली के गली-कूचों में निर्भीकता से चले जाते थे। उन्हें किसी के छुरे या गोली का ख़तरा नहीं सताता। कभी किसी चौराहे पर, तो कभी मस्जिद के सामने लोगों को बचाने के लिए आगे आते|

ब्रिटेन के तत्कालीन प्रधानमन्त्री विंस्टन चर्चिल ने स्वीकारा था, “इस पुरुष ने मानव प्रकृति के दो बड़े दोषों को अपने काबू में कर लिया है। उसमें न भय है और न दोष।” यह उक्ति अपने-आप में पूरे इतिहास का दर्पण है।

पं. नेहरू के अनूठे व्यक्तित्व ने सारे विश्व को अपनी चमत्कारी आभा में समेट लिया था। 15 अगस्त, 1947 को भारत स्वतन्त्र हुआ, तो नेहरू ही भारतीय गणराज्य के पहले प्रधानमन्त्री बने। उनका अपनी वाणी और लेखनी पर कमाल का अधिकार था। वास्तव में वह उन राजनीतिज्ञों में नहीं थे, जो अवकाश के क्षणों में दिल बहलाने अथवा अपनी बात दूसरों पर थोपने के लिए साहित्य-सृजन करते थे। उनकी रचनाओं में राजनीति कम और साहित्य अधिक मिलता है, चाहे वह ‘मेरी कहानी’ हो, चाहे ‘भारत की खोज’, चाहे ‘पिता के पत्र पुत्री के नाम’ हो या ‘विश्व इतिहास की झलक’ वह एक संवेदनशील रचनाकार की हैसियत से हमेशा याद किए जाते रहेंगे।

प्रकृति के इस अनोखे चितेरे के सम्बन्ध में एक बार डॉ. राधाकृष्णन ने कहा था, “अपनी आत्मकथा या भारत की खोज अथवा विश्व इतिहास की झलक, या भारत की एकता में उन्होंने आदमियों के, पहाड़ों के, प्रकृति के, बच्चों के, पशु-पक्षियों और पुष्पों के क्या ही सुन्दर रेखाचित्र खींचे हैं। बहुत-सी सुन्दर वस्तुओं के बारे में उन्हें ढेर सारा ज्ञान है।”

बच्चों के प्रति उनके मन में असीम प्रेम था। उन्हीं के शब्दों में, “जब कोई आसमान के सितारों को देखकर देश का भविष्य बतलाता है, तब मुझे बड़ी हैरानी होती है। यदि हमें खुशहाल, समृद्ध और स्वस्थ भारत की तस्वीर देखनी हो, तो बच्चों के चेहरों में देखिए। यदि देश के बालक प्रसन्न और स्वस्थ हैं, तो देश भी मज़बूत और खुशहाल होगा।”

उनका जन्मदिन ही बाल-दिवस के रूप में मनाया जाता है। वह विश्व के सभी बच्चों के चाचा नेहरू हैं। ‘शंकर्स वीकली’ प्रति वर्ष संसार के सभी देशों के बच्चों की अटपटी रंगीन तस्वीरों की प्रतियोगिता आयोजित करता है। 3 दिसम्बर, 1949 को प्रकाशित इसी पत्रिका के बाल विशेषांक में स्वयं उन्होंने लिखा था, “मैं ज्यादा-से-ज़्यादा समय बच्चों के बीच बिताना पसन्द करता हूँ। उनके साथ रहकर कुछ समय के लिए यह भूल जाता हूं कि कोई कितना बुढा हो गया है और उसका बचपन बीते एक युग गुज़र चुका है।” बच्चे ही देश के भविष्य होते हैं। उन्हें ही यदि हम उचित और अच्छी शिक्षा न दें, तो फिर देश का क्या बनेगा, नेहरू को इसकी बड़ी चिन्ता रहती थी।

1955 के साल में जवाहरलाल नेहरू को भारतीय गणतन्त्र की सर्वोच्च उपाधि ‘भारतरत्न’ से विभूषित किया गया, किन्तु देश इस रत्न को अधिक दिनों तक संजोए नहीं रख सका। 27 मई, 1964 को यह रत्न हमसे विदा हो गया।

 

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