भगवान विष्णु के आठवें पूर्णा अवतार श्री कृष्ण के जीवन में हमने देखा। उनके जीवन दैवी और चौतन्यमय है। इहलोक में अलौकिक जीवन जीने की कला कृष्ण के पास है। उनका जीवन, उनका कार्य अलौकिक जीवन जीने की हिम्मत प्रदान करता है। और यह कला केवल उन्हीं के पास से सिखने को मिलती है।
भगवान ने स्वयं गीता में कहा है, जब जब धरती पर सदाचारी लोकों पर अत्याचार बढेगा, तब तब वो उनका रक्षण करने इस धरा पर अवतरित होंगे। उन्होंने अपने जीवन से लोगो को उत्साही, आनंदी तेजस्वी और चैतन्य पूर्ण यानि जीवंत जीवन जीने की कला सिखाई। यही उनका जीवन संदेश था।
अब हम भगवान विष्णु के नववें अवतार यानि बुद्ध के बारे में देखेंगे। जिन्होंने बौद्ध धर्म की स्थापना की जो आज भी भारत के अलावा एशियाई देशों में उसका प्रभाव ज्यादा देखने को मिलता है। ईशा पूर्व 560 वर्ष पूर्व कपिलवस्तु की लुम्बिनी नामक नगरी में शाक्य वंश में राजा शुद्धोदन और मायावती के घर उनका जन्म हुआ था। संसार त्याग ने से पहले उनका संसारिक नाम सिद्धार्थ था। वैसे भी भगवान जिन कुल में और जिस स्त्री के उदर से जन्म लेते है वो अवश्य ही विशिष्ट गुणों से युक्त होते है।
मानव वंश की विकास की परंपरा में उसकी संस्कृति को उच्च अवस्था में ले जाने में इस अवतार में काम किया गया। उनकी शादी यशोधरा से हुई थी, उनका एक पुत्र भी था। किंतु जीवन की भूमिगत बातों से उनका सामना होते ही उनका जीवन से मोह भंग हो गया। और उन्होंने सांसारिक जीवन का त्याग कर मोक्ष के रास्ते चल पड़े। उनके बारे में विस्तृत और व्यवस्थित जानकारी विस्तार नामक ग्रंथ में उपलब्ध है।
उन्होंने अपने शिष्यों को प्राकृत भाषा में ज्ञान की बातें लोगों को समझाने को कहा। शायद इसीलिए उनका सारा साहित्य, धम्मपद भी पाली भाषा में ज्यादा है। उन्होंने समझाया की संस्कृत बोलने से ही भगवान प्रसन्न नहीं होते। उनके पास जाने के लिए प्राकृत भाषा भी मान्य है।
उन्होंने अपने जीवन काल में चार्वाक और सांख्य यह दो तत्व ज्ञानियों का मिलाप कराया। इसी कारण एशियाई देशों में उनका प्रवेश सहज हुआ और वहा उनको मान्यता ज्यादा मिली। बौद्ध धर्म सहिष्णु होने के कारण सब जगह मान्यता ज्यादा मिली। उनका कहना था आपको परोपकार, दया और निति मान्य है? अगर हां तो आप बौद्ध धर्म का पालन कर सकते है। और इसी कारण चीन के लोग थोड़े ही दिनों में कन्फ्यूशियस को भूल गए। और उन सब ने बौद्ध धर्म अपना लिया।
समाज दैवी बनेगा तभी आध्यात्मिक बना पाएंगे। किंतु समाज में जब जब धार्मिक और सामाजिक अराजकता होती है तब जीवन में भी उसका परिणाम देखने को मिलता है। उसके परिणाम स्वरूप मानव जीवन अध पतित बन जाता है। प्रायः संस्कृति टिक नहीं पाती। यही कारण था की बौद्ध अवतार में भी यही हुआ। भगवान का अवतारी कार्य होने के बावजूद राम और कृष्ण काल में जो प्रभावी वैदिक संस्कृति का कार्य हुआ वैसा कार्य नहीं देखने को मिलता है। उसका सबसे बड़ा कारण वैदिक संस्कृति में बताई गई मूर्ति पूजा को बौद्ध ने हटा दिया था। उनके शिष्यों को मांसाहार खाने की अनुमतियाँ मिल गई थी। एक तरफ यह धर्म अहिंसा को अपनाता था। और दूसरी और शिष्यों को मांसाहार की अनुमति दी गई थी। ये सारी चीजें समयावधि के अनुसार प्रदान की गई थी। किंतु उनके फोलोअर्स ने उसका गलत अर्थ घटन कर, उसे आगे फैला दिया। और उसे रोकने का प्रयास बुद्ध द्वारा न किया जाने के कारण, भ्रांत मान्यताओं ने अपने पग पसारने शुरू कर दिए। मानव जाती के जीवन में नैतिक मूल्यो को लाने के लिए उन्होंने पाली जैसी प्राकृत भाषा में अपने शिष्यों को तैयार किया था। किंतु उनके शिष्य वो बात आगे बढ़ाने में असमर्थ रहे। उसी कारन उसका मानव जीवन में सर्वांगी नहीं दिखाई पड़ा। क्योंकि विचार, विकार अर्थ और काम का विचार नहीं किया गया।
उनके द्वारा लिखाये गए ग्रंथो में ब्राह्मणों के लिए द्वेष दिखाई पड़ता है। शायद उस काल में ब्राह्मण वर्ग अपने ब्रेड बटर में ही लीन होगा समाज की परवाह न करते उसने अपना ब्रह्म का काम में शिथिलता लानी होगी उसका प्रतिबिम्ब उनके साहित्य में देखने को मिल रहा है।
कुल मिला के उनके विचारों का जो प्रभाव समाज में होना चाहिए वो देखने को नहीं मिला। जिसके फल स्वरूप तत्कालीन समाज में वैदिक विचार धारा मृत प्राय हो गई। जिसका परिणाम आदि शंकराचार्य और कुमारिल भट्ट जैसे बौद्ध धर्म के खिलाफ खड़े हो गए। क्योंकि बौद्ध काल में शौर्य काल चला गया था। इसी कारण विदेशी मुस्लिमों को अपने पैर भारत में जमाने का मौका मिल गया था। दूसरा मूल कारण उन्होंने भारत की वर्ण व्यवस्था को भी उखाड़ दिया था। क्योंकि बुद्ध का अनुयाई संसार छोड़ के काम कर सकता है। भारतीय और वैदिक संस्कृति की नीव की बहुत सी बातो में उनका विरोधाभास देखने को मिलता है। इस कारण भगवान का अवतार होने के बावजूद उसे वो मान सन्मान भारत में नहीं मिला जो दूसरे अवतारों को मिला है। हां उन्होंने अपने आध्यात्मिक विचारो से धर्मसंघ की स्थापना जरुर की। उनका मंत्र भी था संघे शक्ति कले युगे। किंतु अपने ही विचारों पर अपने शिष्यों द्वारा भ्रान्त धारणाओं के चलते इस धर्म को भारत से शंकराचार्य जी ने देश निकाला कर दिया।