38. पंडित रविशंकर -भारतरत्न 1999

38. पंडित रविशंकर -भारतरत्न 1999

( 7 एप्रिल 1920- 11 दिसम्बर 2012)

“विश्व-भर में मुझे इतने सम्मान प्राप्त हुए हैं, जिन्हें पूरी तरह स्मरण रखना मेरे लिए कठिन है, परन्तु मेरे देश ने इस सर्वोच्च सम्मान द्वारा मेरे कार्यों को सराहा है, उससे मैं बहुत अभिभूत हूं। इस सम्मान के सामने अन्य सम्मान मेरे लिए फीके हैं। इन सबका मैं अत्यन्त आभारी हूं, परन्तु ‘भारतरत्न’ मेरे लिए एक ऐसा सम्मान है, जिसे मैं कभी भी भुला नहीं सकूंगा।”  – पंडित रविशंकर|

दुनिया-भर में विख्यात सितार के महान जादूगर पंडित रविशंकर का जन्म 7 अप्रैल, 1920 को बनारस में हुआ। उनके पिता का नाम श्याम शंकर था और वह रियासत झालावाड़ के दीवान थे। वह संस्कृत के विद्वान थे और ध्रुपद गायन में भी ख़ूब रमे हुए थे। इसीलिए कहा जा सकता है कि संगीत की घुट्टी तो उन्हें विरासत में मिली थी, क्योंकि उनकी माता को भी संगीत में ख़ासा लगाव था और वह संगीत समारोहों में जाती रहती थीं |

आखिर पिता रियासत से रिटायर हो गए और लंदन चले गए, जहां वकालत करने लगे। लंदन से वापिस लौटने पर ‘इंडियन बैले’ में जुट गए और नए-नए प्रयोग करने लगे। उनके बड़े भाई उदयशंकर, जो जाने-माने नर्तक थे, इसमें शामिल हो गए। बाद में उन्होंने स्वयं अपना ग्रुप तैयार किया और विदेशों के दौरे करने लगे। उस समय रविशंकर भी इस नृत्य दल में थे। उनका समय बड़े कशमकश में गुज़रा और एक दिन आखिर नृत्य दल से मोह भंग हो गया।

अब वह पूरी तरह संगीत की तरफ़ लौट आए। उस्ताद अलाउद्दीन ख़ान से वह सितार सीखने लगे। धीरे-धीरे सितार में पारंगत होते गए और उन्हें ख्याति प्राप्त होती रही। एक दिन वह आकाशवाणी में संगीत निदेशक के पद पर नियुक्त हो गए और इस दायित्व को 1948 से 1956 तक निभाया।

अपने सितार वादन की अनूठी कला को सारी दुनिया में प्रदर्शित करने की उन्होंने ठानी और इसके लिए निरन्तर विदेशों के दौरे करते रहे। सितार के तारों की गूंज उन्होंने संसार के एक कोने से दूसरे कोने तक पहुंचा दी। उनके हाथ की उंगलियां जब सितार के तारों को छूतीं, तो उससे निकलती रेशमी झंकार सुनने वाले को मोम की तरह पिघला देती। दुनिया-भर के संगीत प्रेमी पं. रविशंकर के दीवाने बन गए। उनके शिष्य अपने देश में ही नहीं विदेशों में भी ख़ासी तादाद में बने|

धीरे-धीरे उन्होंने शास्त्रीय संगीत में प्रयोग करना शुरू कर दिए और परमेश्वरी, गंगेश्वरी, जोगेश्वरी, वैरागी तोड़ी, कौशिक तोड़ी, मोहनकौंस, रसिया, मनमंजरी, पंचम आदि जैसे अनेक राग बनाए। इन सबमें वैरागी और नट रागों का संयोजन सबसे अधिक लोकप्रिय हुआ।

अपने जीवनकाल में ही बनाए रागों को अपार लोकप्रियता देने वाले पं. रविशंकर अपने आप में एक मिसाल बन गए। मात्र पच्चीस वर्ष की आयु में उन्होंने ‘सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा’ जैसे राष्ट्रगीत की धुन बनाकर स्वयं को उस मुकाम पर पहुंचा दिया, जहां अमर हो जाते हैं। इसके बाद कम्पोज़र के रूप में समारोहों से लेकर फ़िल्मों तक अपार ख्याति अर्जित की।

उन्होंने अनेक फ़िल्मों में संगीत दिया, इनमें ‘गांधी’ और सत्यजित राय की ‘पाथेर पांचाली’ प्रमुख हैं। और शायद ही कोई दिन ऐसा जाता हो, जब रेडियो पर कोई-न-कोई कलाकार उनके बनाए रागों पर आधारित गीत न गाता हो। उन्होंने रवीन्द्रनाथ ठाकुर की कविताओं के बैले के लिए भी संगीत दिया । भारतीय संगीत के लिए पश्चिम का दरवाज़ा भी उन्होंने ही खोला । संसार-भर में हमारे संगीत को जो सम्मान उन्होंने दिलवाया, भारतीय इतिहास उसे हमेशा याद रखेगा। संगीत द्वारा उन्होंने विदेशी श्रोताओं की रुचियों को ही नहीं बदला, बल्कि स्वयं भी पाश्चात्य संगीत के गुणों को अपनाया। संगीत कार्यक्रमों को समय पर शुरू करना, माइक्रोफ़ोन और साउंड सिस्टम के प्रति जागरूकता, शालीन और सुदर्शन कपड़ों में मंच पर आना, भारतीय श्रोताओं में अनुशासन पैदा करना ऐसी ही कुछ विशेषताएं हैं, जो वह पश्चिम से भारतीय समाज के बीच लाए।

पं. रविशंकर के पास हमेशा समय और समाज को पहचानने की पैनी नज़र रही। कला का सम्मान बढ़ाने में मीडिया की महिमा को समझने वाले वह पहले हिन्दुस्तानी संगीत के कलाकार हैं। परम्परा के अनुसार जो हमेशा से होता आया है, उसी के अनुसार चलना उनके स्वभाव के ख़िलाफ़ है। उन्होंने शास्त्रीय संगीत की परम्परा को आगे बढ़ाया, लेकिन रूढ़ियों को पीछे भी धकेला है।

उन्होंने शास्त्रीय रागों के प्रयोगों में एक यह भी किया कि लोक संगीत को भी उसमें शामिल कर लिया। उन्हीं प्रयोगों के चलते विदेशी वाद्यों का भी इस्तेमाल बख़ूबी किया|  इतने पर भी संगीत की भारतीयता के मामले में कभी समझौता नहीं किया। भारतीय संगीत से जुड़ी उनकी जड़ों का ही कमाल था कि बीटल्स जैसे मशहूर विदेशी ग्रुप को भी उन्हें गुरु मानने पर मजबूर कर दिया। यह 60 के दशक की बात है। उन्होंने विश्व के महान यहूदी मेनुहिन के साथ भी संगत की और उनके लिए दो कसंर्ट लिखकर अपनी छाप छोड़ी। बीटल्स ब्रदर्स के जॉर्ज हैरिसन ने ‘शंकर फैमिली एंड फ्रैंड्स’ तथा ‘फैस्टीवल ऑफ़ इंडिया’ नाम से एलबम बनाए।

ढेरों क़िस्म की लयकारियों के विविध और विचित्र प्रयोगों और उन पर उनकी पकड़ ने सितार की पुरानी दुनिया को बदलकर रख दिया। उनका सितारवादन आधुनिक युग का सौन्दर्यशास्त्र कहा जा सकता है। भारतीय संगीत की गहराई और उसके चमत्कार का दर्शन पं. रविशंकर ही ने दुनिया-भर को करवाया।

वह कहते हैं, “अंधेरे में डूबे आज के वातानुकूलित सभागारों में एक अच्छा कलाकार किसी भी मौसम अथवा किसी भी वक़्त के राग को साकार कर सकता है। संवेदनशील श्रोता भी उसके सौन्दर्य का पूरा लुत्फ़ उठाता है।” इसके बावजूद रविशंकर खुद समय के नियमों का पालन करने की पूरी कोशिश करते हैं, क्योंकि उनके भारतीय संस्कार उन्हें इससे मुक्त नहीं होने देते।

सितार की शिक्षा देने के लिए पं. रविशंकर ने जिस स्वर पद्धति का विकास किया, उसकी तरफ़ बहुत लोगों का ध्यान गया। उनसे पिछली पीढ़ी के सितारवादक जो आलाप करते थे, उसके आलाप में ही नाम था । गत बजाने वाले का आदर ‘गत’ में ही किया जाता था। इसी प्रकार झाले में झाले वाले का नाम और ठुमरीवादक का ठुमरी में हुआ करता था, लेकिन उन्होंने इन सबको एक जगह इकट्ठा करके श्रोताओं को अलग रोमांच प्रदान किया। इससे ठुमरी, धुन, लयकारी आदि का आनन्द श्रोताओं को एक जगह ही मिलने लगा । उस ज़माने में यह एक नई बात थी।

अपनी  वृद्ध आयु में भी आज वह युवाओं की भांति सक्रिय पं. रविशंकर आज भी नियमित रूप से संगीत का अभ्यास करते हैं। उनका मानना है कि संगीत को जीवित रखने के लिए रियाज़ करना बहुत आवश्यक है। आज दीर्घ आयु में भी उनका जीवन आज व्यवस्थित रूप से बीतता है। उनकी पत्नी सुकन्या उनकी प्रत्येक बात का ध्यान रखती हैं। पं. रविशंकर ने अपनी एक बेटी अनुष्का को भी सितार की शिक्षा दी है और वह उनके आदर्शों के अनुरूप सितार में महारत हासिल कर चुकी है।

उनकी दूसरी पुत्री नोरा जोंस, जो उनकी विदेशी पत्नी की सन्तान है, ग्रेमी जैसा अन्तर्राष्ट्रीय एवार्ड प्राप्त कर चुकी है। उनका मानना है कि सितार के माध्यम से वह अपनी आन्तरिक भावनाओं, जैसे अपने कष्टों, चिन्ताओं, प्रसन्नता और आध्यात्मिकता से सम्बन्धित सभी विचारों को भली प्रकार प्रकट करने में समर्थ होते हैं।

सितार के यह जादूगर कलाकार संगीत के प्रति गहन चिन्तनशील थे। इसक पता उनकी मशहूर पुस्तक ‘माई म्यूज़िक माई लाइफ’ से चलता है। उनकी एक महत्वपूर्ण पुस्तक ‘रागमाला’ भी है। रविशंकर की विद्वता का लोहा सारी दुनिया ने माना और इसीलिए विश्व के एक दर्जन से अधिक विश्वविद्यालयों नै डॉक्ट्रेट का मानद उपाधियों से नवाजा। उन्हें विश्व के सबसे बड़े पुरस्कार मैगसेसे और ग्रैमी एवार्ड भी मिले।

पंडित रविशंकर एक भारतीय सितार वादक और संगीतकार थे। उन्होंने अपनी कला के माध्यम से एशिया सहित पूरे विश्व में खूब नाम कमाया। पं. रविशंकर ने विश्व भर में सितार के लिए जो महान कार्य किया, उसके सम्मान में भारत सरकार ने उन्हें 1999 में भारतरत्न जैसे सर्वोच्च अलंकरण से विभूषित किया।

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