15 वी. वी. गिरि, भारत रत्न-1975

15 वी. वी. गिरि, भारत रत्न-1975

(जन्म-10 अगस्त 1894, मृत्यु- 24 जून 1980)

“मैं तो एक साधारण व्यक्ति और जनता का सामान्य सेवक हूं। मुझसे पहले के तीनों प्रतिभाशाली राष्ट्रपति सुविख्यात बुद्धिजीवी और बड़े विद्वान थे । मुझमें तो उन जैसा कोई गुण नहीं है कि मैं उनकी बराबरी कर सकूं। मैं तो एक सरल, साधारण व्यक्ति हूं और मैंने श्रमिक आन्दोलनों में सक्रिय भाग लेते हुए अपने जीवन का अधिकांश समय समाज के निम्न वर्ग के लोगों की सेवा में बिताया है। अतः अपनी अन्तःप्रेरणा व प्रशिक्षण के कारण मैं जनता का प्रथम सेवक हूं।”

ये शब्द कहे थे भारतीय गणतन्त्र के चौथे राष्ट्रपति वराहगिरि वेंकटगिरि ने। वी.वी. गिरि भारतीय श्रमिकों के बीच आदरणीय थे। जहां कहीं भी वह पाते कि श्रमिकों के साथ न्याय नहीं हो रहा है, तो उनके पक्ष में अपनी आवाज़ बुलन्द करते। वह स्वयं को मज़दूरों का साथी समझते थे। वी.वी. गिरि जैसे नेता ने सिद्ध कर दिखाया था कि भारत में श्रमिक वर्ग की उपेक्षा का अर्थ है, भावी प्रगति की उपेक्षा।

गिरि का जन्म 10 अगस्त, 1894 को उड़ीसा राज्य उड़ीसा राज्य के बुरहानपुर में हुआ। उनके पिता जोगैया पन्तुलु गारुरु की गिनती नामी वकीलों में की जाती थी|  परिवार में सात पुत्र और पांच पुत्रियों में गिरि का स्थान दूसरे नम्बर पर था| पिता चाहते थे कि पुत्रों की शिक्षा-दीक्षा में कोई कमी न आए। अतः लगातार उनकी शैक्षिक योग्यता पर नज़र रखते। पिता ने ही उन्हें आगे बढ़ने में प्रोत्साहन दिया। उन्होंने मद्रास से सीनियर कैम्ब्रिज परीक्षा पास की। पिता की दिली इच्छा थी कि गिरि उच्च शिक्षा के लिए विदेश जाए। उन दिनों ब्रिटेन में शिक्षा प्राप्त करने वाले भारतवासियों को सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था। उन्हें नौकरी प्राप्त करने में कहीं भी कठिनाई नहीं होती थी। पुत्र ने पिता की आज्ञा का पालन किया तथा उन्हीं के समान वकील बनने पर राज़ी हो गए, किन्तु इंग्लैंड न जाने के लिए अड़ गए। पिता ने लाख समझाया, किन्तु जीत अन्ततः पुत्र की ही हुई। वह इंग्लैंड की बजाय पहुंच गए। दरअसल गिरि नहीं चाहते थे कि वह इंग्लैंड जैसे देश में शिक्षा प्राप्त करें, जो दूसरे देशों को गुलाम बनाने में विश्वास रखता हो। 1913 में आयरलैंड पहुंचे, तो वहां की दशा देखकर दंग रह गए। आयरलैंड वासी भी, इंग्लैंड के शिकंजे में फंसे थे। उनके स्वतन्त्रता प्राप्ति के प्रयत्नों को बेरहमी से दबा दिया जाता था।

उन दिनों भारतीय लोग भी दक्षिण अफ्रीका में समान अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे थे। उन पर तरह-तरह के अत्याचार किए जाते थे। गिरि का हृदय द्रवित हो उठा। वह बेचैन हो उठे और डबलिन की इंडिया सोसाइटी की ओर से विरोध किया। उन्होंने इस विषय में एक छोटी पुस्तिका भी लिखी, जिसका शीर्षक था ‘दक्षिण अफ्रीका का आतंक’। भारतीयों तक सही हालात की जानकारी पहुंचाने के लिए यह पुस्तिका भारत भी भेजी गई, किन्तु ब्रिटिश सरकार ने उसे वितरण से पूर्व ही ज़ब्त कर लिया। ब्रिटिश सरकार जानना चाहती थी कि उक्त पुस्तिका का लेखक कौन है। छानबीन के पश्चात यह तो पता चल गया कि पुस्तक आयरलैंड में छापी गई थी, किन्तु प्रकाशक का पता न मिलने के कारण आगे की कार्यवाही ठप हो गई और गिरि बाल-बाल बच गए।

गिरि पर महात्मा गांधी का गहरा प्रभाव पड़ा। दोनों के विचारों में कुछ भिन्नता अवश्य थी, किन्तु मंज़िल एक ही थी। गांधी जी के विचारों ने उन्हें अहिंसा का सरल, किन्तु दृढ़ मार्ग दिखलाया। 1914 में महात्मा गांधी इंग्लैंड आए। गिरि उनसे तुरन्त मिले। गांधी जी ने उनके कार्यों की प्रशंसा की और उन्हें अनेक कार्य सौंपे। हालांकि गिरि गर्म दल के थे और गांधी नर्म दल के, फिर भी वह महात्मा गांधी के विचारों से प्रभावित हुए बिना नहीं रहे और उनके बताए रास्ते पर चल पड़े।

वी.वी. गिरि कभी श्रमिक नहीं रहे, किन्तु श्रमिकों की दिक़्क़तों को अच्छी तरह समझते थे और उनको दूर करने में सहायता करते थे। उन्होंने निश्चय किया कि ट्रेड यूनियन बनवाएंगे। वह एक ऐसी संस्था होगी, जिसके नेता अपने श्रमिकों के अधिकारों के लिए लड़ेंगे।

भारतीय उद्योगों और अन्य क्षेत्रों में आज श्रमिकों के अधिकारों की जो बढ़ी हुई ताकत दिखाई देती है उसका श्रेय करिश्माई कार्यकर्ता और सामाज सुधारक वी.वी. गिरि को जाता है। हमें उनको धन्यवाद देना चाहिए कि उनके संघर्ष और नेतृत्व में श्रम-शक्ति ने एक नई दिशा और ताकत पायी, जिसके परिणामश्वरूप श्रमिकों के अधिकारों को आज कुचला नहीं जा सकता है। ब्रिटिश काल में सामाजिक  पतन कमजोर वर्गों के लिए चिंता का विषय था, परन्तु वी.वी. गिरि को यह विश्वास था कि सभी समस्याओं का व्यावहारिक और मानवीय दृष्टिकोण से समाधान किया जा सकता है। उनका सपना था कि वे कानून के विशेषज्ञ बनें, परन्तु जब उन्हें आयरिश (आयरलैंड) राष्ट्रवादियों के प्रभाव में आने और गांधी के संपर्क में आने का मौका मिला, तो उन्होंने अपने देश के लिए काम करने का फैसला किया। उन्होंने महसूस किया कि अगर भारत की श्रम-शक्ति को संगठित किया जाय तो न केवल उनके हालत में सुधार किया जा सकता है बल्कि वे ब्रिटिश शासन से भारत की आजादी के संघर्ष में एक शक्तिशाली ताकत के रूप में काम आ सकते हैं।

दूसरी ओर अंग्रेज़ों को किसी तरह पता चल गया कि ‘दक्षिण अफ्रीका का आतंक’ पुस्तक के लेखक वी.वी. गिरि हैं और उन्हें एक आरोप के जाल में फंसा दिया गया। सरकार ने कहा कि उनका सम्बन्ध आयरलैंड के क्रान्तिकारियों से है और उनके ख़िलाफ़ वारंट जारी कर दिया गया। वारंट जारी होने की भनक जैसे ही उन्हें लगी, वह तुरन्त आयरलैंड से बाहर जाने की तैयारी करने लगे। उन्होंने शक वाले दस्तावेज़ जला दिए। वह संयुक्त राज्य अमरीका जाना चाहते थे, किन्तु इतनी जल्दी वहां के लिए उनका पार-पत्र नहीं मिल सका। किसी तरह वह लुक-छिपकर रहने लगे। अंग्रेज़ों को उनके ठिकाने का पता लग गया और उन पर धावा बोल दिया। उनके कमरे की तलाशी ली गई। अंग्रेज़ों को वहां कुछ भी नहीं मिला, किन्तु शक का घेरा तो बन ही गया था।

उन पर कड़ी नज़र रखी जाने लगी। अंग्रेज़ इस बात को अच्छी तरह समझ चुके थे कि गिरि उनके लिए ख़तरनाक सिद्ध हो सकते हैं। इसलिए उन्हें शीघ्र ही आयरलैंड छोड़कर चले जाने के लिए कहा गया। उनके पास कोई और चारा नहीं था। आखिर उन्हें आयरलैंड छोड़ना ही पड़ा। ब्रिटिश संसद में वी. वी. गिरि के मुक़दमे की सुनवाई के बाद निर्णय सुनाया गया। ब्रिटिश सरकार के पास विश्वास करने के लिए कई कारण हैं कि वी.वी. गिरि का सम्बन्ध आयरलैंड के राष्ट्रवादियों के साथ बहुत गहरा है, परन्तु उनके पास पुलिस को कोई प्रमाण नहीं मिला है। अतः सरकार उन्हें केवल आयरलैंड से ही निष्कासित करती है।

वह भारत पहुंचे, जहां उन्हें अनेक उच्च पदों पर कार्य करने के प्रस्ताव मिलने लगे, पर बिना भारत को आज़ाद कराए चैन कहां था। उन्होंने सारे प्रस्ताव ठुकरा दिए। वी.वी. गिरि ने मद्रास उच्च न्यायालय में वकालत शुरू की। सरकार की ओर से नौकरी का प्रस्ताव भी किया गया, किन्तु गिरि जानते थे कि नौकरी स्वीकारने का अर्थ होगा सरकार की गुलामी। अतः उन्होंने स्पष्ट शब्दों में सरकारी पद के लिए इनकार कर दिया। वकालत करते समय उनका सम्पर्क अनेक बड़े नेताओं व वकीलों से हुआ, जिनमें वरदाचारी, श्रीनिवास आयंगर, सी. आर. दास, लार्ड सिन्हा व टी. प्रकाशम आदि प्रमुख थे। वकालत ज़ोरों से चली, किन्तु स्वतन्त्रता प्राप्ति की लौ अभी बुझी न थी। जब महात्मा गांधी के नेतृत्व में असहयोग आन्दोलन शुरू हुआ। गिरि ने उसमें सक्रिय रूप से भाग लिया। इस दौरान उन्हें गिरफ़्तार कर अमरावती जेल भेज दिया गया। इसके बाद चुपके से वेल्लोर जेल भेजा गया। वहीं सरकार को इस स्वाभिमानी देशप्रेमी का पूर्ण परिचय प्राप्त हुआ। उनकी ज़िद पर जेल ले जाने वाली गाड़ी को प्लेटफार्म तक लाया गया।

कुछ समय बाद गिरि ने वकालत का पेशा त्याग दिया और स्वतन्त्रता संग्राम में पूरी तरह कूद पड़े। जेल से मुक्त होने के बाद वह बहुत बदल चुके थे जेल जीवन में राजनीतिक क़ैदियों के साथ भी चोरों और डकैतों जैसा व्यवहार होता था। गिरि ने उसका विरोध किया। उन्होंने भूख हड़ताल आरम्भ कर दी। उनकी दृढ़ता के आगे जेल अधिकारियों को झुकना पड़ा। उसके बाद से राजनीतिक क़ैदियों के भोजन आदि दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति पर ध्यान दिया जाने लगा। गिरि ने नशाबन्दी आन्दोलनों में भी भाग लिया। वह बेझिझक परिवार सहित ताड़ी की दुकानों पर धरना देते। उनमें आरम्भ से ही संगठन का गुण विद्यमान था। बुरहानपुर में उनके द्वारा संगठित युवकों का दल ग़रीब बच्चों के लिए सप्ताह में एक बार भोजन की व्यवस्था करता था।

वह जेल से रिहा हुए, तो खडगपुर रेलवे वर्कशाप के कर्मचारी उनके पास आए और ट्रेड यूनियन बनाने का प्रस्ताव रखा। गिरि भी यही चाहते थे कि श्रमिक अपनी मांगों के समर्थन में सिर ऊंचा कर सकें। उन्होंने सहर्ष सहमति दे दी। सर्वप्रथम बंगाल व नागपुर रेलवे की मज़दूर यूनियनों का गठन हुआ। वही संगठन अपने विशाल रूप में अखिल भारतीय कर्मचारी संघ कहलाया|  सरकार द्वारा रेलवे मज़दूरों की छंटनी की गई। गिरि इस अन्याय को कैसे सहन कर सकते थे। पहले तो विनम्रता से समझाना चाहा, किन्तु कोई नतीजा न निकलने पर हड़ताल की घोषणा कर दी गई। हड़ताल सफल रही। सरकार को निकाले गए कर्मचारियों को वापस लेना पड़ा। इस घटना ने गिरि को और भी लोकप्रिय बना दिया।

भारत को स्वतन्त्रता मिली। उन्हें श्रीलंका का भारतीय उच्चायुक्त बना दिया गया। 1957 में वह उत्तर-प्रदेश के राज्यपाल बनाए गए, उन्हें केरल का राज्यपाल भी बनाया गया, फिर 1965 में मैसूर के राज्यपाल के रूप में उन्होंने दायित्वों का उचित रूप से निर्वाह किया। उनकी प्रशासनिक क्षमता ने उन्हें नेहरु जी के मन्त्रिमंडल में श्रममन्त्री का पद भी दिलवाया, किन्तु कुछ मतभेदों के कारण स्वयं ही त्यागपत्र दे दिया।

1967 के आम चुनावों के बाद वी.वी. गिरि उपराष्ट्रपति बने । राज्यसभा के सभापति के रूप में उनकी योग्यता और अद्भुत कार्यक्षमता व निर्णय शक्ति का सभी लोहा मान गए। 1971 में वी.वी. गिरि को श्रमिक नेता के रूप में भारतरत्न की उपाधि से अलंकृत किया गया।

भारत सरकार ने उनके योगदान और उपलब्धियों के मद्दे नजर उन्हें वर्ष 1975 में भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत-रत्न’ देकर सम्मानित किया। वर्ष 1974 में भारत सरकार के श्रम मंत्रालय ने ‘श्रम से संबंधित मुद्दों पर शोध, प्रशिक्षण, शिक्षा, प्रकाशन और परामर्श’ के लिए एक स्वायत्त संस्था की स्थापना की. इस संस्था का नाम वर्ष 1995 में उनके सम्मान में ‘वी.वी. गिरि नेशनल लेबर इंस्टिट्यूट’ रखा गया। उन्हें श्रमिकों के उत्थान और उनके अधिकारों के संरक्षण की दिशा में काम करने लिए एक मुखर कार्यकर्ता के रूप में हमेशा याद किया जाएगा।

वी.वी. गिरि की विवाह अल्पायु में ही, सरस्वती बाई से करा दिया गया था। 85 वर्ष की अवस्था में 23 जून 1980 को उनका निधन चेन्नई में हो गया।

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