निष्काम कर्म करो और परिस्थिति के गुलाम मत बनो-

हर  व्यक्ति अपने जीवन में सुख और समृद्धि  चाहता है | लेकिन हमारी मुश्किल  यह है कि, जीवन में आती हुई हर परिस्थिति के भीतर हम विचलित हो जाते हैं  | सही में तो परिस्थिति को हमारा कहना मानना है, लेकिन होता यह है कि हम ही परिस्थिति के गुलाम बन जाते हैं , विचलित हो जाते हैं  और अंत में दुखी होते हैं |  भगवद गीता हमारा वैश्विक ग्रन्थ है | यह कोई किताब नहीं कि उसको अलमारी में रखा जाए | हम गीता का उपयोग या तो कोर्ट में सौगंध  खाने के लिए करते हैं , या तो किसी के मरने पर उसके पीछे बोलने के लिए, लेकिन यह तरीका गलत है | भगवद गीता, भगवान का  मनुष्य जीवन के लिए दिया हुआ एक अमृत है, जिसे हर मनुष्य को अपने जीवन में प्रस्थापित करना है | गीता का हर शब्द, हर श्लोक , मनुष्य जीवन जीने की सच्ची राह दिखाती है | गीता हमें यह निश्चित करवाती है कि, परिस्थितियों में विचलित हुए बिना समभाव से किये गए कार्य में सफलता निश्चित है |  भगवद गीता के दूसरे अध्याय के 38 वें श्लोक में भगवान ने कहा है कि,

सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ !

ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि !!

मतलब की, सुख और दुःख, हानि और लाभ, जीत और हार को एक समान मानकर अपने कर्तव्य के लिए संघर्ष करो, इस प्रकार अपनी जिम्मेदारी को पूरा करने पर मनुष्य कभी पाप का भागी नहीं बनता।

इस श्लोक में कर्मयोग के बारे में बताया गया है। इसके माध्यम से भगवान श्री कृष्ण, पहली बार आत्मा के उत्थान के उपायों और साधना का स्पष्ट रूप से वर्णन करते हैं। भगवान श्री कृष्ण, अर्जुन को एक स्तर पर ज्ञान प्रदान करने के बाद कर्म की व्यापकता समझाते हैं, क्योंकि अर्जुन ने कहा था कि, वे अपने शत्रुओं को जो कि उनके परिवारजन ही हैं, उनसे कैसे युद्ध  कर सकते हैं। यहाँ पर कृष्ण के समझाने पर वे युद्ध के लिए तैयार हुए फिर भी उन्होंने कहा, वे अपने शत्रुओं को मारकर वह पाप का भागी बनेगे I इस पर श्री कृष्ण, अर्जुन को कर्मों के फल की आसक्ति के बिना अपना कर्तव्य करने की सलाह देते है और कहते हैं काम करने के लिए अपनी जिम्मेदारी पूरा करने पर मनुष्य पाप का भागी नहीं बनता।

कहने का अर्थ हैः यदि मनुष्य अच्छे कर्म करता है तो वह स्वर्गलोक जाता है और बुरे कर्म करने पर नीचे के लोक में, और यदि मिश्रित कर्म करता है, तो मनुष्य पृथ्वी ग्रह पर वापस आ जाते हैं। इस प्रकार हम कुछ भी करें, कर्म फल पीछा नहीं छोड़ता। लेकिन स्वार्थ, लाभ और हानि के बिना किया गया कर्म कोई प्रतिक्रिया नहीं पैदा करता है। अगर कोई समझता  है कि भगवान तो मंदिर में है, और मै जो कुछ बाहर करूँगा वो कोई भी नहीं देखता तो यह बात गलत है | भगवान हमारे भीतर ही है और हमारे जीवन में हर कर्म का हिसाब बराबर से करते हैं |

उदाहरण के लिए, हत्या एक पाप है, और दुनिया के हर देश का कानून इसे दंडनीय अपराध घोषित करता है। लेकिन अगर कोई पुलिसकर्मी अपने कर्तव्य के निर्वहन में डाकुओं के गिरोह के नेता को मार देता है, तो इसके लिए उसे दंडित नहीं किया जाता है। यदि कोई सैनिक युद्ध में किसी शत्रु सैनिक को मार डालता है, तो उसे इसकी सजा नहीं मिलती। वास्तव में, उन्हें बहादुरी के लिए पदक से भी नवाजा जा सकता है। सजा नहीं दिए जाने का कारण यह है कि, पुलिसकर्मियों या सैनिकों द्वारा किया गया यह कार्य, किसी दुर्भावना या व्यक्तिगत मकसद से प्रेरित नहीं होते हैं। देश सेवा के रूप में उनके अपने कर्तव्य निभाये जाते हैं। भगवान का कानून भी कुछ ऐसा ही है। यदि कोई मनुष्य सभी स्वार्थ उद्देश्यों को त्याग देता है और केवल सर्वोच्च यानि भगवान के प्रति कर्तव्य के लिए कार्य करता है, तो ऐसे कार्य से कोई कर्म प्रतिक्रिया नहीं होती है। तो श्री कृष्ण, अर्जुन को यही सलाह देते हैं कि, वह परिणाम के बारे में ना सोचे और केवल अपने कर्तव्य पर ध्यान केंद्रित करे। और इसलिए उन्होंने गीता के दूसरे  अध्याय के 47 श्लोक में “कर्मण्येवाधिकारस्ते… “ का नाद किया और बोला कि, मनुष्य को कर्म करते रहना चाहिए और उसके फल की चिंता कभी भी नहीं करनी चाहिए |

जब वह जीत-हार, सुख-दुःख को समान रूप से स्वीकार कर समभाव से युद्ध करता है, तो शत्रुओं को मारकर भी वह पाप का भागी नहीं बनता। प्रकृति में भी इसके कई उदाहरण मौजूद हैं जैसे कमल का पत्ता पानी में ही रहता है लेकिन पानी का उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता वह बिल्कुल अछूता और सुरक्षित रहता है। इसी प्रकार कोई व्यक्ति अपने सभी कार्यों को भगवान को समर्पित करते हैं और कार्यों के परिणाम के प्रति आसक्ति को त्याग देता  है, वैसे मनुष्य  पाप से अछूते रहते हैं। इस श्लोक में कर्मयोग के बारे में बताया गया है। इसके माध्यम से ही भगवान श्री कृष्ण पहली बार आत्मा के उत्थान के उपायों और साधना का स्पष्ट रूप से वर्णन करते हैं। शरीर, मन और बुद्धि, इन तीन सहयोगी तत्त्वों के माध्यम से ही,  जीवन में विभिन्न प्रकार के अनुभव प्राप्त होते  हैं।

अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितियों में सुख और दुख का अनुभव करना बुद्धि की प्रतिक्रिया है। लाभ और हानि मन की कल्पनायें हैं जिससे किसी चीज को लेकर खुशी और गम होना स्वाभाविक है। लालसा किये गए सामान और वस्तु हासिल करने पर खुशी और नहीं मिल पाने पर गम होना स्वाभिवक है। भगवान श्रीकृष्ण कहते है, मनुष्य के जीवन में इस प्रकार की विषम परिस्थितियां पैदा होने पर हमेशा मन को  संतुलित रखना चाहिये। परन्तु इसके लिए अभ्यास और सतत जागरूकता की जरूरत होती है। ठीक उसी प्रकार जब कोई समुद्र में स्नान करना चाहता है तो उसको समुद्र स्नान करने की कला मालूम होनी  चाहिए, नहीं तो समुद्र की उफनती लहरें व्यक्ति को परेशान कर देगी और अंततः वह डूब जाएगा। परन्तु जो व्यक्ति यदि ऊंची लहरों के नीचे झुकने और छोटी लहरों पर सवार होने की कला जानता हो, तो वह बखूबी समुद्र  में स्नान का आनन्द उठा सकता है।

यदि कोई  व्यक्ति समुद्र की लहरें शान्त होने की आशा करता है और सोचता है कि लहरें शांत हो जाएगी तो स्नान करेंगे तो कष्ट नहीं होगा। तो यह अपनी सुविधा के लिये व्यक्ति द्वारा समुद्र को उसके स्वरूप को त्याग करने के आदेश देने के जैसा है। पर अज्ञानी व्यक्ति जीवन में यही चाहता है कि, किसी प्रकार समस्यायें उसके सामने न आयें जो बिलकुल असम्भव है। जीवन के समुद्र में सुख- दुख ,लाभ -हानि और जय- पराजय की लहरें उठना अनिवार्य है, अन्यथा गति हीनता के चलते जीवन निरर्थक हो जाता है और पूर्ण गति हीनता ही मृत्यु कहलाता है। यह जीवन एक उफनते लहरों से भरे समुद्र के जैसा है, जिसमें काफी हलचल होती रहती  है, जो कभी ऊपर-नीचे  तो कभी शांत रहती  है। उसमें उठती ऊंची- नीची लहरों के प्रहार से विचलित हुये बिना जीवन जीने की कला हमें सीखनी चाहिये। इन उठती गिरती लहरों के साथ सामंजस्य स्थापित कर लेने से ही इसकी सतह पर इधर- उधर बहते जाना सम्भव  है, न कि उस सर्च लाइट के पोल जैसा जो लहरों के बीच एक ही जगह खड़ा रहता है।

भगवान श्रीकृष्ण, अर्जुन को युद्ध के लिये प्रेरित करते हुए समत्व भाव का महत्व बताते हैं, क्योंकि कई बार कर्म में संलग्न व्यक्ति अपनी ही नकारात्मक सोच का शिकार बन जाता है और जीवन के आनंद से वंचित रहता है और कष्ट का अनुभव करता है। मन के इस समभाव से ही व्यक्ति वास्तविक स्फूर्ति और प्रेरणादायक जीवन का आनंद लेता है और ऐसा  व्यक्ति ही उपलब्धियां भी हासिल करता है, जो सच्ची सफलता की आभा से दैदिप्यमान होता है। यह सर्वविदित है कि किसी भी कार्य क्षेत्रों में जो कर्म स्फूर्ति और प्रेरणा से भरपूर होते हैं, उनकी अपनी ही एक चमक होती है। उसके जैसा कोई दूसरा नहीं होता न ही उसे दोहराया जा सकता है।

जब हम दैवी प्रेरणा के आनन्द से अविभूत होकर कोई कार्य कर रहे होते हैं, तब हमारी कल्पनायें विचार और कर्म अपनी ही निराली सुन्दरता से ओत प्रोत होती है । जीवन में ऐसे कई उदाहरण है, जो इसकी सत्यता को उजागर करते हैं जैसे प्रसिद्ध चित्रकार दा विन्सी अपनी श्रेष्ठ कृति मोनालिसा का चित्र दोबारा नहीं बना सकें । भगवान् श्रीकृष्ण ने भी युद्ध के पश्चात् अर्जुन के अनेक विनती करने पर दोबारा गीता सुनाने में अपनी असमर्थता व्यक्त की।

पश्चिमी विचारकों के अनुसार प्रेरणा, कोई संयोग या रहस्यमय घटना है, जिस पर व्यक्ति का कोई नियंत्रण नहीं होता I जबकि भारतीय ऋषि मुनियों या महानुभावों के अनुसार दैवी प्रेरणा का जीवन मनुष्य का वास्तविक लक्ष्य है, जिसे वह अपने आत्म स्वरूप के साथ पूरी तरह तादात्म्य स्थापित करके जी सकता है। और इसका उपाय सिर्फ समत्व भाव का वह जीवन है, जहाँ हम परिस्थितियों से प्रभावित हुए बिना अपने मन और बुद्धि का साक्षी बनकर रहते हैं।

यह अहंकार को भूलने का क्षण है। जब कोई व्यक्ति इस अवस्था को प्राप्त कर लेता है, तो उसका जीवन सुबह की नरम धूप और नयी किरण के जैसी  जगमगाती आभा से भरी होती  है। जबकि साधारण व्यक्ति यह सोचते हैं  कि, अहंकार या अभिवृत्ति नहीं होने पर कार्य में कुशलता नहीं मिलेगी।  हम वह कार्य ही नहीं कर पाएंगे। पर यह गलत अवधारणा है। प्रेरणा की आभा सामान्य सफलता को भी महान उपलब्धि में बदल सकती  है।

हमारे ऋषि मुनियों ने योग विकसित किये जिसके अभ्यास से व्यक्ति मन और बुद्धि के बीच जुड़ाव पैदा कर सकता है और समता का भाव विकसित किया जा सकता है। वैदिक काल के लोगों को इसका उचित ज्ञान था और वे इसका अभ्यास कर योगी जीवन जीते थे। इसके माध्यम से उन्होंने असाधारण उपलब्धियां अर्जित कर, राष्ट्र के लिये स्वर्णयुग का निर्माण किया। जिसके चलते हम भारत को सोने की चिड़ियाँ भी कहते हैं ।

हम अपने इतिहास को देखते हैं तो इसके कई अप्रतिम उदाहरण मिलते हैं,  जैसे भगवान राम के जीवन में कितने संघर्ष आए और वे सभी परिस्थितयों में समभाव स्थापित कर परिस्थियों की स्वस्थिति के रूप में परिवर्तित करते हुए उसे स्वीकार कर, उस पर विजय प्राप्त किये और लोक जगत के लिए पूजनीय हुए। भारत जैसे देश में वैदिक काल में निश्चित ही आस्तिक दर्शन प्रचलित रहा होगा। आज भी इसकी प्रासंगिकता और उपयोगिता जीवन के सभी क्षेत्रों में उतनी ही है।

परिस्थितियों का मूल्यांकन सिर्फ आध्यात्मिक दृष्टिकोण से करना ठीक नहीं बल्कि, जीवन की हर एक परिस्थिति या चुनौती को आध्यात्मिक दृष्टिकोण के साथ- साथ बुद्धि के स्तर पर तर्क व मन के स्तर पर नैतिकता और भौतिक स्तर पर परम्परा तथा सामाजिक रीति- रिवाज के अनुसार भी करना जरूरी है। इन सब के माध्यम से बिना किसी विरोधाभास के यदि किसी एक सत्य का संकेत मिलता है तो निश्चय ही वह दिव्य मार्ग है जिस पर व्यक्ति को किसी भी कीमत पर चलने की कोशिश करनी चाहिये।

केवल नैतिकता की भावना से युद्ध की ओर देखने से अर्जुन उस परिस्थिति के सही स्वरुप को समझ नहीं सके। अपने परिवारजनों और अग्रजों तथा जिन्होंने उन्हें पाला  पोशा, बड़ा किया और शिक्षा दी, उनके विरूद्ध युद्ध करना नैतिकता के आधार पर उन्हें उचित नहीं जान पड़ा। क्योंकि भावावेश में उनका मन भ्रमित होने के चलते अन्य दृष्टिकोणों पर विचार नहीं कर सका जिससे वह पुनः  संतुलित और संयमित हो सकते थे। अपने विचलित मन की अवस्था में मनुष्य को ईश्वर या ज्ञानीजन की शरण लेनी चाहिए। अर्जुन  भी ऐसे अवसर पर भगवान कृष्ण की शरण में जाते हैं  । श्रीकृष्ण उसका मार्गदर्शन करते हुए जीवन के सभी दृष्टिकोणों को उसके सामने प्रस्तुत करते हैं  I भगवान श्रीकृष्ण मनुष्य को प्राप्त विवेकशील बुद्धि की भूमिका निभाते हैं, जो हमारे देहरूपी रथ का योग्य सारथी  है। मन के समत्व भाव में रहने से जीवन की वास्तविक सफलता निश्चित होती है। कर्मयोग की भावना से कर्म करते हुये जीवन जीने पर अन्तकरण की शुद्धि प्राप्त होती है।
इसलिए हर किसी को फल की इच्क्षा किये बिना कर्म करने चाहिए और बिना विचलित हुए हर परिस्तिथि का सामना करने के लिए तैयार रहना चाहिए  | तभी जीवन में सफलता प्राप्त हो सकती है |

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