महर्षि कश्यप

गीता में भगवान ने कहा है, “अहमात्मा गुडाकेश सर्व भूताशय स्थित:”, किंतु भारत की भूमि पर तो,  ऐसे कई उत्तुंग हिमालय जैसे जीवन है, जिनको देखकर लगता है की, भगवान स्वयं ही उनका रूप लेकर इस धरा पर आए हैं। ऐसे महान चरित्रों की बात जब हम कहते है, तब लगता है, मानो उस सागर की बात एक लोटी में भरे गंगाजल कर रहा है। कहा ऐसे महान जीवन चरित्र और उनकी जीवन गाथा ए और कहा हम जैसे सामान्य मानव की बुद्धि, जो अपने फायदे के अलावा आगे का सोचने की भी दरकार नहीं रखती। हमारी बुद्धि वहां तक सोचने की क्षमता ही नहीं रख सकती, तब उनका जीवन का आकलन करने की हिमत करा ली है तो, उसे समर्पित हो के करेंगे।

हमारी संस्कृति की धरोहर पे जब हम नजर करेंगे तब ऐसे कई जीवन चरित्र नजर आयेंगे, उनमें से एक ऐसा ही भव्य दिव्य उत्तुंग चरित्र है महर्षि कश्यप का। याज्ञवल्क्य को जैसे “FATHER OF PHYLOSHOPHY”  कहा जाता है, वैसे ही, जिनको “Father Of Indian Soul” कहा जाता है। एक अलोकिक शक्ति जिनको कहा जाए ऐसा व्यक्तिमत्व था वह। इस लिए शायद उनका गुरु होने की योग्यता किसी  मानव में नहीं थी, तभी उन्होंने अपनी शिक्षा “अग्नि होत्र ” यानि अग्नि देवसे प्राप्त की थी। उनसे उन्होंने वेदविद्या, यंत्र विद्या, शास्त्र विद्या प्राप्त करके वह अर्बुद पर्वत के पास जा के तपश्चर्या करने लगे। हमारे दिमाग मे तपश्चर्या का अर्थ एक ही आता है, जंगल में जाकर एक पांव पर खड़े होकर नदी के पास या पेड़ के नीचे उपर हाथ करके ॐ मंत्र का पाठ करना। किंतु हमारे ऋषि मुनिओं ने जिस तरह से तप किए है, उसका मतलब है लोगों के बीच जाकर उनको सही राह दिखाना। सच्ची बातें समझाना।

तेजस्वी जीवन जिने की राह पर चलने के लिए उनको उस ढांचे में ढालना। बात करना बहुत आसान है, किंतु उसे अमल में लाना उतना ही कठिन काम है। जिस भगवान को हम भय या भीती से या जरुरत पर ही याद करते है, उस भगवान की महत्ता समझा कर उससे प्रेम करना सिखाना और उसके साथ पुत्र व्रत बनकर उसका काम करना यानी पिता का काम बालक करे ऐसी राह पर चलने के लिए तैयार करना। यह हजारों सालों से हमारे ऋषि मुनि समाज में करते आए है। इस वजह से ही हमारी संस्कृति की नींव इतनी मजबूत है की किसी विदेशी संस्कृति का कितना भी बड़ा धरती कंपन हमें ध्वस्त नहीं कर सकता। झूक सकता है, निर्बल हो सकता है, किंतु टूट नहीं सकता। और जब ऐसा समाज ऐसा वर्ग तैयार होता है तो चाहे उनकी संख्या उंगलियों पर गिनी जाये ऐसी ही क्यों न हो, किंतु वो किराए के हजारो टटू आकर मार गिराने की हिम्मत रखता है। इस बात का गवाह भारत का इतिहास है।

कश्यप अर्बुद पर्वत पर आकर लोगों को प्रेम से मिलने लगे, लोगों को जीवन जीने का तरीका सिखाने लगे, भगवान के प्रति कृतज्ञता के बारे में समझाने लगे। जब कोई निस्वार्थ भाव से वेद उपिषद की तेजस्वी बाते समझाता है, तब वह दिल की गहराईओं से निकलती है और वह सामने वाले के सीधे दिल से जा मिलती है। और उसका प्रभाव कहो या उसका परिणाम वो लोग उसे मानने भी लगते है, और उस बात का पालण करने में भी पीछे मुडकर नहीं देखते। क्योंकि यही बाते तो है जिसेक लिए भगवान ने हमें मनुष्य बनाया है।  लेकिन यह करना इतना आसान भी नहीं है। उसके लिए बहुत महेनत करनी पड़ती है, किसी से अपनी एक बात मनवा के देख लो पता चल जायेगा कितनी आसान है! उन्होंने अर्बुद पर्वत के आस पास के लोगों को उन्होंने ऐसा ही सु-संस्कृत बनाने का काम किया और उन्होंने वहा से लोगों को आस-पास के गावों में भेजने का काम किया। वहां जाकर वे लोग ऐसे ही दूसरे लोगों को समझाते, भगवान तुम्हारे लिए क्या करता है, भगवान का काम क्या है ? वह कैसे करना है! लोग पूंछते आप कौन है? आपको किसने भेजा है? तब कश्यप के भेजे लोग कहते, हमें पता नहीं, किंतु हम भगवान का काम करने आए है। तब वे लोगों को देवदूत लगते। जो बिना किसी स्वार्थ के लोगों के पास सामने से आए और उन्हें जीवन का मूल मंत्र समझाए वो देवदूत ही कहलाएगा।

उनके शालिग्राम आश्रम में ऐसे हजारों शिष्य पढ़ते थे। उनमें से ही एक ऐसा भव्य दिव्य चरित्र था परशुराम का। जो उनका प्रिय शिष्य था। परशुराम की पढाई पूरी होने पर उसे आश्रम छोड़ के जाना था। लेकिन वह मना कर रहा था। तभी कश्यप ने उसे समझाया तेरी जरूरत इस आश्रम से ज्यादा विश्व को है। तू वहां जाके मेरा काम कर। तब शिष्य गुरु की आज्ञा शिरो मानी करके, वहां से प्रस्थान से पूर्व गुरु का आशीर्वाद मांगता है, कि मुझे कोई हरा ना सके ऐसा आशीर्वाद दीजिए। लेकिन गुरु भी शिष्य को जानते थे, उन्होंने उससे एक वचन लिया, तू अकारण युद्ध नहीं करेगा। उसने भी वचन दिया और वो चला गया। अपने गुरु का कार्य करने के लिए। परशुराम जब जा रहे थे, तभी एक वाक्या हुआ था, सामने से एक लड़का चला आ रहा था, और उसकी सुंगध पाकर पास के जंगल से एक शेर उसका शिकार करने उसपे जड्प मारने ही वाला था की, परशुराम ने सारा मंजर देख के अपनी परशु, उस शेर की और ऐसी फेंकी की उससे उस शेर के तिन टुकड़े हो गए। और वह लड़का उनके पाव में पड गया। उसने कहा आपने मेरी जान बचाई आज से ये जीवन आपकी सेवा में बीतेगा। उसका नाम अक्रुत्वर्ण था। परशुराम ने उसे अपना शिष्य स्वीकार कर अपने साथ ले गए,  और इस बात को बहुत साल गुजर गए।  वैसे भी समय को गुजरने में कहा वक्त लगता है। उसकी रफ़्तार के साथ हम चल भी नहीं पाते,  ठीक से कोई मंजर देख भी नहीं सकते की वो पल गुजर जाता है। जो कभी वापस लौट नहीं आता।

कश्यप ऋषि वापस अपने कार्य में लग गए थे। अपना आश्रम शिष्यों का अध्ययन लोगों को सु-संस्कृत करने के कार्य ओ आगे बढ़ाने लगे थे। कमी थी तो केवल परशुराम जैसे दिव्य ज्योति की, जो अब आश्रम को छोड़ बाकि विश्व में अपना प्रकाश फ़ैलाने चला गया था। एक दिन कुछ लोग रक्त रंजित होक उनके आश्रम में उनसे आश्रय और अभय दान मांगने आ गए। कश्यप ऋषि ने उन्हें बिठाया और सांत्वना दी की आप यहा सुरक्षित हो, लेकिन वाकया क्या है, मुझे विस्तार से बताओ। तब उनमें से वित्त होत्र नामक एक क्षत्रिय आगे आया और उसने परशुराम के कहर के बारे में बताया। और कहा वो हर दस साल में पर्वतोंकी गुफाओं से वापस आते है और पृथ्वी पर जितने भी क्षत्रिय है उनका विनाश करके चले जाते है। कश्यप भी अपने शिष्य के गुस्से के बारे में जानते थे। वो कितना काबिल है यह बात से भी वह वाकिफ थे। जब वित्त होत्र ने कार्त वीर्य राजा के बारे में बताया। और कहा वे जब जमदग्नि ऋषि यानि परशुराम के पिता के आश्रम में आए और उन्होंने कामधेनु का काम देखा तो उसे ऋषि से  मागा, पर वह नहीं मिली, तब उन्होंने सैन्य के साथ आश्रम पर चढ़ाई की।

लेकिन परशुराम के आगे उनकी दाल नहीं गली।  तत पश्चात जमदग्नि ने परशुराम को उनके हाथो हुए हत्या के प्रायश्चित के लिए तप करने चले गए। परशुराम आश्रम में नहीं यह बात पता चलते ही राजा ने वापस आश्रम पर चढ़ाई की, आश्रम को उध्वस्त कर दिया। जमदग्नि ऋषि को मारके उनके टुकड़े कर डाले। तब उनकी पत्नी माता रेणुका ने परशुराम के पास संदेश भिजवाया। परशुराम वापस आए और उन्होंने सारा मंजर देखा। गुस्से से लाल पीले हो गए।  उन्होंने पिता का अग्नि संस्कार किया और अपनी परशु उठाके सारे क्षत्रियो का नाश कर दिया। उनमे तो क्षात्र तेज, और ब्राह्मण तेज दोनोका समन्वय था। अपने शिष्य अक्रुत्वर्ण को कह के वो समाधि में चले जाते ओर हर दस साल बाद वापस आके क्षत्रियो का नाश करने लगते। अगर ऐसा ही चलता रहा तो भारत की यह धरा क्षत्रिय विहीन हो जाएगी, यह विनाश पिछले 4 दशक से चल रहा है । इस विनाश से केवल आप ही बचा सकते है, क्योंकि परशुराम केवल आपकी बात नहीं टाल सकता।

तब कश्यप ने अपना वचन तोड़ परशुराम से मिलने स्वयं आए। उन्होंने उसके गुस्से को शांत किया, और उनसे गुरु दक्षिणा में उसने जीते हुए सारे क्षत्रिय राज्य  मांग लिए। उन्होंने तो पूरी भारत की धरा जित ली थी। वह गुरु को अर्पण कर  दी। फिर उन्होंने कहा अब मै कहा जाऊ ? तब कश्यप जी ने कहा दक्षिण में सह्याद्री सागर पर एक नई पृथ्वी बना और उसमे संस्कृति फिर से खड़ी कर। कितना बड़ा कर्तुत्ववान वह शिष्य होगा जिसकी शक्ति पर गुरु को पूरा भरोसा था। आज तो ऐसे न तो शिष्य देखने को मिलते है, नाही ऐसे कोई गुरु जिन्हीने अपना सर्वस्व अपने शिष्य पे न्योछावर किया हो।

कश्यप ने वापस उसे छिन्न-भिन्न धरा को वापस रसवंती बनाने के लिए, वापस अथाग प्रयास शुरू किए। और उन्होंने वापस इस धरा का री कन्ट्रक्शन का कम वापस अपने हाथ में लिया। कोई भी चीज नई बनानी बहुत आसान है किंतु उसे रिपेरिंग करना बहुत जिदो जहाद्त का काम है। और ऐसे काम के लिए ऐसे युग पुरुष ही ही बिना थके बिना रुके काम कर सकते है। और इनकी महेनत को ही भगवान उसकी चरम सीमा तक पहुंचते है।  इस बार क्षत्रियों को खड़ा करने में समय लगने वाला था, इसलिए उन्होंने वैश्यों को संस्कृति का हथियार बनाया। आज के वैश्यों को इस बात का गर्व होना चाहिए की उनके सैद्धांतिक विकास में महर्षि कश्यप का महान योगदान है। उनकी वजह से आज समाज में वैश्यों का इतना आदर और संमान है।   बहुत सालों के महेनत के बाद वापस यह धरा  सुजलाम सुफलाम हुई। लोग वापस सु-संस्कृत होकर कृतज्ञता का पाठ समझकर, औंरो को भी  समझाने लगे। तब महर्षि कश्यप ऋषि ने वशिष्ठ आदि छह ऋषियों को इस धरा के छह हिस्से करके सौंप दिए और उनको उसका कार्य भर सौंप इस दुनिया से विदा हो गए। ऐसे उत्तुंग और महान चरित्र को सतश: प्रणाम।

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