डॉ. जाकिर हुसैन, (भारतरत्न- 1963)
(जन्म-8 फरवरी, 1897, मृत्यु – 3 मई, 1969)
“देश के सर्वोच्च पद पर मुझे निर्वाचित करके मेरे देशवासियों ने मुझमें जो विश्वास प्रकट किया है, मुझे स्वीकार करना चाहिए कि उससे मैं अभिभूत हो उठा हूं और जिन परिस्थितियों में मुझे यह पद भार दिया गया है, उससे मेरी यह भावना और बढ़ जाती है, क्योंकि मुझ पर यह भार भारत के सबसे अधिक प्रतिष्ठित सपूतों में एक, डॉ. राधाकृष्णन् के बाद पड़ रहा है, जो लम्बे समय तक मेरे मार्गदर्शक, तत्त्वज्ञ और मित्र रहे हैं और जिनके अधीन पिछले पांच वर्षों तक काम करने का सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ है। मैं उनके पदचिह्नों पर चलने का यत्न करूंगा, किन्तु उनकी समानता की आशा मैं नहीं कर सकता।”
ये महान विचार शिक्षाविद डॉ. ज़ाकिर हुसैन के हैं। नई तालीम के जनक, राष्ट्रीय मुसलमानों के लिए बेमिसाल शख़्सियत और जीवन-भर श्रमजीवी अध्यापक डॉक्टर ज़ाकिर हुसैन का जन्म 8 फ़रवरी, 1897 को हैदराबाद में हुआ था। उनके पुरखे सीमा प्रान्त के आफ़रीदी क़बीले के थे और लगभग ढाई सौ वर्ष पहले उत्तर-प्रदेश के फ़र्रूख़ाबाद जिले के क़ायमगंज में आ बसे थे। उनके पिता फ़िदा हुसैन खां हैदराबाद में नामी वकील थे।
उनके पिता की ईमानदारी की कसमें खाई जाती थीं, किन्तु वह अधिक समय तक अपने नेक विचारों से दुनिया को परिचित नहीं कर पाए। केवल उनतालीस वर्ष की छोटी आयु में वह चल बसे। नौ वर्षीय ज़ाकिर हुसैन को उनकी माता कायमगंज ले आईं। उन्होंने बच्चों के पालन-पोषण में कोई कमी नहीं होने दी। ज़ाकिर हुसैन समझदार हो चले थे। वह मौलाना अबुल कलाम आज़ाद और मौलाना मोहम्मद अली के लेखों से प्रभावित थे और निरन्तर उर्दू में निकलने वाले ‘अलहिलाल’ और ‘कामरेड’ समाचार पत्र पढ़ते थे।
सन् 1911 में वह छात्रवृत्ति की परीक्षा देने के लिए आगरा गए। उन्हीं दिनों प्लेग की महामारी फैली हुई थी। जब वह वापस लौटे, तो सन्न रह गए। उनका सारा परिवार महामारी की भेंट चढ़ गया था। उनके भविष्य पर कोई आंच न आ जाए, यह सोचकर मां ने अपने अन्तिम समय में भी उनको नहीं बुलाया था।
मां की मृत्यु के बाद जाकिर ने प्रारम्भिक शिक्षा इटावा में ही प्राप्त की। इन दिनों उनका परिचय एक दिव्य व्यक्तित्व से हुआ। सूफ़ी हसन शाह एक धार्मिक व्यक्ति थे। उनकी संगत में ज़ाकिर ने दयालुता, उदारता, सेवा, करुणा जैसे गुणों को ग्रहण किया। उस्ताद के उसूलों को चेले ने जीवन-भर निभाया । अच्छी पुस्तकों के पठन-पाठन की प्रेरणा भी यहीं से मिली। मैट्रिक की परीक्षा पास कर वह अलीगढ़ के मुस्लिम एंग्लो ओरियंटल कॉलेज में दाखिल हुए। इसी समय उनका विवाह दस वर्षीय शाहबानो बेगम से हो गया, जो जीवन-भर उनके साथ छाया की तरह बनी रहीं। अलीगढ़ में उर्दू के दो प्रसिद्ध साहित्यकारों रशीद अहमद सिद्दीक़ी और इक़बाल हुसैन के सम्पर्क में आए। वे उन्हें मुर्शिद के नाम से पुकारते थे।
स्नातक की परीक्षा पास करने तक ज़ाकिर हुसैन युग की एक ऐसी शक्ति के रूप में उभर चुके थे, जो अपने विरोधियों को झुकाना जानती थी। हिंसा से नहीं, बल्कि शील, संयम और वाक्पटुता के बल से । वह उपनाम से नियमित लेखन भी करते थे। उनकी गतिविधियां अपने तक ही सीमित नहीं रहीं। वह सदा अपने सहपाठियों के दुख-दर्द में हाथ बंटाते थे और इसी से छात्र समुदाय में ‘बहुत लोकप्रिय हो गए थे। सदा विचार- गोष्ठियों में भाग लेते और तर्कपूर्ण भाषण देते थे।
1918 में उन्होंने दर्शन, अंग्रेज़ी साहित्य और अर्थशास्त्र लेकर बी.ए. की परीक्षा पास की। जब क़ानून और अर्थशास्त्र में एम.ए. का अध्ययन शुरू किया, तभी उनकी नियुक्ति उसी कॉलेज में कनिष्ठ प्रवक्ता के पद पर हो गई। तरह-तरह की गतिविधियों के बीच उनका तेज़ दिमाग़ गतिमान होता जा रहा था। शिक्षक भी अपने इस प्रतिभावान छात्र से प्रसन्न थे। एम.ए. की परीक्षा से पूर्व ही ज़ाकिर हुसैन के जीवन में क्रान्तिकारी परिवर्तन हुआ। महात्मा गांधी के अलीगढ़ आगमन व असहयोग आन्दोलन ने उनको प्रभावित किया।
गांधी जी के विचारों ने ज़ाकिर हुसैन को जगाया और नई राह दिखाई। नई नौकरी का लालच भी उन्हें अपने निश्चय से डिगा नहीं पाया। उन्होंने कॉलेज छोड़ दिया और अलीगढ़ में ही जामिया मिलिया इस्लामिया की नींव डाली। हालांकि एक उभरते व्यक्तित्व के लिए यह फ़ैसला इतना आसान नहीं था, फिर भी उन्होंने यह जोखिम उठा ही लिया।
जामिया मिलिया में कुछ वर्ष कार्य करने के बाद वह उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए जर्मनी गए। पश्चिमी वातावरण युवा ज़ाकिर हुसैन पर रत्ती- भर भी असर नहीं डाल सका। उन्होंने बातचीत की सुन्दर शैली और विचारों से वहां भी धाक जमा ली। जर्मनी में उनकी भेंट प्रोफ़ेसर मुजीब और आबिद हुसैन से हुई, जिन्होंने जीवन-भर जामिया मिलिया की सेवा करने का वचन दिया।
ज़ाकिर साहब को जामिया मिलिया के आर्थिक संकट के समाचार मिले और यहां तक आशंका हुई कि कहीं वह बन्द न हो जाए। अपने ख़ून-पसीने से सींचे हुए पौधे को इस तरह से सूखता हुआ सुनकर वह बहुत बेचैन हो उठे, किन्तु परदेस में आखिर क्या कर सकते थे? तभी हकीम अजमल खां और डॉक्टर अंसारी यूरोप पधारे। ज़ाकिर साहब उनसे तुरन्त मिले और सहयोग की प्रार्थना की। हकीम साहब और डॉक्टर अंसारी ने उन्हें विश्वास दिलाया कि उनके इस पवित्र कार्य को नष्ट नहीं होने देंगे। स्वदेश लौटने पर इन्होंने उसके लिए आर्थिक सहयोग की अपील की और जामिया मिलिया को अलीगढ़ से दिल्ली ले आया गया।
विदेश में रहकर ज़ाकिर साहब ने विश्व की अनेक साहित्यिक विभूतियों से सम्पर्क स्थापित किया। उन्होंने जामिया मिलिया को सहयोग देते रहने का वचन दिया। उन दिनों वहां हिन्दुस्तान एसोसिएशन नामक संस्था थी। वहां लोग थोड़े ही समय में ज़ाकिर साहब की विद्वत्ता के कायल हो गए और अध्यक्ष पद सौंपने का निश्चय कर लिया, परन्तु अपने उसूलों के पाबन्द जाकिर हुसैन ने अध्यक्ष पद लेने से इनकार कर दिया।
उन्होंने जामिया के प्रकाशन गृह ‘मकतबा जामिया’ व बर्लिन के कवियानी प्रेस के बीच सम्पर्क स्थापित करवाया। सुदूर जर्मनी में भी वह जामिया को भूल नहीं सके। हर पल यही सोचते रहते कि संस्था के हित के लिए अगला क़दम क्या हो?
जर्मन के लोगों को गांधी जी के जीवन, कार्यों व विचारों से अवगत कराने के लिए उन्होंने क़लम का सहारा लिया। उनके लेखों से प्रभावित होकर बहुत-से लोग गांधीवादी विचारधारा के अनुयायी हो गए। इन सब गतिविधियों के साथ-साथ उन्होंने एक लेखक के साथ संयुक्त रूप से गांधी जी पर जर्मन भाषा में ग्रन्थ लिखा। उसका नाम था ‘डाई बोट शेख़्त डेस महात्मा गांधी’।
जर्मनी में उन्होंने बर्लिन विश्वविद्यालय से अपने शोध-प्रबन्ध पर पी-एच. डी. की डिग्री प्राप्त की। 1926 में वापस आए। यहां आकर देखा कि जामिया मिलिया का दीवाला निकला हुआ था और जनता का सहयोग भी नाम मात्र ही था। ज़ाकिर साहब ने हिम्मत नहीं हारी और फिर से जामिया को बनाने-संवारने में जुट गए। यह कहा जाए कि जामिया का इतिहास ज़ाकिर साहब की आत्मकथा है, तो गलत नहीं होगा।
1935 में जामिया मिलिया को दिल्ली के करोलबाग से उठाकर ओखला ले जाया गया। संस्थान की आधारशिला अनेक महत्त्वपूर्ण विभूतियों की उपस्थिति के बावजूद ज़ाकिर साहब ने एक बालक के नन्हे-मुन्ने हाथों से रखवाई। वह एक सफल अध्यापक एवं शिक्षाशास्त्री थे और सदा जामिया की आर्थिक स्थिति को ध्यान में रखते थे। आरम्भ में वह तीन सौ रुपए मासिक वेतन पाते थे, किन्तु कुछ समय पश्चात केवल दो सौ रुपए लेने लगे। शिक्षण संस्था में छात्रों को पढ़ाते वक़्त तन्मय हो जाते। दूसरे व्यक्ति को उसकी गलती समझाने का तरीक़ा बड़ा अनोखा था। छात्रावास के सभी छात्र उन्हें अपना आदर्श मानते थे। उनका मानना था कि स्वच्छ एवं स्वस्थ वातावरण ही विद्या प्राप्त करने का सही अवसर प्रदान करता है। इसके लिए वह प्रयत्नशील रहते थे।
1937 से ही गांधी जी शिक्षा सम्बन्धी सुधारों की तरफ ध्यान देने की बात कहते आए थे। वह चाहते थे कि बच्चों को केवल किताबी ज्ञान ही नहीं दिया जाना चाहिए, बल्कि शिक्षा का व्यावहारिक पहलू भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है। वह यह भी कहते थे कि जब तक शिक्षा के माध्यम से बच्चों का शारीरिक व मानसिक विकास नहीं होगा, तब तक देश का कल्याण होना कठिन है।
गांधी जी चाहते थे कि बुनियादी शिक्षा के पाठ्यक्रम के लिए एक कमेटी बनाई जाए। ज़ाकिर हुसैन को कमेटी का अध्यक्ष बनाया गया। उन्होंने बहुत ही कम समय में कड़ी मेहनत के साथ रिपोर्ट तैयार की। हालांकि उस रिपोर्ट के कारण बहुत वाद-विवाद भी हुआ, किन्तु गांधी जी ने उदारता के साथ उसका स्वागत किया। वह ज़ाकिर हुसैन की योग्यता से बेहद प्रभावित हुए और उन्हें हिन्दुस्तानी तालीमी संघ का प्रधान नियुक्त कर दिया। 1948 से 1956 तक वह अलीगढ़ विश्वविद्यालय के कुलपति रहे। उनके प्रयत्नों से अलीगढ़ विश्वविद्यालय फिर सुचारु ढंग से चलने लगा। उन्होंने उसे फिर संभाला और एक महत्त्वपूर्ण शिक्षा संस्थान के रूप में फिर से राष्ट्रीय मंच पर स्थापित कर दिया।
ज़ाकिर हुसैन के हृदय में मानवीय भावों का ख़ज़ाना था। दूसरों के दुख से दुखी होना और विनोदप्रियता स्वभाव में रची-बसी थी। पहले वह राज्यसभा के मनोनीत सदस्य थे। 1957-62 तक बिहार के राज्यपाल के पद पर रहे। अनेक स्थानों पर उन्होंने अपनी योग्यता, निर्णय क्षमता और विशाल हृदय का परिचय दिया। वह 1962 में उपराष्ट्रपति पद के लिए चुने गए। यह दूसरा अवसर था कि एक अध्यापक को इतना बड़ा सम्मान दिया गया था। 1967 में उन्हें राष्ट्र के सर्वोच्च राष्ट्रपति पद के लिए चुना गया। यह भी पहला अवसर था कि राष्ट्रपति पद के लिए बाकायदा चुनाव हुआ। इसमें कांग्रेस के उम्मीदवार थे, ज़ाकिर हुसैन, जब कि विरोधी पक्ष ने मुख्य न्यायाधीश के. सुब्बाराव को खड़ा किया था। जीत ज़ाकिर साहब की हुई और उन्हें भारतीय गणतन्त्र का प्रथम मुसलमान राष्ट्रपति होने का गौरव प्राप्त हुआ।
भारत सरकार ने 1963 में ज़ाकिर साहब को भारतरत्न की सर्वोच्च उपाधि से सम्मानित किया। इससे पूर्व 1954 में उन्हें पद्मविभूषण की उपाधि भी दी गई थी।
ज़ाकिर हुसैन ने राष्ट्रपति पद की गरिमा का निरन्तर पालन किया । एक अवसर पर उन्होंने अपने भाषण में कहा था, “सारा भारत मेरा घर है और उसके लोग मेरा परिवार। मैं सच्ची लगन से इस घर को सुन्दर और मज़बूत बनाने की कोशिश करूंगा, ताकि वह मेरे महान देशवासियों का उपयुक्त घर बन सके। ”
उनके भीतर छिपे लेखक ने तमाम व्यस्तताओं के बाद भी हार नहीं मानी। वह लगातार मौलिक लेखन करते रहे। उन्होंने बच्चों के लिए भी शिक्षाप्रद कहानियां लिखीं। महान दार्शनिक प्लेटो की पुस्तक ‘रियासत’ का उर्दू अनुवाद भी किया।
सन् 1969 में डॉ. ज़ाकिर हुसैन को दिल का दौरा पड़ा। सब मुंह बाए देखते रह गए और वह मौत की गोद में आराम की नींद सो गए। अपने जीवन के अन्तिम दिनों में उन्होंने एक पत्र में लिखा था – दूसरा माने न माने, मैं इंसान को हिन्दू, मुसलमान या ईसाई की दीवार से ऊंचा मानता हूं।