डॉ. विधानचन्द्र रोय (भारतरत्न- 1961)
(जन्म-जुलाई १, १८८२, मृत्यु- जुलाई १, १९६२)
“जो कुछ भी करो, उसे अपनी सम्पूर्ण शक्ति से करो” इस वाक्य को मूलमन्त्र मानकर अपने जीवन में सफलता की सीढ़ियां चढ़ने वाले डॉ. विधानचन्द्र राय का जन्म 1 जुलाई, 1882 को पटना नगर के बांकीपुर स्थान में हुआ था। पिता प्रकाशचन्द्र रोय आबकारी इंस्पेक्टर थे। दो बहनों और तीन भाइयों में सबसे छोटे होने के कारण बालक विधान को सभी का ढेर सारा प्यार मिला।
वह बचपन में दूसरे छात्रों की तरह एक साधारण छात्र थे। अध्यापकों को झांसा देकर भाग जाने में उन्हें बड़ा मज़ा आता था। पहले तो उन्हें गांव की पाठशाला में भेजा गया, जहां बंगला भाषा का अक्षर ज्ञान मिला, फिर अंग्रेज़ी ‘साधन’ के साथ हाईस्कूल में भर्ती हुए । कमज़ोर वह शुरू से ही थे । क़द भी नाटा था। इससे खेलकूद में हमेशा फिसड्डी रहते, अलबत्ता बाद में फुटबाल में रुचि बढ़ी और वह भी इतनी कि एक बार अपनी परीक्षा अधूरी छोड़कर खेल में शामिल हो गए। वह केवल पास होने पर भी अपने को धन्य समझते थे। कक्षा में प्रथम आना या कुछ ख़ास कर पाने का कभी कोई विचार मन में उठता ही नहीं था।
फिर भी पढ़ाई में बिल्कुल नियमित रहे। माता-पिता को कभी यह कहने की आवश्यकता नहीं हुई कि विधान पढ़ने जाओ। चौदह वर्ष की अल्पायु में ही उनकी मां का स्वर्गवास हो गया, फिर भी वह अपने सभी भाई-बहनों के साथ नियमित रूप से पढ़ते रहे। सन् 1901 में पटना के बांकीपुर कॉलेज से गणित में बी. ए. ऑनर्स की परीक्षा पास की और फिर कलकत्ता के मेडिकल कॉलेज में डॉक्टरी की पढ़ाई में दाखिला ले लिया। दरअसल एफ. ए. और बी. ए. पास करने के बाद उनकी रुचि किसी विशेष पेशे में नहीं थी। वकालत उनके पिता पसन्द नहीं करते थे। सरकारी नौकरी की तरफ उनका रुझान ही नहीं था। कुछ तो करना ही है, यह सोचकर वह मेडिकल कॉलेज में भर्ती हो गए।
डॉक्टर रोय के जीवन पर जिन हस्तियों ने गहरा प्रभाव छोड़ा, उनमें महात्मा गांधी, देशबन्धु के अलावा उनके शिक्षक प्रधानाचार्य कर्नल ल्यूकिस प्रमुख हैं। उनकी पारखी आंखों ने युवक विधानचन्द्र राय का चमकदार भविष्य देख लिया था। वह अंग्रेज़ थे, फिर भी उन्हें विधानचन्द्र में विशेष रुचि थी और सदा उनकी सहायता करते रहते थे। एक बार उन्होंने कहा था, “देखो विधान, मैं तुम्हें एक शिक्षा देता हूं। किसी भी अंग्रेज़ के सामने चौथाई इंच भी मत झुकना, नहीं तो वह तुम्हें दोहरा (झुका) कर देगा।” और डॉक्टर विधानचन्द्र राय ने इस शिक्षा को अपने जीवन का मूलमन्त्र बना लिया।
मेडिकल कॉलेज में दाखिला लेने के बाद दूसरे वर्ष पिता नौकरी से रिटायर हो गए। पढ़ाई का खर्चा उठाना एक समस्या बन गई, परन्तु तभी संयोग से विधान को छात्रवृत्ति मिलने लगी और गाड़ी फिर चल निकली। कर्नल ल्यूकिस ने उन्हें मेल नर्स का काम भी दे दिया, जिससे उन्हें आठ रुपए मासिक मिलने लगे ।
एक दिन कॉलेज के प्राध्यापक कर्नल पेक ब्रुहाम की मोटर एक ट्राम से टकरा गई। विधानचन्द्र वहीं खड़े थे। कर्नल पेक ने वक़्त पड़ने पर उनसे अपने पक्ष में गवाही देने के लिए कहा। उन्होंने झूठ बोलने से साफ इनकार कर दिया। कर्नल ने जल-भुनकर अपने विषय में उन्हें एक भी अंक नहीं दिया। उस वर्ष अन्य विषयों में अच्छे अंक होने पर भी वे फेल हो गए। आगे चलकर कर्नल पेक उनकी योग्यता और सच्चाई देखकर इतने प्रभावित हुए कि उनसे अपनी गलती के लिए क्षमा मांगी और अपने विषय में ज़्यादा अंक भी दिए। 1904 में बंग-भंग के कारण विरोध का स्वर गूंज रहा था। उन दिनों एंग्लो इंडियन लोग भारतीयों को अपने से हीन समझते थे। एक दिन विधानचन्द्र राय अपने एक साथी के साथ कलकत्ता से वर्धवान जा रहे थे। वे दोनों रेल के इंटर क्लास में थे। सामने वाली सीट पर एक एंग्लो इंडियन जोड़ा भी यात्रा कर रहा था। वे पूरी सीट घेरकर बैठे हुए थे। विधानचन्द्र और उनके मित्र खड़े थे। उन्होंने एंग्लो इंडियन से बैठने का स्थान मांगा, पर वह तो साहब थे, भला क्यों बैठने देते? साथ ही उन्होंने अनाप-शनाप बकना आरम्भ कर दिया। बात बढ़ गई। कर्नल ल्यूकिस की चौथाई इंच भी न झुकने की शिक्षा उन्हें याद आ गई। बात हाथापाई तक जा पहुंची और एंग्लो इंडियन साहब ने अपनी दुम दबा ली।
इस घटना की याद करते हुए डॉक्टर रोय ने एक बार बताया था कि उस समय ऐसा लगा था कि जैसे सम्पूर्ण अंग्रेज़ जाति से ही जीत गए थे। कलकत्ता मेडिकल कॉलेज से एम. बी. की परीक्षा पास करके वह सन् 1908 में इंग्लैंड चले गए। वहां के सेंटबर्थो लोम्यूज में प्रवेश के लिए डीन डॉ. शोर के पास न जाने कितने चक्कर लगाने पड़े। अन्त में उन्हें प्रवेश मिल ही गया । सेंटबर्थोलोम्यूज़ के अस्पताल में वह पूरी ताक़त के साथ अपने काम में जुट गए। प्रातः साढ़े नौ बजे से सायं साढ़े चार बजे तक पूरी तरह डूबकर मृत शरीरों पर ऑपरेशन का अभ्यास करते रहते। छुट्टियों में भी यही क्रम चला करता था। इस प्रकार पूरी लगन से पढ़ाई करके उन्होंने अपना विशेष स्थान बना लिया।
. बाद में उन्होंने अपनी लगन, परिश्रम और निष्ठा से डॉक्टर शोर का ही मन नहीं जीता, बल्कि उनकी फीस भी माफ़ कर दी गई। सर्जरी के अपने प्रयोगों में काम आने वाले मृत शरीरों के पैसे उन्होंने नहीं लिए, जिसका प्रभाव वहां के स्थानीय विद्यार्थियों और डॉक्टरों पर भी पड़ा।
स्वदेश लौटने पर उन्हें पुलिस कर्मचारियों को प्राथमिक चिकित्सा पढ़ाने का काम सौंपा गया। शायद यह अस्पताल के अधिकारियों की तरफ़ से उनकी उस हार का बदला था, जो उनके मना करने के बावजूद डॉक्टर राय को गवर्नर द्वारा विदेश जाने की छुट्टी मिल गई थी।
उनके मृदु स्वभाव ने सभी का मन जीत लिया और उनका यश दूर-दूर तक फैल गया। इतना ही नहीं, उनकी सफलता के विषय में अनेक प्रकार की कहानियां मशहूर हो गईं। कितना भी बिगड़ा हुआ रोग होता, रोगी को उनसे उपचार करवाने पर चैन पड़ जाता। आधा रोग तो उनके अच्छे स्वभाव और प्यार भरे व्यवहार से ही दूर भाग जाता। इसी बीच उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय के कारमाइकेल मेडिकल कॉलेज में पढ़ाने का कार्य भी शुरू कर दिया। वह विश्वविद्यालय की सीनेट के सदस्य भी चुने गए।
1923 में बंगाल की कौंसिल की सदस्यता के लिए अपने मित्र सर आशुतोष मुखर्जी के अनुरोध पर सर सुरेन्द्रनाथ बनर्जी के विरोध में चुनाव लड़ा और स्वतन्त्र उम्मीदवार के रूप में जीत भी लिया। उस समय डॉक्टर रोय केवल इकतालीस वर्ष के थे।
गांधी जी से डॉक्टर रोय की भेंट जून 1925 में हुई थी। तब देशबन्धु चितरंजनदास का देहान्त हुए कुछ ही दिन हुए थे। गांधी जी कलकत्ता में देशबन्धु की विधवा वसन्तीदेवी के पास ही ठहरे हुए थे। तभी डॉ. राय भी शोक संवेदना प्रकट करने वहां पहुंचे। वसन्तीदेवी उन्हें देखकर फूट-फूटकर रोने लगीं। गांधी जी ने अजनबी का परिचय पूछा और जब उन्हें मालूम हुआ कि वही विधानचन्द्र हैं, तो दोनों ऐसे मिले, जैसे आपस में बहुत समय से जानते हों। यह मित्रता तेईस वर्षों तक चली।
देशबन्धु की प्रेरणा से ही विधानचन्द्र राय राजनीति में उतरे थे और उनके निधन के पश्चात कौंसिल में वही स्वराज्य पार्टी के अधिकृत वक्ता माने जाने लगे थे। खड़गपुर की रेलवे हड़ताल के समय 1927 में कॉसिल में काम रोको प्रस्ताव लाने का दायित्व डॉ. राय ने ही अपने हाथों में लिया था और अगले वर्ष 1928 में पुलिस के बजट पर सबसे अधिक उम्र डॉ. साहब ही हुए थे, क्योंकि साइमन कमीशन के विरोध में पुलिस ने कलकत्ता में अत्यन्त क्रूरता का प्रदर्शन किया था। सन् 1931 में क़ानून भंग आन्दोलन में सक्रिय भाग लेने पर उन्हें जेल जाना पड़ा।
1937 में प्रान्तों में देशी सरकारें बनीं, तो बंगाल की कांग्रेस सरकार के मुख्यमन्त्री के पद पर डॉ. विधानचन्द्र रोय को ही बैठाया गया। गांधी जी जब पूना के आगा खां महल में क़ैद थे, उन्हीं दिनों उन्होंने इक्कीस दिन का अनशन आरम्भ कर दिया था। कुछ समय तक अनशन चलता रहा। सरकार ने उनकी देखभाल के लिए तीन सरकारी डॉक्टरों का एक दल नियुक्त कर दिया था। ये डॉक्टर थे, कर्नल शॉ, कर्नल भंडारी और जनरल कैंडी। उन्होंने गांधी जी के एपेंडिक्स का ऑपरेशन भी किया था। इस दल के अतिरिक्त गांधी जी की इच्छानुसार तीन गैरसरकारी डॉक्टर भी नियुक्त किए गए थे – डॉ. गिल्डर, डॉ. सुशीला नैयर और डॉ. विधानचन्द्र राय।
गांधी जी के उपवास का तेरहवां दिन था। उनकी स्थिति ठीक नहीं थी। उनके ख़ून और मूत्र की जांच से पता चला कि स्थिति गम्भीर होती जा रही है। पेट में कुछ भी रुक नहीं पा रहा था। चेतना भी खोती जा रही थी। सरकार को सूचित कर दिया गया था कि गांधी जी बचेंगे नहीं। सरकार ने भी वास्तविकता का सामना करने के लिए तैयारी पूरी कर ली थी। किस स्थान पर उनका दाह संस्कार किया जाएगा, यह भी निश्चित हो चुका था।
जनरल कैंडी बहुत निराश होकर डॉ. विधानचन्द्र रोय से बोले, “डॉक्टर राय, गांधी जी में अनशन की शक्ति शेष नहीं रही है। हम इंजेक्शन द्वारा उनके शरीर में ग्लूकोज़ पहुंचाना चाहते हैं। अगर वह उसे मुंह से नहीं लेंगे, तो… ।” इस पर डॉ. रोय ने कहा, “जब मैं पूना आया था जनरल, तो गांधी जी ने मुझसे वायदा लिया था कि आप ग्लूकोज़ नहीं देंगे, न मुंह से, न इंजेक्शन से,” डॉ. रोय ने आगे कहा, “बहुत सम्भव है, इस तरह से उनके दिमाग़ पर आघात पहुंचे और उसका नतीजा ठीक न निकले। ऐसी स्थिति में मैं दुनिया को यह बतलाने के लिए पूर्ण रूप से स्वतन्त्र रहूंगा कि बावजूद मेरी चेतावनी के गांधी जी को ग्लूकोज़ दिया गया, जिससे उनकी मृत्यु हो गई।” सरकारी डॉक्टर इतना बड़ा जोखिम लेने को तैयार नहीं हुए। जनरल कैंडी गांधी जी के पास गए और उनसे कुछ लेने के लिए फिर अनुरोध किया, किन्तु गांधी जी ने मना कर दिया। जनरल कैंडी निराश होकर बाहर आ गए।
तब डॉ. रोय गांधी जी के पास गए। केवल चार औंस मीठा नीबू का रस लेने के लिए उन्होंने गांधी जी से अनुरोध करते हुए समझाया कि उससे उनके पेट में शक्ति आएगी और अनशन पर प्रभाव भी नहीं पड़ेगा, क्योंकि नीबू साइट्रेट समूह का पेय है। गांधी जी मान गए।
1939 में अखिल भारतीय चिकित्सा परिषद के अनौपचारिक अध्यक्ष पद के लिए डॉ. रोय को चुना गया। उसी वर्ष द्वितीय विश्वयुद्ध छिड़ गया और अंग्रेज़ सरकार ने भारत को भी ज़बर्दस्ती युद्ध में घसीट लिया। 1940 में सरकार ने सेना के चिकित्सा विभाग में नवयुवकों को भर्ती करने में डॉ. रोय से सहयोग का अनुरोध किया और गांधी जी की अनुमति पाकर डॉ. रोय ने न केवल भर्ती में सहयोग किया, बल्कि भर्ती किए गए भारतीय चिकित्सकों को वे सुविधाएं दिलवाईं, जो प्रथम विश्वयुद्ध में उपलब्ध नहीं थीं।
1941 के अन्त में डॉ. रोय को कलकत्ता विश्वविद्यालय का उपकुलपति बनाया गया। उन्हीं दिनों जापान के आक्रमण के कारण रंगून पूरी तरह भयभीत था। म्यांमार की राजधानी रंगून से लोग भागकर कलकत्ता आ रहे थे।
डॉ. रोय ने उन्हें बसाने के लिए, स्कूलों और कॉलेजों में आवासीय व्यवस्था का इस प्रकार प्रबन्ध किया कि शरणार्थियों को सिर छिपाने के लिए भी स्थान मिल गया और साथ ही विद्यार्थियों की शिक्षा और परीक्षा में विघ्न भी नहीं पड़ा। कठिन परिस्थिति में फंसे अध्यापकों को उनकी भविष्य निधि से सहायता भी दिलवाई और विश्वविद्यालय के कर्मचारियों को उचित मूल्यों पर चावल भी दिलवाया। वह अपने जीवन के चालीस वर्षों तक लगातार सेवाकार्य और अनेक अस्पतालों के साथ जुड़े रहे। उनकी इन सेवाओं को देखकर सन् 1944 में कलकत्ता विश्वविद्यालय ने उन्हें डॉक्ट्रेट की मानद उपाधि प्रदान की। सन् 1948 में उन्होंने मुख्यमन्त्री के रूप में बंगाल की बागडोर संभाली।
उससे पहले 1946 के साम्प्रदायिक दंगों में कुछ उपद्रवियों ने उनके मकान पर हमला कर दिया था। वहां मलाया से आया डॉक्टरों का दल ठहरा हुआ था। दल का सारा सामान और दवाओं के बक्से उपद्रवियों ने तोड़कर आग के हवाले कर दिए थे, फिर भी उस पशुता का मुक़ाबला डॉ. रोय ने बड़ी हिम्मत के साथ किया।
डॉ. रोय ने जीवन-भर विवाह नहीं किया। उन्हें अपने भाइयों के परिवार से बहुत स्नेह था। जब भी समय मिलता, उनके साथ रहते और उनमें घुल-मिल जाते। डॉ. राय को पश्चिम बंगाल का निर्माता माना जाना चाहिए। दुर्गापुर में लोहे और इस्पात का कारखाना, कांच का कारखाना, एसिड का कारखाना, दामोदर घाटी परियोजना, मयूराक्षी जलाशय, गंगा बांध परियोजना, कलकत्ता महानगर में दुग्ध वितरण की योजना आदि आज भी उनके यश की गाथाएं कहती हैं।
मुख्यमन्त्री होने के बावजूद वह रोगियों की निःस्वार्थ भाव से सेवा किया करते थे। उनके निवास स्थान पर रोज़ सुबह रोगियों की भीड़ लगी रहती थी। अनेक डॉक्टरों और अस्पतालों से निराश हुए रोगी जब उनके पास लौटकर आते, तो वह अपने व्यस्त जीवन में से भी समय निकालकर उनकी सेवा अवश्य करते। इस देश में सबसे पहले डॉ. रोय ने ही जीवनदायिनी औषधि बनाने का कारखाना खोलने की व्यवस्था की। अपने निवास स्थान तक को उन्होंने देश-सेवा के लिए दान कर दिया। उन्होंने कभी दो पल भी विश्राम नहीं किया। उनका मन्त्र था, “मैं उसी दिन रुकूंगा, जब मृत्यु मेरे द्वार पर आएगी।”
सन् 1961 में भारत सरकार ने उन्हें भारतरत्न के सम्मान से विभूषित किया। सन् 1962 की 1 जुलाई को जब लोग उनका जन्म-दिवस मनाने की तैयारी कर रहे थे, तब किसे पता था कि उनका जन्म-दिवस ही निधन दिवस में बदल जाएगा।