41. बिस्मिल्लाह खां -भारतरत्न 2001
(जन्म- 21 मार्च 1913, मृत्यु- 21 अगस्त 2006)
“सिर्फ संगीत ही है जो इस देश की विरासत और तहजीब को एकाकार करने की ताकत रखता है.” ये महज अल्फाज नहीं सच्ची इबारत हैं। जिन्हें भारत रत्न और शहनाई के शहंशाह उस्ताद बिस्मिल्ला खान ने बयां किया था।भारतीय संगीत को ऊंचाइयों के शिखर पर पहुंचाने वाले उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ां का मानना है कि “संगीत की सेवा करते जाओ और रियाज़ जारी रखो, ज़रूर कुछ मिलेगा।”
21 मार्च, 1916 को बिहार के बक्सर जिले के डुमराव गांव में जन्मे बिस्मिल्लाह खां संगीत की साधना को अल्लाह की इबादत मानते हैं। उनका व्यक्तित्व मानवीय संवेदना और करुणा से भरा हुआ है। वह 400 बेवाओं और यतीम बच्चों की परवरिश करके अपने महान व्यक्तित्व की सार्थकता को दर्शा रहे हैं।अली बख्श विलायत बिस्मिल्लाह खां के चाचा थे। वह काशी के विश्वनाथ मन्दिर में शहनाई बजाया करते थे। शगुन के लिए शहनाई, स्वागत और ब्याह-बरात में शहनाई और फिर मन्दिरों में इसका चलन ही तो है, जो इस वाद्य को परम शुभ माना गया है। भारत के इस महान वाद्य को सीखा बिस्मिल्लाह खां ने अपने इन्हीं चाचा अली बख़्श से। यह चाचा निरन्तर समारोहों में जाया करते थे। विस्मिललाह खां भी उनके साथ होते थे और चलता रहता था प्रदर्शन का यह सिलसिला। तब उनकी 14 वर्ष की छोटी उम्र थी और वह शहनाई में माहिर हो गए थे। उनकी ख्याति चारों तरफ़ तेज़ी से फैलती गई और ऐसा आलम आया कि चारों तरफ़ उनकी मांग होने लगी।
मुसलमानों में शिया और सुन्नी होते हैं। बिस्मिल्लाह खां शिया मुसलमान है और हमेशा ईमान पर चलते हैं, जो एक मुसलमान की सच्ची पहचान है। संगीत को वह अपनी नमाज़ की तरह मानते हैं। यह इबादत उन्होंने कभी नहीं छोड़ी। उनकी सांस और आत्मा के साथ यह सिलसिला चलता रहा। वह सरस्वती देवी के भी उपासक थे। सरस्वती जो ज्ञान और विद्या की देवी है। डुमराव गांव का यह संगीत-ऋषि आज भी बनारस को मानता है अपना ठिकाना और सराय हारा में है उनका घर, जिसमें वह रहते थे।
देश के प्रथम स्वतन्त्रता दिवस 15 अगस्त, 1947 को उन्होंने प्रधानमन्त्री पं. जवाहरलाल नेहरू के सामने दिल्ली के लालकिले की प्राचीर पर अपनी शहनाई से आज़ादी की पहली धुन बजाई। यह धुन राग काफ़ी में थी और इसके उतार-चढ़ावों ने आकाशवाणी के माध्यम से जन-जन के मानस को अभिभूत कर दिया था बिना किसी शक के बिस्मिल्लाह खां शहनाई के महान उस्ताद हैं और उन्होंने शहनाई वादन को अपने सर्वोच्च स्तर पर पहुंचाया। उन्होंने अपनी कला के प्रदर्शन के लिए देश में ही नहीं, विदेशों के भी दौरे किए और दुनिया के करोड़ों लोगों को अपना प्रशंसक बना लिया।
बचपन से ही संगीत का कड़ा अभ्यास करने वाले उस्ताद आज भी अपनी इस वयोवृद्ध अवस्था में प्रतिदिन दो घंटे शहनाई का रियाज़ करते हैं। रियाज़ के लिए उन्होंने तीन स्थान नियत किए हैं, मज़ार शरीफ़, मन्दिर और गंगा का किनारा। इससे साफ जाहिर है कि वह संगीत के रियाज़ को भी भगवान में लीन हो जाने का माध्यम मानते हैं। इसमें भी वह उसी उत्कंठा और उतनी ही लगन से डूब जाते हैं, जिस तरह एक भक्त भगवान की भक्ति में डूबकर साधना में तल्लीन हो जाता है।ख़ां साहब मज़हब को अपने जीवन का महत्त्वपूर्ण अंग मानते हैं और दिन में आठ घंटे इबादत करते हैं, लेकिन धर्म के आधार पर नफ़रत से सख़्त नफ़रत करते हैं। उन्हें राजनीति से भी सख़्त नफ़रत है। चढ़ती उम्र के कारण उन्होंने अब सार्वजनिक कार्यक्रमों में जाना बन्द कर दिया है। पिछले दिनों केवल उस्ताद विलायत अली खां के साथ दूरदर्शन और मुम्बई में जैमिनी स्टूडियो में आयोजित एक कार्यक्रम में भाग लिया था। उनके पुत्र नैयर हुसैन, ज़ामिन हुसैन और मेहताब हुसैन भी अच्छे शहनाईवादक हैं, जब कि उनके एक पुत्र नाज़िम हुसैन तबलावादक हैं।
उन्हें ढेरों पुरस्कार और सम्मान प्राप्त हुए। सबसे पहले संगीत नाटक अकादमी का पुरस्कार मिला। उसके बाद पद्मश्री से सम्मानित किया गया। 1968 में भारत सरकार ने उन्हें फिर पद्मभूषण अलंकरण से नवाज़ा। शहनाई वादन के आज उनके अनेक कैसेट्स और रेकार्ड मिल रहे हैं| संगीत में उनके अविस्मरणीय योगदान को देखते हुए भारत सरकार ने उन्हें सन् 2001 में ‘भारतरत्न’ की उपाधि से सम्मानित किया। इस अवसर पर उन्होंने कहा कि “संगीत-प्रेमी अपने बच्चों को संगीत की शिक्षा दिलाएं और प्रतिदिन रियाज़ करवाकर अपनी उस सभ्यता और संगीत को जीवित रखें, जो पहले भी चोटी पर था और आज भी चोटी पर है।”
उस्ताद बिस्मिल्लाह खां संगीत की लोकधुनें बजाने में माहिर थे| इसमें ‘बजरी’, ‘झूला’ और ‘चैती’ जैसी कठिन और प्रतिष्ठित धुनों पर महारत हासिल करने के लिए उन्होंने कठोर तपस्या की। इसके अलावा क्लासिकल और मौसिकी में भी शहनाई को दुनिया में सम्मान दिलाया| जिस जमाने में लोग संगीतज्ञों को ज्यादा तरजीह नहीं देते थे। उस समय उस्ताद ने अपनी काबिलियत से शहनाई को संगीत के शिखर पर पहुंचाया। मात्र 14 साल की छोटी उम्र में इलाहाबाद (प्रयागराज) में संगीत परिषद में अपनी शहनाई से सबको मंत्रमुग्ध करने वाले बिस्मिल्ला खां साहब भारत में दिए जाने वाले लगभग सभी बड़े पुरस्कारों से नवाजे जा चुके हैं। इसके अलावा 1930 में ऑल इंडिया म्यूजिक कॉफ्रेंस में सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन का पुरस्कार भी मिला| वहीं मध्य प्रदेश सरकार ने अपने यहां के सर्वोच्च संगीत पुरस्कार ‘तानसेन’ की पदवी देकर सम्मानित किया था।
शहनाई के बादशाह बिस्मिल्लाह खां साहब दिल से भी राजा ही थे। वह अपनी दरियादिली के लिए भी जाने जाते थे। अपनी शहनाई की कमाई का सारा पैसा परिवार और जरूरतमंदों पर खर्च कर देते थे। अपने लिए उन्हें कोई चिंता नहीं रहती थी। इसके कारण उन्हें आर्थिक दिक्कतों का सामना भी करना पड़ा था| इसी कारण सरकार को आगे आकर उनकी मदद करनी पड़ी थी। वह अपनी एक ख्वाहिश के साथ दुनिया से अलविदा हो गए। उनकी बड़ी इच्छा थी कि एक बार वह इंडिया गेट पर शहनाई बजाएं, मगर वह पूरी न हो सकी। उनके सम्मान में उनके साथ उनकी शहनाई को भी ‘सुर्पुदे’ खाक कर दिया गया।