डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, (भारतरत्न- 1962)
(जन्म-3 दिसंबर 1884, मृत्यु – 28 फरवरी 1963)
“वह न बेर हैं, जो बाहर से मीठा और अन्दर से कठोर होता है; वह न बादाम हैं, जो बाहर से कठोर और अन्दर से कोमल होता है; वह तो अंगूर के समान है, जो अन्दर-बाहर दोनों जगह से मीठे रस से परिपूर्ण होता है। ” ये शब्द हैं लार्ड लिनलिथगो के, जो उन्होंने भारत के प्रथम राष्ट्रपति बाबू राजेन्द्र प्रसाद के लिए कहे थे।
भारत के एक छोटे से गांव के बालक ने बड़े होकर अपनी योग्यता, असाधारण प्रतिभा और मानवीय गुणों के बल पर देश का सर्वोच्च पद प्राप्त किया। उनका जीवन कर्मठता, सादगी और देश सेवा से भरपूर था। उनका परिवार पूरी तरह सादा और सरल था, जहां बड़ा आदमी बनने का सपना देखना भी मुहाल था। ऐसे में संसार के एक महान प्रजातन्त्र देश का प्रथम राष्ट्रपति बन जाना आश्चर्य की बात थी ।
डॉ. राजेन्द्र प्रसाद का जन्म बिहार में सारन जिले के जीरादेई गांव में एक कायस्थ परिवार में 3 दिसम्बर, 1884 को हुआ था। पिता महादेव सहाय ज़मींदार थे, जिनकी आयुर्वेद विज्ञान और फ़ारसी भाषा पर गहरी पकड़ थी। इस विषय के गहन अध्ययन ने उन्हें चतुर वैद्य का दर्जा दिलवाया। व्यक्तियों के लिए वह किसी देवता से कम न थे। ऐसा चिकित्सक, जो बिना धन लिये दवा दे, ग़रीब गांव वालों को और कहां मिल सकता था ? पिता का साधु स्वभाव और माता की धर्मपरायणता उन्हें विरासत में मिली थी। आरम्भ से ही वह बेहद प्रतिभाशाली थे। सादगी और सरलता अन्त तक बनी रही।
एक बार विजय लक्ष्मी पंडित ने मैक्सिको के राष्ट्रपति को उनका फोटो दिखाया, तो वह बोल उठे, “क्या यह ही हैं भारत के राष्ट्रपति? यह तो बिल्कुल हमारे मैक्सिको के किसी साधारण किसान जैसे हैं। इनके सिर से गांधी टोपी हटाकर अगर हमारे किसानों द्वारा पहना जाने वाला ‘सोम ब्रियो’ पहना दिया जाए, तो यह बिल्कुल मैक्सिको के किसान लगेंगे।”
बालक राजेन्द्र ने मां और दादी का भरपूर प्यार पाया। पांच-छह वर्ष की आयु में बालक राजेन्द्र की शिक्षा आरम्भ हुई। मौलवी साहब घर में तीन लड़कों को पढ़ाने के लिए नियुक्त किए गए। राजेन्द्र के साथ उनके दो चचेरे भाई भी पढ़ते थे। हंसी-मज़ाक़, शरारतें व बाल सुलभ दिनचर्या के साथ-साथ फ़ारसी का अक्षर ज्ञान चलता रहता। दूसरे मौलवी साहब सात-आठ माह बाद पढ़ाने आए। लगभग दो वर्ष तक उन्होंने इन बालकों को पढ़ाया।
प्रारम्भिक शिक्षा घर पर पूरी कराने के बाद नौ वर्ष की आयु में उन्हें छपरा के जिला स्कूल में प्रवेश दिलाया। 1902 में वहीं से मैट्रिक परीक्षा सर्वप्रथम रहकर पास की। कलकत्ता के प्रेसीडेंसी कॉलेज से बी.ए. करने के बाद एम.ए. किया। एम.एल. की परीक्षा भी आगे चलकर पास की। वह शुरू से ही मेधावी छात्र रहे थे। उन्होंने मैट्रिक से एम.एल. तक की सभी परीक्षाएं प्रथम श्रेणी में पास की। इस दौरान उन्हें अनेक छात्रवृत्तियां और पदक भी मिले।
भारतीय ग्रामीण जीवन से राजेन्द्र बाबू ने संस्कारों और परम्पराओं की अमिट छाप पाई थी। तीज-त्यौहार हों या रामलीला वह उनमें सहर्ष भाग लेते थे। अपनी पुस्तक में जिस तरह से उन्होंने उस समय के सामाजिक परिवेश का खाका खींचा है, उसे पढ़ने से अनुमान लगाया जा सकता है कि वह अपने आसपास के जीवन से गहरी आत्मीयता के साथ बंधे थे। अनन्त चतुर्दशी का व्रत उन्हें बेहद प्रिय था। उनका विवाह बलिया जिले के दल छपरा में तय हुआ। तब उनकी आयु केवल 12 वर्ष थी।
राजेन्द्र बाबू को 1906 में राष्ट्र-प्रेम का गुरु मन्त्र मिला, जब वह लाला लाजपत राय, अरविन्द घोष, गोपालकृष्ण गोखले, सुरेन्द्रनाथ बनर्जी तथा पं. मदनमोहन मालवीय जैसी महान विभूतियों के सम्पर्क में आए।
वकालत पास करके उन्होंने कलकत्ता में ही प्रैक्टिस शुरू कर दी। पहले ही मुक़दमे में राजेन्द्र बाबू ने अपनी प्रतिभा और योग्यता का झंडा गाड़ दिया। आशुतोष मुखर्जी का ध्यान उनकी ओर गया और उन्हें लॉ कॉलेज में अध्यापन के लिए बुलावा भिजवाया। इससे पहले भी वह मुज़फ़्फ़रपुर कॉलेज में अध्यापन कार्य कर चुके थे।
जिन दिनों वह वकालत की परीक्षा की तैयारी कर रहे थे, तब गोपाल कृष्ण गोखले से परिचित होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। 1909 में उन्होंने सवेंट्स ऑफ इंडिया सोसाइटी की स्थापना की थी। वह बिहार के प्रतिभावान युवकों को उसमें शामिल करना चाहते थे। उन्होंने राजेन्द्र बाबू से भी कहा । राजेन्द्र जी आग्रह से व्यथित हो उठे। मन में देशप्रेम की तीव्र लहर उठी, किन्तु परिवार व माता के मोह ने पैरों में ज़ंजीरें डाल दीं। वह चाहते. की सोसाइटी में शामिल न हो सके।
राजेन्द्र बाबू ने 1911 में अखिल भारतीय कांग्रेस दल की सदस्यता ग्रहण की। जब पटना हाईकोर्ट की स्थापना हुई, तो वहां चले आए। 1920 तक पटना में वकालत की। वकालत के पेशे से उनकी आमदनी लगभग तीन-चार हज़ार रुपए प्रति मास थी, किन्तु उनका सारा धन ग़रीबों की सेवा में ही ख़र्च होता रहता था। जब उन्होंने वकालत छोड़ी, तो उनकी पासबुक में केवल 15 रुपए थे।
उन्हीं दिनों बिहार के कांग्रेसियों ने गांधी जी से चम्पारन में नील की खेती के किसानों के प्रति अंग्रेज़ मालिकों के अत्याचार और शोषण के विरुद्ध सहायता की प्रार्थना की, जिसे गांधी जी तुरन्त मान गए और चम्पारन सत्याग्रह छिड़ गया। इस सत्याग्रह के फलस्वरूप राजेन्द्र बाबू के दैनिक जीवन में क्रान्तिकारी परिवर्तन आया। वह अपनी आत्मकथा में इस विषय पर लिखते हैं – ‘चम्पारन में ही हमने जाति-पांति का भेद छोड़ा। ज़िन्दगी में सादगी भी बहुत आ गई। हम लोगों के नौकर भी एक-एक करके हटा दिए गए।’
चम्पारन सत्याग्रह के साथ ही वह स्वतन्त्रता संग्राम में खुलकर आ गए और जल्दी ही पूरे देश में प्रसिद्ध हो गए। पटना के सदाकत आश्रम में बिहार विद्यापीठ की स्थापना की, ताकि छात्रों में राष्ट्रीयता की भावना जाग्रत हो सके। धीरे-धीरे राजेन्द्र प्रसाद बिहार की राजनीतिक गतिविधियों के सूत्रधार बन गए। लोग उन्हें बिहार का बापू कहने लगे ।
साइमन कमीशन के विरोध में राजेन्द्र प्रसाद के नेतृत्व में एक विशाल जनसमूह ने शान्तिपूर्ण प्रदर्शन किया। नमक सत्याग्रह में भी उनकी पिटाई हुई व चोटें भी आईं। इस सत्याग्रह में भाग लेने के कारण उन्हें छः मास क़ैद की सज़ा सुनाई गई।
1933 में पुनः उन्हें पन्द्रह महीने की क़ैद हो गई । इस जेल-यात्रा में दमे के रोग ने भयंकर रूप धारण कर लिया । अनियमित दिनचर्या व कमज़ोर कन्धों पर अनेक कार्यों का बोझ जब असहनीय हो गया, तो राजेन्द्र बाबू का शरीर टूट सा गया। दमे के इस रोग से उन्हें मुक्ति कभी भी नहीं मिली ।
1933 में ही बिहार के कई इलाक़ों में भूकम्प आ गया। उन्हें जब जेल से रिहा किया गया, तब भी वह पूरी तरह स्वस्थ नहीं थे, फिर भी भूकम्प पीड़ितों की सहायता में जुट गए। उस कठिन दुख की घड़ी में राजेन्द्र जी ने अपनी सूझबूझ व तुरत-फुरत निर्णय करने की क्षमता का परिचय दिया। अनेक स्वयंसेवक उनसे प्रेरित होकर सेवा करने आ पहुंचे। इसी प्रकार क्वेटा के भयानक भूकम्प में भी राजेन्द्र बाबू लगन से जुट गए। उन्होंने बिहार अर्थक्वेक रिलीफ सोसाइटी बनाकर पीड़ितों की जो सेवा और सहायता की, वह उनके जीवन की एक बेजोड़ कहानी बन गई और गांधी जी ने राजेन्द्र बाबू को ‘देशरत्न’ की उपाधि से विभूषित किया। राजेन्द्र बाबू हिन्दी प्रेम के लिए शुरू से ही मशहूर थे। उन्होंने 1918 में बिहार के प्रसिद्ध अंग्रेज़ी पत्र ‘सर्च लाइट’ की स्थापना की, तो हिन्दी में भी ‘देश’ नामक साप्ताहिक का प्रकाशन किया। इस हिन्दी प्रेम के कारण ही अखिल भारतीय हिन्दी सम्मेलन ने 1936 के नागपुर अधिवेशन में उन्हें समापति बनाया। इसके पूर्व 1926 में बिहार प्रान्तीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन, दरभंगा के तथा 1927 में संयुक्त प्रान्त के हिन्दी साहित्य सम्मेलन के कांगड़ी अधिवेशन के सभापति बने थे। इतना ही नहीं अंग्रेज़ सरकार द्वारा चलाए जाने वाले कॉलेजों और स्कूलों का बहिष्कार करने और इसको आन्दोलन का रूप देने के लिए ही उन्होंने बिहार विद्यापीठ की स्थापना की थी, जिसमें सर्वप्रथम अपने बेटों को दाखिल करवाया था।
1942 में महान क्रान्ति का शंखनाद हुआ। कांग्रेस ने गांधी जी के मन्त्र ‘करो या मरो’ और ‘भारत छोड़ो’ के साथ समूचे देश को पुकारा। राजेन्द्र बाबू सहित अनेक सदस्यों को गांधी जी के साथ बन्दी बना लिया गया और अज्ञात स्थान पर जेल में डाल दिया गया। 1945 तक वह जेल में ही रहे। जेल जीवन में राजेन्द्र बाबू ने ‘द इंडिया डिवाइडेड’ व संस्मरणों की एक पुस्तक लिखी 1 भारत में अन्तरिम सरकार की स्थापना हुई, तो उन्हें कृषि व खाद्य मन्त्री बनाया गया। देश में उन दिनों अनाज का संकट ज़ोरों पर था, जिसे उन्होंने बड़ी कुशलता से संभाल लिया था। जब संविधान सभा का गठन हुआ, तो वह उसके अध्यक्ष चुने गए। 26 जनवरी, 1950 को बाबू राजेन्द्र प्रसाद ने भारतीय गणतन्त्र के प्रथम राष्ट्रपति पद को ग्रहण किया।
राष्ट्रपति भवन में भी राजेन्द्र प्रसाद जी ने अपनी सरल व सादगीपूर्ण जीवनशैली को नहीं छोड़ा। भोजन भी हमेशा सादा ही पसन्द किया। अपने लिए शानदार कपड़ों पर कभी ध्यान नहीं दिया।
सर्वप्रथम गणतन्त्र समारोह में जब उन्हें राष्ट्रपति का आसन ग्रहण करना था, उस समय उनके भतीजे जनार्दन प्रसाद ने एक अच्छी चुस्त सिली हुई शेरवानी और चूड़ीदार पाजामा पहनने के लिए बड़ी कठिनाई से राजी किया, वरना वह पहले की तरह घुटनों तक ऊंची धोती, लम्बा ढीला-ढाला कोट और रूखे बालों वाले सिर पर गांधी टोपी पहनकर भारतीय प्रजातन्त्र का सर्वोच्च पद ग्रहण करने के लिए तैयार थे।
भारतकोकिला सरोजिनी नायडू ने उनके विषय में कहा, “यदि मुझे सोने की क़लम मिल जाए, जिसे मैं शहद की दवात में डुबो सकूं, फिर भी उनके बारे में लिखने के लिए काफ़ी नहीं होगा। मेरे मन में ऐसी तस्वीर उभरती है, जो किसी शस्त्रधारी योद्धा की-सी नहीं, बल्कि वह तस्वीर एक फ़रिश्ते की है, जिसके हाथ में क़लम है और उसने जनता के दिल को जीत लिया है। ”
1962 में उन्हें भारत के सर्वोच्च अलंकरण भारतरत्न से विभूषित किया गया। वह बारह वर्षों तक भारत के राष्ट्रपति पद पर आसीन रहे। 1962 में दूसरा कार्यकाल समाप्त करके पटना के सदाकत आश्रम में रहने लगे। 28 फ़रवरी, 1963 को वह एक सार्वजनिक सभा को सम्बोधित करने जा रहे थे कि एकाएक उनके शरीर में शिथिलता छा गई और देखते-ही-देखते इस संसार से विदा हो गए।